भाषा विज्ञान की कक्षाओं में विद्यार्थियों को सवाल पूछना और शंका करना नहीं सिखाया जाता। उन्हें तो शंकाओं से मुक्त कर आश्वसत किया जाता है। आश्वस्त करने का यह काम करता है शास्त्र। रामविलास शर्मा ने सबसे पहला काम यह किया कि इस शास्त्र को चुनौती दी।… बड़े नामों से आतंकित हुए बिना उन्होंने 19वीं सदी के भाषा वैज्ञानिकों और सुनीति कुमार चटर्जी की मान्यताओं का विरोध करते हुए कुछ बुनियादी सवाल पूछे और दृढ़ता से कहा कि भाषाओं का जन्म मनुष्य जाति के जन्म संबंधी धार्मिक सिद्धांतों के अनुसार नहीं होता।
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डॉ. रामविलास शर्मा का पहला लेख (1934)
परिमल की कविताओं से कहीं गिरी कविताओं को मैंने लोगों को बार-बार पढ़ते देखा है और परिमल को ऊटपटांग बताते सुना है, इससे जनता के गिरे टेस्ट का ही पता चलता है। उसका उत्तर कवि को गालियां देना नहीं, वरन स्वयं काव्य-मनन कर उसे समझने की शक्ति उत्पन्न करना है।
Continue Readingमार्क्सवादी आलोचना और इतिहासदृष्टि: संघर्ष और आत्मसंघर्ष
पिछली दो सदियों के साहित्य को लज्जास्पद बताना इतना बड़ा कुफ्र था कि इससे जो चीख-पुकार मची, उसमें इस घोषणापत्र ने अपने समय के साहित्य से जो वास्तविक मांग की थी, उस पर समुचित ध्यान न दिया जा सका। वह मांग कुछ इस तरह थी।
Continue Readingप्रगतिशील लेखक संघ के मंच से आरक्षण का विरोध
एक दलित लेखक ने जब अपनी बात कहते हुए यह वेदना व्यक्त की कि ‘ठीक है कि आरक्षण की सुविधा प्राप्त कर हममें से कई लोग अफसर भी बन गए हैं, लेकिन क्या मेरी पत्नी को ‘चमाइन’ कहना बंद कर दिया गया है?’ प्रत्युत्तर में वाराणसी के ही एक क्षत्रिय लेखक ने कहा कि ‘जब ठकुराइन कह सकते हैं तो चमाइन न कहें तो क्या कहें?’
Continue Readingकिस प्रलेस की बात कर रहे हैं आप
जो नामवर सिंह ‘साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन की ऐतिहासिक भूमिका’ लिखकर रामविलासजी की उक्त मान्यताओं का प्रतिवाद कर रहे थे, आज वही उन मान्यताओं को दोहरा रहे हैं। नामवरजी ही नहीं प्रगतिशील आंदोलन की चर्चा करने वाले अधिकांश विद्वान चाहे वह रेखा अवस्थी हों, कर्णसिंह चैहान हों या सहारा आयोजन में शामिल रवींद्र त्रिपाठी और विश्वनाथ त्रिपाठी हों, रामविलासजी के हवाले से ही प्रगतिशील आंदोलन को समझते-समझाते हैं।
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