पिछली दो सदियों के साहित्य को लज्जास्पद बताना इतना बड़ा कुफ्र था कि इससे जो चीख-पुकार मची, उसमें इस घोषणापत्र ने अपने समय के साहित्य से जो वास्तविक मांग की थी, उस पर समुचित ध्यान न दिया जा सका। वह मांग कुछ इस तरह थी।
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प्रगतिशील लेखक संघ के मंच से आरक्षण का विरोध
एक दलित लेखक ने जब अपनी बात कहते हुए यह वेदना व्यक्त की कि ‘ठीक है कि आरक्षण की सुविधा प्राप्त कर हममें से कई लोग अफसर भी बन गए हैं, लेकिन क्या मेरी पत्नी को ‘चमाइन’ कहना बंद कर दिया गया है?’ प्रत्युत्तर में वाराणसी के ही एक क्षत्रिय लेखक ने कहा कि ‘जब ठकुराइन कह सकते हैं तो चमाइन न कहें तो क्या कहें?’
Continue Readingकिस प्रलेस की बात कर रहे हैं आप
जो नामवर सिंह ‘साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन की ऐतिहासिक भूमिका’ लिखकर रामविलासजी की उक्त मान्यताओं का प्रतिवाद कर रहे थे, आज वही उन मान्यताओं को दोहरा रहे हैं। नामवरजी ही नहीं प्रगतिशील आंदोलन की चर्चा करने वाले अधिकांश विद्वान चाहे वह रेखा अवस्थी हों, कर्णसिंह चैहान हों या सहारा आयोजन में शामिल रवींद्र त्रिपाठी और विश्वनाथ त्रिपाठी हों, रामविलासजी के हवाले से ही प्रगतिशील आंदोलन को समझते-समझाते हैं।
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