एक दलित लेखक ने जब अपनी बात कहते हुए यह वेदना व्यक्त की कि ‘ठीक है कि आरक्षण की सुविधा प्राप्त कर हममें से कई लोग अफसर भी बन गए हैं, लेकिन क्या मेरी पत्नी को ‘चमाइन’ कहना बंद कर दिया गया है?’ प्रत्युत्तर में वाराणसी के ही एक क्षत्रिय लेखक ने कहा कि ‘जब ठकुराइन कह सकते हैं तो चमाइन न कहें तो क्या कहें?’
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2011 में प्रगतिशील लेखक संघ के 75 वर्ष पुरे हुए. इस अवसर पर बहुत कुछ लिखा गया, कुछ विवाद भी हुए. प्रगतिशील लेखक संघ की परंपरा और उसके प्रगतिशील पक्ष को ध्यान में रखते हुए मौजूदा स्थितयों पर प्रिंट मिडिया में लिखे कुछ लेख यहाँ मौजूद हैं,