प्रतिबन्ध सिर्फ उस समाज के लिए उपयोगी और उचित हो सकता है जिसमें कामकाजी लोग लड़कों या असभ्य जंगली आदमियों की तरह अशिक्षित होते हैं; अतएव जिन्हें भविष्यत में स्वाधीनता पाने के योग्य बनाने के लिए, हर बात में, नियमबद्ध करने की जरूरत रहती है।
Continue Readingआदिवासी जीवन संघर्ष और परिवर्तन की चुनौतियां
वैश्वीकरण के इस दौर में बाजार की मांग पर आदिवासियों की नुमाइश तक हो रही है। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के जारवा और आंजे समुदाय को चिड़ियाघर में बंद वन्य जंतुओं की तरह पर्यटन और विस्मय की ‘वस्तु’ बना दिया गया है- उनको केले और बिस्कुट देकर उनके साथ फोटो खिंचवाये जाते हैं। ‘विकास’ और बाजार का अद्भुत समन्वय है यह।
Continue Readingप्रगतिशील लेखक संघ के मंच से आरक्षण का विरोध
एक दलित लेखक ने जब अपनी बात कहते हुए यह वेदना व्यक्त की कि ‘ठीक है कि आरक्षण की सुविधा प्राप्त कर हममें से कई लोग अफसर भी बन गए हैं, लेकिन क्या मेरी पत्नी को ‘चमाइन’ कहना बंद कर दिया गया है?’ प्रत्युत्तर में वाराणसी के ही एक क्षत्रिय लेखक ने कहा कि ‘जब ठकुराइन कह सकते हैं तो चमाइन न कहें तो क्या कहें?’
Continue Readingदलित साहित्य: ‘प्रामाणिकता’ पर पुनर्विचार
लेकिन यह सवाल उठाने की बजाय दलित लेखकों- आलोचकों ने ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ का सवाल उठाया। इसका सब से बड़ा लाभ यह था कि यह बिना किसी लम्बी बहस के एक झटके में सारे सवर्णों को दलित साहित्य के लेखन के लिए अयोग्य सिद्ध कर देता था। जिसने व्यक्तिगत रूप से खुद दलित जीवन के अपमान और अत्याचार को नहीं अनुभूत किया है, जब उसे उस अनुभूति का पता नहीं तो वह किसी दलित नायक का दलित पात्र के अंतर्मन की अनुभूतियों को कैसे व्यक्त कर पायेगा?
Continue Readingतीन सौ रामायणें – ए.के.रामानुजन
तुम धरती पर लौटोगे तो राम नहीं मिलेंगे। राम का यह अवतार अपनी अवधि पूरी कर चुका है। जब भी राम के किसी अवतार की अवधि पूरी होने वाली होती है, उनकी अंगूठी गिर जाती है। मैं उन्हें उठा कर रख लेता हूं। अब तुम जा सकते हो।
हनुमान वापस लौट गये।
अभिव्यक्ति की आजादी और नाक का सवाल
अपूर्वानंद ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का सवाल मध्यवर्गीय दृष्टिकोण से उठा रहे हैं। उनकी ‘आजादी’ एक खास काट की अभिजात-मध्यवर्गीय आजादी है जो लेखकों-कलाकारों को प्राप्त होनी चाहिए। इरोम शर्मिला, सोनी शोरी से लेकर करोड़ों दलितों-आदिवासियों-स्त्रियों और गरीबों की आवाज जब सत्ता द्वारा अनसुनी कर दी जाती है, कुचल दी जाती है तो उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी पर कोई हमला होता नहीं दिखाई देता।
Continue Readingनारीवाद के मायने
नारीवाद स्त्रियों के लिये उसी तरह अनुकूल है जिस तरह माक्र्सवाद सर्वहाराओं के लिये लेकिन इसका अर्थ यह कभी नहीं निकालना चाहिए कि स्त्रियां स्वभावतः नारीवादी होती है! ‘नारीवाद सहजात दृष्टि न होकर अर्जित दृष्टि है’ और इसे अर्जित करने के लिए पितृसत्तात्मक विचारधारा से अलग वैकल्पिक दृष्टि विकसित करनी पड़ती है, स्वयं पितृसत्ता द्वारा (स्त्रियों/पुरुषों को) मिलने वाली सुरक्षा और सुविधाओं को त्यागना पड़ता है।
Continue Readingयथा स्थिति से टकराते हुए
मुक्तिकामी विमर्शों के अपने-अपने प्रयास महत्वपूर्ण हैं, लेकिन मुक्ति के प्रयासों में साझापन भी होना चाहिए। आंदोलनधर्मिता और रचनाशीलता के मौजूदा संबंधों को समझना तथा जाति और पितृसत्ता के मुद्दे पर युवा रचनाकारों की सोच को सामने लाना हमारा मकसद था।
Continue Readingगोदान में मृत्यु और उसका सामाजिक अर्थ
होरी का अपराध यह है कि इस गरीबी के बावजूद वह मरजाद के साथ मनुष्य की तरह जीने की इच्छा पालता है। अगर होरी में मानवीयता थोड़ी कम होती तो शायद वह बच जाता, लेकिन इसी मानवीयता से तो होरी का चरित्र परिभाषित होता है। होरी बने रहने की कीमत उसे अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है।
Continue Readingविचार बनाम तर्क
गाँधीवाद हो या मार्क्सवाद या फिर अम्बेडकरवाद इन तीनों विचारधाराओं के अनुयायियों ने उनके आदर्शों और विचारों की फ़जीहत ही की है । ये जो फ़जीहत हुई है इसमें पूंजीवादी व्यवस्था और उपभोक्तावाद की सबसे बड़ी भूमिका रही है । आज हर व्यक्ति अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और ज्यादा से ज्यादा भौतिक सुविधाओं को इकट्ठा करने में लगा हुआ है। पूंजीवाद और उपभोक्तावाद की सबसे बड़ी सफलता यही रही है कि इसने लोगों का ज़िन्दगी के प्रति नज़रिया बदल दिया है ।
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