‘पुरुष’ का विलोम ‘स्त्री’ – ऐसा पढ़ाने वाले बच्चों के मन में कैसा लिंगभेदी जहर भर रहे हैं। अपनी अज्ञानता में वे घरेलू कलह व हिंसा का बीजारोपण कर रहे हैं। ‘पुरुष’ व ‘स्त्री’ को प्रकृति ने विलोम नहीं पूरक बनाया है। पूरकता सहयोगी होती है, विलोमता संघर्षी।
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पुरुष वर्चस्व का पहला सबक
क्या होता अगर हव्वा ने जेनेसिस लिखी होती ! इंसानी सफर की पहली रात तब कैसी होती ! उसने किताब की शुरुआत ही यह बताते हुए की होती कि वह न तो किसी जानवर की हड्डी से पैदा हुई थी; न ही वह किसी सांप को जानती थी; उसने किसी को सेब भी नहीं दिए थे। ईश्वर ने उससे यह नहीं कह था कि बच्चा जनते समय उसे दर्द होगा और उसका पति उसपर हुकूमत करेगा। वह बताती कि यह सब तो सिर्फ़ झूठ और झूठ है जिसे आदम ने प्रेसवालों को बता ‘इतिहास’ और ‘सच’ का रूप दे दिया था।
Continue Readingबलात्कार – जर्मेन ग्रीयर
अगर शारीरिक हिंसा महिलाओं के लिये अत्यधिक भयावह नहीं होती, तो अधिकांश बलात्कार कभी होते ही नहीं। अगर आप किसी पुरुष का लिंग अपने शरीर में इसलिए प्रविष्ट होने देते हैं क्योंकि वह आपकी नाक काट देगा तो निश्चित तौर पर आप अपनी नाक का कटना कहीं अधिक बुरा मानते हैं; लेकिन मूर्खतापूर्ण कानून आपकी राय से इत्तेफाक नहीं रखता। आपकी नाक काटने की सजा बलात्कार की सजा से कम ही होगी, लेकिन तब आप पर यह संदेह नहीं किया जा सकेगा कि आप अपनी नाक काटे जाने पर सहमत थीं।
Continue Reading‘बलात्कार संस्कृति’ के विरुद्ध – कविता कृष्णन
महिलाओं की सुरक्षा का शब्द काफी पिटा हुआ शब्द है। इस सुरक्षा का मतलब हम सब जानते हैं… सुरक्षा का मतलब है – अपने दायरे में रहो। घर की चारदीवारी में रहो, एक खास तरह के कपड़े पहनो। इसका मतलब कि आप अपनी आजादी से मत रहिए तब आप सुरक्षित रहिएगा। ढेर सारे पितृसत्तात्मक नियम-कानूनों को महिलाओं की सुरक्षा बनाकर परोसा जाता है। हम इस परोसी हुई थाली को पटक रहे हैं – हमें यह नहीं चाहिए।
Continue Readingहम एक ‘रेप कल्चर’ में जी रहे हैं – कवितेन्द्र इन्दु
कहीं ऐसा तो नहीं कि दिल्ली की ‘जनता’ अपनी सुरक्षित हाइ-टेक सभ्यता के दिवास्वप्न में इस कदर डूबी रहती है कि उसे आस-पास उठने वाली चीखें सुनाई ही नहीं देतीं और जब उसकी नाक के ऐन नीचे ऐसा कुछ घटित होता है, जिससे इस दिवास्वप्न में बाधा पड़ती है तो वह बौखला उठती है! या फिर ऐसा है कि दिल्ली महिलाओं के प्रति बहुत संवेदनशील है और उसके खिलाफ रोज-ब-रोज होने वाले अपराधों से दिल्ली वालों के सब्र का बांध भर चुका है और इस विस्फोटक घटना ने उन्हें आन्दोलित करके सड़कों पर ला दिया है।
Continue Readingबिबिया – एक अन्तःपाठ
बिबिया पितृसत्तात्मक-समाज-व्यवस्था द्वारा दिए गए ‘स्पेस’ में ही अपने स्वाभिमान की लड़ाई लड़ती है। बिबिया का चरित्र एक तरफ ‘त्रिया चरित्र’ के कांसेप्ट पर चोट करता है तो दूसरी तरफ आधुनिक स्त्री विमर्श से भी जुड़ता है। त्रिया चरित्र का कांसेप्ट व्यभिचारी पुरुष को भी यह सर्वसुलभ अधिकार देता है कि वह किसी भी स्त्री के चरित्र पर सवाल खड़ा कर सकता है और स्त्री को सामाजिक-बहिष्कार का दंश दे सकता है।
Continue Readingपर्सनल इज पॉलिटिकल – कैरोल हैनिच
मुझे बहुत ठेस पहुँचती है जब कोई कहे कि मुझे या किसी और स्त्री को मनोचिकित्सा की जरूरत है। क्योंकि स्त्रियाँ अपनी दयनीय स्थिति के लिए स्वयं जिम्मेदार नहीं है, उन्हें इस स्थिति तक पहुँचाया गया है। हमें जरूरत है इस वस्तुस्थिति को बदलने की, न कि अपने उपचार की या स्थिति के अनुसार खुद को ढालने की। उपचार का अर्थ तो अपने खोटे निजी विकल्प के अनुसार स्वयं को ढाल लेने से है।
Continue Readingमृणाल विमर्श के बहाने
जो व्यवस्था अपने पितृसत्तात्मक आग्रहों के बावजूद सभी पुरुषों तक को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार दे पाने में अक्षम है, उससे यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह सभी स्त्रियों को यह सब उपलब्ध कराएगी! स्त्रियों की छंटनी रोकना, उन्हें प्रसूति सम्बंधी अवकाश दिलाना इत्यादि एक छोटे वर्ग को ही राहत पहुंचाएगा, क्योंकि स्त्री श्रम का काफी बड़ा हिस्सा तो असंगठित क्षेत्र में लगा हुआ है।
Continue Readingविवाह, वैश्यावृत्ति और प्रेम – एंगेल्स
यदि विवाहित लोगों का कर्तव्य है कि वे एक दूसरे से प्रेम करें, तो क्या प्रेमियों का यह कर्तव्य नहीं था कि वे केवल एक दूसरे से ही विवाह करें और किसी दूसरे से नहीं? और क्या इन प्रेमियों का एक दूसरे से विवाह करने का अधिकार माता-पिता, सगे-सम्बधियों और विवाह तय कराने वाले अन्य परम्परागत दलालों के अधिकार से ऊंचा नहीं था?
Continue Readingसेक्सुअल परिवर्तन की घड़ी – अभय कुमार दुबे
वेश्या और सेक्स-वर्कर बनाने के सवाल पर नारीवादियों में गहरी द्वैधवृत्ति पायी जाती है। वेश्या को मजदूर की हैसियत देने के ख्याल से ही उनका प्रच्छन्न ‘मार्क्सवादी मर्म’ आहत हो जाता है। यह इस बात का सबूत है कि भारतीय नारीवाद पर मार्क्सवाद की छायाएँ कितनी गहरी और स्थायी किस्म की हैं।
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