सार्त्र की उपनिवेशवाद-विरोधी भूमिका और मार्क्सवाद के प्रति उनकी उन्मुखता ने तीसरी दुनिया के बौद्धिकों के लिए अलग आकर्षण पैदा किया था। कहीं न कहीं भारत जैसे नव-स्वतंत्र देशों में आजादी के आस-पास होश सम्भालने वाली, खासकर शहरी, मध्यम-वर्ग की पीढ़ी में अनेक ऐतिहासिक कारणों से एक किस्म की रिक्तता, उखड़ापन और निरर्थकता का बोध भी वह जमीन थी जिसमें अस्तित्ववाद का दर्शन उस पीढ़ी के आत्मसंघर्ष में मदद का आश्वासन सा दे रहा था, भले ही अनैतिहासिक आधार पर।
Continue ReadingCategory: Review Article
आलोचनात्मक सृजन : ‘सृजन का आलोक’
दरअसल ‘भारतीय मुस्लिम साहित्य’ कहने से एक भ्रम का निर्माण होता है। क्योंकि विशेषतः भारत के इतिहास में मुस्लिम समाज एक साथ शासक भी रहा है और शोषित भी। यह दरार ऐतिहासिक प्रक्रिया में निर्मित हुई थी और अभी तक बनी है। जो आर्थिक रूप से सबल थे वह सत्ता के गलियारों में मुस्लिम नेता के रूप में बने रहने में कामयाब तो हुए किन्तु वह किसी भी प्रकार से आम भारतीय मुस्लिम समुदाय का नेतृत्व न कर रहे हैं और न ही कभी किया है।
Continue Reading