आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी प्रगतिवादियों के विषय में कहते हैं कि इनके सिद्धान्त और उद्देश्य बहुत सुन्दर हैं, लेकिन ये लोग कम्युनिस्ट-पार्टी के साथ जुड़े हुए हैं, यही जरा खटकता है। अगर ये लोग दल द्वारा परिचालित होना छोड़ दें तो सब ठीक हो जाय। निस्सन्देह अपने इस आग्रह में द्विवेदी जी व्यायापक लोक-मंगल की भावना और उदार मानवतावाद से प्रेरित हैं, परन्तु हम विनम्रतापूर्वक निवेदन करना चाहते हैं कि वे असम्भव की मांग कर रहे हैं।….
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क्या साहित्य प्रोपेगैंडा है ? – शिवदान सिंह चौहान
हमारे ये कतिपय आलोचक चन्दबरदायी या भूषण की कविता में अथवा अपनी रचनाओं में व्यक्त उद्गारों में किसी वर्ग का प्रोपैगैंडा नहीं देखते। यदि कोई राजकुमारों और राजकुमारियों, कोमलांगियों और सूटबूटधारी पुरुषों के विषय में लिखता है तो वह उनकी दृष्टि में प्रोपैगैंडा नहीं है किन्तु यदि कोई किसान मजदूर या मुफलिसों की बस्तियों के बारे में लिखता है तो वह प्रोपैगैंडा है।
Continue Readingप्रेमचंद का ऐतिहासिक भाषण – साहित्य का उद्देश्य
हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी। अभी तक यह कसौटी अमीरी और विलासिता के ढंग की थी। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाश हो- जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं; क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।
Continue Readingप्रगतिशील लेखक संघ के मंच से आरक्षण का विरोध
एक दलित लेखक ने जब अपनी बात कहते हुए यह वेदना व्यक्त की कि ‘ठीक है कि आरक्षण की सुविधा प्राप्त कर हममें से कई लोग अफसर भी बन गए हैं, लेकिन क्या मेरी पत्नी को ‘चमाइन’ कहना बंद कर दिया गया है?’ प्रत्युत्तर में वाराणसी के ही एक क्षत्रिय लेखक ने कहा कि ‘जब ठकुराइन कह सकते हैं तो चमाइन न कहें तो क्या कहें?’
Continue Readingकिस प्रलेस की बात कर रहे हैं आप
जो नामवर सिंह ‘साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन की ऐतिहासिक भूमिका’ लिखकर रामविलासजी की उक्त मान्यताओं का प्रतिवाद कर रहे थे, आज वही उन मान्यताओं को दोहरा रहे हैं। नामवरजी ही नहीं प्रगतिशील आंदोलन की चर्चा करने वाले अधिकांश विद्वान चाहे वह रेखा अवस्थी हों, कर्णसिंह चैहान हों या सहारा आयोजन में शामिल रवींद्र त्रिपाठी और विश्वनाथ त्रिपाठी हों, रामविलासजी के हवाले से ही प्रगतिशील आंदोलन को समझते-समझाते हैं।
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