भाषा विज्ञान की कक्षाओं में विद्यार्थियों को सवाल पूछना और शंका करना नहीं सिखाया जाता। उन्हें तो शंकाओं से मुक्त कर आश्वसत किया जाता है। आश्वस्त करने का यह काम करता है शास्त्र। रामविलास शर्मा ने सबसे पहला काम यह किया कि इस शास्त्र को चुनौती दी।… बड़े नामों से आतंकित हुए बिना उन्होंने 19वीं सदी के भाषा वैज्ञानिकों और सुनीति कुमार चटर्जी की मान्यताओं का विरोध करते हुए कुछ बुनियादी सवाल पूछे और दृढ़ता से कहा कि भाषाओं का जन्म मनुष्य जाति के जन्म संबंधी धार्मिक सिद्धांतों के अनुसार नहीं होता।
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हॉब्सबॉम हमारे लिए
पूंजीवादी विश्वव्यवस्था पर उनका लेखन मार्क्सवादी विचारों की बेहतरीन अभिव्यक्ति है, पूर्व-पूंजीवाद से पूंजीवादी समाज में मनुष्यता के दर्द भरे संक्रमण का बेहतरीन आख्यान। उनका लेखन सिद्धांत के साथ व्यवहार का ऐसा सधा हुआ तालमेल है जिसमें इतिहास की बात करते हुए आख्यान भी साथ-साथ तैयार होता चलता है। इतिहास का विषय भले ही अतीत हो लेकिन उसकी वास्तविक चिंता तो हमारे वर्तमान से जुड़ी है और हॉब्सबॉम को पढ़ते हुए आप लगातार अपने वर्तमान को समझते चलते हैं।
Continue Readingसुरेन्द्र चौधरी का आलोचना कर्म
नई कहानी की व्याख्या करते हुए सुरेन्द्र चौधरी नामवर सिंह की आलोचना दृष्टि के अंतर्विरोधों को भी रेखांकित करते हैं .नामवर सिंह ने ‘परिंदे’ कहानी से ‘नई कहानी’ की शुरुआत मानी थी और उसे ‘कालातीत कला दृष्टि’ से संपन्न बताया था .
Continue Readingभारतीय राष्ट्र और आदिवासी – वीर भारत तलवार
राष्ट्र की यह कल्पना किसी फौजी जमात जैसी है। जैसे फौज की टुकड़ी होती है, सब एक ड्रेस में, एक जैसी टोपी, एक साथ पैर उठाते हैं, एक साथ पैर पटकते हैं, एक साथ मुड़ते हैं- राष्ट्र ऐसा होना चाहिए। ये पूंजीवादी राष्ट्रवाद कोई बहुत अच्छी चीज नहीं है। मैं नहीं समझता की हिंदुस्तान की इतनी सारी विविधताओं, इतने सारे समुदायों, इतने सारे धर्मों को कुचलकर एक फौजी जमात जैसा राष्ट्र बना लेना कोई अच्छी बात होगी।
Continue Readingविवाह, वैश्यावृत्ति और प्रेम – एंगेल्स
यदि विवाहित लोगों का कर्तव्य है कि वे एक दूसरे से प्रेम करें, तो क्या प्रेमियों का यह कर्तव्य नहीं था कि वे केवल एक दूसरे से ही विवाह करें और किसी दूसरे से नहीं? और क्या इन प्रेमियों का एक दूसरे से विवाह करने का अधिकार माता-पिता, सगे-सम्बधियों और विवाह तय कराने वाले अन्य परम्परागत दलालों के अधिकार से ऊंचा नहीं था?
Continue Readingसेक्सुअल परिवर्तन की घड़ी – अभय कुमार दुबे
वेश्या और सेक्स-वर्कर बनाने के सवाल पर नारीवादियों में गहरी द्वैधवृत्ति पायी जाती है। वेश्या को मजदूर की हैसियत देने के ख्याल से ही उनका प्रच्छन्न ‘मार्क्सवादी मर्म’ आहत हो जाता है। यह इस बात का सबूत है कि भारतीय नारीवाद पर मार्क्सवाद की छायाएँ कितनी गहरी और स्थायी किस्म की हैं।
Continue Readingडॉ. रामविलास शर्मा का पहला लेख (1934)
परिमल की कविताओं से कहीं गिरी कविताओं को मैंने लोगों को बार-बार पढ़ते देखा है और परिमल को ऊटपटांग बताते सुना है, इससे जनता के गिरे टेस्ट का ही पता चलता है। उसका उत्तर कवि को गालियां देना नहीं, वरन स्वयं काव्य-मनन कर उसे समझने की शक्ति उत्पन्न करना है।
Continue Readingमार्क्सवादी आलोचना और इतिहासदृष्टि: संघर्ष और आत्मसंघर्ष
पिछली दो सदियों के साहित्य को लज्जास्पद बताना इतना बड़ा कुफ्र था कि इससे जो चीख-पुकार मची, उसमें इस घोषणापत्र ने अपने समय के साहित्य से जो वास्तविक मांग की थी, उस पर समुचित ध्यान न दिया जा सका। वह मांग कुछ इस तरह थी।
Continue Readingप्रगतिशील लेखक संघ के मंच से आरक्षण का विरोध
एक दलित लेखक ने जब अपनी बात कहते हुए यह वेदना व्यक्त की कि ‘ठीक है कि आरक्षण की सुविधा प्राप्त कर हममें से कई लोग अफसर भी बन गए हैं, लेकिन क्या मेरी पत्नी को ‘चमाइन’ कहना बंद कर दिया गया है?’ प्रत्युत्तर में वाराणसी के ही एक क्षत्रिय लेखक ने कहा कि ‘जब ठकुराइन कह सकते हैं तो चमाइन न कहें तो क्या कहें?’
Continue Readingअभिव्यक्ति की आजादी और नाक का सवाल
अपूर्वानंद ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का सवाल मध्यवर्गीय दृष्टिकोण से उठा रहे हैं। उनकी ‘आजादी’ एक खास काट की अभिजात-मध्यवर्गीय आजादी है जो लेखकों-कलाकारों को प्राप्त होनी चाहिए। इरोम शर्मिला, सोनी शोरी से लेकर करोड़ों दलितों-आदिवासियों-स्त्रियों और गरीबों की आवाज जब सत्ता द्वारा अनसुनी कर दी जाती है, कुचल दी जाती है तो उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी पर कोई हमला होता नहीं दिखाई देता।
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