आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी प्रगतिवादियों के विषय में कहते हैं कि इनके सिद्धान्त और उद्देश्य बहुत सुन्दर हैं, लेकिन ये लोग कम्युनिस्ट-पार्टी के साथ जुड़े हुए हैं, यही जरा खटकता है। अगर ये लोग दल द्वारा परिचालित होना छोड़ दें तो सब ठीक हो जाय। निस्सन्देह अपने इस आग्रह में द्विवेदी जी व्यायापक लोक-मंगल की भावना और उदार मानवतावाद से प्रेरित हैं, परन्तु हम विनम्रतापूर्वक निवेदन करना चाहते हैं कि वे असम्भव की मांग कर रहे हैं।….
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सुखदेव को भगतसिंह का पत्र
उनका तर्क था कि मेरी यह मृत्यु तो आत्महत्या के समान होगी, परन्तु मैंने उनको उत्तर दिया था कि मेरे जैसे विश्वास और विचारोंवाला व्यक्ति व्यर्थ में ही मरना कदापि सहन नहीं कर सकता। हम तो अपने जीवन का अधिक से अधिक मूल्य प्राप्त करना चाहते हैं। हम मानवता की अधिक से अधिक संभव सेवा करना चाहते हैं।
Continue Readingक्या साहित्य प्रोपेगैंडा है ? – शिवदान सिंह चौहान
हमारे ये कतिपय आलोचक चन्दबरदायी या भूषण की कविता में अथवा अपनी रचनाओं में व्यक्त उद्गारों में किसी वर्ग का प्रोपैगैंडा नहीं देखते। यदि कोई राजकुमारों और राजकुमारियों, कोमलांगियों और सूटबूटधारी पुरुषों के विषय में लिखता है तो वह उनकी दृष्टि में प्रोपैगैंडा नहीं है किन्तु यदि कोई किसान मजदूर या मुफलिसों की बस्तियों के बारे में लिखता है तो वह प्रोपैगैंडा है।
Continue Readingरुसी क्रांति का दर्पण : लियो तॉलस्तॉय – लेनिन
एक तरफ – सामाजिक झूठों और ढोंगों का अत्यंत मजबूत, सीधा और सच्चा विरोध है। दूसरी तरफ तॉलस्तॉयवादी अर्थात निष्प्राण, पागलपन की सीमा तक पहुंचा हुआ, गरीबी के नारे लगाने वाला रूसी बुद्धिजीवी है जो कि आम लोगों के सामने अपनी छाती पीट-पीट कर कहता है ‘‘मैं बुरा हूं, मैं गंदा हूं, परंतु मैं नैतिक आत्मशुद्धि के लिये यत्नशील हूं; अब मैं गोश्त नहीं खाता, अब मैं चावल के कटलेट ही खाकर रह जाता हूं।’’
Continue Readingबुद्धिजीवियों का निर्माण – अंतोनियो ग्राम्शी
कहा जा सकता है कि सभी मनुष्य बुद्धिजीवी होते हैं, हालांकि सभी समाज में बुद्धिजीवी की भूमिका नहीं निभाते। जब हम बुद्धिजीवियों और गैर-बुद्धिजीवियों के बीच फर्क करते हैं तो असल में हम बुद्धिजीवियों की पेशेवर श्रेणी की प्राथमिक सामाजिक भूमिका को चिन्हित कर रहे होते हैं, यानी हमारा ध्यान इस बात पर होता है कि उनकी विशेष पेशेवर गतिविधि की दिशा किस ओर है, बौद्धिक व्याख्या की ओर या मांसपेशीय गतिविधियों की ओर।
Continue Readingसाहित्य और प्रचार – श्रीपाद अमृत डांगे
वर्गबद्ध साहित्य के समाज में आज तक जो-जो ख्यातिलब्ध कलाकृतियाँ हुई हैं, वह सारी प्रचारकीय ही थीं । श्रेष्ठ कला प्रचारकीय होती ही है और बेहतर प्रचार कलात्मक बन जाता है । श्रेष्ठ कला का विषय मनुष्य होने के कारण और मनुष्य का जीवन व भावनाएँ-संवेदनाएँ वर्गबद्ध समाज में वर्गीय गुणों से घिरे होने के कारण कला में वर्गीय रूप आ ही जाता है ।
Continue Readingसुरेन्द्र चौधरी : ऐतिहासिक प्रक्रिया से संगति की खोज – प्रणय कृष्ण
सार्त्र की उपनिवेशवाद-विरोधी भूमिका और मार्क्सवाद के प्रति उनकी उन्मुखता ने तीसरी दुनिया के बौद्धिकों के लिए अलग आकर्षण पैदा किया था। कहीं न कहीं भारत जैसे नव-स्वतंत्र देशों में आजादी के आस-पास होश सम्भालने वाली, खासकर शहरी, मध्यम-वर्ग की पीढ़ी में अनेक ऐतिहासिक कारणों से एक किस्म की रिक्तता, उखड़ापन और निरर्थकता का बोध भी वह जमीन थी जिसमें अस्तित्ववाद का दर्शन उस पीढ़ी के आत्मसंघर्ष में मदद का आश्वासन सा दे रहा था, भले ही अनैतिहासिक आधार पर।
Continue Readingरामविलास शर्मा और यशपाल – मधुरेश
यशपाल संबंधी अपने सारे मूल्यांकन में डॉ. रामविलास शर्मा एक ओर यदि घोर नैतिकतावादी आग्रहों के शिकार हैं, तो दूसरी ओर कट्टर और सेक्टेरियन दृष्टिकोण के। उनके नैतिकतावादी आग्रहों का ही परिणाम यह होता है कि साहित्य में वह स्त्री-पुरुष संबंधों के अंकन को ही एतराज-तलब समझने लगते हैं और हिन्दी के कथाकारों पर शरतबाबू के प्रभाव को लेकर बेहद दुखी और आतंकित दिखाई देते हैं। वह एक आलोचक से कहीं ज्यादा एक दरोगा के फरायज अंजाम देने के फिक्रमंद दिखाई देते हैं।
Continue Readingपूंजीवाद एक प्रेतकथा – अरुंधती रॉय
लोगों के पास पीने का साफ पानी, या शौचालय, या खाना, या पैसा नहीं है मगर उनके पास चुनाव कार्ड या यूआइडी नंबर होंगे। क्या यह संयोग है कि इनफोसिस के पूर्व सीईओ नंदन नीलकेणी द्वारा चलाया जा रहा यूआइडी प्रोजेक्ट, जिसका प्रकट उद्देश्य ‘गरीबों को सेवाएं उपलब्ध करवाना’ है, आइटी उद्योग में बहुत ज्यादा पैसा लगाएगा जो आजकल कुछ परेशानी में है?
Continue Readingमध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन का एक पहलू – मुक्तिबोध
मेरे मन में बार-बार यह प्रश्न उठता है कि कबीर और निर्गुण पन्थ के अन्य कवि तथा दक्षिण के कुछ महाराष्ट्रीय सन्त तुलसीदास जी की अपेक्षा अधिक आधुनिक क्यों लगते हैं? क्या कारण है कि हिन्दी-क्षेत्र में जो सबसे अधिक धार्मिक रूप से कट्टर वर्ग है, उनमें भी तुलसीदासजी इतने लोकप्रिय हैं कि उनकी भावनाओं और वैचारिक अस्त्रों द्वारा, वह वर्ग आज भी आधुनिक दृष्टि और भावनाओं से संघर्ष करता रहता है?
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