स्त्री-विरोधी पितृसत्तात्मक सोच वाली सांस्कृतिक अस्मिता सबसे पहले स्त्री को ही सम्मान के प्रतीक के रूप में रखती है। … प्रतिशोध की स्याही में डूबी लेखनी साबित कर दिया करती है कि ‘उनकी’ स्त्रियां बदचलन, व्यभिचारिणी और पर-पुरूषगामी हैं। और, वह ‘परपुरूष’ कोई दूसरा नहीं, हम ही है। शत्रु पक्ष के पुरुष नामर्द हैं, नपुंसक हैं। हममें अपार पुंस है, अपरिमित वीर्य है। परिणामतः शत्रु पक्ष की सन्तानें जारज हैं हमारा ही खून है जो उनकी रगों में दौड़ा करता है।
Continue ReadingCategory: Hindi Sahitya
बिबिया – एक अन्तःपाठ
बिबिया पितृसत्तात्मक-समाज-व्यवस्था द्वारा दिए गए ‘स्पेस’ में ही अपने स्वाभिमान की लड़ाई लड़ती है। बिबिया का चरित्र एक तरफ ‘त्रिया चरित्र’ के कांसेप्ट पर चोट करता है तो दूसरी तरफ आधुनिक स्त्री विमर्श से भी जुड़ता है। त्रिया चरित्र का कांसेप्ट व्यभिचारी पुरुष को भी यह सर्वसुलभ अधिकार देता है कि वह किसी भी स्त्री के चरित्र पर सवाल खड़ा कर सकता है और स्त्री को सामाजिक-बहिष्कार का दंश दे सकता है।
Continue Readingरामविलास शर्मा और यशपाल – मधुरेश
यशपाल संबंधी अपने सारे मूल्यांकन में डॉ. रामविलास शर्मा एक ओर यदि घोर नैतिकतावादी आग्रहों के शिकार हैं, तो दूसरी ओर कट्टर और सेक्टेरियन दृष्टिकोण के। उनके नैतिकतावादी आग्रहों का ही परिणाम यह होता है कि साहित्य में वह स्त्री-पुरुष संबंधों के अंकन को ही एतराज-तलब समझने लगते हैं और हिन्दी के कथाकारों पर शरतबाबू के प्रभाव को लेकर बेहद दुखी और आतंकित दिखाई देते हैं। वह एक आलोचक से कहीं ज्यादा एक दरोगा के फरायज अंजाम देने के फिक्रमंद दिखाई देते हैं।
Continue Readingमध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन का एक पहलू – मुक्तिबोध
मेरे मन में बार-बार यह प्रश्न उठता है कि कबीर और निर्गुण पन्थ के अन्य कवि तथा दक्षिण के कुछ महाराष्ट्रीय सन्त तुलसीदास जी की अपेक्षा अधिक आधुनिक क्यों लगते हैं? क्या कारण है कि हिन्दी-क्षेत्र में जो सबसे अधिक धार्मिक रूप से कट्टर वर्ग है, उनमें भी तुलसीदासजी इतने लोकप्रिय हैं कि उनकी भावनाओं और वैचारिक अस्त्रों द्वारा, वह वर्ग आज भी आधुनिक दृष्टि और भावनाओं से संघर्ष करता रहता है?
Continue Readingकफन के दलित पाठ की उलझनें
बुधिया समेत सभी दलित स्त्रियों की उपेक्षा करने एवं शुचिता को स्त्री के जीवन से भी अधिक मूल्यवान मानने वाले पितृसत्तात्मक विमर्श को अधिक से अधिक ‘दलित पुरुष विमर्श’ कहा जा सकता है, जो सवर्ण पुरुष से मुक्ति की बात तो करता है, लेकिन ‘अपनी स्त्रियों’ पर वर्चस्व बनाए रखना चाहता है।
Continue Readingमैला आंचल – नित्यानंद तिवारी
होरी और बावनदास के पास अपनी आदमियत के अलावा कोई और ताकत नहीं है। उनकी इस आदमियत की सर्वाधिक गहरी छाप उनके जीवन में कम, उनके मरने में अधिक है, क्योंकि जीने के लिये उनके पास कोई रास्ता नहीं है। उनका मरना अच्छा नहीं है, लेकिन अनिवार्य है। उनकी आदमियत में एक सार्वभौम योग्यता है, साथ ऐतिहासिक अयोग्यता भी।
Continue Readingभारतेन्दु का बलिया व्याख्यान
जो बात हिन्दुओं को नहीं मयस्सर है वह धर्म के प्रभाव से मुसल्मानों को सहज प्राप्त है। उन में जाति नहीं, खाने पीने में चौका चूल्हा नहीं, विलायत जाने में रोक टोक नहीं। फिर भी बड़े ही सोच की बात है कि मुसल्मानों ने अभी तक अपनी दशा कुछ नहीं सुधारी। अभी तक बहुतों को यही ज्ञात है कि दिल्ली लखनऊ की बादशाहत कायम है। यारों वे दिन गए।
Continue Readingप्रेमचंद का ऐतिहासिक भाषण – साहित्य का उद्देश्य
हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी। अभी तक यह कसौटी अमीरी और विलासिता के ढंग की थी। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाश हो- जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं; क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।
Continue Readingदो दशकों की गवाही
यह हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील परंपरा की बहुआयामिता कहिए, या प्रगतिशील आंदोलन की व्यापकता कि हिन्दी साहित्य में आधिकारिक रूप से कोई दक्षिणपंथ नहीं मौजूद है, ले-देके इन प्रवृत्तियों का जो पोषक समूह मौजूद है, वह कलावादियों के रूप में मौजूद रहा है। ऐसी स्थिति में (कम से कम हिन्दुस्तान में तो जरूर) लिबास बदलने वाले ‘उत्तर’ मार्क्सवादियों के लिए पूँजीपति-बुर्जुआ वर्ग की गोद में बैठने के सिवा कोई और विकल्प शेष नहीं था।
Continue Readingदलित साहित्य 2011
अम्बेडकरवाद को दलित विमर्श का वैचारिक आधार बताते हुए उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा है कि अम्बेडकर का बौद्ध धर्म स्वीकार करना कोई भूल नहीं थी, बल्कि दलितों को सत्ता में भागीदारी दिलाने के लिये सुविचारित ढंग से उठाया गया एक राजनैतिक कदम था। उनका मानना है कि दलित लेखकों के बीच जाति के सवाल पर दो धड़े हैं, एक वे ‘जो जातिवाद का विघटन चाहते हैं, दूसरे वे जो जातिवाद का प्रतिष्ठापन चाहते हैं।’
Continue Reading