दलित साहित्य ने यथार्थ की हमारी समझ को निश्चय ही विस्तृत किया है, लेकिन दलित लेखकों आलोचकों ने यथार्थवाद की एक बेहद संकुचित धारणा निर्मित की है, जिसके अनुसार केवल जाति और जातिगत शोषण ही यथार्थ है इसके अलावा बाकी सब ‘ब्राह्मणवाद’ है। यथार्थ की इस संकुचित धारणा के चलते दलित साहित्य एक तरह के सपाटपन और विषयगत दुहराव का शिकार हो रहा है।
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दलित साहित्य-विमर्श में स्त्री – बजरंग बिहारी तिवारी
स्त्री-विरोधी पितृसत्तात्मक सोच वाली सांस्कृतिक अस्मिता सबसे पहले स्त्री को ही सम्मान के प्रतीक के रूप में रखती है। … प्रतिशोध की स्याही में डूबी लेखनी साबित कर दिया करती है कि ‘उनकी’ स्त्रियां बदचलन, व्यभिचारिणी और पर-पुरूषगामी हैं। और, वह ‘परपुरूष’ कोई दूसरा नहीं, हम ही है। शत्रु पक्ष के पुरुष नामर्द हैं, नपुंसक हैं। हममें अपार पुंस है, अपरिमित वीर्य है। परिणामतः शत्रु पक्ष की सन्तानें जारज हैं हमारा ही खून है जो उनकी रगों में दौड़ा करता है।
Continue Readingपूंजीवाद एक प्रेतकथा – अरुंधती रॉय
लोगों के पास पीने का साफ पानी, या शौचालय, या खाना, या पैसा नहीं है मगर उनके पास चुनाव कार्ड या यूआइडी नंबर होंगे। क्या यह संयोग है कि इनफोसिस के पूर्व सीईओ नंदन नीलकेणी द्वारा चलाया जा रहा यूआइडी प्रोजेक्ट, जिसका प्रकट उद्देश्य ‘गरीबों को सेवाएं उपलब्ध करवाना’ है, आइटी उद्योग में बहुत ज्यादा पैसा लगाएगा जो आजकल कुछ परेशानी में है?
Continue Readingकफन के दलित पाठ की उलझनें
बुधिया समेत सभी दलित स्त्रियों की उपेक्षा करने एवं शुचिता को स्त्री के जीवन से भी अधिक मूल्यवान मानने वाले पितृसत्तात्मक विमर्श को अधिक से अधिक ‘दलित पुरुष विमर्श’ कहा जा सकता है, जो सवर्ण पुरुष से मुक्ति की बात तो करता है, लेकिन ‘अपनी स्त्रियों’ पर वर्चस्व बनाए रखना चाहता है।
Continue Readingदलित साहित्य: ‘प्रामाणिकता’ पर पुनर्विचार
लेकिन यह सवाल उठाने की बजाय दलित लेखकों- आलोचकों ने ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ का सवाल उठाया। इसका सब से बड़ा लाभ यह था कि यह बिना किसी लम्बी बहस के एक झटके में सारे सवर्णों को दलित साहित्य के लेखन के लिए अयोग्य सिद्ध कर देता था। जिसने व्यक्तिगत रूप से खुद दलित जीवन के अपमान और अत्याचार को नहीं अनुभूत किया है, जब उसे उस अनुभूति का पता नहीं तो वह किसी दलित नायक का दलित पात्र के अंतर्मन की अनुभूतियों को कैसे व्यक्त कर पायेगा?
Continue Readingविचार बनाम तर्क
गाँधीवाद हो या मार्क्सवाद या फिर अम्बेडकरवाद इन तीनों विचारधाराओं के अनुयायियों ने उनके आदर्शों और विचारों की फ़जीहत ही की है । ये जो फ़जीहत हुई है इसमें पूंजीवादी व्यवस्था और उपभोक्तावाद की सबसे बड़ी भूमिका रही है । आज हर व्यक्ति अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और ज्यादा से ज्यादा भौतिक सुविधाओं को इकट्ठा करने में लगा हुआ है। पूंजीवाद और उपभोक्तावाद की सबसे बड़ी सफलता यही रही है कि इसने लोगों का ज़िन्दगी के प्रति नज़रिया बदल दिया है ।
Continue Readingफुसफुसाहट में साजिश
संपादक मंडल को दलितों की समस्याएं अगर जड़ से मिटी दिखाई दे रही हैं तो गोहाना से लेकर खैरलांजी होते हुए मिर्चपुर तक फैली घटनाएं किस समाज से संबंधित हैं? दलितों के समक्ष अगर एकमात्र विकल्प धर्मवीर का विचार-दर्शन है तो आम्बेडकर के चिंतन पर अब उसकी क्या राय है? संपादक-मंडल दलितों के चेहरे पर ढाई हजार साल में पहली बार मुस्कराहट देख रहा है। इस चमत्कार को जारवादी नशे का परिणाम माना जाए या कुछ और?
Continue Readingदलित साहित्य 2011
अम्बेडकरवाद को दलित विमर्श का वैचारिक आधार बताते हुए उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा है कि अम्बेडकर का बौद्ध धर्म स्वीकार करना कोई भूल नहीं थी, बल्कि दलितों को सत्ता में भागीदारी दिलाने के लिये सुविचारित ढंग से उठाया गया एक राजनैतिक कदम था। उनका मानना है कि दलित लेखकों के बीच जाति के सवाल पर दो धड़े हैं, एक वे ‘जो जातिवाद का विघटन चाहते हैं, दूसरे वे जो जातिवाद का प्रतिष्ठापन चाहते हैं।’
Continue Readingदलित साहित्य 2010
दलित प्रश्न के संदर्भ में वर्ष 2010 में यह एक नई बात देखने को मिली है कि विमर्शपरक लेखन की ओर लेखकों का झुकाव बढ़ा है, जबकि सर्जनात्मक कृतियों की संख्या कम हुई है। हर बार की तरह उपन्यास विधा उपेक्षित ही रही है, लेकिन कहानियों का अभाव नहीं रहा है। रजतरानी मीनू द्वारा संपादित कहानी संग्रह हाशिये से बाहर अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली से प्रकाशित हुआ।
Continue Readingदलित साहित्य 2009
हिंदी में मुख्यधारा का मिथक टूट चुका है, अब इसमें स्त्री विमर्श और दलित विमर्श जैसी मुख्य धाराएं हैं। दलित साहित्य ने इसमें पिछले वर्षो में अपनी इतनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराई है कि अब तथाकथित मुख्यधारा भी दलित विमर्श के संदर्भ में परिभाषित होने लगी है, अब उसे गैर-दलित साहित्य कहा जाने लगा है। वर्ष 2009 में भी दलित विमर्श से संबंधित कई महत्वपूर्ण कृतियां प्रकाशित हुई हैं
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