जो व्यवस्था अपने पितृसत्तात्मक आग्रहों के बावजूद सभी पुरुषों तक को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार दे पाने में अक्षम है, उससे यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह सभी स्त्रियों को यह सब उपलब्ध कराएगी! स्त्रियों की छंटनी रोकना, उन्हें प्रसूति सम्बंधी अवकाश दिलाना इत्यादि एक छोटे वर्ग को ही राहत पहुंचाएगा, क्योंकि स्त्री श्रम का काफी बड़ा हिस्सा तो असंगठित क्षेत्र में लगा हुआ है।
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सुरेन्द्र चौधरी का आलोचना कर्म
नई कहानी की व्याख्या करते हुए सुरेन्द्र चौधरी नामवर सिंह की आलोचना दृष्टि के अंतर्विरोधों को भी रेखांकित करते हैं .नामवर सिंह ने ‘परिंदे’ कहानी से ‘नई कहानी’ की शुरुआत मानी थी और उसे ‘कालातीत कला दृष्टि’ से संपन्न बताया था .
Continue Readingभारतीय राष्ट्र और आदिवासी – वीर भारत तलवार
राष्ट्र की यह कल्पना किसी फौजी जमात जैसी है। जैसे फौज की टुकड़ी होती है, सब एक ड्रेस में, एक जैसी टोपी, एक साथ पैर उठाते हैं, एक साथ पैर पटकते हैं, एक साथ मुड़ते हैं- राष्ट्र ऐसा होना चाहिए। ये पूंजीवादी राष्ट्रवाद कोई बहुत अच्छी चीज नहीं है। मैं नहीं समझता की हिंदुस्तान की इतनी सारी विविधताओं, इतने सारे समुदायों, इतने सारे धर्मों को कुचलकर एक फौजी जमात जैसा राष्ट्र बना लेना कोई अच्छी बात होगी।
Continue Readingडॉ. रामविलास शर्मा का पहला लेख (1934)
परिमल की कविताओं से कहीं गिरी कविताओं को मैंने लोगों को बार-बार पढ़ते देखा है और परिमल को ऊटपटांग बताते सुना है, इससे जनता के गिरे टेस्ट का ही पता चलता है। उसका उत्तर कवि को गालियां देना नहीं, वरन स्वयं काव्य-मनन कर उसे समझने की शक्ति उत्पन्न करना है।
Continue Readingमार्क्सवादी आलोचना और इतिहासदृष्टि: संघर्ष और आत्मसंघर्ष
पिछली दो सदियों के साहित्य को लज्जास्पद बताना इतना बड़ा कुफ्र था कि इससे जो चीख-पुकार मची, उसमें इस घोषणापत्र ने अपने समय के साहित्य से जो वास्तविक मांग की थी, उस पर समुचित ध्यान न दिया जा सका। वह मांग कुछ इस तरह थी।
Continue Readingदलित साहित्य: ‘प्रामाणिकता’ पर पुनर्विचार
लेकिन यह सवाल उठाने की बजाय दलित लेखकों- आलोचकों ने ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ का सवाल उठाया। इसका सब से बड़ा लाभ यह था कि यह बिना किसी लम्बी बहस के एक झटके में सारे सवर्णों को दलित साहित्य के लेखन के लिए अयोग्य सिद्ध कर देता था। जिसने व्यक्तिगत रूप से खुद दलित जीवन के अपमान और अत्याचार को नहीं अनुभूत किया है, जब उसे उस अनुभूति का पता नहीं तो वह किसी दलित नायक का दलित पात्र के अंतर्मन की अनुभूतियों को कैसे व्यक्त कर पायेगा?
Continue Readingअभिव्यक्ति की आजादी और नाक का सवाल
अपूर्वानंद ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का सवाल मध्यवर्गीय दृष्टिकोण से उठा रहे हैं। उनकी ‘आजादी’ एक खास काट की अभिजात-मध्यवर्गीय आजादी है जो लेखकों-कलाकारों को प्राप्त होनी चाहिए। इरोम शर्मिला, सोनी शोरी से लेकर करोड़ों दलितों-आदिवासियों-स्त्रियों और गरीबों की आवाज जब सत्ता द्वारा अनसुनी कर दी जाती है, कुचल दी जाती है तो उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी पर कोई हमला होता नहीं दिखाई देता।
Continue Readingनारीवाद के मायने
नारीवाद स्त्रियों के लिये उसी तरह अनुकूल है जिस तरह माक्र्सवाद सर्वहाराओं के लिये लेकिन इसका अर्थ यह कभी नहीं निकालना चाहिए कि स्त्रियां स्वभावतः नारीवादी होती है! ‘नारीवाद सहजात दृष्टि न होकर अर्जित दृष्टि है’ और इसे अर्जित करने के लिए पितृसत्तात्मक विचारधारा से अलग वैकल्पिक दृष्टि विकसित करनी पड़ती है, स्वयं पितृसत्ता द्वारा (स्त्रियों/पुरुषों को) मिलने वाली सुरक्षा और सुविधाओं को त्यागना पड़ता है।
Continue Readingगोदान में मृत्यु और उसका सामाजिक अर्थ
होरी का अपराध यह है कि इस गरीबी के बावजूद वह मरजाद के साथ मनुष्य की तरह जीने की इच्छा पालता है। अगर होरी में मानवीयता थोड़ी कम होती तो शायद वह बच जाता, लेकिन इसी मानवीयता से तो होरी का चरित्र परिभाषित होता है। होरी बने रहने की कीमत उसे अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है।
Continue Readingलिखना मौत से लड़ने जैसा है
लेखक एक संस्कृति उद्योग के दिहाड़ी मजदूर हैं जो भद्र अभिजात वर्ग की उपभोक्तावादी जरूरतों को पूरा करते हैं, वे खुद इसी तबके से आते हैं और इसी के लिये लिखते हैं. यही लेखकों की नियति है कि उनका लिखना ले-देकर सामाजिक गैरबराबरी कायम रखने वाली विचारधारा द्वारा तय सीमा के भीतर ही होता है. साथ ही, हम जैसे लेखक जो इन हदों को तोड़ना चाहते हैं उनका भी यही हाल है.जब भी कोई लिखता है तो वह औरों के साथ कुछ बांटने की जरुरत ही पूरी कर रहा होता है.
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