कहा जा सकता है कि सभी मनुष्य बुद्धिजीवी होते हैं, हालांकि सभी समाज में बुद्धिजीवी की भूमिका नहीं निभाते। जब हम बुद्धिजीवियों और गैर-बुद्धिजीवियों के बीच फर्क करते हैं तो असल में हम बुद्धिजीवियों की पेशेवर श्रेणी की प्राथमिक सामाजिक भूमिका को चिन्हित कर रहे होते हैं, यानी हमारा ध्यान इस बात पर होता है कि उनकी विशेष पेशेवर गतिविधि की दिशा किस ओर है, बौद्धिक व्याख्या की ओर या मांसपेशीय गतिविधियों की ओर।
Continue ReadingAuthor: Kavitendra Indu
हम एक ‘रेप कल्चर’ में जी रहे हैं – कवितेन्द्र इन्दु
कहीं ऐसा तो नहीं कि दिल्ली की ‘जनता’ अपनी सुरक्षित हाइ-टेक सभ्यता के दिवास्वप्न में इस कदर डूबी रहती है कि उसे आस-पास उठने वाली चीखें सुनाई ही नहीं देतीं और जब उसकी नाक के ऐन नीचे ऐसा कुछ घटित होता है, जिससे इस दिवास्वप्न में बाधा पड़ती है तो वह बौखला उठती है! या फिर ऐसा है कि दिल्ली महिलाओं के प्रति बहुत संवेदनशील है और उसके खिलाफ रोज-ब-रोज होने वाले अपराधों से दिल्ली वालों के सब्र का बांध भर चुका है और इस विस्फोटक घटना ने उन्हें आन्दोलित करके सड़कों पर ला दिया है।
Continue Readingअभिव्यक्ति की आजादी और नाक का सवाल
अपूर्वानंद ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का सवाल मध्यवर्गीय दृष्टिकोण से उठा रहे हैं। उनकी ‘आजादी’ एक खास काट की अभिजात-मध्यवर्गीय आजादी है जो लेखकों-कलाकारों को प्राप्त होनी चाहिए। इरोम शर्मिला, सोनी शोरी से लेकर करोड़ों दलितों-आदिवासियों-स्त्रियों और गरीबों की आवाज जब सत्ता द्वारा अनसुनी कर दी जाती है, कुचल दी जाती है तो उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी पर कोई हमला होता नहीं दिखाई देता।
Continue Readingकिस प्रलेस की बात कर रहे हैं आप
जो नामवर सिंह ‘साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन की ऐतिहासिक भूमिका’ लिखकर रामविलासजी की उक्त मान्यताओं का प्रतिवाद कर रहे थे, आज वही उन मान्यताओं को दोहरा रहे हैं। नामवरजी ही नहीं प्रगतिशील आंदोलन की चर्चा करने वाले अधिकांश विद्वान चाहे वह रेखा अवस्थी हों, कर्णसिंह चैहान हों या सहारा आयोजन में शामिल रवींद्र त्रिपाठी और विश्वनाथ त्रिपाठी हों, रामविलासजी के हवाले से ही प्रगतिशील आंदोलन को समझते-समझाते हैं।
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