‘असली’ की असलियत – बद्री नारायण

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यह आलेख बातों के बारे में है। जब हम बातें करते हैं तो हमारी बातें मासूम नहीं होतीं। उनमें जो शब्द आते हैं, जिस तरह के वाक्य हम बनाते हैं, बोलते हैं, उनसे बातों की राजनीति जाहिर होती है। वे बातें अनौपचारिक ढंग से मित्रों के बीच में की जाएं, या साहित्य के गंभीर विमर्श में आम मतदाता बनने का स्वांग रच गिरधर कविराय की तरह सवैये की नकल में बोली जाएं। वस्तुतः जो शब्द हमारे विमर्श में आते हैं वे कई बार सोद्देश्य, कई बार सामूहिक अवचेतन का उत्पाद तो कई बार हमारे संस्कारों की उत्पत्ति होते हैं। संस्कार भी मासूम नहीं होते, कई संस्कार तो शातिर भयानक एवं कत्लेआम मचाने वाले सामाजिक एवं वर्गीय इतिहास द्वारा जनित एवं उनके मूल्यों को ढोने वाले होते हैं। इसलिए बातें या तो मित्र मंडली में की गई हों, सस्ते अखबारों या साहित्यिक पत्रिकाओं में, साक्षात्कार के रूप में की गई हों, उन्हें बात जानकर छूट देना ठीक नहीं। हमारे द्वारा प्रयोग में आने वाले शब्दों में अगर नस्लवादी, सांप्रदायिक एवं सामंती बू आती है, भले ही वह बू जनता नामक सादृश्य दिखनेवाली कोटि को वक्ता द्वारा एक अमूर्त बौद्धिक संवाद के रूप अगर इसी बात को रखें तो ज्ञान को जो भी कोष हमारे पास है, जो हमारे सामूहिक या व्यक्तिगत चेतन या अवचेतन कह निर्णायक होती है, उसकी फूको के शब्दों में ‘निकटस्थ आलोचनात्मक’ परख या चीर-फाड़ जरूरी है। अगर किसी की बातों में वीरोचित गर्वीली, सामंती एवं चारणी शब्दावलियां आती हैं तो उसमें निहित मध्ययुगीन सामंती विचारधारा को समझा जा सकता है। अगर कोई जनतांत्रिक या प्रगतिशील कवि भी बनता है और उसकी भाषा में आधुनिक लफंगों की शब्दावलियां आती हैं तो ‘वफादारी’ का जो अर्थ मालिक के लिए होता है, शायद वही अर्थ गुलाम के लिए नहीं होता। मालिक के लिए वफादारी का मतलब है कि पिंजड़ा खुला होने पर भी उसमें बैठे सुग्गे का न उड़ना और सुग्गों के लिए पिंजड़ा खुलते ही उड़ जाना उसकी आजादी की पहली आवश्यकता की तरह है। इस प्रकार वफादारी शब्द के प्रयोग के भीतर छिपी मानसिकता को भी समझा जाना चाहिए। इसी प्रकार अन्य सामंती मूल्य-बोध के शब्दों को मालिकों के कोण से ही साहित्य विमर्श में प्रयोग किया जाता रहे या भाषा रचना को भी एक उच्छेदक भाषायी कार्य की तरह हमें स्वीकार करना चाहिए, यह एक विचारणीय प्रश्न है। अगर कोई ‘असली’ जैसी शब्दावली पर जोर देता है तो उसमें छुपे नस्लवादी आग्रहों को समझा जाना चाहिए। प्रसिद्ध समाजशास्त्री ए.के. सरन सिर्फ परम्परावादी ज्ञान को ‘असली’ मानते हैं, किसी भी अन्य प्रकार के प्रगतिशील परिवर्तनमय ज्ञान को ‘नकली’। जैसे ही हम ‘असली’ शब्द का प्रयोग करते हैं तो इसका मतलब होता है कि हमारे लिए कोई ‘नकली’ भी है जिसका हम संहार चाहते हैं। ‘असली’ शब्द लम्बे समय तक सामंती मूल्यों से बोझिल शब्द शब्द रहा है। ‘असली’ कहते ही हम अपने ‘अन्य’ के रूप में घृणित वर्णसंकर की कल्पना करते हैं और उसे हेय मानते हैं। यह तात्पर्य ब्राह्मणवादी, जातिवादी, नस्लवादी तात्पर्यों से कैसे भिन्न है? भारतीय समाज व्यवस्था में मात्र ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य जातियों को वर्णसंकर उत्पत्ति से जोड़कर देखा गया है। सामाजिक जीवन के ऊंच एवं नीच के निर्धारण का एक मानदंड ‘असली’ जैसी कोटि भी रही है। गांवों में आज भी जब ‘किरिया’ धराया जाता है तो ‘असल बाप के पूत’ का सम्बोधन किया जाता है, यह सम्बोधन वस्तुतः ‘असल’ के सामंती गर्वबोध के जागरण के लिए किया जाता है, इस प्रकार उत्तर-औपनिवेशिक ज्ञान के परिदृश्य में हमें इस प्रकार के प्रयत्नों में छुपे निहितार्थों के खतरों को भी भांपना होगा। हमें समझना होगा कि ‘असली’ कहते ही हम एक प्रकार इतिहास से वैधता प्राप्त करना चाहते हैं, साथ ही यह भी चाहते हैं कि वह इतिहास जो वैधता प्रदान करने की शक्ति रखता है, उसपर हमारा एकाधिकार हो जाए। इस ‘असली’ प्रत्य की मारक क्षमता का उपयोग करते हुए हम एक ऐसी भाषा एवं ज्ञान की अवस्थिति की हत्या करना चाहते हैं, जिसे मिखाइल बाख्तीन ‘बहुवाची वृत्तांत’ कहते हैं। अगर उत्तर-औपनिवेशिक सिद्धांतों के संदर्भ में इस बात को देखें तो लगता है कि इस ‘असली’ के बहाने औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा निर्मित सम्पर्क परिक्षेत्रों में वर्णसंकरता के नाम पर किसी भी प्रकार के ‘बहु-सांस्कृतिक स्वरूप’ की हत्या करना चाहते हैं। होमी के. भाभा ने अपनी पुस्तक ‘नेशन एंड नैरेशन’ में ऐसी ‘हाइब्रीडिटी’ में उपनिवेश एवं औपनिवेशिक के संबंधों में निहित जिस अंतनिर्भरता एवं आत्मपरकता की आपसी निर्मिति की व्याख्या की है, का हम सरलीकृत नकार करना चाहते हैं। यह हमें एक प्रकार की श्रेणीबद्ध शुद्धता के चक्कर में फंसा देता है, जो सांस्कृतिक बहुलता के लिए नृशंस अस्त्र तैयार करने में हमारी मदद करती है। यह अंततः सांस्कृतिक आदान-प्रदान एवं सच्चाइयों का वध भी करती है। यह ‘असल’ का तर्क हमें अपने को ‘पुराण’ सिद्ध करने के लिए मजबूर करता है। यह अपने को पुराना होते भी नित नया होते रहने के छद्म से भर देता है।
भारतीय कविता में असली का यही तर्क एक ही साथ पांचजन्य के एक कलमकार को तथा एक समकालीन कवि की भारतीय कविता की तमाम प्रगति को नकारकर ऋग्वैदिक कविता, पुष्पनाथ सुमन, नाननून भटान नून चेहे तथा गिरधर कविराय के सवैये को ‘असली’ कविता सिद्ध करने का अवकाश प्रदान करता है। इतिहास के चक्र को पीछे ले जाने का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है? प्रगतिशील हिन्दी कविता का छंद विकसित होगा, किन्तु न तो ऋग्वैदिक कविता के रूप में, न ही गिरिधर कविराय एवं मथुरा पांडे के सवैयों में और न ही टपोरियों के ‘अललटप्पू’ गप्प को लोकप्रिय साबित करने की कसरत! यहां मैं पादटिप्पणी की तरह यह जिक्र कर दूं कि ‘हास्य’ और ‘गप्प’ प्रतिरोध के अस्त्रों के रूप में तब्दील होते हैं, किन्तु बाख्तीन को अगर मानें तो इसके लिए चेतस् प्रयास की जरूरत होती है, न कि उन्हें सिर्फ कविता में लाकर उन्हें ठूंसने की वकालत करते हुए सस्ते मंचीय रस में तब्दील कर ‘आईला रे गईला रे’ का रूप देने से।
इस अवधारणा को थोड़ा सौंदर्यशास्त्र के क्षेत्र में जांचते हैं ‘सौंदर्यशास्त्र’ की दुनिया में ‘असली’ का मेरे द्वारा देखा गया अर्थ शायद बदल जाए। हो सकता है यहां ‘असली’ शास्त्रीयता एवं कला की शुद्धता के अर्थ में प्रस्तुत हो। संगीत के क्षेत्र में देखें तो जो शास्त्रीय होने का दावा किया जाता है, वह बहुत कुछ लोक से लेकर, उसे वैश्वीकृत कर एक नियम, अनुशासन एवं मानदंड बना ‘असली’ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह ‘असली’ न होकर वस्तुतः ‘असली’ का दावा होता है। पं. भीमसेन जोशी अगर अपने किसी राग को ‘असली’ राग कहते हैं तो हो सकता है कि वह उसके एक ऐसे सांगीतिक आत्मा से पैदा हुआ हो, जिसका दूसरे से अंतःसंवाद, आवाजाही एवं लेन-देन के बिना निर्माण ही संभव नहीं हो सकता, जिसे वे परिष्कार कर उसके शब्दों में ‘असली’ बता रहे हों, उसके धुन का बहुलांश किसी चारवाहे की तान का हो। चारवाहे की वह तान बहुत कुछ किसी चिड़िया की आवाज या अनेक पक्षियों के कलरव से पैदा हो। डी.डी.कोसाम्बी ठीक ही बताते हैं कि अगरिया (लौहकर्म करने वाली जनजाति) का लौह ज्ञान जो आज हमें एक मौलिक परम्परा लगता है, वस्तुतः मौर्य साम्राज्य द्वारा विकसित किया गया था। फिर भी सौंदर्यशास्त्र में काफी कुछ ‘असली’ हो भी सकता है, पर सबकुछ नहीं हो सकता। संभव है कि यहां ‘असली’ का अर्थ भी थोड़ा बदल जाए। परन्तु यह विवाद का विषय है। PBNT
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‘असली’ का यह तो नहीं, पर ऐसे ही अर्थवाला प्रत्यय जब ‘निवासी’ शब्द के साथ जुड़ जाता है तो ‘असली निवासी’, ‘मूल निवासी’ जैसी अवधारणाओं का जन्म होता है। इस आलेख में मैं मूलरूप से मूल निवासी के इतिहास पर नहीं, मूल निवासी पर केन्द्रित ‘वर्तमान के इतिहास’ पर बातें करना चाहता हूं अर्थात मूल निवासी की अवधारणा की राजनीति क्या हो सकती है, यह हमारी परख का प्रस्थान बिन्दु होगा। जैसा कि मैंने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि मैं विमर्शों की मासूमियत पर विश्वास नहीं करता और मानता हूं कि हर विमर्श की अपनी राजनीति होती है। इसी तर्क के ढांचे में रहते हुए मैं कहना चाहूंगा कि मूल निवासी के मिथक की भी अपनी राजनीति होगी ही।
बात को मूल निवासी के मिथक पर केन्द्रित करने के पहले मैं चाहूंगा कि मिथक की अवधारणा पर थोड़ी बात कर ली जाए।
मिथक को पहले अकादमिक विमर्शों में छद्म का पर्याय माना जाता था। माना जाता था कि मिथक का मतलब है, झूठी कथाएं। साहित्यिक रचनाओं में मिथक को व्यापक महत्व प्राप्त था, किन्तु विमर्श, आलोचना एवं इतिहास की दुनिया में इसपर ध्यान कम था। हिन्दी साहित्य के आलोचकों – रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह ने इसे विमर्श के बीच बनाए रखा, किन्तु इतिहास लेखन में डी.डी.कोसाम्बी, पी.सी.जोशी ने अत्यंत दृष्टिपूर्ण ढंग से इसी व्याख्याएं कीं। तात्पर्य यह कि मिथक को असली नहीं मानने की कोशिश लम्बे समय तक चलती रही। फ्रांसीसी इतिहासकारों एवं समाजशास्त्रियों के एक वर्ग ने मिथक की अवधारणा को लेकर लम्बा विवाद किया एवं ‘मानसिकता’ के इतिहास को समझने के लिए, मानवीय विकास को जानने के लिए उन्हें एक महत्वपूर्ण ज्ञानकोष के रूप में स्थापित किया।
दूसरी तरफ विद्वानों का एक वर्ग यथा आनन्द कुमारस्वामी, रेने ग्योनान, ए.के.सरन जैसे परम्परावादियों ने मिथक को ही असली माना, किन्तु उन्हें शाश्वत एवं अपरिवर्तनीय ज्ञान कोष के रूप में समझने की कोशिश की। यहां मिथक को शक्ति-समीकरण से अलग कर शाश्वत संरचनाओं को समझने के लिए उपयोगी माना गया, न कि शक्ति केन्द्रित टकरावों को समझने के लिए। यहां इस बात पर जोर दिया गया कि बिना किसी जांच-परख के सामाजिक विकास की एक खास स्थिति में पैदा लिखित मिथकों को ही इतिहास एवं परम्परा के रूप में स्वीकार किया जाय। यह माना गया कि मानव में क्या दम कि इनकी रचना कर सके, यह तो प्रदत्त है। मानव समाज को तो बस ‘ग्रहण’ करनेवाली इकाई के रूप में जांच-परख की क्या जरूरत? इनमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन की सम्भावना से भी इनकार किया गया।
पियरे बोर्दियो अपनी पुस्तक ‘लैंग्वेज एंड सिम्बाॅलिक पाॅवर’ में अत्यंत विस्तार से बताते हैं कि किस प्रकार समाज का प्रभु वर्ग प्रतीकात्मक उत्पादन के सभी साधनों पर कब्जा कर लेना चाहता है तथा इनकी मदद में ऐसे प्रतीकात्मक संसार की रचना करता है, जो उसके हितपरक ज्ञान एवं विचारधारा का वहन करे, उनका प्रसार करे तथा उन्हें लोकप्रिय बनाए। अगर बोर्दियो की बात पर ध्यान दिया जाए तो फूको की बात में दम है कि ज्ञान एवं स्मृति के किसी भी कोष की आलोचनात्मक छानबीन की जरूरत है। किन्तु इन सुझावों को नकली कह दिया जाएगा। यह कहा जाएगा कि ये तो दुनियावी ज्ञान का शास्त्र सुझाते हैं जबकि भारतीय मिथकीय संसार पराज्ञान को सम्बोधित है। कहा जाएगा कि ये विदेशी विचारधाराएं हैं जो भारतीय धरती के लिए सर्वथा अनुपयुक्त हैै। आप देख रहे हैं कि इस असली प्रत्यय के पास ज्ञान एवं संवाद की अन्य धाराआंे के संहार की कितनी मारक क्षमता है।
मिथकों की अन्तर्वस्तु, रूप एवं सम्पूर्ण संरचना में सत्ता, शासन, कुलीन एवं प्रभु वर्गों की राजनीति साफ दिखती है तो उनके साथ व्यवहार करने में शासित जनता की राजनीति भी दिखाई पड़ती है। इसी के कारण ‘अतिमिथकीय आख्यानों’ में भी परिवर्तन आते हैं। मौखिकता की सम्पूर्ण प्रक्रिया वृत्तांतों की शाश्वतता की सबसे ज्यादा विरोधी हैं। मिथकों के ग्रहण करने, अनुकूलन करने एवं प्रयोग करने के क्रम में शासित जनता बार-बार उनकी शाश्वतता को तोड़ती है। दूसरे, मिथक एवं प्रतीकात्मक उत्पादन के जिन अस्त्रों पर प्रभु वर्ग अधिकार कर लेना चाहता है, शासित जनता उन्हें मुक्त करने की लड़ाई भी लड़ती रहती है। भारत में निम्न-वर्गीय समाज लम्बे समय तक शिक्षा एवं लेखन शक्ति से वंचित होने के बाद भी अपनी मौखिकता एवं सक्रिय कल्पना शक्ति से स्थापित मिथकों का प्रतिरोध, उनकी मिथकीय पुनव्र्याख्या तथा वैकल्पिक मिथक भी रचता रहता है।
इस प्रकार मिथक एवं स्मृतियां एक परिवर्तनशील वृत्तात्मक स्ट्रैटेजी के रूप में भी बदल जाती है तथा शासित समूहों की अस्मिता निर्माण की स्ट्रैटेजी एवं राजनीति में महत्वपूर्ण तथ्य बनकर सामने आती है। कई बार तो समुदायों का अर्थ अपने आपको कल्पित करने में ही निहित होता है, जो उनके मिथकीय संसार का एक महत्वपूर्ण तत्व होता है। वे अपने इसी कल्पना-शक्ति से सत्ता के मिथकीय संसार का उच्छेद करती रहती हैं। उनका मिथकीय व्यवहार कई बार उच्छेदपरक होता है। जब मैं यह सब कह रहा हूं तो शासक एवं शासित को ‘एक’ के बरक्स ‘दूसरे’ के रूप में नहीं रख रहा हूं। बल्कि उनके बीच मिथकीय अन्तःसंबंधों, अंतःसंवादों एवं ताने-बाने की आलोचनात्मक रूप में जांच-परख कर रहा हूं।
असली प्रत्यय की संहारक क्षमता को हमने मिथकीय व्याख्या के संदर्भ में भी देखा। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाना चाहिए असली-नकली जैसे शब्द हमारे विमर्श में मासूम रूप में नहीं आते।

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मूल निवासी की अवधारणा एक प्रकार की नस्ली अवधारणा है। यह एक नस्ली ‘कोटि’ का निर्माण करती है। मूल और उत्प्रवासी असली मालिक, नस्ल एवं जातियां तथा बाहर से आई जातियां, भूमिपुत्र तथा भूमि-दोहक आदि आदि।
मूल निवासी की प्रातिनिधिक निर्मिति पर आगे बात करने से पहले ही यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मूल निवासी की अवधारणा एक ऐतिहासिक तथ्य न होकर एक ‘निर्मिति’ है। ‘निर्मिति’ चाहे इतिहासकारों, नृतत्वशास्त्रियों या भाषाशास्त्रियों की हो या नस्ली तथा जातीय राजनीति का रंग देकर दंगा कराने वालों की या दलित तथा काले समुदायों की मुक्ति के लिए उन्हें शक्तिवान बनाने से जुड़ी हो। सभ्यताओं का इतिहास मूलतः उत्प्रवासों का इतिहास रहा है, ये उत्प्रवास चाहे दबाव में हुए हों या स्वेच्छया या ये उत्प्रवास साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक विस्तार की प्रेरणा से हुए हों। उत्प्रवास का संपूर्ण इतिहास कई चरणों में घटित हुआ है। तब भी जब लेखन का आरम्भ नहीं हुआ था। इस प्रक्रिया को दर्ज करने के साधन नहीं थे। अतः इनके प्राचीन एवं सभ्यता-संबंधी इतिहास को जानने के हमारे पास स्रोत थोड़े से हैं – कुछ मिथक, कुछ भाषाशास्त्रीय व्याख्याएं, कुछ वंशावलियां, कुछ सूत्र, कुछ निबंध। पर बहुत ही अपूर्ण। चूंकि यहां मेरा लक्ष्य उत्प्रवास के ऐतिहासिक स्रोत पर बहस करना नहीं है, अतः मैं अपने मूल प्रसंग ‘मूलनिवासी’ की अवधारणा की राजनीति की ओर लौटता हूं। चूंकि उत्प्रवासों के असंख्य तंतुजालों से बनी इस सभ्यता में प्रामाणिक रूप से यह पता लगाना अत्यंत कठिन है कि कौन सी जातियां असली मालिक रही हैं। यह तो कहा जा सकता है कि कौन किस भूमि पर पहले आया, और बाद में, पर कौन कहां का मूल निवासी है यह तय करना अत्यंत कठिन है। हालांकि प्रामाणिक रूप से यह तय करना कठिन है कि कौन उस भूमि पर पहले आया और कौन बाद में।
इस स्थिति में ये सभी ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक से दिखने वाले दावे एक प्रकार की ‘कल्प-सृष्टियां’ ही हैं, विभिन्न कोणों से खड़े होकर अतीत को अन्वेषित करने की प्रक्रिया। बर्नार्ड लेविस ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘हिस्ट्री: रिमेम्बर्ड रिकवर्ड एंड इन्वेन्टेड’ में तीन तरह के इतिहास-रूपों की परिकल्पना की है। पहली तरह के इतिहास को वे संस्मृति इतिहास (रिमेम्बर्ड हिस्ट्री) कहते हैं, जिसमें समुदाय एवं जातियां अपने कुलीन, अपने आवयविक बौद्धिक, अपने इतिहासकार और अगुआ समूहों द्वारा अपने भूले-बिसरे इतिहासों को याद करती हैं। दूसरी तरह का इतिहास है – पुनरान्वेषित इतिहास (रिकवर्ड हिस्ट्री) जिसमंे पेशेवर इतिहासकार तथ्यों की व्याख्या एवं पुनव्र्याख्या के द्वारा समुदायों के खोए हुए इतिहास को रचते हैं। तीसरे प्रकार का इतिहास है, पुनःसर्जित इतिहास (इन्वेन्टेड हिस्ट्री) जिसमें जातियां एवं समुदाय जिनके पास अपना कोई इतिहास विभिन्न कारणों से नहीं है, अपने अतीत एवं उसके इतिहास का सर्जन करते हैं। ये तीनों प्रक्रियाएं मूल निवासी के प्रश्न को हल करने में उपयोग की जाती हैं एवं इन तीनों में रचना एवं पुनर्रचना साफ रूप से घटित होती है। बहस लम्बी न हो अतः मैं पुनः यहां बातों को समेट रहा हूं।
इस तरह के प्रश्नों के उत्तर अब इतिहास की निमिर्तियां हैं। इन्हें मान्य ऐतिहासिक तथ्य के रूप में तब्दील करने के लिए हमारे पास व्यापक स्रोत नहीं हैं। फिर क्यों ऐसी व्याख्याओं के पीछे हम पागल हो जाते हैं? क्यों नस्लों की सर्वोच्चता इन आधारों पर तय की जाती है? क्यों इनके आधार पर हिंसक संघर्ष घटित होते हैं? ये प्रश्न हमें आकुल करते हैं कि हम यह जानें कि ऐसे विवाद उठाए ही क्यों जाते हैं। ऐसे विवादों में एक पक्ष लेते हुए ग्रंथ क्यों लिखा जाता है? गरज कि ऐसी अवधारणाओं की राजनीति क्या होती है?
जब इन अवधारणाओं के इतिहास एक प्रकार की ‘निर्मिति’ हैं, जिसमें अनुमान की बहुत बड़ी भूमिका होती है, तो क्यों न हम स्वयं एक प्रति-परिकल्पना करें। इसे आप चाहें तो स्वीकारें, चाहे तो नकार दें।
कौन ऊंचा है, कौन नीचा है, कौन बड़ा है, कौन छोटा, ऐसे प्रश्न तो अनेक रूपों में न जाने कब से मानवीय सभ्यता के इतिहास में उठाए जाते रहे हैं। किन्तु कौन ‘असली’ है, कौन ‘मूल’ है, कौन ‘नकली’, ‘उत्प्रवासी’, बाहर से आया, ऐसे प्रश्नों का उठना कोई बहुत पुरानी संघटना नहीं है। दुनिया में आधुनिक राज्यों के निर्माण एवं उनके द्वारा व्याख्यायित अधिकारों, सुविधाओं, कल्याणकारी योजनाओं पर ज्यादा से ज्यादा कब्जे की लड़ाई जब तेज हुई तो ऐसे दावे प्रबल हुए। ऐसे दावों से इस संघर्ष से संबद्ध समुदायों के तीन तरह के हित सधते नजर आते हैं। एक तरफ तो इनसे सुविधाओं और अधिकारों में ज्यादा हिस्से का दावा प्रबल होता है, दूसरे इससे सुविधाओं के असमान विभाजन में अपने अपेक्षया वंचित होने को समुदाय एवं जातियां रेखांकित करती थीं। तीसरे, नस्लों एवं जातियों के आधार पर अपने पक्ष में गोलबंदी की तकनीक के रूप में भी इनका इस्तेमाल साफ-साफ होता दिखाई पड़ता है।
इस संदर्भ में रेखांकित करने वाला तथ्य यह है कि इन व्याख्याओं में अधिकारों, सुविधाओं एवं हितों के बंटवारे की इकाई व्यक्ति एवं वर्ग न होकर नस्ल एवं जातियों को माना गया है। इन व्याख्याओं का सम्पूर्ण आधार नस्ल एवं जातियों की कोटियों पर ही निर्मित हुआ है।
जाहिर है कि जब अधिकारों एवं सुविधाओं में ज्यादा से ज्यादा हिस्से का दावा करना है तो यह साबित करना ही होगा कि वे ही इन सुविधाओं के मूल आधारों के मालिक रहे हैं। ऐसे में वह गुंजाइश बनती है जहां इतिहास का प्रवेश होता है। अब ऐतिहासिक स्रोतों के अब तक निर्मित कोष में इनके पक्ष में स्रोत तो हैं ही नहीं अतः पुनरान्वेषण के सर्पिल पथ से होत हुए इतिहास खड़ा किया जाता है, जिसमें मिथकों की अपनी तरह की व्याख्या बार-बार की जाती है। एरिक हाॅब्सबाॅम, ट्रांस रेंजर, क्लिफर्ड ग्रिट्ज तथा अन्य विद्वानों ने इस दिशा में शोध करके दिखाया है कि ऐसे पुनःसर्जित की मूल प्रवृत्ति यह होती है कि जो निकट का अतीत है उसे अति प्राचीन समय संदर्भ में प्रक्षेपित कर दिया जाता है एवं इसके द्वारा अपनी परम्परा, संस्कृति एवं नस्ल की प्राचीनता शुद्धता एवं मूल होने के दावे को अत्यंत आक्रामक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। प्रसिद्ध नृतत्वशास्त्री मिल्टन सिंगर (ट्रेडीशनल इंडियाः स्ट्रक्चर एंड चेंज) में अपने एक रोचक अध्ययन में साबित किया है कि किस प्रकार ‘भरतनाट्यम’ की परम्परा, जो ज्यादा पुरानी नहीं है, को अत्यंत प्राचीन साबित करते हुए उसे प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं परम्परा से जोड़ दिया जाता है। वे बताते हैं कि ‘भरतनाट्यम’ जो आज भारत का राष्ट्रीय शास्त्रीय नृत्य रूप माना जाता है, वह वस्तुतः आधी शताब्दी पहले उन अभिजात नारियों द्वारा विकसित किया गया, जिन्होंने मंदिरों में भक्त महिलाओं द्वारा किए जाने वाले नृत्य को आधुनिक मंच से जोड़ा। ओड़िसी जिसे उड़िया के गर्व के रूप में स्थापित किया जाता है वह वस्तुतः देवदासियों के नृत्य का एक स्थानीय नृत्य ‘गोतीपुआ’ है जिसमें किशोर वय के लड़के स्त्री तथा पुरुष दोनों की भूमिकाएं निभाते हैं, और वह इस सम्मिश्रण से विकसित हुआ है। ‘अतीत’ के नृत्य-रूपों के समावेश के बावजूद ‘ओड़िसी’ के रूप में यह नया विकास है। ट्रांस रेंजर का मानना है कि ऐसे में हमारी परम्परा में अनेक तत्व हमारे निकट अतीत की खोज होते हैं जिन्हंे हम अति प्राचीन साबित कर अपनी परम्परा की श्रेष्ठता, पवित्रता, सर्वोच्चता एवं मौलिकता की खोज करते हैं। बहुत सम्भव है कि कोई गिरिधर कविराय के सवैये को भारतीय काव्य-परम्परा की असली कविता सिद्ध करने में लग जाए। तात्पर्य यह कि जो पुराना है, असली है, शुद्ध है, मूल है, परम्परा का मुख्य स्वर है, वस्तुतः वह, नया हो, नकली हो, एवं वर्ण संकर हो। कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे इतिहास से प्रामाणिकता प्राप्त कर ऐसी प्रतीकात्मक शक्ति प्राप्त करने की कोशिश की जाती है जो सुविधाओं पर कब्जे की लड़ाई में ऐसे समुदाय के दावे को मजबूत कर सकें।
इस प्रकार अगर नस्ल ऐसी प्रतीकात्मक शक्ति प्राप्त कर उन्मादी हो जाए तो फासीवाद एवं नरसंहार एक प्रवृत्ति बन जाती है। क्योंकि मूल निवासी की अवधारणा के गर्भ में ही एक ऐसा ‘अन्य’ पल रहा होता है, जो बाहर करार दिए जाने के साथ ही है, नष्ट करने योग्य है। मूल निवासी की अवधारणा एक सतत घृणा रचती है और एक ऐसे भयानक प्रत को जन्म देती है जो सबके नाश के बाद स्वयं उस समुदाय का नाश भी कर देना चाहती है। एक नस्ल का दूसरे नस्ल के प्रति घृणा, विलोम, उन्माद जिसकी गर्भस्थ प्रवृत्ति है जो महज एक ‘मनोनिर्मिति’ के कारण पैदा होती है।
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भारतीय समाज में दलित राजनीतिक विचारधारा, अमेरिका में ‘अमेरेडिंडयस’ ‘अश्वेत’ कनाडा में देशज कहे जानेवाले समुदाय भी मूल निवासी की अवधारणा का उपयोग अपनी अस्मिता के निर्माण के तत्व के रूप में करते हैं। अमेरिका में एवं मेक्सिको की खाड़ी में दक्षिणी कनाडा तक फैले ऐसे कई समुदायों ने सचेत ढंग से अस्मिता की राजनीति में इस अवधारणा का उपयोग किया है। उत्तरी अमेरिका में जोसेफ ब्रांट (मोहावक्) तकुमेस (शावनि) पोन्टिक (ओटावा) बिल्डकैट और जाॅन हाॅर्स ऐसे ही राजनीतिक नेता है जिन्होंने मिलकर मूल निवासी की अवधारणा की राजनीति का प्रयोग किया। भारत में दलित आन्दोलन के पैरोकार (महात्मा फुले) ने सबसे पहले मूल निवासी की अवधारणा पर जोर देना शुरू किया, बाद में पेरियार शाहूजी महाराज, अम्बेडकर इत्यादि से होता हुआ यह उत्तर प्रदेश में फैले बहुजन राजनीति का मूल तर्क बना हुआ है। इसी मूल निवासी की अवधारणा के आधार पर अमेरिका में ‘प्रोटेक्टिव डिस्क्रिमिनेशन’ का सिद्धांत तैयार हुआ जिसमें बताया गया कि साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद एवं सभ्यता के विकास के क्रम में ये जातियां जो पहले यहां की मालिक थीं, वे वंचित हो गई हैं। अतः उन्हें ‘प्रोटेक्टिव डिस्क्रिमिनेशन’ के आधार पर राज्य के फायदे में हिस्सा दिया जाए। यही मूल निवासी आन्दोलन की मुख्य मांग थी।
भारत में दलित एवं पिछड़ी जातियों के आरक्षण का यह भी एक मुख्य तार्किक आधार है। उनका मानना है कि सवर्ण जातियां जो आर्य थीं एवं बाहर से आई थीं, यहां के मूल निवासियांे नाग, असुर एवं अन्य जनजातीय समूहों को, जो यहां की मूल निवासी थीं, वंचित एवं विस्थापित किया। इस कारण वे आज अत्यंत बुरी दशा में पहुंच गई हैं। अतः उन्हें (हमें) आरक्षण प्रदान कर जनतांत्रिक राज्य में हिस्सा दिया जाए। इसके जवाब में दूसरी ‘ऐतिहासिक निर्मिति’ का जन्म हुआ कि आर्य बाहर से नहीं आए थे, ये यहीं के मूल बाशिन्दे थे। यह विवाद अभी चल ही रहा है, देखें आगे क्या होता है।
किन्तु मूल निवासी की अवधारणा के आधार पर दलित राजनीति ने अपने पक्ष में लगभग 600 बहुत संस्कृतिवाली बहुजातियों की एक ‘एकरूपी-अस्मिता’ निर्मित करने की कोशिश की है। छिपी, रंगरेज, जुलाहे, कलवार, डफाली, निषाद जैसी छोटी जातियों का इस ‘एकरूपी अस्मिता’ में कोई संवाद नहीं है। संख्या के आधार पर प्रभावी दलित जातियों के नेतृत्व में एक ऐसे राजनीतिक समुदाय की परिकल्पना की गई है, जिसमें कम संख्यावाली किन्तु विशिष्ट जातीय संस्कृतिवाली जातियों का स्वर, इच्छा एवं आकांक्षा का कोई ज्यादा महत्व नहीं है और न होगा।
इस प्रकार ऐसे अस्त्र दलित, निम्न एवं वंचित समुदायों को कुछ हद तक शक्ति तो प्रदान करते हैं, किन्तु अपनी परिणति में ये पूर्ववत, घृणा एवं नस्ली टकराव में भी बदल जाते हैं। मुक्ति की परियोजना के रूप में इनकी सफलता एवं असफलता देखने के लिए अमेरिकी संदर्भ को देखा जा सकता है। इतिहास यहां ‘उन्माद’ की शक्ल ले भयानक संहार भी कराता रहता है।
सत्ता के संघर्ष में ऐसी ‘पुनर्निमितियां’ सदा प्रयुक्त होती रही हैं। औपनिवेशिक नृतत्वशास्त्रियों ने हर विजेता कौम श्रेष्ठ होती है, उसे शासन करने का अधिकार है, क्योंकि वह बेहतर शासन प्रदान कर सकता है, वहीं एक सभ्यता-प्रसारक के रूप में मूल निवासी – असभ्यों एवं बर्बरों को सभ्य बना सकती है, पहले भी आर्य आकर यहां सभ्यता निर्मित कर चुके हैं, पुनः दूसरी बार अंग्रेजों के रूप में ‘आए हैं’, जैसे तर्कों की पुष्टि के लिए इस अवधारणा का उपयोग किया है।
यह एक प्रकार से इतिहास के औपनिवेशिक प्रारूप से वैधता प्राप्त करने की कोशिश थी। किन्तु इसी तर्क का दूसरा परिणाम यह निकला कि कोई यहां की मूल जाति भी थी जो इस मूल निवासीपन के रूप में निम्न एवं उपेक्षित जातियों को आविष्कृत किया गया। बाद में चलकर स्वयं दलितों ने इसी अस्त्र का उपयोग अपने अस्मिता-निर्माण में एवं अपने पक्ष में सुविधाओं के संकेन्द्रन के लिए करना शुरू किया। यही वह खतरा था जिसमें कारण सवर्ण मानसिकता के प्रभाव में रहने वाले संघीय नेतृत्व ने ‘आर्य भारत के ही रहने वाले थे’ का नारा बुलन्द करना शुरू किया अर्थात आर्य यहीं के मूल निवासी थे, वे बाहर से नहीं आए थे, जैसी अवधारणाओं का सवर्ण राजनीति के पक्ष में प्रयोग किया जाने लगा। (देखें, पांचजन्य, हिन्दू संघर्ष अंक, वर्ष 50, अंक 44, अप्रैल, 1997)। यूं भी संघी व्याख्या हर ज्ञान एवं हर विकास को असली एवं प्राचीन भारतीय परम्परा की देन मानकर अपने गर्व को तुष्ट करती रही है।
आज भी यह पूरा विमर्श चाहे दलितों से जुड़ा हो या संघी व्याख्या से सत्ता पर कब्जे की होड़ में प्रस्तुत हो रहा हो, हमारे गांव के निहोरन दुसाध को शायद ही कोई फर्क पड़े, अगर उनकी जाति को यहां का मूल निवासी मान भी लिया जाय!
इस प्रकार मूल निवासी की अवधारणा ‘नृतत्वशास्त्रीय निर्मिति’ के रूप में, एक ‘एतिहासिक निर्मिति’ के रूप में ‘अस्मिता की राजनीति के रूप में’ एवं ‘वंचित समुदायों के बलवानीकरण’ के लिए ‘संज्ञानात्मक निर्मिति’ के रूप में प्रस्तुत होता हुआ एक प्रकार का नस्लवादी आग्रह है, जिसका मूलाधार एक बनाम दूसरा, एवं एक के खिलाफ दूसरे में घृणा के रूप में सदैव उपस्थित रहता है। इसकी सकारात्मक भूमिका को कभी नकारा नहीं गया किन्तु इसकी संहारक क्षमता को भी आज के संदर्भ में रेखांकित करने की आवश्यकता है। यह बार-बार प्रचारित करने की भी जरूरत है कि असली, पुराना, मूल की मांग कितनी नस्लवादी एवं जनसंहार की हो सकती है।
इस प्रकार ‘असली’ हमारे बीच दोनों की अर्थ में – मौलिक के अर्थ में एवं अतीत में मालिकाना के अर्थ में, संज्ञानात्मक रूप में मौजूद रही है। किन्तु इन्हें प्रमाणित करना अत्यंत कठिन है। विज्ञान में तत्वों की शुद्धता की बात तो की जा सकती है किन्तु विज्ञान में तत्वों की शुद्धता की बात तो की जा सकती है किन्तु उन पर एवं उनके विकास क्रम में होनेवाले सम्मिश्रणों पर अभी शोध आना बाकी है। यों भी दुनिया के इतिहास ने हमें बार-बार चेताया है कि ‘शुद्धता’ पर आधारित सांस्कृतिक व्यवहार ने कितने तरह के कत्लेआम मचाए हैं – शब्दों के कत्लेआम, रूपों का कत्लेआम, मानव भ्रूणों का कत्लेआम! हालांकि इसमें प्राचीन भारतीय समाज में शब्द आधारित मंत्रों, कर्मकांडों एवं कला रूपों ने भी कम भूमिका नहीं निभाई है। हिटलर एवं मुसोलिनी जैसों के उत्पादन में इसी शुद्धता ने भाव-भूमि तैयार की थी। कई तरह के उग्रतावाद के बीच में इसी अवधारणा को पाया जा सकता है। क्या हिन्दी साहित्य के मूल्यांकन में भी चोर दरवाजे से ऐसी प्रवृत्तियां शब्दों, वाक्यों एवं अवधारणों के माध्यम से आने में सफल हो जाएंगी?
यह लेख ‘मूल निवासी’ की अवधारणा को ही प्रश्नांकित करता है। हमारे अस्तित्व के साथ जुड़े होने के चलते निवास का सवाल हमारे लिए केवल एक सूचना भर नहीं होता। यह न केवल हमारी अस्मिता का हिस्सा होता है, बल्कि हमारी वैधता और अधिकारों में हमारी दावेदारी के प्रश्न से भी जुड़ा होता है। इसलिए मूल निवासी केवल इतिहास से जुड़ी हुई एक अवधारणा नहीं है, बल्कि इसके बहुत गहरे राजनीतिक निहितार्थ भी हैं।
‘मूल निवासी’ की अवधारणा के छोर ‘आर्य-अनार्य’, ‘देशी-विदेशी’ और हिन्दू-मुसलमान के सवालों से लेकर हाल में प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों तक में चल रही ‘दुर्गा-महिषासुर’ बहस तक से जुड़े हुए हैं। ‘मूल निवासी’ की खोज को लेकर ऐतिहासिक शोध भी होते रहे हैं और दैनिक जीवन में इन बहसों ने हिंसक संघर्षों का रूप भी ग्रहण किया है। इस बहस में भावनात्मक आक्रोश चाहे जितना हो, दुर्भाग्यवश खुद इस अवधारणा पर गंभीरता से विचार कम ही किया गया है। मूलतः विद्वानों को संबोधित होने के कारण प्रो. बद्री नारायण का यह लेख किंचित क्लिष्ट शब्दावली एवं सदर्भों से भरा हुआ है, फिर भी इस प्रश्न पर गंभीर बहस के लिए यह लेख एक प्रस्थान बिन्दु हो सकता है। ‘मूल निवासी’ की अवधारणा की सकारात्मक संभावनाओं से इनकार न करते हुए भी यह लेख उसकी भयावह परिणतियों से सचेत हो जाने का आग्रह करता है।
Asali Ki Asaliyat – Badri Narayan
आलोचना सहस्राब्दी अंक तीन (अक्टूबर-दिसम्बर 2000) में 91-97

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