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साहित्य में यथार्थवाद को लेकर लम्बी बहसें हुई हैं। दलित साहित्यकार हिन्दी साहित्य में यथार्थ अभिव्यक्ति की परम्परा कबीर से देखते हैं, जब वे कहते हैंे कि ‘मैं कहतां आंखिन की देखी। तू कहता कागद की लेखी।’ वे खुद को इसी परम्परा से जोड़ते हैं। आंखिन की देखी को अभिव्यक्ति देकर दलित साहित्य ने दलित समाज की वास्तविकताओं का जैसा यथार्थ पाठकों के सामने रखा है, वैसा पहले कभी किसी ने नहीं किया है, इसलिए यथार्थवाद को साहित्य में लाने का श्रेय दलित साहित्यकार खुद को देते हैं तो बिल्कुल ठीक देते हैं। यथार्थवाद पर बात करते हुए कंवल भारती लिखते हैं कि ‘‘साहित्य में यथार्थवाद के जनक दलित रचनाकार रहे हैं, दलित साहित्य ने ही यथार्थ के धरातल पर सवर्ण साहित्य को चुनौती दी है।’’ अगर दलित साहित्यकारों को इस पर गर्व का अनुभव होता है, तो वह होना ही चाहिए, क्योंकि साहित्य की दुनिया में यह अभूतपूर्व कार्य था।
हिन्दी साहित्य में छायावादी और प्रगतिशील साहित्य के संदर्भ में भी स्वानुभूति और अनुभूति की प्रामाणिकता की बात की जाती है, लेकिन दलित साहित्यकार इसे ‘आत्माभिव्यक्ति’ ही स्वीकार करते हैं। कंवल भारती कहते हैं कि उनके लेखन में ‘आपबीती का इजहार’ ही है जिसे वे स्वानुभूति मानते हैं, ‘यानि, यह उस यथार्थ का लेखन है, जिसका व्यक्तिगत रूप से लेखक भोक्ता होता है’ और व्यक्तिगत स्तर का यथाथर््ा किसी दूसरे को अपना नहीं लग सकता है, जबकि प्रामाणिक अनुभूति के लिए आवश्यक है कि स्वानुभूति को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हो। स्वानुभूति नितान्त व्यक्तिपरक और वैयक्तिक हो तो वह पूरी समष्टि या समाज की अनुभूति नहीं बन सकती। दलित साहित्य में प्रकट यथार्थ को प्रामाणिक अनुभव के रूप में सभी लोग स्वीकार करते हैं। कंवल भारती ने ‘सरोज-स्मृति’ कविता का उदाहरण देकर बताया है कि ‘‘अपनी पु़त्री सरोज की मृत्यु ने निराला को व्यक्तिगत स्तर पर जितना व्यथित किया, वही उनके इस शोक गीत का यथार्थ हैै। पर, यह यथार्थ किसी दूसरे को अपना यथार्थ नहीं लग सकता है। सम्वेदना के स्तर पर पुत्री की मृत्यु पर पिता के दुख को महसूस जरूर किया जा सकता है।’’
गैर दलित साहित्य की तुलना दलित साहित्य से करते हुए वे इस बात को ठीक ही रेखांकित करते हैं कि उसमें व्यक्ति की अपेक्षा समुदाय केन्द्र में है। दलित आत्मकथाओं की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है कि उनमें ‘‘सारी स्थितियों में मौजूद यथार्थ वैयक्तिक नहीं है, वह पूरे समाज का सच है।’’ यानि किसी आत्मकथा में वर्णित घटनाएं भले ही किसी व्यक्ति विशेष की हों, लेकिन जिस परिस्थिति में वह है और जिस जातिगत भेदभाव का वह शिकार हो रहा है, वह एक सामाजिक तथ्य है। लेकिन इस बात के ठीक बाद जब वे लिखते हैं कि ‘‘इसके विपरीत निराला, जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा की आत्मकथाएं रचनाएं या अन्य सवर्ण लेखकों की आत्मकथाएं अनुभूति के स्तर पर इसलिए प्रामाणिक नहीं कही जा सकतीं, क्योंकि उनमें सब-कुछ व्यक्तिगत ही है, समष्टिगत नहीं है।’’
तो यह बात तथ्य से अधिक एक आरोप लगती है। यही वजह है कि ठोस उदाहरण के जरिये बात करने की बजाय भारती जी ने प्रसाद और महादेवी की न जाने किन आत्मकथात्मक रचनाओं की कल्पना कर डाली है। अगर निराला, प्रसाद और महादेवी की रचनाओं में सब कुछ केवल व्यक्तिगत होता सामाजिक सत्य का अंश ही न होता, तो उसे व्यापक पाठक वर्ग की स्वीकृति कैसे मिली? क्या निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर’, ‘भिक्षुक’, ‘बादल राग’ जैसी कविताओं तथा ‘चतुरी चमार’ जैसी संस्मरणात्मक रचनाए और प्रसाद के ‘कंकाल’ जैसे उपन्यासों में सचमुच कुछ भी समष्टिगत नहीं है? क्या महादेवी वर्मा के ‘बिंबिया’, ‘गुंगिया’ जैसे रेखाचित्र और ‘मैं नीर भरी दुख की बदली/उमड़ी थी कल मिट आज चली/विस्तृत नभ का कोई कोना/मेरा न कभी अपना होना’ जैसी काव्य पंक्तियां केवल उनकी वैयक्तिक अनुभूति को व्यक्त करती हैं, इसमें सभी स्त्रियों की अधीनता की पीड़ा को अभिव्यक्ति नहीं मिली है। या कि केवल दलित अनुभव सामुहिक स्वरूप के होते हैं, स्त्री अनुभव नहीं?
यथार्थवाद की बहस के संदर्भ में निःसंदेह यह कहा जा सकता है कि दलित साहित्य ने यथार्थवाद को नए आयाम दिए हैं। दलित साहित्य ने जातीय उत्पीड़न को अभिव्यक्त करके समाज के यथार्थ की हमारी समझ को और स्पष्ट बनाया है, लेकिन दलित साहित्य भी तो समाज के पूर्ण यथार्थ को अभिव्यक्ति न देकर यथार्थ के एक पक्ष को ही सामने लाने का काम करता है। जिस प्रकार भारतीय समाज में जातिव्यवस्था का होना एक यथार्थ है, वहीं जाति का टूटना भी एक यथार्थ है। आज बहुत से रचनाकार और लेखक ऐसे हैं जो एक ‘जाति’ के रूप में तो उत्पीड़क की भूमिका में रहे हैं, किन्तु उस व्यवस्था के खिलाफ लगातार लेखन कर अपना विरोध जता रहे हैं। दलित साहित्य यथार्थ के इस दूसरे पक्ष को उद्घाटित नहीं कर रहा है। दलित साहित्य ने यथार्थ की हमारी समझ को निश्चय ही विस्तृत किया है, लेकिन दलित लेखकों आलोचकों ने यथार्थवाद की एक बेहद संकुचित धारणा निर्मित की है, जिसके अनुसार केवल जाति और जातिगत शोषण ही यथार्थ है इसके अलावा बाकी सब ‘ब्राह्मणवाद’ है। यथार्थ की इस संकुचित धारणा के चलते दलित साहित्य एक तरह के सपाटपन और विषयगत दुहराव का शिकार हो रहा है।
यथार्थ से जुड़ी बहस का एक पहलू दलित साहित्य की भाषा से जुड़ा हुआ है। दलित साहित्य की भाषा भी बहस का एक प्रमुख मुद्दा रही है। इसकी भाषा पर अनगढ़, असंयत और अश्लील होने का आरोप लगाया जाता है। एक तरफ आलोचकों का मत है कि उसमें बिना किसी कारण के यथार्थ की अभिव्यक्ति के नाम पर अश्लीलता परोसी जा रही है जिसे किसी सामान्य पाठक के लिए भी पढ़ना संभव नहीं हो पाता। ऐसे आक्षेप केवल गैर दलितों ने ही नहीं लगाएं है, बल्कि दलित चिंतकों ने भी दलित साहित्य की भाषा को लेकर इसे अपनी आलोचना का निशाना बनाया है। कंवल भारती कहते हैं कि दलित साहित्य की भाषा और विचारधारा को लेकर जो आरोप लगाए गए हैं उनके पीछे गैर दलित और वामपंथी लेखकों के अपने आग्रह हैं। वे यह भी कहते हैं दलित साहित्य को नामवर सिंह जी जैसे प्रसिद्ध आलोचक गाली-साहित्य कहते हैं, लेकिन सवर्णों द्वारा दलित लोगों के साथ जिस भाषा में व्यवहार किया जाता है, वह कितनी अशिष्ट और भद्दी होती है इसकी ओर वे ध्यान नहीं देते हैं। इसके बाद अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए वे लिखते हैं कि ‘‘दलित लेखक की अनुभूतियों से पैदा हुई दलित साहित्य की भाषा को गैर दलित लेखक कैसे समझ सकता है, जब वह उन अनुभूतियों से गुजरा ही नहीं है।’’ हम देख सकते हैं कि यहां साहित्य की भाषा पर उठे सवाल को ‘अनुभूति’ के तर्क से खारिज करने की प्रचलित पद्धति अपनाई जा रही है। वहीं ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित साहित्य की भाषा के प्रसंग में उठाई गई समस्याओं को कटु यथार्थ की अभिव्यक्ति का अनिवार्य पहलू बताते हुए लिखते हैं कि कुछ आलोचक दलित साहित्य की भाषा पर अश्लील और गन्दी होने का आरोप लगाते हैं, लेकिन ‘‘दलित साहित्य कल्पना में नहीं जीता। वह जीवन के कटु यथार्थ से रूबरू होता है।’’ इसी तरह इसी किताब में आगे चलकर वे यह भी कहते हैं कि ‘‘यातनाओं से उपजी आक्रोशित भाषा एक तेज औजार की तरह भीतर तक झकझोर देती है। दलित समाज की बोली-बानी के ऐसे अनेक शब्द प्रकट होते हैं जिनसे साहित्य अनभिज्ञ था। यह दलित साहित्य को ताजगी देता है और भाषा की जड़ता भी टूटती है।’’
दलित साहित्य की भाषा और रूप का संबंध दलित जीवन के यथार्थ से जोड़कर देखा है- हरिनारायण ठाकुर ने। इन्होंने अपनी पुस्तक ‘दलित साहित्य का समाजशास्त्र’ में लिखा है कि ‘‘पहली नजर में लगता है कि दलित साहित्य की भाषा गाली-गलौज की अश्लील भाषा है’’ लेकिन इसे ‘अश्लील और वर्जित’ नहीं माना जा सकता, क्योंकि ‘‘दलित साहित्य प्रतिरोध और बहुत हद तक प्रतिक्रिया का भी साहित्य है। अतः उसमें क्षोभ, पीड़ा, और आक्रोश स्वाभाविक है। दूसरी बात कि दलित साहित्य ने परम्परागत तत्सम प्रधान, संस्कृतनिष्ठ भाषा, काव्यशैली और प्रस्तुतीकरण को नकारकर जनसामान्य के समझने लायक सर्वग्राही भाषा का प्रयोग किया गया है। वह ऐसी भाषा का इस्तेमाल करता है, जो दलितों की पीड़ा, अपमान और व्यथा तथा जनसामान्य की आशा-आकांक्षाओं के यथार्थ को सही अभिव्यक्ति दे सके।’’
हरिनारायण का कहना बिल्कुल सही है, दलित साहित्य ने भाषा के विषय में भी परम्परागत मानकों को नकार दिया है। उनकी भाषा पर चाहे जो भी आरोप लगाए जाएं लेकिन यह एक सच्चाई है कि संप्रेषणीयता के लिहाज से उनपर आपत्ति नहीं की जा सकती। दलित साहित्य की भाषा को एक सिरे से वीभत्स या अश्लील कहकर खारिज कर देने की बजाय उसके स्रोतों को सहानुभूतिपूर्वक वर्णन समझना अधिक उपयोगी है। लेखक की भाषा उसके परिवेश और जीवन पद्धति से निर्मित होती है, दलित लेखकों ने यथार्थ में जिस भाषा का प्रयोग होते देखा-सुना है, उनकी भाषा पर अगर उसका प्रभाव है तो यह अस्वाभाविक नहीं परिवेश जन्य है। इसी ओर इंगित करते हुए मैनेजर पांडेय ने लिखा है ‘‘सवर्णों से दलितों को युगों से केवल घृणा मिली है; और वह भी लगातार करने वाली हिंसक तथा अश्लील भाषा में। अब उसी भाव और भाषा का दलित इस्तेमाल कर रहे हैं- सवर्ण समुदाय के विरुद्ध। जो दलित पहले सवर्णों की अपमानजनक और घृणा से भरी भाषा केवल सुनते और सहते थे, वे बोलने लगे हैं। कहीं कहीं उनकी आवाज कठोर और कर्कश भी है। लेकिन प्रायः क्रोध में आवाज कर्कश हो जाती है।’’
लेकिन मैनेजर पांडेय एक तो ‘क्रोध’ का नाम लेकर दलित साहित्य की भाषा को छूट देने की सिफारिश कर रहे हैं, दूसरे प्रतिशोधपरक प्रयासों को भी जायज ठहरा रहे हैं। न तो दलित साहित्य क्रोध की भावुक अभिव्यक्ति है, न ही सवर्णों द्वारा अतीत में किये गए अत्याचारों का बदला लेने का उपक्रम! अगर ऐसा हो रहा है तो यह दलित साहित्य के लक्ष्यों से भटकाव है, जिसकी आलोचना होनी चाहिए।
बहरहाल, उक्त विद्वानों के विचारों के आधार पर अगर यह कहा जाए कि दलित साहित्य की भाषा में व्यक्त कठोरता और कटुता का स्रोत एक ओर तो दलित लेखकों के परिवेश से संबंधित है, तो दूसरी ओर उसका संबंध दलित साहित्य में व्यक्त यथार्थ की प्रकृति से है। दलित साहित्य की भाषा में जो ‘अनगढ़ता’ और ‘असाहित्यिकता’ दिखाई पड़ती है वह इस कारण है कि दलित रचनाओं का यथार्थ भिन्न किस्म का है, उसकी ‘साहित्यिकता’ भिन्न किस्म की है और सबसे बढ़कर यह कि उसका लक्ष्य भिन्न किस्म का है
दलित साहित्य की भाषा पर लगे गाली-गलौज के आरोपों का जवाब कंवल भारती गद्य लेखन के द्वारा भी देते हैं और कविताओं के जरिए भी। वे लिखते हैं-
‘‘यह बताओ
बलात्कार की शिकार
तुम्हारी मां की भाषा कैसी होगी?
कैसे होंगे
गुलामी की जिंदगी जीने वाले
तुम्हारे बाप के विचार?
ठाकुर की हवेली में दम तोड़ती
तुम्हारी बहिन के शब्द?
क्या वे सुंदर होंगे?’’
ऐसे आरोपों का प्रतिरोध करते हुए वे कहानियों की भाषा के संदर्भ में यह भी लिखते हैं कि कुछ आलोचकों ने दलित साहित्य को ‘गाली-साहित्य’ की उपमा दी है ‘‘यहां मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि बलात्कार की शिकार कोई भी स्त्री शृंगार की मोहक भाषा नहीं बोलेगी, गुलामी का जुआ ढो रहे व्यक्ति और अत्याचार से पीड़ित की भाषा साहित्यिक नहीं होगी – वह बगावत की भाषा बोलेगा। शिक्षा और सम्मानित जिंदगी से दलित सदियों ये वंचित रहें हैं, उन्हें सभ्य भाषा में बोलने तक का निषेध था। दलित कहानी इसी यथार्थ से उपजी है। इसलिए उसके पात्र वही भाषा बोल सकते हैं, जो समाज ने उन्हें सिखाई है। मधुर साहित्यिक भाषा में कल्पना से सुन्दर से सुन्दर चित्र तो खिंचे जा सकते हैं, पर यथार्थ को अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता।’’
नैतिक आक्रोश से भरे होने के चलते कंवल भारती के तर्क पहली नजर में सही लगते हैं, लेकिन इस भावुक आक्रोश को एक किनारे हटाकर तर्क वैधता की तार्किक जांच जरूरी है। कंवल भारती के तर्क में रूपकों का इस्तेमाल बहुत हुआ है, उन्हीें रूपकों की भाषा में जवाब दें, तो कह सकते हैं कि बलात्कार की शिकार मां और दम तोड़ती बहिन के शब्द सुंदर नहीं होंगे। लेकिन दम तोड़ती बहिन या बलात्कार की शिकार मां कविता नहीं लिखेगी, जैसा कि साहित्यकार महोदय कर रहे हैं। आप साहित्य लिखें और भाषा की साहित्यिकता को गैर जरूरी बताएं यह दोहरापन है। दूसरे, भाषा की अश्लीलता की आलोचना या साहित्यिकता की मांग का अर्थ ‘मधुर भाषा’ में ‘सुन्दर सुन्दर चित्र’ खींचना नहीं होता। उसका आशय खटकने वाली अनौचित्यपूर्ण भाषा के परिहार से है। क्योंकि दलित साहित्य और आलोचना का ध्येय दलित उत्पीड़न, अपमान और जातिव्यवस्था के कटु यथार्थ को ध्वनित कर एक समान, स्वतंत्र और बंधुत्व आधारित समाज के लिए प्रेरित करना रहा है। दलित साहित्य की भाषा को उसके लक्ष्य से जोड़ते हुए रमणिका गुप्ता लिखती हैं ‘‘दलित साहित्य को दलित लिखता है और चूंकि वह भुक्तभोगी होता है यानी वंचनाओं, निषेधों, प्रतिबंधों और अवरोधों के बीच जिंदा रहने का आदी होता है। इसलिए वह लिखता है जो यथार्थ की जमीन पर खड़ा है, कल्पना के आकाश में नहीं। इसीलिए उसकी भाषा कुलीन भाषा नहीं। इधर कुलीन भाषा इस काबिल ही नहीं है कि दलित की जिंदगी के हर एक खुरदरेपन को समेट सके। वह अपनी खुरदरी, नुकीली, तीखी और सीधी-साधी भाषा में लिखता है। यद्यपि कुलीन भाषा और उसका साहित्य मनोरंजन और ऐश्वर्य के माध्यम रहें हैं और अधिकतर यह साहित्य या तो स्वांतः सुखाय लिखा जाता रहा है या फिर चाटुकारिता में अपने लाभ के लिए। जबकि दलित साहित्य एक लक्ष्य रखता है और वह डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर की सोच के प्रति प्रतिबद्ध है। यह साहित्य मनोरंजनकारी नहीं है, बल्कि वह चोट करता है, कचोटता है या फिर शर्मसार करता है, उन्हें, जिनके पूर्वजों ने उन पर जुल्म किए थे।’’
रमणिका गुप्ता ने दलित साहित्य के लक्ष्यों एवं उसकी विशेषताओं को बिल्कुल ठीक रेखांकित किया है। जातिवादी मानसिकता और जातिगत उत्पीड़न करने वालों को शर्मसार किया ही जाना चाहिए, लेकिन यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि जातिवाद की बजाय कहीं किसी जाति विशेष को ही तो शर्मसार करने का अभियान नहीं चलाया जा रहा है। यह भी सावधानी बरती जानी चाहिए कि इस अभियान से कहीं निर्दोष लोग भी तो आहत नहीं हो रहे हैं। यह बातें याद दिलाना इसलिये जरूरी है कि पूर्व हिन्दी दलित साहित्य की भाषा को असाहित्यिकता के नाम पर खारिज कर देना जितना असंवदेनशील रवैया है, उतना ही असंवेदनशील रवैया पूरे दलित साहित्य की भाषा के महिमामंडन में भी निहित है। दलित साहित्य की भाषा और उपलब्धियों को स्वीकार करने के साथ-साथ उसकी समस्याओं के प्रति सचेत रहना जरूरी है। दलित साहित्य की भाषा पर अश्लीलता के जो आरोप लगाए गए हैं, उसमें कुछ हद तक सच्चाई है और उसे केवल ‘यथार्थ’ की अभिव्यक्ति के नाम पर जायज नहीं ठहराया जा सकता। अश्लीलता का सवाल ऐसा है जो सवर्ण विरोधी ही नहीं स्त्री विरोधी भी है, इसीलिये इस पर गंभीरता और संवेदनशीलता के साथ विचार करना जरूरी है।
यह सही है कि दलित समाज के यथार्थ को अभिव्यक्त करते समय उसकी भाषा को दरकिनार नहीं किया जा सकता, भाषा स्वयं किसी विशेष समाज या संस्कृति का यथार्थ होती है। कहीं न कहीं हम भाषा के जरिए भी किसी समाज की वास्तविकता को जानते हैं, पहचानते हैं। लेकिन साहित्य में यथार्थ के नाम पर सबकुछ नहीं लिखा जा सकता, इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण सवाल ‘औचित्य’ या ‘अनौचित्य’ का है। लेखन में अश्लील प्रसंगों और भाषा में अश्लील शब्दों का प्रयोग तब ही होना चाहिए जब उसका कोई औचित्य हो और उसके होने की कोई अनिवार्यता हो। अनौचित्य से साहित्य में गाली-गलौज भर देना यथार्थ स्थिति का प्रतिबिम्बन नहीं है, बल्कि जिसे आप प्रतिपक्षी मानकर चलें हैं उस दूसरे पक्ष को नीचे झुकाने की कोशिश है। यह न साहित्यिक है और न ही नैतिक। ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं कि ‘अपने-अपने पिंजरे’, ‘जूठन’ और सूरजपाल चौहान की कहानियों में आई दलित जीवन की भाषा सहजता के साथ आई है, जो काफी प्रभावशाली रही है। इसकी पड़ताल जरूरी है। मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे’ को देखें तो पाते हैं कि उसमें ढेरों पंक्तियां और वर्णन ऐसे आए हैं जो पढ़ने-सुनने में काफी भद्दे लगते हैं और आत्मकथा में जिनका कोई महत्व या औचित्य भी दिखाई नहीं देता। इनके उद्वरण देना मेरे लिए सहज नहीं था इसलिए अगर किसी की रुचि हो तो वह इस आत्मकथा को पढ़ सकता है।
इस भाषा प्रयोग को किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता। अगर मान भी लिया जाय कि इन दृश्यों को प्रस्तुत करना ‘यथार्थ’ के लिये जरूरी था, तब भी संकेतों से काम चलाया जा सकता था। गोपनीय समझे जाने वाले अंगों और वीभत्स बोध कराने वाली क्रियाओं के सचित्र वर्णन से कौन सी संवेदना पैदा की जा रही है। यह भी गौरतलब है कि उक्त अंगों और क्रियाओं के लिये दूसरे पर्यायवाची शब्द भी हैं; जो अपेक्षाकृत कम वीभत्स माने जाते हैं, लेकिन नैमिशराय ने सचेत रूप से उन्हीं शब्दों का प्रयोग किया है, जो लेखन में वर्जित माने गए हैं। क्या इसी भाषा प्रयोग को ‘विद्रोह’ और ‘आक्रोश’ कहकर गौरवान्वित किया जाता है?
दलित चेतना जगाने तथा यथार्थ को प्रकट के लिहाज से ऐसे प्रसंगों की न कोई उपयोगिता नजर आती है और न ही कोई प्रासंगिकता। कहानियों में भी ऐसे वर्णन-चित्रण मिलते हैं जिन पर कई प्रतिष्ठित आलोचकों ने सवाल उठाए हैं। ये कैसा यथार्थ है कि पढ़ते समय पाठक यह भी नहीं समझ पाता कि अगर ये पंक्तियां या प्रसंग नहीं लिखी जातीं, तो कौनसा वास्तविक यथार्थ पाठक के जाने बिना छूट जाता। वह यह भी नहीं समझ पाता कि ऐसे अंश अगर न भी शामिल किए जाते तो प्रभाव ग्रहण और प्रभाव क्षमता में क्या परिवर्तन आ जाते? फिर साहित्य के नाम पर ऐसे अंश किसी रचना में क्यों शामिल किए जाएं, अगर कोई करे तो फिर उनकी आलोचना क्यों न की जाए, चाहे वह दलित साहित्य ही क्यों न हो।
चन्द्रभान प्रसाद की कहानी है- ‘चमरिया मइया का शाप’। इस कहानी में एक सवर्ण स्त्री और दलित पुरुष के बीच बनने वाले शारीरिक संबंध का चित्रण लेखक ने बड़ी रसिकता के साथ किया है, कुछ उद्धरण देखें ‘‘….वे अब तनकर खड़ी हो गई थी। वक्षस्थल और उभर उठा। पल्लू कसकर बांधी थी। मानो धोती फटने ही वाली हो। भरा हुआ वक्ष वस्त्र की कसाई से और सुदृढ़ हो गया।…दशरथ उनका अवलोकन कर रहा था।’’ इसी कहानी में एक जगह और वे लिखते हैं कि ‘‘मामी ने बाल पीछे कर लिए। दोनों हाथ ऊपर उठ गए। हथेलियां सटी हुईं। सूर्य-नमन जैसी मुद्रा में पल्लू नीचे लुढ़क गया। ब्लाउज नारंगी। वक्ष इतने गोल, सुडौल कि मानो ब्लाउज फाड़कर बाहर निकलने ही वाले। ब्रा पहनी नहीं थी।’’ चन्द्रभान प्रसाद की ऐसी भाषा को अगर उत्तेजना पैदा करने वाली, अश्लील भाषा कहा जाए तो कोई गलत नहीं होगा।
ऐसा ही भाषा-प्रयोग और स्थितियों का चित्रण ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘ग्रहण’ में भी है, ‘बिरम की बहू’ इसी कहानी का दूसरा भाग है। इसी तरह सूरजपाल चौहान की ‘चेता का उपकार’ कहानी भी है। इन सभी रचनाओं के उद्धरण यहां देना अनावश्यक विस्तार होगा। इन कहानियों में ऐसे प्रसंगों के चित्रण से स्पष्ट हो जाता है कि ये शुद्ध रूप से उत्तेजना पैदा करने के लिए दिए गए हैं, जिसमें सवर्ण स्त्रियों को परपुरुष (दलित) गामी बतलाया गया है। इसके पीछे उनका मंतव्य क्या रहा है, इसे समझा जा सकता है।
दलित आलोचना में डॉ. धर्मवीर, जयप्रकाश कर्दम और श्यौराजसिंह बेचैन का प्रमुख स्थान है। इनके आलोचना कर्म पर दृष्टिपात करें तो बहुत सारे वक्तव्य और धारणाएं ऐसी पाएंगे जो ठेठ स्त्री विरोधी हैं। इनके स्त्री विरोधी वक्तव्यों का खुलासा हम कर चुके हैं, लेकिन इनकी भाषा के बारे में बात करना अभी बाकी है। दलित आलोचक डॉ. तेजसिंह ने तो इनके चिंतन को ‘दलित सामंत का स्त्री विरोधी चिंतन’ कहा है। वे लिखते हैं कि ‘‘धर्मवीर के दलितशास्त्र के जार दर्शन और बलात्कार-दर्शन के कुत्सित और घृणित विचारों का समर्थन श्यौराजसिंह ‘बेचैन’ और जयप्रकाश कर्दम जैसे कथित दलित साहित्यकारों को छोड़कर और किसी ने नहीं किया।’’ डॉ. धर्मवीर की परम्परा का निर्वहन करते हुए जयप्रकाश कर्दम ने ‘बलात्कार का दर्शन’ नामक लेख लिखा। इसमें इन्होंने दलित स्त्रियों के साथ बलात्कार होने तथा सवर्ण स्त्रियों का बलात्कार न होने की कुछ भ्रामक और आपत्तिजनक स्थापनाएं देने की कोशिश की थी, जिस पर स्त्रियों द्वारा कड़ी आपत्तियां जताई गई थीं। बलात्कार के ‘दर्शन’ को समझाने के नाम पर कर्दमजी ने जिस तरह की मूर्खतापूर्ण और स्त्री विरोधी बातें की गई थीं, उसका जवाब एक लेखक ने ‘दर्शन का बलात्कार’ लिखकर बिल्कुल ठीक ही दिया। कर्दम जी के लेख में कई जगह भाषा के ऐसे प्रयोग किए गए हैं जिन्हें उद्धृत कर सकना भी मुश्किल लगता है। जैसे, एक जगह वे बताते हैं कि दलित आदिवासी स्त्रियों के साथ बलात्कार का उद््देश्य दलितों के सम्मान और स्वाभिमान को कुचलना है, उनकी ‘‘योनियों में जातीय अहं के खूंटों का ठोका जाना है।’’ इसी तरह वे कन्नौज के त्रिवेदी ब्राह्मणों के यहां प्रचलित कहावत को सीधे-सीधे अनुवाद सहित लिख देते हैं कि- ‘चौदें चमन्ना, पुन्न ही पुन्न।’ दलित चिंतक डॉ. तेजसिंह के लिए भी इसके अनुवाद को उद्धृत कर सकना संभव नहीं जान पड़ा और उन्होंने लिखा कि ‘‘इसका अनुवाद अश्लीलता और भद्दा होने की वजह से यहां नहीं दिया जा रहा है।’’ जबकि कर्दम जी ने बिना किसी संकोच के इस पंक्ति को (जाहिर है लेख में ही) अनुवाद सहित ‘युद्धरत आम आदमी’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2003) के अलावा कई पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाया था। किसी की अतिरिक्त रूचि हो तो उनका लेख पढ़ लें, क्योंकि उस अनुवाद को लिख पाना मेरे भी साहस के बाहर है। डॉ. धर्मवीर लिखते हैं कि ‘ब्राह्मण दलित स्त्रियों के पीछे दौड़ रहा है और मौका मिलते ही उनकी योनियों को जबरन अपने लिंगों से क्षत-विक्षत करता है।’ इसी का विस्तार करते हुए डॉ. जयप्रकाश कर्दम लिखते हैं कि ‘‘आज की सदी इन बलात्कारी लिंगों पर अंकुश लगाने और उन्हें काट फेंकने की सदी है।… अन्य किसी भी रूप में दलित स्त्रियों की योनियों पर हुए अत्याचार का जुर्माना वसूलने की सदी है।’’ इस तरह के और भी वक्तव्य या पंक्तियां उनके लेखों-पुस्तकों में मिल जाएंगी जो ‘‘इससे भी ज्यादा अश्लील और भद्दी’’ हैं।
दलित साहित्य समतामूलक समाज की स्थापना लक्ष्य लेकर चला है, इसके लिये वैकल्पिक मूल्यबोध का होना जरूरी है। यह मूल्यबोध भाषा के प्रसंग में भी दिखाई देना चाहिए। सवाल केवल मौजूदा यथार्थ का नहीं है, सवाल उस यथार्थ का भी है, जिसकी रचना करने की जिम्मेदारी आपने उठाई है। ठीक इसी तरह सवाल केवल उस भाषा का नहीं है जिसमें आपने जीवन जिया है, सवाल उस भाषा का भी है, जिसे आप भविष्य की भाषा बनाना चाहेंगे। सवाल उस भाषा का है, जिसका निर्माण आप कर रहे हैं और भावी पीढ़िया जिसे विरासत के रूप में पाएंगी। अपनी इस जिम्मेदारी से आखें तो चुराई जा सकती हैं, बचा नहीं जा सकता। चिंता की बात यह है कि लेखन की भाषा मानक भाषा होती है अगर उसके स्तर को इतना नीचे गिरा दिया जाएगा तो फिर बोलचाल की भाषा का नियंत्रण कैसे किया जाएगा, उसका स्तर कैसे बदला जाएगा? दलित समाज के यथार्थ को अम्बेडकर ने कम व्यक्त नहीं किया था, लेकिन उन्होंने अपने समाज का यथार्थ बतलाने के लिए इस तरह की भाषा का प्रयोग कभी नहीं किया था और वे हमेशा स्त्रियों का सम्मान करने के पक्षधर भी रहे हैं, तो दलित साहित्यकारों के इस तरह के विचार एवं उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम बनने वाली ऐसी ‘भाषा’ क्या अम्बेडकरवादी विचार एवं सोच का प्रतिनिधित्व करती है?
बहरहाल, दलित साहित्य के उक्त उदाहरणों के आधार पर पूरे दलित साहित्य की भाषा को अश्लील ठहराना या तो नादानी होगी या फिर धूर्तता। दलित लेखकों ने अपवाद स्वरूप ही उस तरह की भाषा का प्रयोग किया है, जिसका जिक्र ऊपर आया है। हाल ही में प्रकाशित तुलसीराम की आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ जहां एक तरफ दलित लेखन की भाषा पर लगे ‘असाहित्यिकता’ के आरोप का मुंहतोड़ सृजनात्मक उत्तर देती है, वहीं वह उन दलित आलोचकों द्वारा गाली-गलौज और अश्लीलता को महिमामंडित करने के उन प्रयासों का भी निर्णायक उत्तर है जो कहते हैं कि अशोभनीय भाषा में ही दलित यथार्थ को प्रकट किया जा सकता है। भाषा, यथार्थ और अश्लीलता के सवालों पर दलित लेखकों को ध्यान देने की जरूरत है।
हिन्दी साहित्य में छायावादी और प्रगतिशील साहित्य के संदर्भ में भी स्वानुभूति और अनुभूति की प्रामाणिकता की बात की जाती है, लेकिन दलित साहित्यकार इसे ‘आत्माभिव्यक्ति’ ही स्वीकार करते हैं। कंवल भारती कहते हैं कि उनके लेखन में ‘आपबीती का इजहार’ ही है जिसे वे स्वानुभूति मानते हैं, ‘यानि, यह उस यथार्थ का लेखन है, जिसका व्यक्तिगत रूप से लेखक भोक्ता होता है’ और व्यक्तिगत स्तर का यथाथर््ा किसी दूसरे को अपना नहीं लग सकता है, जबकि प्रामाणिक अनुभूति के लिए आवश्यक है कि स्वानुभूति को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हो। स्वानुभूति नितान्त व्यक्तिपरक और वैयक्तिक हो तो वह पूरी समष्टि या समाज की अनुभूति नहीं बन सकती। दलित साहित्य में प्रकट यथार्थ को प्रामाणिक अनुभव के रूप में सभी लोग स्वीकार करते हैं। कंवल भारती ने ‘सरोज-स्मृति’ कविता का उदाहरण देकर बताया है कि ‘‘अपनी पु़त्री सरोज की मृत्यु ने निराला को व्यक्तिगत स्तर पर जितना व्यथित किया, वही उनके इस शोक गीत का यथार्थ हैै। पर, यह यथार्थ किसी दूसरे को अपना यथार्थ नहीं लग सकता है। सम्वेदना के स्तर पर पुत्री की मृत्यु पर पिता के दुख को महसूस जरूर किया जा सकता है।’’
गैर दलित साहित्य की तुलना दलित साहित्य से करते हुए वे इस बात को ठीक ही रेखांकित करते हैं कि उसमें व्यक्ति की अपेक्षा समुदाय केन्द्र में है। दलित आत्मकथाओं की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है कि उनमें ‘‘सारी स्थितियों में मौजूद यथार्थ वैयक्तिक नहीं है, वह पूरे समाज का सच है।’’ यानि किसी आत्मकथा में वर्णित घटनाएं भले ही किसी व्यक्ति विशेष की हों, लेकिन जिस परिस्थिति में वह है और जिस जातिगत भेदभाव का वह शिकार हो रहा है, वह एक सामाजिक तथ्य है। लेकिन इस बात के ठीक बाद जब वे लिखते हैं कि ‘‘इसके विपरीत निराला, जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा की आत्मकथाएं रचनाएं या अन्य सवर्ण लेखकों की आत्मकथाएं अनुभूति के स्तर पर इसलिए प्रामाणिक नहीं कही जा सकतीं, क्योंकि उनमें सब-कुछ व्यक्तिगत ही है, समष्टिगत नहीं है।’’
तो यह बात तथ्य से अधिक एक आरोप लगती है। यही वजह है कि ठोस उदाहरण के जरिये बात करने की बजाय भारती जी ने प्रसाद और महादेवी की न जाने किन आत्मकथात्मक रचनाओं की कल्पना कर डाली है। अगर निराला, प्रसाद और महादेवी की रचनाओं में सब कुछ केवल व्यक्तिगत होता सामाजिक सत्य का अंश ही न होता, तो उसे व्यापक पाठक वर्ग की स्वीकृति कैसे मिली? क्या निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर’, ‘भिक्षुक’, ‘बादल राग’ जैसी कविताओं तथा ‘चतुरी चमार’ जैसी संस्मरणात्मक रचनाए और प्रसाद के ‘कंकाल’ जैसे उपन्यासों में सचमुच कुछ भी समष्टिगत नहीं है? क्या महादेवी वर्मा के ‘बिंबिया’, ‘गुंगिया’ जैसे रेखाचित्र और ‘मैं नीर भरी दुख की बदली/उमड़ी थी कल मिट आज चली/विस्तृत नभ का कोई कोना/मेरा न कभी अपना होना’ जैसी काव्य पंक्तियां केवल उनकी वैयक्तिक अनुभूति को व्यक्त करती हैं, इसमें सभी स्त्रियों की अधीनता की पीड़ा को अभिव्यक्ति नहीं मिली है। या कि केवल दलित अनुभव सामुहिक स्वरूप के होते हैं, स्त्री अनुभव नहीं?
यथार्थवाद की बहस के संदर्भ में निःसंदेह यह कहा जा सकता है कि दलित साहित्य ने यथार्थवाद को नए आयाम दिए हैं। दलित साहित्य ने जातीय उत्पीड़न को अभिव्यक्त करके समाज के यथार्थ की हमारी समझ को और स्पष्ट बनाया है, लेकिन दलित साहित्य भी तो समाज के पूर्ण यथार्थ को अभिव्यक्ति न देकर यथार्थ के एक पक्ष को ही सामने लाने का काम करता है। जिस प्रकार भारतीय समाज में जातिव्यवस्था का होना एक यथार्थ है, वहीं जाति का टूटना भी एक यथार्थ है। आज बहुत से रचनाकार और लेखक ऐसे हैं जो एक ‘जाति’ के रूप में तो उत्पीड़क की भूमिका में रहे हैं, किन्तु उस व्यवस्था के खिलाफ लगातार लेखन कर अपना विरोध जता रहे हैं। दलित साहित्य यथार्थ के इस दूसरे पक्ष को उद्घाटित नहीं कर रहा है। दलित साहित्य ने यथार्थ की हमारी समझ को निश्चय ही विस्तृत किया है, लेकिन दलित लेखकों आलोचकों ने यथार्थवाद की एक बेहद संकुचित धारणा निर्मित की है, जिसके अनुसार केवल जाति और जातिगत शोषण ही यथार्थ है इसके अलावा बाकी सब ‘ब्राह्मणवाद’ है। यथार्थ की इस संकुचित धारणा के चलते दलित साहित्य एक तरह के सपाटपन और विषयगत दुहराव का शिकार हो रहा है।
यथार्थ से जुड़ी बहस का एक पहलू दलित साहित्य की भाषा से जुड़ा हुआ है। दलित साहित्य की भाषा भी बहस का एक प्रमुख मुद्दा रही है। इसकी भाषा पर अनगढ़, असंयत और अश्लील होने का आरोप लगाया जाता है। एक तरफ आलोचकों का मत है कि उसमें बिना किसी कारण के यथार्थ की अभिव्यक्ति के नाम पर अश्लीलता परोसी जा रही है जिसे किसी सामान्य पाठक के लिए भी पढ़ना संभव नहीं हो पाता। ऐसे आक्षेप केवल गैर दलितों ने ही नहीं लगाएं है, बल्कि दलित चिंतकों ने भी दलित साहित्य की भाषा को लेकर इसे अपनी आलोचना का निशाना बनाया है। कंवल भारती कहते हैं कि दलित साहित्य की भाषा और विचारधारा को लेकर जो आरोप लगाए गए हैं उनके पीछे गैर दलित और वामपंथी लेखकों के अपने आग्रह हैं। वे यह भी कहते हैं दलित साहित्य को नामवर सिंह जी जैसे प्रसिद्ध आलोचक गाली-साहित्य कहते हैं, लेकिन सवर्णों द्वारा दलित लोगों के साथ जिस भाषा में व्यवहार किया जाता है, वह कितनी अशिष्ट और भद्दी होती है इसकी ओर वे ध्यान नहीं देते हैं। इसके बाद अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए वे लिखते हैं कि ‘‘दलित लेखक की अनुभूतियों से पैदा हुई दलित साहित्य की भाषा को गैर दलित लेखक कैसे समझ सकता है, जब वह उन अनुभूतियों से गुजरा ही नहीं है।’’ हम देख सकते हैं कि यहां साहित्य की भाषा पर उठे सवाल को ‘अनुभूति’ के तर्क से खारिज करने की प्रचलित पद्धति अपनाई जा रही है। वहीं ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित साहित्य की भाषा के प्रसंग में उठाई गई समस्याओं को कटु यथार्थ की अभिव्यक्ति का अनिवार्य पहलू बताते हुए लिखते हैं कि कुछ आलोचक दलित साहित्य की भाषा पर अश्लील और गन्दी होने का आरोप लगाते हैं, लेकिन ‘‘दलित साहित्य कल्पना में नहीं जीता। वह जीवन के कटु यथार्थ से रूबरू होता है।’’ इसी तरह इसी किताब में आगे चलकर वे यह भी कहते हैं कि ‘‘यातनाओं से उपजी आक्रोशित भाषा एक तेज औजार की तरह भीतर तक झकझोर देती है। दलित समाज की बोली-बानी के ऐसे अनेक शब्द प्रकट होते हैं जिनसे साहित्य अनभिज्ञ था। यह दलित साहित्य को ताजगी देता है और भाषा की जड़ता भी टूटती है।’’
दलित साहित्य की भाषा और रूप का संबंध दलित जीवन के यथार्थ से जोड़कर देखा है- हरिनारायण ठाकुर ने। इन्होंने अपनी पुस्तक ‘दलित साहित्य का समाजशास्त्र’ में लिखा है कि ‘‘पहली नजर में लगता है कि दलित साहित्य की भाषा गाली-गलौज की अश्लील भाषा है’’ लेकिन इसे ‘अश्लील और वर्जित’ नहीं माना जा सकता, क्योंकि ‘‘दलित साहित्य प्रतिरोध और बहुत हद तक प्रतिक्रिया का भी साहित्य है। अतः उसमें क्षोभ, पीड़ा, और आक्रोश स्वाभाविक है। दूसरी बात कि दलित साहित्य ने परम्परागत तत्सम प्रधान, संस्कृतनिष्ठ भाषा, काव्यशैली और प्रस्तुतीकरण को नकारकर जनसामान्य के समझने लायक सर्वग्राही भाषा का प्रयोग किया गया है। वह ऐसी भाषा का इस्तेमाल करता है, जो दलितों की पीड़ा, अपमान और व्यथा तथा जनसामान्य की आशा-आकांक्षाओं के यथार्थ को सही अभिव्यक्ति दे सके।’’
हरिनारायण का कहना बिल्कुल सही है, दलित साहित्य ने भाषा के विषय में भी परम्परागत मानकों को नकार दिया है। उनकी भाषा पर चाहे जो भी आरोप लगाए जाएं लेकिन यह एक सच्चाई है कि संप्रेषणीयता के लिहाज से उनपर आपत्ति नहीं की जा सकती। दलित साहित्य की भाषा को एक सिरे से वीभत्स या अश्लील कहकर खारिज कर देने की बजाय उसके स्रोतों को सहानुभूतिपूर्वक वर्णन समझना अधिक उपयोगी है। लेखक की भाषा उसके परिवेश और जीवन पद्धति से निर्मित होती है, दलित लेखकों ने यथार्थ में जिस भाषा का प्रयोग होते देखा-सुना है, उनकी भाषा पर अगर उसका प्रभाव है तो यह अस्वाभाविक नहीं परिवेश जन्य है। इसी ओर इंगित करते हुए मैनेजर पांडेय ने लिखा है ‘‘सवर्णों से दलितों को युगों से केवल घृणा मिली है; और वह भी लगातार करने वाली हिंसक तथा अश्लील भाषा में। अब उसी भाव और भाषा का दलित इस्तेमाल कर रहे हैं- सवर्ण समुदाय के विरुद्ध। जो दलित पहले सवर्णों की अपमानजनक और घृणा से भरी भाषा केवल सुनते और सहते थे, वे बोलने लगे हैं। कहीं कहीं उनकी आवाज कठोर और कर्कश भी है। लेकिन प्रायः क्रोध में आवाज कर्कश हो जाती है।’’
लेकिन मैनेजर पांडेय एक तो ‘क्रोध’ का नाम लेकर दलित साहित्य की भाषा को छूट देने की सिफारिश कर रहे हैं, दूसरे प्रतिशोधपरक प्रयासों को भी जायज ठहरा रहे हैं। न तो दलित साहित्य क्रोध की भावुक अभिव्यक्ति है, न ही सवर्णों द्वारा अतीत में किये गए अत्याचारों का बदला लेने का उपक्रम! अगर ऐसा हो रहा है तो यह दलित साहित्य के लक्ष्यों से भटकाव है, जिसकी आलोचना होनी चाहिए।
बहरहाल, उक्त विद्वानों के विचारों के आधार पर अगर यह कहा जाए कि दलित साहित्य की भाषा में व्यक्त कठोरता और कटुता का स्रोत एक ओर तो दलित लेखकों के परिवेश से संबंधित है, तो दूसरी ओर उसका संबंध दलित साहित्य में व्यक्त यथार्थ की प्रकृति से है। दलित साहित्य की भाषा में जो ‘अनगढ़ता’ और ‘असाहित्यिकता’ दिखाई पड़ती है वह इस कारण है कि दलित रचनाओं का यथार्थ भिन्न किस्म का है, उसकी ‘साहित्यिकता’ भिन्न किस्म की है और सबसे बढ़कर यह कि उसका लक्ष्य भिन्न किस्म का है
दलित साहित्य की भाषा पर लगे गाली-गलौज के आरोपों का जवाब कंवल भारती गद्य लेखन के द्वारा भी देते हैं और कविताओं के जरिए भी। वे लिखते हैं-
‘‘यह बताओ
बलात्कार की शिकार
तुम्हारी मां की भाषा कैसी होगी?
कैसे होंगे
गुलामी की जिंदगी जीने वाले
तुम्हारे बाप के विचार?
ठाकुर की हवेली में दम तोड़ती
तुम्हारी बहिन के शब्द?
क्या वे सुंदर होंगे?’’
ऐसे आरोपों का प्रतिरोध करते हुए वे कहानियों की भाषा के संदर्भ में यह भी लिखते हैं कि कुछ आलोचकों ने दलित साहित्य को ‘गाली-साहित्य’ की उपमा दी है ‘‘यहां मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि बलात्कार की शिकार कोई भी स्त्री शृंगार की मोहक भाषा नहीं बोलेगी, गुलामी का जुआ ढो रहे व्यक्ति और अत्याचार से पीड़ित की भाषा साहित्यिक नहीं होगी – वह बगावत की भाषा बोलेगा। शिक्षा और सम्मानित जिंदगी से दलित सदियों ये वंचित रहें हैं, उन्हें सभ्य भाषा में बोलने तक का निषेध था। दलित कहानी इसी यथार्थ से उपजी है। इसलिए उसके पात्र वही भाषा बोल सकते हैं, जो समाज ने उन्हें सिखाई है। मधुर साहित्यिक भाषा में कल्पना से सुन्दर से सुन्दर चित्र तो खिंचे जा सकते हैं, पर यथार्थ को अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता।’’
नैतिक आक्रोश से भरे होने के चलते कंवल भारती के तर्क पहली नजर में सही लगते हैं, लेकिन इस भावुक आक्रोश को एक किनारे हटाकर तर्क वैधता की तार्किक जांच जरूरी है। कंवल भारती के तर्क में रूपकों का इस्तेमाल बहुत हुआ है, उन्हीें रूपकों की भाषा में जवाब दें, तो कह सकते हैं कि बलात्कार की शिकार मां और दम तोड़ती बहिन के शब्द सुंदर नहीं होंगे। लेकिन दम तोड़ती बहिन या बलात्कार की शिकार मां कविता नहीं लिखेगी, जैसा कि साहित्यकार महोदय कर रहे हैं। आप साहित्य लिखें और भाषा की साहित्यिकता को गैर जरूरी बताएं यह दोहरापन है। दूसरे, भाषा की अश्लीलता की आलोचना या साहित्यिकता की मांग का अर्थ ‘मधुर भाषा’ में ‘सुन्दर सुन्दर चित्र’ खींचना नहीं होता। उसका आशय खटकने वाली अनौचित्यपूर्ण भाषा के परिहार से है। क्योंकि दलित साहित्य और आलोचना का ध्येय दलित उत्पीड़न, अपमान और जातिव्यवस्था के कटु यथार्थ को ध्वनित कर एक समान, स्वतंत्र और बंधुत्व आधारित समाज के लिए प्रेरित करना रहा है। दलित साहित्य की भाषा को उसके लक्ष्य से जोड़ते हुए रमणिका गुप्ता लिखती हैं ‘‘दलित साहित्य को दलित लिखता है और चूंकि वह भुक्तभोगी होता है यानी वंचनाओं, निषेधों, प्रतिबंधों और अवरोधों के बीच जिंदा रहने का आदी होता है। इसलिए वह लिखता है जो यथार्थ की जमीन पर खड़ा है, कल्पना के आकाश में नहीं। इसीलिए उसकी भाषा कुलीन भाषा नहीं। इधर कुलीन भाषा इस काबिल ही नहीं है कि दलित की जिंदगी के हर एक खुरदरेपन को समेट सके। वह अपनी खुरदरी, नुकीली, तीखी और सीधी-साधी भाषा में लिखता है। यद्यपि कुलीन भाषा और उसका साहित्य मनोरंजन और ऐश्वर्य के माध्यम रहें हैं और अधिकतर यह साहित्य या तो स्वांतः सुखाय लिखा जाता रहा है या फिर चाटुकारिता में अपने लाभ के लिए। जबकि दलित साहित्य एक लक्ष्य रखता है और वह डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर की सोच के प्रति प्रतिबद्ध है। यह साहित्य मनोरंजनकारी नहीं है, बल्कि वह चोट करता है, कचोटता है या फिर शर्मसार करता है, उन्हें, जिनके पूर्वजों ने उन पर जुल्म किए थे।’’
रमणिका गुप्ता ने दलित साहित्य के लक्ष्यों एवं उसकी विशेषताओं को बिल्कुल ठीक रेखांकित किया है। जातिवादी मानसिकता और जातिगत उत्पीड़न करने वालों को शर्मसार किया ही जाना चाहिए, लेकिन यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि जातिवाद की बजाय कहीं किसी जाति विशेष को ही तो शर्मसार करने का अभियान नहीं चलाया जा रहा है। यह भी सावधानी बरती जानी चाहिए कि इस अभियान से कहीं निर्दोष लोग भी तो आहत नहीं हो रहे हैं। यह बातें याद दिलाना इसलिये जरूरी है कि पूर्व हिन्दी दलित साहित्य की भाषा को असाहित्यिकता के नाम पर खारिज कर देना जितना असंवदेनशील रवैया है, उतना ही असंवेदनशील रवैया पूरे दलित साहित्य की भाषा के महिमामंडन में भी निहित है। दलित साहित्य की भाषा और उपलब्धियों को स्वीकार करने के साथ-साथ उसकी समस्याओं के प्रति सचेत रहना जरूरी है। दलित साहित्य की भाषा पर अश्लीलता के जो आरोप लगाए गए हैं, उसमें कुछ हद तक सच्चाई है और उसे केवल ‘यथार्थ’ की अभिव्यक्ति के नाम पर जायज नहीं ठहराया जा सकता। अश्लीलता का सवाल ऐसा है जो सवर्ण विरोधी ही नहीं स्त्री विरोधी भी है, इसीलिये इस पर गंभीरता और संवेदनशीलता के साथ विचार करना जरूरी है।
यह सही है कि दलित समाज के यथार्थ को अभिव्यक्त करते समय उसकी भाषा को दरकिनार नहीं किया जा सकता, भाषा स्वयं किसी विशेष समाज या संस्कृति का यथार्थ होती है। कहीं न कहीं हम भाषा के जरिए भी किसी समाज की वास्तविकता को जानते हैं, पहचानते हैं। लेकिन साहित्य में यथार्थ के नाम पर सबकुछ नहीं लिखा जा सकता, इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण सवाल ‘औचित्य’ या ‘अनौचित्य’ का है। लेखन में अश्लील प्रसंगों और भाषा में अश्लील शब्दों का प्रयोग तब ही होना चाहिए जब उसका कोई औचित्य हो और उसके होने की कोई अनिवार्यता हो। अनौचित्य से साहित्य में गाली-गलौज भर देना यथार्थ स्थिति का प्रतिबिम्बन नहीं है, बल्कि जिसे आप प्रतिपक्षी मानकर चलें हैं उस दूसरे पक्ष को नीचे झुकाने की कोशिश है। यह न साहित्यिक है और न ही नैतिक। ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं कि ‘अपने-अपने पिंजरे’, ‘जूठन’ और सूरजपाल चौहान की कहानियों में आई दलित जीवन की भाषा सहजता के साथ आई है, जो काफी प्रभावशाली रही है। इसकी पड़ताल जरूरी है। मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे’ को देखें तो पाते हैं कि उसमें ढेरों पंक्तियां और वर्णन ऐसे आए हैं जो पढ़ने-सुनने में काफी भद्दे लगते हैं और आत्मकथा में जिनका कोई महत्व या औचित्य भी दिखाई नहीं देता। इनके उद्वरण देना मेरे लिए सहज नहीं था इसलिए अगर किसी की रुचि हो तो वह इस आत्मकथा को पढ़ सकता है।
इस भाषा प्रयोग को किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता। अगर मान भी लिया जाय कि इन दृश्यों को प्रस्तुत करना ‘यथार्थ’ के लिये जरूरी था, तब भी संकेतों से काम चलाया जा सकता था। गोपनीय समझे जाने वाले अंगों और वीभत्स बोध कराने वाली क्रियाओं के सचित्र वर्णन से कौन सी संवेदना पैदा की जा रही है। यह भी गौरतलब है कि उक्त अंगों और क्रियाओं के लिये दूसरे पर्यायवाची शब्द भी हैं; जो अपेक्षाकृत कम वीभत्स माने जाते हैं, लेकिन नैमिशराय ने सचेत रूप से उन्हीं शब्दों का प्रयोग किया है, जो लेखन में वर्जित माने गए हैं। क्या इसी भाषा प्रयोग को ‘विद्रोह’ और ‘आक्रोश’ कहकर गौरवान्वित किया जाता है?
दलित चेतना जगाने तथा यथार्थ को प्रकट के लिहाज से ऐसे प्रसंगों की न कोई उपयोगिता नजर आती है और न ही कोई प्रासंगिकता। कहानियों में भी ऐसे वर्णन-चित्रण मिलते हैं जिन पर कई प्रतिष्ठित आलोचकों ने सवाल उठाए हैं। ये कैसा यथार्थ है कि पढ़ते समय पाठक यह भी नहीं समझ पाता कि अगर ये पंक्तियां या प्रसंग नहीं लिखी जातीं, तो कौनसा वास्तविक यथार्थ पाठक के जाने बिना छूट जाता। वह यह भी नहीं समझ पाता कि ऐसे अंश अगर न भी शामिल किए जाते तो प्रभाव ग्रहण और प्रभाव क्षमता में क्या परिवर्तन आ जाते? फिर साहित्य के नाम पर ऐसे अंश किसी रचना में क्यों शामिल किए जाएं, अगर कोई करे तो फिर उनकी आलोचना क्यों न की जाए, चाहे वह दलित साहित्य ही क्यों न हो।
चन्द्रभान प्रसाद की कहानी है- ‘चमरिया मइया का शाप’। इस कहानी में एक सवर्ण स्त्री और दलित पुरुष के बीच बनने वाले शारीरिक संबंध का चित्रण लेखक ने बड़ी रसिकता के साथ किया है, कुछ उद्धरण देखें ‘‘….वे अब तनकर खड़ी हो गई थी। वक्षस्थल और उभर उठा। पल्लू कसकर बांधी थी। मानो धोती फटने ही वाली हो। भरा हुआ वक्ष वस्त्र की कसाई से और सुदृढ़ हो गया।…दशरथ उनका अवलोकन कर रहा था।’’ इसी कहानी में एक जगह और वे लिखते हैं कि ‘‘मामी ने बाल पीछे कर लिए। दोनों हाथ ऊपर उठ गए। हथेलियां सटी हुईं। सूर्य-नमन जैसी मुद्रा में पल्लू नीचे लुढ़क गया। ब्लाउज नारंगी। वक्ष इतने गोल, सुडौल कि मानो ब्लाउज फाड़कर बाहर निकलने ही वाले। ब्रा पहनी नहीं थी।’’ चन्द्रभान प्रसाद की ऐसी भाषा को अगर उत्तेजना पैदा करने वाली, अश्लील भाषा कहा जाए तो कोई गलत नहीं होगा।
ऐसा ही भाषा-प्रयोग और स्थितियों का चित्रण ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘ग्रहण’ में भी है, ‘बिरम की बहू’ इसी कहानी का दूसरा भाग है। इसी तरह सूरजपाल चौहान की ‘चेता का उपकार’ कहानी भी है। इन सभी रचनाओं के उद्धरण यहां देना अनावश्यक विस्तार होगा। इन कहानियों में ऐसे प्रसंगों के चित्रण से स्पष्ट हो जाता है कि ये शुद्ध रूप से उत्तेजना पैदा करने के लिए दिए गए हैं, जिसमें सवर्ण स्त्रियों को परपुरुष (दलित) गामी बतलाया गया है। इसके पीछे उनका मंतव्य क्या रहा है, इसे समझा जा सकता है।
दलित आलोचना में डॉ. धर्मवीर, जयप्रकाश कर्दम और श्यौराजसिंह बेचैन का प्रमुख स्थान है। इनके आलोचना कर्म पर दृष्टिपात करें तो बहुत सारे वक्तव्य और धारणाएं ऐसी पाएंगे जो ठेठ स्त्री विरोधी हैं। इनके स्त्री विरोधी वक्तव्यों का खुलासा हम कर चुके हैं, लेकिन इनकी भाषा के बारे में बात करना अभी बाकी है। दलित आलोचक डॉ. तेजसिंह ने तो इनके चिंतन को ‘दलित सामंत का स्त्री विरोधी चिंतन’ कहा है। वे लिखते हैं कि ‘‘धर्मवीर के दलितशास्त्र के जार दर्शन और बलात्कार-दर्शन के कुत्सित और घृणित विचारों का समर्थन श्यौराजसिंह ‘बेचैन’ और जयप्रकाश कर्दम जैसे कथित दलित साहित्यकारों को छोड़कर और किसी ने नहीं किया।’’ डॉ. धर्मवीर की परम्परा का निर्वहन करते हुए जयप्रकाश कर्दम ने ‘बलात्कार का दर्शन’ नामक लेख लिखा। इसमें इन्होंने दलित स्त्रियों के साथ बलात्कार होने तथा सवर्ण स्त्रियों का बलात्कार न होने की कुछ भ्रामक और आपत्तिजनक स्थापनाएं देने की कोशिश की थी, जिस पर स्त्रियों द्वारा कड़ी आपत्तियां जताई गई थीं। बलात्कार के ‘दर्शन’ को समझाने के नाम पर कर्दमजी ने जिस तरह की मूर्खतापूर्ण और स्त्री विरोधी बातें की गई थीं, उसका जवाब एक लेखक ने ‘दर्शन का बलात्कार’ लिखकर बिल्कुल ठीक ही दिया। कर्दम जी के लेख में कई जगह भाषा के ऐसे प्रयोग किए गए हैं जिन्हें उद्धृत कर सकना भी मुश्किल लगता है। जैसे, एक जगह वे बताते हैं कि दलित आदिवासी स्त्रियों के साथ बलात्कार का उद््देश्य दलितों के सम्मान और स्वाभिमान को कुचलना है, उनकी ‘‘योनियों में जातीय अहं के खूंटों का ठोका जाना है।’’ इसी तरह वे कन्नौज के त्रिवेदी ब्राह्मणों के यहां प्रचलित कहावत को सीधे-सीधे अनुवाद सहित लिख देते हैं कि- ‘चौदें चमन्ना, पुन्न ही पुन्न।’ दलित चिंतक डॉ. तेजसिंह के लिए भी इसके अनुवाद को उद्धृत कर सकना संभव नहीं जान पड़ा और उन्होंने लिखा कि ‘‘इसका अनुवाद अश्लीलता और भद्दा होने की वजह से यहां नहीं दिया जा रहा है।’’ जबकि कर्दम जी ने बिना किसी संकोच के इस पंक्ति को (जाहिर है लेख में ही) अनुवाद सहित ‘युद्धरत आम आदमी’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2003) के अलावा कई पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाया था। किसी की अतिरिक्त रूचि हो तो उनका लेख पढ़ लें, क्योंकि उस अनुवाद को लिख पाना मेरे भी साहस के बाहर है। डॉ. धर्मवीर लिखते हैं कि ‘ब्राह्मण दलित स्त्रियों के पीछे दौड़ रहा है और मौका मिलते ही उनकी योनियों को जबरन अपने लिंगों से क्षत-विक्षत करता है।’ इसी का विस्तार करते हुए डॉ. जयप्रकाश कर्दम लिखते हैं कि ‘‘आज की सदी इन बलात्कारी लिंगों पर अंकुश लगाने और उन्हें काट फेंकने की सदी है।… अन्य किसी भी रूप में दलित स्त्रियों की योनियों पर हुए अत्याचार का जुर्माना वसूलने की सदी है।’’ इस तरह के और भी वक्तव्य या पंक्तियां उनके लेखों-पुस्तकों में मिल जाएंगी जो ‘‘इससे भी ज्यादा अश्लील और भद्दी’’ हैं।
दलित साहित्य समतामूलक समाज की स्थापना लक्ष्य लेकर चला है, इसके लिये वैकल्पिक मूल्यबोध का होना जरूरी है। यह मूल्यबोध भाषा के प्रसंग में भी दिखाई देना चाहिए। सवाल केवल मौजूदा यथार्थ का नहीं है, सवाल उस यथार्थ का भी है, जिसकी रचना करने की जिम्मेदारी आपने उठाई है। ठीक इसी तरह सवाल केवल उस भाषा का नहीं है जिसमें आपने जीवन जिया है, सवाल उस भाषा का भी है, जिसे आप भविष्य की भाषा बनाना चाहेंगे। सवाल उस भाषा का है, जिसका निर्माण आप कर रहे हैं और भावी पीढ़िया जिसे विरासत के रूप में पाएंगी। अपनी इस जिम्मेदारी से आखें तो चुराई जा सकती हैं, बचा नहीं जा सकता। चिंता की बात यह है कि लेखन की भाषा मानक भाषा होती है अगर उसके स्तर को इतना नीचे गिरा दिया जाएगा तो फिर बोलचाल की भाषा का नियंत्रण कैसे किया जाएगा, उसका स्तर कैसे बदला जाएगा? दलित समाज के यथार्थ को अम्बेडकर ने कम व्यक्त नहीं किया था, लेकिन उन्होंने अपने समाज का यथार्थ बतलाने के लिए इस तरह की भाषा का प्रयोग कभी नहीं किया था और वे हमेशा स्त्रियों का सम्मान करने के पक्षधर भी रहे हैं, तो दलित साहित्यकारों के इस तरह के विचार एवं उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम बनने वाली ऐसी ‘भाषा’ क्या अम्बेडकरवादी विचार एवं सोच का प्रतिनिधित्व करती है?
बहरहाल, दलित साहित्य के उक्त उदाहरणों के आधार पर पूरे दलित साहित्य की भाषा को अश्लील ठहराना या तो नादानी होगी या फिर धूर्तता। दलित लेखकों ने अपवाद स्वरूप ही उस तरह की भाषा का प्रयोग किया है, जिसका जिक्र ऊपर आया है। हाल ही में प्रकाशित तुलसीराम की आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ जहां एक तरफ दलित लेखन की भाषा पर लगे ‘असाहित्यिकता’ के आरोप का मुंहतोड़ सृजनात्मक उत्तर देती है, वहीं वह उन दलित आलोचकों द्वारा गाली-गलौज और अश्लीलता को महिमामंडित करने के उन प्रयासों का भी निर्णायक उत्तर है जो कहते हैं कि अशोभनीय भाषा में ही दलित यथार्थ को प्रकट किया जा सकता है। भाषा, यथार्थ और अश्लीलता के सवालों पर दलित लेखकों को ध्यान देने की जरूरत है।
शायद आपने क्या सोचकर ये लेख लिखा है… आप को और ज्यादा चिंतन की जरुरत है…… आपके लेख में यथार्थ कम और शब्दों की उठा पटक ज्यादा है… माफ़ करना जी….. यदि आपको मेरा कहना सही नहीं लगा हो.
दलित साहित्य दिल से समझने वाला साहित्य है
achha aalekh hai.
आपका लेख बहुतही महत्त्वपूर्ण हे . अगर आप इसमे मराठी दलित साहित्य के स्त्रीविमर्श के बारे मे चर्चा करते तो यह लेख और भी मौलिक साबित होता.
very good