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मौजूदा दौर में युवा समुदाय पर इतना अधिक ध्यान केंद्रित हुआ है कि ‘युवा विशेषांक’ साहित्य की युग विभाजक सीमा का ‘आभास’ देने लगे हैं, लेकिन सच्चाई यह नहीं है। हालिया दौर में हिन्दी साहित्य की विभाजक सीमा ज्ञान के अन्य अनुशासनों की भाँति 90 का ही दशक है। सोवियत विघटन के साथ ही इसका गंभीर रिश्ता है। इसका सबसे शानदार उदाहरण यह है कि यही वह दौर है जब मुख्य धारा के हिन्दी साहित्य में उन कोनों-दरीचों की पहचान शुरू हुई, जिन्हें बाद में नारीवादी व दलित लेखन कहा गया। हिन्दी साहित्य में पनपी ये नई प्रवृत्तियाँ हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील परंपरा के अनुकूल थीं, और एक उपलब्धि के समान थीं। ये प्रवृत्तियाँ प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप क्यों थीं, इसका सबसे माकूल जवाब यह है कि इन दोनों ही प्रवृत्तियों में साहित्य के आधारभूत प्रश्नों (प्रगतिशील परंपरा द्वारा निर्धारित) व उत्तरों पर प्रगतिशील परंपरा से मतैक्य रहा। ‘साहित्य क्यों लिखा जाए’ और ‘साहित्य के मूल्यांकन का क्या आधार है’ ही वे दो प्रश्न हैं, जिनके विषय में पूर्वोक्त जिक्र किया गया।समकाल का मूल्यांकन सबसे अधिक कठिन कार्य होता है, और इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि ‘समय’ को समझने की जिन युक्तियों का विश्लेषक प्रयोग करता है, उनमें व्यक्तिगत अनुभव की अधिकता रहती है, ‘समय’ में मौजूद घात-प्रतिघातों से व्यक्तिगत किस्म का परिचय होता है, जिससे विश्लेषण में बहुत ‘सख्त’ वस्तुनिष्ठता नहीं आ पाती है। परन्तु इस स्थिति का एक फ़ायदा भी होता है, वह यह कि विश्लेषक ‘समय’ के मौजूद ‘मूल्यों’ के उत्कर्ष या अपकर्ष का साक्षी होता है, और इससे पनपी ख़लीश का शिद्दत्त से अहसास कर पाता है। जाहिर सी बात है कि ज्ञान की दूसरी शाखाओं की तरह साहित्य के मामले में भी यह तथ्य खासा मायने रखता है।
लेकिन 90 का दशक हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील परंपरा में मौजूद इस उपलब्धि का ही साक्षी नहीं रहा, बल्कि इतिहास की द्वंदात्मक प्रवृत्ति के अनुरूप यह समय ‘कुछ’ विरोधी विचारों का भी साक्षी रहा, जिसके परिणामस्वरूप हिन्दी साहित्य को अपनी इस नवीनतम् उपलब्धि के श्रेय की तुलना में नुक़सान ज्यादा उठाना पडा (पड रहा है)। सोवियत पतन ने प्रत्यक्ष रूप से प्रतिक्रियावादी-बुर्जुआ वर्ग के चिंतकों-लेखकों-रचनाकारों को यह कहने का मौका दिया कि ‘मार्क्सवाद अप्रसांगिक हो चुका है’। हॉलाकि यह कहना केवल फ़िकरेबाज़ी थी, और इसके पीछे न तो कोई तर्क पद्धति थी, न ही मार्क्सवाद की कोई समझ ही (हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील परंपरा की उपलब्धि के रूप में मार्क्सवाद की प्रसांगिकता रेखांकित की जा चुकी है)। जाहिर सी बात है कि इस तरह की फ़िकरेबाज़ी को प्रतिक्रियावादी-बुर्जुआ वर्ग द्वारा खूब समर्थन प्राप्त हुआ, और रात के रात अनेक मार्क्सवादियों ने अपने लिबास बदल लिए; और अपनी ‘उपाधियों’ के आगे ‘उत्तर’ शब्द को जोड लिया। इसका भी बहुत गहरा कारण है। यह हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील परंपरा की बहुआयामिता कहिए, या प्रगतिशील आंदोलन की व्यापकता कि हिन्दी साहित्य में आधिकारिक रूप से कोई दक्षिणपंथ नहीं मौजूद है, ले-देके इन प्रवृत्तियों का जो पोषक समूह मौजूद है, वह कलावादियों के रूप में मौजूद रहा है। ऐसी स्थिति में (कम से कम हिन्दुस्तान में तो जरूर) लिबास बदलने वाले ‘उत्तर’ मार्क्सवादियों के लिए पूँजीपति-बुर्जुआ वर्ग की गोद में बैठने के सिवा कोई और विकल्प शेष नहीं था। यहाँ यह कहना जरूरी है कि इन लिबास बदलने वालों को प्रतिक्रियावादी-बुर्जुआ वर्ग ने हाथों-हाथ लिया, क्योंकि [‘उत्तर’ के बावजूद] मार्क्सवादी शब्द बौद्धिक प्रतिष्ठा व जनपक्षधरता के पर्याय के समान है, और बुर्जुआ वर्ग ने इस बौद्धिक प्रतिष्ठा व जनपक्षधरता का अपने पूँजीवादी तंत्र के माध्यम से बखूबी फ़ायदा उठाया।
अमूमन कहा जाता है कि युग विभाजक प्रवृत्तियाँ साहित्य के क्षेत्र में सबसे बाद में स्वयं को अभिव्यक्त करती हैं। परन्तु सोवियत पतन व वैश्वीकरण की संक्रमण रेखा इस मामले में अपवाद है। हमारे समय के इस युग विभाजन के साथ ही यह विभाजन साहित्य में भी तीव्र रूप से उत्पन्न हुआ, और इसका कारण रहा पूँजीवादी प्रचार तंत्र की सक्रियता।
बुर्जुआ पूँजीवादी तंत्र ने इन ‘उत्तर’ चिंतकों का किस तरह से लाभ उठाया या कि 90 के दशक के संक्रमणकालीन दौर की प्रतिक्रियावादी शक्तियों ने साहित्य पर क्या प्रभाव डाला, इन तथाकथित ‘दो’ प्रश्नों (जो वास्तविकता में एक ही प्रश्न के दो रूप हैं) का उत्तर एक ही है। इस प्रश्न के उत्तर को दो स्तरों पर समझना पडेगा, जिसमें पहला स्तर रचनात्मकता का है, यानि सृजित साहित्य पर प्रभाव के रूप में, वहीं दूसरा स्तर इस सृजित साहित्य के मूल्यांकन का है।
‘मार्क्सवाद की अप्रसांगिकता’ की घोषणा करने के साथ विभिन्न ‘उत्तर’ चिंतकों व रचनाकारों को ‘उधार की भाषा’ और ‘कत्रिम भावबोध’ का प्रयोग करने की जैसे अनुज्ञा प्राप्त हो गई, और इसका कारण भी स्पष्ट है। पहली बात यह कि ‘उत्तर’ कहने के साथ इस कत्रिम शब्दावली के प्रयोग पर रहा ‘वैचारिक प्रतिबंध’ (जिसे मैं अपनी भाषा में ‘जनप्रतिबद्धता’ कहूँगा) नहीं रहा, और दूसरी बात कि इस ‘उधार की भाषा’ और ‘कत्रिम भावबोध’ के प्रयोग का कारण यह रहा कि यह बुर्जुआ प्रचार तंत्र के अनुकूल थी। इस प्रवृत्ति के लक्षणों की पहचान बहुत आसान है। यह ‘उधार की भाषा’ और ‘कत्रिम भावबोध’ कभी भी किसी तर्क पद्धति का अनुकरण नहीं करती है। हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील परंपरा में सिद्धांत और अनुभव की द्वंदात्मकता पर सबसे ज्यादा जोर दिया गया है (यहां तक कि इसे एक मूल्य के तौर पर भी मान्यता प्राप्त हुई)। इसका शानदार उदाहरण गोदान है. ‘महाजनी सभ्यता’ की सैद्धांतिकी के बावजूद प्रेमचंद ने गोदान में अनुभव की सत्यता के आधार पर सिद्धांत को समृद्ध किया है, वरना होरी मात्र सर्वहारा वर्ग का प्रतीक रहता, और होरी के व्यक्तित्व में मौजूद द्वंदात्मकता से परिचय ही न हो पाता, ‘दोनों ओर खेतों में काम करने वाले किसान उसे देखकर राम-राम करते और सम्मान-भाव से चिलम पीने का निमंत्रण देते थे; पर होरी को इतना अवकाश कहाँ था? उसके अंदर बैठी ही सम्मान-लालसा ऐसा आदर पाकर उसके सूखे मुख पर गर्व की झलक पैदा कर कर रही थी…….. यह आदर कम नहीं है कि तीन-तीन, चार-चार हलवाहे महतो भी उसके सामने सिर झुकाते हैं’ (गोदान)।
लेकिन जब मात्र सिद्धांत की एकपक्षता स्वीकारी जाती है, और अनुभव से उसे समृद्ध करने की रचनात्मकता का लोप हो जाता है, वहाँ साहित्य के सबसे खतरनाक निहितार्थ सामने आते हैं, और रचनाकार (व चिंतक भी) की ‘जनपक्षधरता’ की वास्तविकता प्रत्यक्ष होती है। इस मामले में उदाहरण से अपनी बात ज्यादा साफ तरीके से सामने रखी जा सकती है। उदय प्रकाश की बहुचर्चित कहानी ‘तिरिछ’ में शहर एक पात्र के रूप में सामने आता है, लेकिन यह ‘शहर’ रचनाकार के अनुभव पर उसकी सैद्धांतिकता का ज्यादा अनुकरण करता है। कहानी अपने मूल्यबोध में ज्ञापित करती है कि ‘शहर हिंसक, क्रूर व अमानवीय होते हैं’। इस आकर्षक सैद्धांतिक अवस्थिति में न तो इतिहासबोध को जगह मिलती है, न ही कहीं इस बात का ही आभास होता है कि शहर में भी वर्गीय संस्तर होते हैं, और इन्हीं संस्तरों में एक संस्तर पूर्वोक्त मूल्यबोध को व्यक्त करता है। इसके विपरीत रचनात्मकता का एक स्तर यह भी है जहाँ शहर की पहचान इस तरह की जाती है, ‘उस समय दिल्ली की सीलमपुर उत्तर मध्यकालीनता, खिचडीपुर एक ऐतिहासिक प्रागैतिहासिकता, नारायणपुरा उत्तर आधुनिकता, मयूरबिहार का फेज वन आधुनिकता, साउथ एक्सटेंशन उत्तर पूँजी, ग्रेटर कैलाश उत्तर आधुनिकता, पडपडगंज उत्तर उपनिवेशवाद, करोलबाग वाणिज्यिक पूँजीवाद, पहाडगंज वित्तीय पूँजी, रैगरपुरा प्राक् पूँजी और जनपथ सर्वसत्तावाद की चपेट में था। मैं पस्त समकालीन था’ (‘हेलमेट व अन्य कहानियाँ’, देवीप्रसाद मिश्र)। इस दूसरे उदाहरण में न केवल शहर के संस्तरों की पहचान है, बल्कि उसके इतिहासबोध को समाहित किया गया है। इसी तरह का एक अन्य समृद्ध उदाहरण:
आप लाख बिगड़ लें पर दिल्ली की जो हवा है
वह इलाकों की चाल से ही बहेगी
और उसमें जो पुश्तैनी गंध है
वह उन बस्तियों से आज भी उठ लेगी
जिसे अगर आप आंख बंद कर महसूस करें
तो आप भी शायद उसे शाहजहांबाद ही कहें (दिल्ली: शहर दर शहर, पंकज राग)
सिद्धांत व अनुभव की द्वंदात्मकता के अस्वीकार का परिणाम ‘विचार मोहकता’ में होता है, और ऐसी स्थिति में ‘तार्किकता का लोप’ स्वाभाविक परिणति। इस तथ्य का एक अन्य उदाहरण ‘पीली छतरी वाली लडकी’ है। इस रचना में चरित्र की द्वंदात्मकता का पूरी तरह से अभाव है, और इस अभाव को ‘चमकदार विचार’ से ढकने की कोशिश की गई है। दलित पुरूष इतिहास में अपनी पूरी जाति पर हुए उत्पीडन का ‘बदला’ अपनी सवर्ण प्रेमिका से उन क्षणों में लेता है (या बदला लेने की मानसिक स्थिति उत्पन्न करता है), जो स्त्री-पुरूष के नितांत आत्मीय क्षण होते हैं (यहाँ स्त्री-पुरूष का सहज शारीरिक संबंध है, न कि कोई बालात्कार का दृश्य)। कुंद ज़ेहन लोगों को तो यह विचार जरूर आकर्षित कर सकता है (इसमें बीमार मस्तिष्क के लोगों को भी शामिल कर लीजिए), परन्तु रचनात्मक तर्क से लेकर अनुभवबद्ध तर्कों से यह विचार वितृष्णा ही उत्पन्न करता है।
असल में वैश्वीकरण की परियोजना ने 90 के बाद समाज में एक खास तरह की मान्यता को जन्म दिया है, जिसमें मनुष्य से लेकर समाज तक को एक आरोपित विचार के अंतर्गत देखने-समझने की प्रवृत्ति बढी है। इस विचार का स्रोत भी युग विभाजक घटनाओं से ही उत्पन्न हुआ है। सोवियत विघटन ने जहाँ एक ओर ‘मार्क्सवाद अप्रसांगिक हो गया है’ कहने का मौका दिया, तो दूसरी ओर ‘पूँजीवाद अपराजेय है’ कहने और इसका समर्थन करने का भी मौका दिया है। यह स्थिति, जैसा पहले कहा गया, द्वंदात्मकता के अस्वीकार को जन्म देती है, पात्रों से लेकर समाज को समझने के लिए द्वंदात्मकता को नहीं, बल्कि अपने श्याम-श्वेत चित्रों को वरीयता देती है। इसका एक उदाहरण काशीनाथ सिंह की हालिया रचनाएँ है। अपना मोर्चा में युवाओं की शक्ति, प्रतिरोध करने की उनकी ऊर्जा के साथ विभिन्न प्रतिक्रियावादी सामाजिक शक्तियों के सापेक्ष निम्न वर्ग की सामाजिक चेतना को पूरी प्रतिबद्धता से व्यक्त किया गया है, परन्तु रेहन पर रग्घू में यही युवा वर्ग केवल एक लंपट, व्यभिचार में डूबे वर्ग में तब्दील हो जाता है। ये स्थितियाँ आसानी से ज्ञापित करती है कि रचनाकार ने किन सूक्त विचारों के आधारों पर अपने रचनाकर्म को अंजाम दिया है।
यहाँ उद्धरत रचनाकारों की आलोचना का प्रयास नहीं किया जा रहा है, बल्कि इसके विपरीत यह समझने का प्रयास किया जा रहा है कि वैश्वीकरण ने किस तरह से साहित्य को प्रभावित किया है। ये रचनाकार अपनी पूर्व परंपरा के साथ संक्रमण के समय के भी ग़वाह रहे हैं, इसलिए नवीन प्रवृत्तियों का प्रभाव आसानी से स्पष्ट हो जाता है, वरना संक्रमण के बाद उत्पन्न हुई पीढी ने तो एक दूसरी ही दुनिया रच ली है। वे एक ऐसे ‘यथार्थ’ को व्यक्त करते हैं, जो इतना ‘संकर यथार्थ’ होता है कि ढूढ पाना मुश्किल होता है कि वह किन रोडों-ईटों से मिलकर बनाया गया है!
यहाँ न तो इतना अवकाश है, न ही यह कोई उपयुक्त स्थान कि ‘युवा विशेषांकों’ से उत्पन्न रचनाकारों का एक-एक करके मूल्यांकन किया जाए, परन्तु समान प्रवृत्तियों के आधार पर कुछ आधारभूत निष्कर्ष जरूर निकाले जा सकते हैं।
‘काश्मीर समस्या, स्पेन और ई-मेल’ यह ‘युग्म’ आकर्षण तो उत्पन्न करता ही है। मात्र यह आकर्षण उपन्यास सृजन का का स्रोत हो जाता है, लेकिन समाज और उसकी गतिकी से रचनाकार का कहीं कोई लेना-देना ही नहीं! ‘सांप्रदायिकता और डिनर टेबल’ वैसा ही आकर्षण युग्म है, ऐसे में कुछ और की जरूरत ही क्या? इसी तरह से ‘सांप्रदायिकता, रोटी और लाल झण्डा’ जैसे आकर्षक युग्म में सांप्रदायिकता की सामाजिक संरचना को समझने की जरूरत ही नहीं या फिर दूसरे तेल-मसालों की जरूरत ही क्या! इतने आकर्षक युग्म में रचनाकार यांत्रिक रूप से अपने पात्र को रचना के अंत में लाल झण्डा ही थमा दे, तब भी रचना तो महान ही है! (हॉलाकि इस युवा पीढी में एक-दो आपवादिक रचनाकार भी हैं, जिन्होंने इस समस्या की पूरी द्वंदात्मकता को समझते हुए शानदार रचना की है)। इसी तरह से जब ‘स्पेनी भाषा, लिव-इन व ऑनर किलिंग’ जैसा आकर्षक युग्म मौजूद है, तब क्या जरूरत है कि रचना में कब, कौन, कैसे, कहाँ और क्या कह रहा है, इस पर ध्यान दिया जाए! जरूरत है तो यह कि रचनाकार कौन से रंग (यानि नस्ल) की पोर्न स्टार को पसंद करता है!…………….
अतीत में भी हिन्दी साहित्य की प्रतिक्रियावादी धारा में ऐसी कुछ प्रवृत्तियाँ रही हैं। इसे अच्छी तरह से तब समझा जा सकता है, जब इस बात को जाना जाए कि हिन्दी के लेखकों ने तब ‘अस्तित्ववादी’ होना शुरू किया, जब सार्त्र मार्क्सवादी हो चुके थे! सदूर पश्चिम (आजकल तो स्पेनी भाषा के भी लेखक) में मौजूद प्रतिक्रियावादी लेखन प्रवृत्तियों का तार्किकता से सामना करना तो बहुत दूर की बात है, यहाँ हिन्दी के ‘नव लेखक’ शोभा डे और चेतन भगत के चमकदार वाक्यों से अपने मोह तक नहीं दूर कर पाए हैं। यह मोह तभी दूर होता है, जबकि रचनाकार जनपक्षधर हो। ऐसा न होने की स्थिति का उदाहरण पूर्वोक्त दिया जा चुका है, और पात्रों के ‘शनीचर’ या ‘राम सजीवन’ में तब्दील होते देर नहीं लगती। लेकिन याद रखने की बात यह है कि सँवरू (अंधेरे में हँसी, योगेंद्र अहूजा) जैसे चरित्र भी इसी समय में मौजूद हैं, जो हिन्दी साहित्य की स्वस्थ मानसिक स्थितियों को प्रमाणित करते हैं।
90 की विभाजक रेखा ने साहित्य में चमकदार वाक्यों (व युग्मों) को जन्म दिया है, जिसका एक मतलब यह भी है कि ‘मनुष्य जीवन के आख्यान’ से इतर ‘जीवन चित्रों’ को वरीयता प्राप्त हुई है। अभी हाल-हाल तक एक चित्र बडी व्यापकता से हिन्दी कहानियों में संक्रमित हुआ, जिसमें कथा नायक (?) एक ऐसे विज्ञापन बोर्ड के नीचे हताश खडा है, जिसमे कोई फिल्मी अभिनेता मुस्कुरा रहा है! चित्रों को दर्ज करने के प्रति मोह विचारधारा के अभाव या जीवन अनुभव की असमृद्धता के कारण ही उत्पन्न होता है। इसका एक बेहतरीन उदाहरण यह है कि समकाल में उपन्यासों का अभाव है (जो हैं, वे भी खंडित हैं)। ‘युवा विशेषांकों’ के रचनाकारों के पास (दक्षिण के सिनेमा की तरह) ‘चित्रों’ के मोह से अवकाश ही नहीं, ऐसे में कौन, कहाँ मनुष्य जीवन की समग्रता को उसके पूरे सामाजिक पर्यावरण में परखने का प्रयास करे? इसी रचनात्मक कमजोरी के कारण उपन्यासों की संरचना में तब्दीली हुई है, लेकिन यह ग़ौर करने की बात है कि साहित्य में हुए इस विधागत परिवर्तन का कारण रचनात्मकता का अभाव है, न कि कोई सामाजिक जरूरत (सामाजिक जरूरतों के कारण शिल्प में जो परिवर्तन हुए हैं, उन्हें आगे विश्लेषित करने का प्रयास किया जाएगा)। उपन्यासों की संरचना में बदलाव इस तरह से हुआ है कि उसके हर एक खण्ड को अलग-अलग करके स्वतंत्र रूप से भी पढा जा सकता है, जो रचनाकार की ‘विजन’ की कमजोरी को छिपाने के लिए एक युक्ति मात्र है। हाँ, ‘उत्तर’ चिंतक जरूर इसे ‘उत्तर’ उपन्यास कह सकते हैं।
90 के युग विभाजक दौर में मनुष्य विरोधी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करने का माध्यम ‘साहित्य मूल्यांकन’ की यांत्रिकी रहा। हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील परंपरा ने साहित्य के मूल्यांकन का आधार ‘यथार्थ’ निर्धारित किया था। यह पहले भी कहा गया कि साहित्य के मूल्यांकन का यह कोई जड या शास्त्रबद्ध मानक नहीं था (है), बल्कि यह (जनपक्षधर) सिद्धांत और अनुभव की द्वंदात्मकता पर आधारित था (है), जिसमें आलोचनात्मक सृजना के लिए विशाल स्थान मौजूद था (है)। यही कारण रहा कि हिन्दी की प्रगतिशील परंपरा में साहित्य के मूल्यांकन का आधार ‘आलोचनात्मक यथार्थ’ निर्धारित हुआ, जिसमें अनुभव व सिद्धांत की द्वंदात्मकता के साथ सृजनात्मकता को जगह प्राप्त थी (है)। व्यवहारिक दृष्टि से देखा जाए तो ‘उत्तर’ चिंतकों ने प्रगतिशील परंपरा द्वारा निर्धारित मानकों को तो अपनाया, परन्तु किंचित संशोधन के साथ! इन चिंतकों ने जिस तरह से अपने लिए ‘उत्तर’ प्रत्यय की जो खोज की (यानि जोडा), उसकी भरपाई ‘आलोचनात्मक यथार्थ’ से ‘आलोचनात्मक’ शब्द निकाल कर पूरी कर दी! अब इसका अर्थ ‘समाज परिवर्तन के लिए साहित्य’ की बजाए ‘समाज के चित्रांकन के लिए साहित्य’ हो गया! हॉलाकि इन दोनों में फर्क बहुत बारीक सा ही है, लेकिन इससे यह ‘उत्तर’ सिद्धांत साहित्य के ‘कुत्सित समाजशास्त्र’ में तब्दील हो जाता है। बेशक प्रो. मैनेजर पाण्डेय पिछली सदी के आखिरी दशक में इस बारे में लगातार चेतावनी देते रहे, लेकिन इन प्रवृत्तियों को प्रश्रय देने वाला पूँजीवादी प्रचार तंत्र ज्यादा व्यापक था।
खैर, यहाँ यह समझना ज्यादा जरूरी है कि साहित्य के मूल्यांकन में ‘कुत्सित समाजशास्त्र’ कार्य कैसे करता है, जब कि यह पूरी की पूरी प्रगतिशील शब्दावली का ‘निर्वाह’ भी करता है। पूर्वोल्लेखित युग्मों के समान ही मूल्यांकन के लिए भी चमकदार वाक्यों या युग्मों का प्रयोग किया जाता है। सांप्रदायिकता पर रचना है, तो उसकी तुलना गुजरात दंगों से कर दी जाए, विस्थापन को कहानी-कविता में दर्ज किया गया है, तो उसके लिए वैश्वीकरण की नीतियों को जिम्मेदार ठहरा दीजिए, स्त्री चेतना और दलित चेतना की अभिव्यक्ति है, तो वर्गीय संरचना को गाली देते हुए दलित ‘वर्ग’ की उपलब्धियों के साथ उसका रिश्ता रिश्ता जोड दिया जाए! ‘उजबुजाती’ शब्द का प्रयोग है, तो उसे ‘लोक’ के साथ जोड दीजिए (भोजपुरी सिनेमा की तरह)! और बस लीजिए महान रचना के सारे गुण कृति या रचना में मौजूद हैं, ऐसे में रचना को महान घोषित करने में क्या देर?
इस ‘कुत्सित समाजशास्त्र’ की अंतर्निहित प्रवृत्ति ही है कि समाज में मौजूद समस्याओं की (साहित्य के साथ) सतही तुलना तो जरूर की जाए (इतना ही श्रेष्ठ साहित्य के लिए पर्याप्त है), परन्तु इन समस्याओं को सामाजिक पर्यावरण में उनकी संपूर्ण सामाजिक गतिकी और इतिहासबोध के आधार पर समझने का प्रयत्न न किया जाए। सच्चाई में यह एक यथास्थितिवादी प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति ने अन्य ढेरों नुकसान के साथ सबसे बडा नुकसान हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील परंपरा के नवीन ओजस्वी स्वरों को मंद और विकृत करने का किया। जैसा पहले कहा गया कि हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील परंपरा का सहज विकास दलित व नारीवादी लेखन के रूप में हुआ। परन्तु साहित्य मूल्यांकन की ‘कुत्सित समाजशास्त्रीय’ प्रवृत्ति ने इन दोनों ही नवीन स्वरों को ‘मात्र’ क्रोध की अभिव्यक्ति तक सीमित कर दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि 90 का दशक बीतते-बीतते इन स्वरों का विकास बाधित हो गया, और ये यथास्थितिवाद का शिकार होते चले गए। मुख्यधारा का समाज हो, या साहित्य की दुनिया, कहीं भी किसी किस्म का आरक्षण समाज नियंत्रण (Social Management) की पूँजीवादी यांत्रिकी का सबसे खतरनाक हथियार होता है (हम आधा, तिहाई या चौथाई तक क्यों सीमित रहें, पूरे के लिए क्यों नहीं?)। यही स्थिति कलारूपों के साथ भी होती है। दलित और नारीवादी साहित्य के साथ भी यही हुआ। इन नवीन स्वरों के ‘क्रोध’ को ही ‘साहित्यिक मूल्य’ बता दिया गया, और इन्हें अपना कलात्मक विकास करने का अवसर ही नहीं दिया गया। जाहिर तौर पर इसका कारण भी बहुत स्पष्ट है। यदि इन धाराओं का अपनी स्वाभाविकता के अनुरूप और अधिक कलात्मक विकास हुआ होता, तो निश्चय ही इनमें व्यक्त ‘क्रोध’ ‘व्यवस्था विरोध’ में तब्दील होता, जो कि पूँजीवादी-बुर्जुआ वर्ग नहीं चाहता। पूँजीवादी-बुर्जुआ वर्ग तो दलित वर्ग को भी आत्मसंतुष्ट लंपट किस्म के मध्यवर्ग में तब्दील करना चाहता है। यहाँ जोर देकर यह दोहराना जरूरी है कि मात्र दलित या स्त्री द्वारा लिखी रचना श्रेष्ठ नहीं हो जाती, जब तक उसमें कला और सौंदर्य (जाहिर है उनके विचार के अनुकूल) की अभिव्यक्ति नहीं होती। इस तथ्य का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण तुलसीराम की कृति मुर्दहिया के रूप में मौजूद है, जहाँ सामाजिक यथार्थ रचनात्मक रूप से सौंदर्य व कलात्मक अभिव्यक्ति के रूप में हुआ है।
‘कुत्सित समाजशास्त्र’ ने साहित्य आलोचना में कई अतार्किक समाजद्रोही किस्म की बहसों को भी जन्म दिया। इनमें से एक बहस का केंद्र ‘भोगा हुआ यथार्थ’ या ‘अनुभव की प्रमाणिकता’ है। प्रतिक्रियावादी वर्ग की मान्यता रही कि जो व्यक्ति (व समुदाय) यथार्थ का भोक्ता रहा है, वही इस ‘यथार्थ’ को कलमबंद करने का अधिकारी है। यह विचार बहुत आकर्षक प्रतीत होता है, और सतही तौर पर ‘अनसुनी’ आवाज़ों के पक्ष में भी प्रतीत होता है। परन्तु तार्किक रूप से यह विचार बिल्कुल निर्वीर्य है, क्योंकि ‘यथार्थ भोक्ता’ को अपना यथार्थ दर्ज करने के लिए घटना से दूरी की आवश्यकता होती है (साहित्य समाचार पत्रों की ख़बरों की तरह तुरंत तो जन्म नहीं लेता है); ऐसे में कोई प्रतिश्रुति नहीं है कि यथार्थ के रूप में बदलाव नहीं होगा? यदि ‘यथार्थ भोक्ता’ के द्वारा किए गए बदलाव को स्वीकार किया जा सकता है, तो समान-अनुभूति वाले दूसरे रचनाकार को क्यों नहीं स्वीकार किया जा सकता है, जब कि ‘यथार्थ भोक्ता’ भी अपने अलावा कृति में मौजूद दूसरे पात्रों को समान-अनुभूति के आधार पर ही तो दर्ज करता है?
असल में इस कुत्सित बहस (या विमर्श) के माध्यम से प्रतिक्रियावादी वर्ग ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हिन्दी साहित्य के दलित व नारीवादी स्वरों को एक सीमित दायरे में रखकर इन विचारों को निस्तेज करने का प्रयास किया है। 90 के दशक के आरंभ में लिखी गई इस कविता से इस पूरी बहस का मूल्य ही नहीं स्पष्ट होगा, बल्कि हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील पंरपरा के विकास (जिसका जिक्र आरंभ में किया गया) का अंदाजा हो पाएगा:
और स्त्रियाँ कभी बाँझ नहीं होती
वे रचती हैं तभी हम आप होते हैं
तभी दुनिया होती है
रचने का साहस पुरूष में नहीं होता (सोन चिरई, जितेन्द्र श्रीवास्तव)
बिल्कुल इसी तरह से दलित-चेतना व स्वस्थ इतिहासबोध की इस अभिव्यक्ति को देखा जा सकता है:
कोई सिद्ध करने पर तुला था कि यहीं पर लीली घोडी उडान भरती थी
लेकिन जानने वाले जानते हैं
कि सन् सत्तावन में यहीं मरे थे
शहीद घिर्रई चमार
जो चमार थे, इसलिए उन्हें कोई शहीद नहीं कहता (शहादत, बद्री नारायण)
ऐसे में साहित्य के ‘उत्तर’ चिंतकों के सरोकार तो स्पष्ट हो ही जाते हैं। लेकिन इसके अलावा यहाँ इस बात पर जोर देना जरूरी है कि स्वस्थ मस्तिष्क, स्वस्थ इतिहासबोध और सच्ची जनपक्षधरता का सरोकार मात्र ‘अबोले’ लोगों के ‘बोलने’ तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका सरोकार उस पूरी व्यवस्था, सामाजिक संरचना को चिंह्नित करने और उसे बदलने का है, जिसने अपने शोषण, कपट और लंपटता द्वारा ‘बोलने’ वालों को ‘अबोले’ में बदल दिया था (है)। सच्ची जनपक्षधरता का सरोकार समाज से लेकर साहित्य तक की दुनिया में प्रसारित किए जा रहे नए किस्म के जातिवाद को प्रश्रय देना नहीं, बल्कि उसका पूरी तरह से उन्मूलन (Inhalation) करना है। नारीवादी व दलित स्वरों का सच्चा विकास वही होगा, जब इस साहित्य को इन प्रत्ययों (दलित या नारीवादी) के बिना मुख्यधारा के साहित्य में मान्यता प्राप्त होगी।
इस सारी बहस का यह अंतिम हिस्सा कविता पर केंद्रित है। साहित्य की इस विधा में भी लगभग वही सारी प्रवृत्तियाँ मौजूद हैं, जिनका पूर्वोक्त जिक्र किया गया है, परन्तु कुछ विशेष मुद्दे शेष हैं, जिनकी चर्चा का यहाँ प्रयास किया जा रहा है।
चमकदार वाक्यों और सूक्तियों से 90 के बाद कवियों का का दीर्घ मोह दिखाई देता है, वरना कोई कारण नहीं कि ‘अमरूद की खुशबू’ से लेकर ‘उजबुजाती’ जैसे शब्द-शब्द युग्मों का प्रयोग हो पाता, और कत्रिम किस्म के भावबोध को ‘रचने’ का प्रयास किया जाता। बाकी विधाओं की रचनाओं की तरह इस विधा में इस तरह के शब्द-शब्द युग्म से प्रेम की नियति इतिहासबोध के अभाव के रूप में होना स्वाभाविक था (है)। इस संदर्भ में समकालीन कविता का ही एक उदाहरण प्रस्तुत है:
गजानन की कृपा
और ऐसा तुक-ताल
विश्व की दो महान घटनाएँ
ऐसी संग-साथ
इधर लाल लोचन बिहारी की फ़तह
उधर ओबामा की चुनाव परिणाम (लाल लोचन बिहारी, लालगंज और मनोरमा, अंशुल त्रिपाठी, ज्ञानोदय,
मई, 2011)
मनुष्य को ‘मनुष्य की गरिमा’ से वंचित करने पर ही ‘शनीचरों’ का जन्म होता है। ‘लाल लोचन बिहारी’ के साथ ऐसी स्थिति हो, तो क्या आश्चर्य! लेकिन इससे भी बडे आश्चर्य की बात ‘ओसामा का चुनाव परिणाम’ है। यह इतिहासबोध या समयबोध नहीं, बल्कि साम्यता (जिसका पहले जिक्र किया जा चुके है) का कुत्सित प्रयास है।
समकालीन हिन्दी कविता में दो तरह की मनुष्य विरोधी प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं। इनमें एक का पूर्वोक्त जिक्र किया ही जा चुका है। दूसरी प्रवृत्ति कविता में अत्याधिक सरलता के ‘मायाजाल’ को बुनने की है। यह मायाजाल इस तरह का होता है कि यथार्थ इस हद्द तक अपरिचितिकरण का शिकार हो जाता है कि वह किसी दूसरी दुनिया के ही यथार्थ में तब्दील हो जाता है। जाहिर सी बात है कि यह स्थिति भी साहित्य में पनपी मनुष्यविरोधी प्रवृत्तियों की परिचायक है। इसके अलावा इन्हीं प्रवृत्तियों के दायरे में कविजन शिल्प को अपनी रचनात्मकता से नहीं, बल्कि हथौडे से तोडने की कोशिशें करते (और ‘उत्तर’ चिंतक उसे प्रमाणित करते हुए) अमूमन दिखाई देते हैं। यह सब केवल धूर्तता के सिवा और कुछ नहीं है। शिल्प को लेकर समकालीन हिन्दी कविता में दो किस्म के शानदार प्रयोग हुए हैं, जो वास्तविकता में न केवल गरिमामय हैं, बल्कि ‘उत्तर’ संरचनाओं से मुकाबला करने की ताकत रखते हैं। इनमें एक प्रयोग देवीप्रसाद मिश्रा ने किया है, जिन्होंने कविता को तीन समानांतर कॉलमों में लिखकर समय की जटिलताओं के अंतर्संवादी रूप को जाहिर करने का प्रयास किया है। हॉलाकि यह बहुत सीमित प्रयोग है, लेकिन बहुत अधिक संभावनाधर्मी है। इसके अलावा शिल्प (व कथ्य) के स्तर एक दूसरा प्रयोग कई लोगों ने किया है (बद्री नारायण, जितेन्द्र श्रीवास्तव व पंकज राग), जिसमें समकालीन ‘विमर्श’ की चमकदार लेकिन अर्थरहित भाषा के सापेक्ष बहुत ही सरल, सहज भाषा को काव्य शिल्प का हिस्सा बनाया गया है। यह सचेत प्रयास है। इस प्रयास की गरिमा यह है कि यह वैश्वीकरण की तथाकथित जटिल सरंचनाओं का विरोध अपने इस काव्य शिल्प के माध्यम से करता है। हॉलाकि यह दोहराना जरूरी है कि काव्य शिल्प की इस सहजता को अर्जित करना बहुत कठिन कार्य है, और इसके लिए साहित्य के प्रति गंभीर सरोकारों की जरूरत पडती है। एक उदाहरण से यह बात ज्यादा स्पष्ट हो जाएगी:
यह भोजपुर का क्षेत्र है श्रीमान्
बेकारी, नौकरी, प्रवास
यहाँ सब कुछ आधा है, सच में आधा
माँ का कलेजा आधा
भाई का सीना आधा
आधा कही छिपा पडा है (दो फाँक, बद्री नारायण)
इस कविता की पूर्व में उद्धरत की गई उस कविता से तुलना कीजिए, जिसमें ‘ओबामा के चुनाव परिणाम’ की सम-कालीनता को जीवन अनुभव से जोडने का प्रयास किया गया था। भाषा के अष्टावक्र प्रयोग के बावजूद पूर्व कविता न तो कविता-पात्र के प्रति किसी किस्म ही संवेदना को ही जाहिर कर पाती है, न ही कवि के घोषित ऐजेण्डे (यानि वैश्वीकरण या अमरीकी नीतियों) को ही कही स्पष्ट कर पाती है! जबकि अपनी सहज भाषा व साधारण (इस शब्द के सिवा कोई और शब्द प्रयोग करने का विकल्प नहीं है, लेकिन यह ‘साधारणता’ सुदीर्घ साहित्य साधना का परिणाम है) काव्य शिल्प के माध्यम से संदर्भित कवि वैश्वीकरण की नीतियों व प्रभाव को आसानी से व्यक्त कर देता है। इस लेख में जितेन्द्र श्रीवास्तव व पंकज राग की उद्धरत की गई कविताओं की भी इस मामले में गवाही दी जा सकती है।
सारभूत रूप से सोवियत विघटन हिन्दी साहित्य की युग विभाजक रेखा के रूप में मौजूद है। इस विघटन ने ‘मानवीय मुक्ति’ की संभावनाओं के साथ विचारधारात्मक स्तर व्यापक प्रभाव डाला है। साहित्य के स्तर पर यह प्रभाव इस रूप में पडा है कि साहित्य के आधारभूत प्रश्न परिदृश्य से ओझल हो गए हैं। ‘साहित्य क्यों’ इसी तरह का आधारभूत प्रश्न है। इस दौर में मौजूद धुंधलके का ही परिणाम है कि राही मासूम रजा की तरह यह कहने का साहस कोई नहीं कर पाता कि साहित्य समाज बदलने के लिए लिखा जाता है। इस तरह साहित्य कर्म के साथ जुडी विचारहीनता व मनुष्य विरोधी प्रवृत्तियाँ वर्तमान परिदृश्य का एक पक्ष है। लेकिन इसी के साथ इस परिदृश्य में उम्मीद की रोशनी भी मौजूद है। प्रगतिशील विचारों की उर्वरता ने हिन्दी साहित्य में बिल्कुल वंचित वर्ग के स्वरों को जन्म दिया है, और इस संवेदना से मुख्यधारा के साहित्य को गंभीर रूप से प्रभावित किया है; इसका परिणाम यह है कि वंचित वर्ग न केवल अपने स्तर पर, बल्कि दूसरे वर्ग-समुदाय (प्रगतिशील) के लेखक भी ‘समान-अनुभूति’ को साझा करके उत्कृष्ठ रचनाएँ कर रहे हैं।
इसके अलावा इन दो दशकों में हिन्दी साहित्य पूँजीवादी प्रचार माध्यमों की चमक-दमक से व्यापक रूप से प्रभावित हुआ है, जिसमें भाषा से लेकर कथ्य व शिल्प तक में ऐंद्रजालिक प्रयोगों की शुरूआत हुई, जबकि भारतीय समाज के लिए पिछले दो दशक किसी भीषण आपदा से कम नहीं रहे हैं। ऐसे में कोई भी समाज और साहित्य के बीच उत्पन्न हुई दूरी का आसानी से अनुमान कर सकता है। हॉलाकि कई बार (सतही किस्म की) वैश्वीकरण विरोधी व मनुष्य वंचन के विषय में रचनाएँ दिखाई देती हैं, परन्तु वे भी बिल्कुल गरिमाहीन व ढोंग का पर्याय मात्र हैं, क्योंकि इतने गंभीर विषयों के बावजूद कथ्य व शिल्प में ऐंद्रजालिक प्रयोग व यथार्थ के स्थान पर किसी त्रासद मायालोक की रचना विषयों के सरोकारों की बलि ले लेता है। इस बात को बहुत गंभीरता से समझना चाहिए कि वैश्वीकरण के बाद मौजूद दुनिया के यथार्थ को किसी इंद्रजाल से नहीं, बल्कि सहजता से ही व्यक्त किया जा सकता है, क्योंकि वैश्वीकरण के बाद की दुनिया स्वयं किसी इंद्रजाल के समान है। इस स्थितियों के बीत कई रचनाकार हैं, जो अपने कथ्य व शिल्प की सरलता व समाज की द्वंदात्मक समझदारी से हर पल आश्वस्त करते हैं।
दो दशकों की गवाही जीतेन्द्र गुप्ता जीतेन्द्र कुमार गुप्ता
Do dashakom ki gavahi
Jitendra gupta
Samakal ka mulyamkan sabase adhika kathina karya hota hai, aura isaka sabase pramukh karana yaha hai ki ‘samaya’ ko samajhane ki jina yuktiyom ka vishleshaka prayoga karata hai, unamem vyaktigata anubhava ki adhikata rahati hai, ‘samaya’ mem maujuda ghata-pratighatom se vyaktigata kisma ka parichaya hota hai, jisase vishleshana mem bahuta ‘sakhta’ vastunishthata nahim A pati hai| parantu isa sthiti ka eka pha़ayada bhi hota hai, vaha yaha ki vishleshaka ‘samaya’ ke maujuda ‘mulyom’ ke utkarsha ya apakarsha ka sakshi hota hai, aura isase panapi kha़lisha ka shiddatta se ahasasa kara pata hai| jahira si bata hai ki j~nana ki dusari shakhaom ki taraha sahitya ke mamale mem bhi yaha tathya khasa mayane rakhata hai|
Maujuda daura mem yuva samudaya para itana adhika dhyana kemdrita hua hai ki ‘yuva visheshamka’ sahitya ki yuga vibhajaka sima ka ‘abhasa’ dene lage haim, lekina sachchai yaha nahim hai| haliya daura mem hindi sahitya ki vibhajaka sima j~nana ke anya anushasanom ki bha.Nti 90 ka hi dashaka hai| soviyata vighatana ke satha hi isaka gambhira rishta hai| isaka sabase shanadara udaharana yaha hai ki yahi vaha daura hai jaba mukhya dhara ke hindi sahitya mem una konom-darichom ki pahachana shuru hui, jinhem bada mem narivadi va dalita lekhana kaha gaya| hindi sahitya mem panapi ye nai pravrrittiya.N hindi sahitya ki pragatishila parampara ke anukula thim, aura eka upalabdhi ke samana thim| ye pravrrittiya.N pragatishila parampara ke anurupa kyom thim, isaka sabase makula javaba yaha hai ki ina donom hi pravrrittiyom mem sahitya ke adharabhuta prashnom (pragatishila parampara dvara nirdharita) va uttarom para pragatishila parampara se mataikya raha| ‘sahitya kyom likha jae’ aura ‘sahitya ke mulyamkana ka kya adhara hai’ hi ve do prashna haim, jinake vishaya mem purvokta jikra kiya gaya|
Lekina 90 ka dashaka hindi sahitya ki pragatishila parampara mem maujuda isa upalabdhi ka hi sakshi nahim raha, balki itihasa ki dvamdatmaka pravrritti ke anurupa yaha samaya ‘kucha’ virodhi vicharom ka bhi sakshi raha, jisake parinamasvarupa hindi sahitya ko apani isa navinatam upalabdhi ke shreya ki tulana mem nuka़sana jyada uthana pada (pada raha hai)| soviyata patana ne pratyaksha rupa se pratikriyavadi-burjua varga ke chimtakom-lekhakom-rachanakarom ko yaha kahane ka mauka diya ki ‘marksavada aprasamgika ho chuka hai’| haॉlaki yaha kahana kevala pha़ikarebaja़I thi, aura isake piche na to koi tarka paddhati thi, na hi marksavada ki koi samajha hi (hindi sahitya ki pragatishila parampara ki upalabdhi ke rupa mem marksavada ki prasamgikata rekhamkita ki ja chuki hai)| jahira si bata hai ki isa taraha ki pha़ikarebaja़I ko pratikriyavadi-burjua varga dvara khuba samarthana prapta hua, aura rata ke rata aneka marksavadiyom ne apane libasa badala lie; aura apani ‘upadhiyom’ ke Age ‘uttara’ shabda ko joda liya| isaka bhi bahuta gahara karana hai| yaha hindi sahitya ki pragatishila parampara ki bahuayamita kahie, ya pragatishila amdolana ki vyapakata ki hindi sahitya mem adhikarika rupa se koi dakshinapamtha nahim maujuda hai, le-deke ina pravrrittiyom ka jo poshaka samuha maujuda hai, vaha kalavadiyom ke rupa mem maujuda raha hai| aisi sthiti mem (kama se kama hindustana mem to jarura) libasa badalane vale ‘uttara’ marksavadiyom ke lie pu.njipati-burjua varga ki goda mem baithane ke siva koi aura vikalpa shesha nahim tha| yaha.N yaha kahana jaruri hai ki ina libasa badalane valom ko pratikriyavadi-burjua varga ne hathom-hatha liya, kyomki [‘uttara’ ke bavajuda] marksavadi shabda bauddhika pratishtha va janapakshadharata ke paryaya ke samana hai, aura burjua varga ne isa bauddhika pratishtha va janapakshadharata ka apane pu.njivadi tamtra ke madhyama se bakhubi pha़ayada uthaya|
Amumana kaha jata hai ki yuga vibhajaka pravrrittiya.N sahitya ke kshetra mem sabase bada mem svayam ko abhivyakta karati haim| parantu soviyata patana va vaishvikarana ki samkramana rekha isa mamale mem apavada hai| hamare samaya ke isa yuga vibhajana ke satha hi yaha vibhajana sahitya mem bhi tivra rupa se utpanna hua, aura isaka karana raha pu.njivadi prachara tamtra ki sakriyata|
Burjua pu.njivadi tamtra ne ina ‘uttara’ chimtakom ka kisa taraha se labha uthaya ya ki 90 ke dashaka ke samkramanakalina daura ki pratikriyavadi shaktiyom ne sahitya para kya prabhava dala, ina tathakathita ‘do’ prashnom (jo vastavikata mem eka hi prashna ke do rupa haim) ka uttara eka hi hai| isa prashna ke uttara ko do starom para samajhana padega, jisamem pahala stara rachanatmakata ka hai, yani srrijita sahitya para prabhava ke rupa mem, vahim dusara stara isa srrijita sahitya ke mulyamkana ka hai|
‘marksavada ki aprasamgikata’ ki ghoshana karane ke satha vibhinna ‘uttara’ chimtakom va rachanakarom ko ‘udhara ki bhasha’ aura ‘katrima bhavabodha’ ka prayoga karane ki jaise anuj~na prapta ho gai, aura isaka karana bhi spashta hai| pahali bata yaha ki ‘uttara’ kahane ke satha isa katrima shabdavali ke prayoga para raha ‘vaicharika pratibamdha’ (jise maim apani bhasha mem ‘janapratibaddhata’ kahu.nga) nahim raha, aura dusari bata ki isa ‘udhara ki bhasha’ aura ‘katrima bhavabodha’ ke prayoga ka karana yaha raha ki yaha burjua prachara tamtra ke anukula thi| isa pravrritti ke lakshanom ki pahachana bahuta asana hai| yaha ‘udhara ki bhasha’ aura ‘katrima bhavabodha’ kabhi bhi kisi tarka paddhati ka anukarana nahim karati hai| hindi sahitya ki pragatishila parampara mem siddhamta aura anubhava ki dvamdatmakata para sabase jyada jora diya gaya hai (yaham taka ki ise eka mulya ke taura para bhi manyata prapta hui)| isaka shanadara udaharana godana hai. ‘mahajani sabhyata’ ki saiddhamtiki ke bavajuda premachamda ne godana mem anubhava ki satyata ke adhara para siddhamta ko samrriddha kiya hai, varana hori matra sarvahara varga ka pratika rahata, aura hori ke vyaktitva mem maujuda dvamdatmakata se parichaya hi na ho pata, ‘donom ora khetom mem kama karane vale kisana use dekhakara rama-rama karate aura sammana-bhava se chilama pine ka nimamtrana dete the; para hori ko itana avakasha kaha.N tha? Usake amdara baithi hi sammana-lalasa aisa Adara pakara usake sukhe mukha para garva ki jhalaka paida kara kara rahi thi…….. Yaha Adara kama nahim hai ki tina-tina, chara-chara halavahe mahato bhi usake samane sira jhukate haim’ (godana)|
Lekina jaba matra siddhamta ki ekapakshata svikari jati hai, aura anubhava se use samrriddha karane ki rachanatmakata ka lopa ho jata hai, vaha.N sahitya ke sabase khataranaka nihitartha samane Ate haim, aura rachanakara (va chimtaka bhi) ki ‘janapakshadharata’ ki vastavikata pratyaksha hoti hai| isa mamale mem udaharana se apani bata jyada sapha tarike se samane rakhi ja sakati hai| udaya prakasha ki bahucharchita kahani ‘tiricha’ mem shahara eka patra ke rupa mem samane ata hai, lekina yaha ‘shahara’ rachanakara ke anubhava para usaki saiddhamtikata ka jyada anukarana karata hai| kahani apane mulyabodha mem j~napita karati hai ki ‘shahara himsaka, krura va amanaviya hote haim’| isa akarshaka saiddhamtika avasthiti mem na to itihasabodha ko jagaha milati hai, na hi kahim isa bata ka hi abhasa hota hai ki shahara mem bhi vargiya samstara hote haim, aura inhim samstarom mem eka samstara purvokta mulyabodha ko vyakta karata hai| isake viparita rachanatmakata ka eka stara yaha bhi hai jaha.N shahara ki pahachana isa taraha ki jati hai, ‘usa samaya dilli ki silamapura uttara madhyakalinata, khichadipura eka aitihasika pragaitihasikata, narayanapura uttara adhunikata, mayurabihara ka pheja vana adhunikata, sautha eksatemshana uttara pu.nji, gretara kailasha uttara adhunikata, padapadagamja uttara upaniveshavada, karolabaga vanijyika pu.njivada, pahadagamja vittiya pu.nji, raigarapura prak pu.nji aura janapatha sarvasattavada ki chapeta mem tha| maim pasta samakalina tha’ ( helmet va anya kahaniya , deviprasad mishra)| isa dusare udaharana mem na kevala shahara ke samstarom ki pahachana hai, balki usake itihasabodha ko samahita kiya gaya hai| isi taraha ka eka anya samrriddha udaharana:
Apa lakha bigada़ lem para dilli ki jo hava hai
Vaha ilakom ki chala se hi bahegi
Aura usamem jo pushtaini gamdha hai
Vaha una bastiyom se Aja bhi utha legi
Jise agara Apa amkha bamda kara mahasusa karem
To Apa bhi shayada use shahajahambada hi kahem (dilli: shahar dar shahar, pankaj rag )
Siddhamta va anubhava ki dvamdatmakata ke asvikara ka parinama ‘vichara mohakata’ mem hota hai, aura aisi sthiti mem ‘tarkikata ka lopa’ svabhavika parinati| isa tathya ka eka anya udaharana ‘pili chatari vali ladaki’ hai| isa rachana mem charitra ki dvamdatmakata ka puri taraha se abhava hai, aura isa abhava ko ‘chamakadara vichara’ se Dhakane ki koshisha ki gai hai| dalita purusha itihasa mem apani puri jati para hue utpidana ka ‘badala’ apani savarna premika se una kshanom mem leta hai (ya badala lene ki manasika sthiti utpanna karata hai), jo stri-purusha ke nitamta atmiya kshana hote haim (yaha.N stri-purusha ka sahaja sharirika sambamdha hai, na ki koi balatkara ka drrishya)| kumda ja़ehana logom ko to yaha vichara jarura akarshita kara sakata hai (isamem bimara mastishka ke logom ko bhi shamila kara lijie), parantu rachanatmaka tarka se lekara anubhavabaddha tarkom se yaha vichara vitrrishna hi utpanna karata hai|
Asala mem vaishvikarana ki pariyojana ne 90 ke bada samaja mem eka khasa taraha ki manyata ko janma diya hai, jisamem manushya se lekara samaja taka ko eka Aropita vichara ke amtargata dekhane-samajhane ki pravrritti badhi hai| isa vichara ka srota bhi yuga vibhajaka ghatanaom se hi utpanna hua hai| soviyata vighatana ne jaha.N eka ora ‘marksavada aprasamgika ho gaya hai’ kahane ka mauka diya, to dusari ora ‘pu.njivada aparajeya hai’ kahane aura isaka samarthana karane ka bhi mauka diya hai| yaha sthiti, jaisa pahale kaha gaya, dvamdatmakata ke asvikara ko janma deti hai, patrom se lekara samaja ko samajhane ke lie dvamdatmakata ko nahim, balki apane shyama-shveta chitrom ko variyata deti hai| isaka eka udaharana kashinatha simha ki haliya rachanae.N hai| apana morcha mem yuvaom ki shakti, pratirodha karane ki unaki urja ke satha vibhinna pratikriyavadi samajika shaktiyom ke sapeksha nimna varga ki samajika chetana ko puri pratibaddhata se vyakta kiya gaya hai, parantu rehana para ragghu mem yahi yuva varga kevala eka lampata, vyabhichara mem dube varga mem tabdila ho jata hai| ye sthitiya.N asani se j~napita karati hai ki rachanakara ne kina sukta vicharom ke adharom para apane rachanakarma ko amjama diya hai|
Yaha.N uddharata rachanakarom ki alochana ka prayasa nahim kiya ja raha hai, balki isake viparita yaha samajhane ka prayasa kiya ja raha hai ki vaishvikarana ne kisa taraha se sahitya ko prabhavita kiya hai| ye rachanakara apani purva parampara ke satha samkramana ke samaya ke bhi ga़vaha rahe haim, isalie navina pravrrittiyom ka prabhava asani se spashta ho jata hai, varana samkramana ke bada utpanna hui pidhi ne to eka dusari hi duniya racha li hai| ve eka aise ‘yathartha’ ko vyakta karate haim, jo itana ‘samkara yathartha’ hota hai ki dhudha pana mushkila hota hai ki vaha kina rodom-itom se milakara banaya gaya hai!
Yaha.N na to itana avakasha hai, na hi yaha koi upayukta sthana ki ‘yuva visheshamkom’ se utpanna rachanakarom ka eka-eka karake mulyamkana kiya jae, parantu samana pravrrittiyom ke adhara para kucha adharabhuta nishkarsha jarura nikale ja sakate haim|
‘kashmira samasya, spena aura I-mela’ yaha ‘yugma’ akarshana to utpanna karata hi hai| matra yaha akarshana upanyasa srrijana ka ka srota ho jata hai, lekina samaja aura usaki gatiki se rachanakara ka kahim koi lena-dena hi nahim! ‘sampradayikata aura Dinara Tebala’ vaisa hi akarshana yugma hai, aise mem kucha aura ki jarurata hi kya? Isi taraha se ‘sampradayikata, roti aura lala jhanda’ jaise akarshaka yugma mem sampradayikata ki samajika samrachana ko samajhane ki jarurata hi nahim ya phira dusare tela-masalom ki jarurata hi kya! Itane akarshaka yugma mem rachanakara yamtrika rupa se apane patra ko rachana ke amta mem lala jhanda hi thama de, taba bhi rachana to mahana hi hai! (haॉlaki isa yuva pidhi mem eka-do apavadika rachanakara bhi haim, jinhomne isa samasya ki puri dvamdatmakata ko samajhate hue shanadara rachana ki hai)| isi taraha se jaba ‘speni bhasha, liva-ina va ऑnara kilimga’ jaisa akarshaka yugma maujuda hai, taba kya jarurata hai ki rachana mem kaba, kauna, kaise, kaha.N aura kya kaha raha hai, isa para dhyana diya jae! Jarurata hai to yaha ki rachanakara kauna se ramga (yani nasla) ki porna stara ko pasamda karata hai!…………….
Atita mem bhi hindi sahitya ki pratikriyavadi dhara mem aisi kucha pravrrittiya.N rahi haim| ise achchi taraha se taba samajha ja sakata hai, jaba isa bata ko jana jae ki hindi ke lekhakom ne taba ‘astitvavadi’ hona shuru kiya, jaba sartra marksavadi ho chuke the! Sadura pashchima (Ajakala to speni bhasha ke bhi lekhaka) mem maujuda pratikriyavadi lekhana pravrrittiyom ka tarkikata se samana karana to bahuta dura ki bata hai, yaha.N hindi ke ‘nava lekhaka’ shobha De aura chetana bhagata ke chamakadara vakyom se apane moha taka nahim dura kara pae haim| yaha moha tabhi dura hota hai, jabaki rachanakara janapakshadhara ho| aisa na hone ki sthiti ka udaharana purvokta diya ja chuka hai, aura patrom ke ‘shanichara’ ya ‘rama sajivana’ mem tabdila hote dera nahim lagati| lekina yada rakhane ki bata yaha hai ki sa.nvaru (amdhere mem ha.nsi, yogemdra ahuja) jaise charitra bhi isi samaya mem maujuda haim, jo hindi sahitya ki svastha manasika sthitiyom ko pramanita karate haim|
90 ki vibhajaka rekha ne sahitya mem chamakadara vakyom (va yugmom) ko janma diya hai, jisaka eka matalaba yaha bhi hai ki ‘manushya jivana ke akhyana’ se itara ‘jivana chitrom’ ko variyata prapta hui hai| abhi hala-hala taka eka chitra badi vyapakata se hindi kahaniyom mem samkramita hua, jisamem katha nayaka (?) Eka aise vij~napana borda ke niche hatasha khada hai, jisame koi philmi abhineta muskura raha hai! Chitrom ko darja karane ke prati moha vicharadhara ke abhava ya jivana anubhava ki asamrriddhata ke karana hi utpanna hota hai| isaka eka behatarina udaharana yaha hai ki samakala mem upanyasom ka abhava hai (jo haim, ve bhi khamdita haim)| ‘yuva visheshamkom’ ke rachanakarom ke pasa (dakshina ke sinema ki taraha) ‘chitrom’ ke moha se avakasha hi nahim, aise mem kauna, kaha.N manushya jivana ki samagrata ko usake pure samajika paryavarana mem parakhane ka prayasa kare? Isi rachanatmaka kamajori ke karana upanyasom ki samrachana mem tabdili hui hai, lekina yaha ga़aura karane ki bata hai ki sahitya mem hue isa vidhagata parivartana ka karana rachanatmakata ka abhava hai, na ki koi samajika jarurata (samajika jaruratom ke karana shilpa mem jo parivartana hue haim, unhem Age vishleshita karane ka prayasa kiya jaega)| upanyasom ki samrachana mem badalava isa taraha se hua hai ki usake hara eka khanda ko alaga-alaga karake svatamtra rupa se bhi padha ja sakata hai, jo rachanakara ki ‘vijana’ ki kamajori ko chipane ke lie eka yukti matra hai| ha.N, ‘uttara’ chimtaka jarura ise ‘uttara’ upanyasa kaha sakate haim|
90 ke yuga vibhajaka daura mem manushya virodhi pravrrittiyom ko protsahita karane ka madhyama ‘sahitya mulyamkana’ ki yamtriki raha| hindi sahitya ki pragatishila parampara ne sahitya ke mulyamkana ka adhara ‘yathartha’ nirdharita kiya tha| yaha pahale bhi kaha gaya ki sahitya ke mulyamkana ka yaha koi jada ya shastrabaddha manaka nahim tha (hai), balki yaha (janapakshadhara) siddhamta aura anubhava ki dvamdatmakata para adharita tha (hai), jisamem alochanatmaka srrijana ke lie vishala sthana maujuda tha (hai)| yahi karana raha ki hindi ki pragatishila parampara mem sahitya ke mulyamkana ka adhara ‘alochanatmaka yathartha’ nirdharita hua, jisamem anubhava va siddhamta ki dvamdatmakata ke satha srrijanatmakata ko jagaha prapta thi (hai)| vyavaharika drrishti se dekha jae to ‘uttara’ chimtakom ne pragatishila parampara dvara nirdharita manakom ko to apanaya, parantu kimchita samshodhana ke satha! Ina chimtakom ne jisa taraha se apane lie ‘uttara’ pratyaya ki jo khoja ki (yani joda), usaki bharapai ‘alochanatmaka yathartha’ se ‘alochanatmaka’ shabda nikala kara puri kara di! Aba isaka artha ‘samaja parivartana ke lie sahitya’ ki bajae ‘samaja ke chitramkana ke lie sahitya’ ho gaya! Haॉlaki ina donom mem pharka bahuta barika sa hi hai, lekina isase yaha ‘uttara’ siddhamta sahitya ke ‘kutsita samajashastra’ mem tabdila ho jata hai| beshaka pro. Mainejara pandeya pichali sadi ke akhiri dashaka mem isa bare mem lagatara chetavani dete rahe, lekina ina pravrrittiyom ko prashraya dene vala pu.njivadi prachara tamtra jyada vyapaka tha|
Khaira, yaha.N yaha samajhana jyada jaruri hai ki sahitya ke mulyamkana mem ‘kutsita samajashastra’ karya kaise karata hai, jaba ki yaha puri ki puri pragatishila shabdavali ka ‘nirvaha’ bhi karata hai| purvollekhita yugmom ke samana hi mulyamkana ke lie bhi chamakadara vakyom ya yugmom ka prayoga kiya jata hai| sampradayikata para rachana hai, to usaki tulana gujarata damgom se kara di jae, visthapana ko kahani-kavita mem darja kiya gaya hai, to usake lie vaishvikarana ki nitiyom ko jimmedara thahara dijie, stri chetana aura dalita chetana ki abhivyakti hai, to vargiya samrachana ko gali dete hue dalita ‘varga’ ki upalabdhiyom ke satha usaka rishta rishta joda diya jae! ‘ujabujati’ shabda ka prayoga hai, to use ‘loka’ ke satha joda dijie (bhojapuri sinema ki taraha)! Aura basa lijie mahana rachana ke sare guna krriti ya rachana mem maujuda haim, aise mem rachana ko mahana ghoshita karane mem kya dera?
Isa ‘kutsita samajashastra’ ki amtarnihita pravrritti hi hai ki samaja mem maujuda samasyaom ki (sahitya ke satha) satahi tulana to jarura ki jae (itana hi shreshtha sahitya ke lie paryapta hai), parantu ina samasyaom ko samajika paryavarana mem unaki sampurna samajika gatiki aura itihasabodha ke adhara para samajhane ka prayatna na kiya jae| sachchai mem yaha eka yathasthitivadi pravrritti hai| isa pravrritti ne anya dherom nukasana ke satha sabase bada nukasana hindi sahitya ki pragatishila parampara ke navina ojasvi svarom ko mamda aura vikrrita karane ka kiya| jaisa pahale kaha gaya ki hindi sahitya ki pragatishila parampara ka sahaja vikasa dalita va narivadi lekhana ke rupa mem hua| parantu sahitya mulyamkana ki ‘kutsita samajashastriya’ pravrritti ne ina donom hi navina svarom ko ‘matra’ krodha ki abhivyakti taka simita kara diya, jisaka parinama yaha hua ki 90 ka dashaka bitate-bitate ina svarom ka vikasa badhita ho gaya, aura ye yathasthitivada ka shikara hote chale gae| mukhyadhara ka samaja ho, ya sahitya ki duniya, kahim bhi kisi kisma ka arakshana samaja niyamtrana (Social Management) ki pu.njivadi yamtriki ka sabase khataranaka hathiyara hota hai (hama adha, tihai ya chauthai taka kyom simita rahem, pure ke lie kyom nahim?)| yahi sthiti kalarupom ke satha bhi hoti hai| dalita aura narivadi sahitya ke satha bhi yahi hua| ina navina svarom ke ‘krodha’ ko hi ‘sahityika mulya’ bata diya gaya, aura inhem apana kalatmaka vikasa karane ka avasara hi nahim diya gaya| jahira taura para isaka karana bhi bahuta spashta hai| yadi ina dharaom ka apani svabhavikata ke anurupa aura adhika kalatmaka vikasa hua hota, to nishchaya hi inamem vyakta ‘krodha’ ‘vyavastha virodha’ mem tabdila hota, jo ki pu.njivadi-burjua varga nahim chahata| pu.njivadi-burjua varga to dalita varga ko bhi atmasamtushta lampata kisma ke madhyavarga mem tabdila karana chahata hai| yaha.N jora dekara yaha doharana jaruri hai ki matra dalita ya stri dvara likhi rachana shreshtha nahim ho jati, jaba taka usamem kala aura saumdarya (jahira hai unake vichara ke anukula) ki abhivyakti nahim hoti| isa tathya ka sarvashreshtha udaharana tulasiram ki krriti murdahiya ke rupa mem maujuda hai, jaha.N samajika yathartha rachanatmaka rupa se saumdarya va kalatmaka abhivyakti ke rupa mem hua hai|
‘kutsita samajashastra’ ne sahitya alochana mem kai atarkika samajadrohi kisma ki bahasom ko bhi janma diya| inamem se eka bahasa ka kemdra ‘bhoga hua yathartha’ ya ‘anubhava ki pramanikata’ hai| pratikriyavadi varga ki manyata rahi ki jo vyakti (va samudaya) yathartha ka bhokta raha hai, vahi isa ‘yathartha’ ko kalamabamda karane ka adhikari hai| yaha vichara bahuta akarshaka pratita hota hai, aura satahi taura para ‘anasuni’ avaja़om ke paksha mem bhi pratita hota hai| parantu tarkika rupa se yaha vichara bilkula nirvirya hai, kyomki ‘yathartha bhokta’ ko apana yathartha darja karane ke lie ghatana se duri ki avashyakata hoti hai (sahitya samachara patrom ki kha़barom ki taraha turamta to janma nahim leta hai); aise mem koi pratishruti nahim hai ki yathartha ke rupa mem badalava nahim hoga? Yadi ‘yathartha bhokta’ ke dvara kie gae badalava ko svikara kiya ja sakata hai, to samana-anubhuti vale dusare rachanakara ko kyom nahim svikara kiya ja sakata hai, jaba ki ‘yathartha bhokta’ bhi apane alava krriti mem maujuda dusare patrom ko samana-anubhuti ke adhara para hi to darja karata hai?
Asala mem isa kutsita bahasa (ya vimarsha) ke madhyama se pratikriyavadi varga ne pratyaksha-apratyaksha rupa se hindi sahitya ke dalita va narivadi svarom ko eka simita dayare mem rakhakara ina vicharom ko nisteja karane ka prayasa kiya hai| 90 ke dashaka ke arambha mem likhi gai isa kavita se isa puri bahasa ka mulya hi nahim spashta hoga, balki hindi sahitya ki pragatishila pamrapara ke vikasa (jisaka jikra arambha mem kiya gaya) ka amdaja ho paega:
Aura striya.N kabhi ba.Njha nahim hoti
Ve rachati haim tabhi hama Apa hote haim
Tabhi duniya hoti hai
Rachane ka sahasa purusha mem nahim hota (son chirai jitendra shrivastav )
Bilkula isi taraha se dalita-chetana va svastha itihasabodha ki isa abhivyakti ko dekha ja sakata hai:
Koi siddha karane para tula tha ki yahim para lili ghodi udana bharati thi
Lekina janane vale janate haim
Ki san sattavana mem yahim mare the
Shahida ghirrai chamara
Jo chamara the, isalie unhem koi shahida nahim kahata (shahadat, badri narayana)
Aise mem sahitya ke ‘uttara’ chimtakom ke sarokara to spashta ho hi jate haim| lekina isake alava yaha.N isa bata para jora dena jaruri hai ki svastha mastishka, svastha itihasabodha aura sachchi janapakshadharata ka sarokara matra ‘abole’ logom ke ‘bolane’ taka simita nahim hai, balki isaka sarokara usa puri vyavastha, samajika samrachana ko chimhnita karane aura use badalane ka hai, jisane apane shoshana, kapata aura lampatata dvara ‘bolane’ valom ko ‘abole’ mem badala diya tha (hai)| sachchi janapakshadharata ka sarokara samaja se lekara sahitya taka ki duniya mem prasarita kie ja rahe nae kisma ke jativada ko prashraya dena nahim, balki usaka puri taraha se unmulana (Inhalation) karana hai| narivadi va dalita svarom ka sachcha vikasa vahi hoga, jaba isa sahitya ko ina pratyayom (dalita ya narivadi) ke bina mukhyadhara ke sahitya mem manyata prapta hogi|
Isa sari bahasa ka yaha amtima hissa kavita para kemdrita hai| sahitya ki isa vidha mem bhi lagabhaga vahi sari pravrrittiya.N maujuda haim, jinaka purvokta jikra kiya gaya hai, parantu kucha vishesha mudde shesha haim, jinaki charcha ka yaha.N prayasa kiya ja raha hai|
Chamakadara vakyom aura suktiyom se 90 ke bada kaviyom ka ka dirgha moha dikhai deta hai, varana koi karana nahim ki ‘amaruda ki khushabu’ se lekara ‘ujabujati’ jaise shabda-shabda yugmom ka prayoga ho pata, aura katrima kisma ke bhavabodha ko ‘rachane’ ka prayasa kiya jata| baki vidhaom ki rachanaom ki taraha isa vidha mem isa taraha ke shabda-shabda yugma se prema ki niyati itihasabodha ke abhava ke rupa mem hona svabhavika tha (hai)| isa samdarbha mem samakalina kavita ka hi eka udaharana prastuta hai:
Gajanana ki krripa
Aura aisa tuka-tala
Vishva ki do mahana ghatanae.N
Aisi samga-satha
Idhara lala lochana bihari ki pha़taha
Udhara obama ki chunava parinama (lal lochan bihari, lalganja aura manorama, anshul tripathi, j~nanodaya,
Mai, 2011)
Manushya ko ‘manushya ki garima’ se vamchita karane para hi ‘shanicharom’ ka janma hota hai| ‘lala lochana bihari’ ke satha aisi sthiti ho, to kya Ashcharya! Lekina isase bhi bade Ashcharya ki bata ‘osama ka chunava parinama’ hai| yaha itihasabodha ya samayabodha nahim, balki samyata (jisaka pahale jikra kiya ja chuke hai) ka kutsita prayasa hai|
Samakalina hindi kavita mem do taraha ki manushya virodhi pravrrittiya.N vidyamana haim| inamem eka ka purvokta jikra kiya hi ja chuka hai| dusari pravrritti kavita mem atyadhika saralata ke ‘mayajala’ ko bunane ki hai| yaha mayajala isa taraha ka hota hai ki yathartha isa hadda taka aparichitikarana ka shikara ho jata hai ki vaha kisi dusari duniya ke hi yathartha mem tabdila ho jata hai| jahira si bata hai ki yaha sthiti bhi sahitya mem panapi manushyavirodhi pravrrittiyom ki parichayaka hai| isake alava inhim pravrrittiyom ke dayare mem kavijana shilpa ko apani rachanatmakata se nahim, balki hathaude se todane ki koshishem karate (aura ‘uttara’ chimtaka use pramanita karate hue) amumana dikhai dete haim| yaha saba kevala dhurtata ke siva aura kucha nahim hai| shilpa ko lekara samakalina hindi kavita mem do kisma ke shanadara prayoga hue haim, jo vastavikata mem na kevala garimamaya haim, balki ‘uttara’ samrachanaom se mukabala karane ki takata rakhate haim| inamem eka prayoga deviprasada mishra ne kiya hai, jinhomne kavita ko tina samanamtara kaॉlamom mem likhakara samaya ki jatilataom ke amtarsamvadi rupa ko jahira karane ka prayasa kiya hai| haॉlaki yaha bahuta simita prayoga hai, lekina bahuta adhika sambhavanadharmi hai| isake alava shilpa (va kathya) ke stara eka dusara prayoga kai logom ne kiya hai (badri narayana, jitendra shrivastava va pamkaja raga), jisamem samakalina ‘vimarsha’ ki chamakadara lekina artharahita bhasha ke sapeksha bahuta hi sarala, sahaja bhasha ko kavya shilpa ka hissa banaya gaya hai| yaha sacheta prayasa hai| isa prayasa ki garima yaha hai ki yaha vaishvikarana ki tathakathita jatila saramchanaom ka virodha apane isa kavya shilpa ke madhyama se karata hai| haॉlaki yaha doharana jaruri hai ki kavya shilpa ki isa sahajata ko arjita karana bahuta kathina karya hai, aura isake lie sahitya ke prati gambhira sarokarom ki jarurata padati hai| eka udaharana se yaha bata jyada spashta ho jaegi:
Yaha bhojapura ka kshetra hai shriman
Bekari, naukari, pravasa
Yaha.N saba kucha adha hai, sacha mem adha
Ma.N ka kaleja adha
Bhai ka sina adha
Adha kahi chipa pada hai (do faNk, badri narayana)
Isa kavita ki purva mem uddharata ki gai usa kavita se tulana kijie, jisamem ‘obama ke chunava parinama’ ki sama-kalinata ko jivana anubhava se jodane ka prayasa kiya gaya tha| bhasha ke ashtavakra prayoga ke bavajuda purva kavita na to kavita-patra ke prati kisi kisma hi samvedana ko hi jahira kara pati hai, na hi kavi ke ghoshita aijende (yani vaishvikarana ya amariki nitiyom) ko hi kahi spashta kara pati hai! Jabaki apani sahaja bhasha va sadharana (isa shabda ke siva koi aura shabda prayoga karane ka vikalpa nahim hai, lekina yaha ‘sadharanata’ sudirgha sahitya sadhana ka parinama hai) kavya shilpa ke madhyama se samdarbhita kavi vaishvikarana ki nitiyom va prabhava ko asani se vyakta kara deta hai| isa lekha mem jitendra shrivastava va pamkaja raga ki uddharata ki gai kavitaom ki bhi isa mamale mem gavahi di ja sakati hai|
Sarabhuta rupa se soviyata vighatana hindi sahitya ki yuga vibhajaka rekha ke rupa mem maujuda hai| isa vighatana ne ‘manaviya mukti’ ki sambhavanaom ke satha vicharadharatmaka stara vyapaka prabhava dala hai| sahitya ke stara para yaha prabhava isa rupa mem pada hai ki sahitya ke adharabhuta prashna paridrrishya se ojhala ho gae haim| ‘sahitya kyom’ isi taraha ka adharabhuta prashna hai| isa daura mem maujuda dhumdhalake ka hi parinama hai ki rahi masuma raja ki taraha yaha kahane ka sahasa koi nahim kara pata ki sahitya samaja badalane ke lie likha jata hai| isa taraha sahitya karma ke satha judi vicharahinata va manushya virodhi pravrrittiya.N vartamana paridrrishya ka eka paksha hai| lekina isi ke satha isa paridrrishya mem ummida ki roshani bhi maujuda hai| pragatishila vicharom ki urvarata ne hindi sahitya mem bilkula vamchita varga ke svarom ko janma diya hai, aura isa samvedana se mukhyadhara ke sahitya ko gambhira rupa se prabhavita kiya hai; isaka parinama yaha hai ki vamchita varga na kevala apane stara para, balki dusare varga-samudaya (pragatishila) ke lekhaka bhi ‘samana-anubhuti’ ko sajha karake utkrrishtha rachanae.N kara rahe haim|
Isake alava ina do dashakom mem hindi sahitya pu.njivadi prachara madhyamom ki chamaka-damaka se vyapaka rupa se prabhavita hua hai, jisamem bhasha se lekara kathya va shilpa taka mem aimdrajalika prayogom ki shuruata hui, jabaki bharatiya samaja ke lie pichale do dashaka kisi bhishana apada se kama nahim rahe haim| aise mem koi bhi samaja aura sahitya ke bicha utpanna hui duri ka asani se anumana kara sakata hai| haॉlaki kai bara (satahi kisma ki) vaishvikarana virodhi va manushya vamchana ke vishaya mem rachanae.N dikhai deti haim, parantu ve bhi bilkula garimahina va dhomga ka paryaya matra haim, kyomki itane gambhira vishayom ke bavajuda kathya va shilpa mem aimdrajalika prayoga va yathartha ke sthana para kisi trasada mayaloka ki rachana vishayom ke sarokarom ki bali le leta hai| isa bata ko bahuta gambhirata se samajhana chahie ki vaishvikarana ke bada maujuda duniya ke yathartha ko kisi imdrajala se nahim, balki sahajata se hi vyakta kiya ja sakata hai, kyomki vaishvikarana ke bada ki duniya svayam kisi imdrajala ke samana hai| isa sthitiyom ke bita kai rachanakara haim, jo apane kathya va shilpa ki saralata va samaja ki dvamdatmaka samajhadari se hara pala Ashvasta karate haim|
Samparka – jeetendrakgupta@gmail.com
+91-9420732622
do dashko dashako dashkon ki gavahi
समकालीन हिन्दी साहित्य का ऐसा सार्थक विश्लेषण कम ही मिलता है, आमतौर पर लेखों में एक ही पक्ष दिखाई देता है, जबकि आपने समकालीन साहित्य और समाज के रिश्ते की द्वंद्वात्मकता को बढ़ियां पकड़ा है। इस लेख के बारे में मैंने पहले सुना था, लेकिन वह अंक मुझे नहीं मिल सका था, यहां पाकर काफी अच्छा लगा।