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दिल्ली गैंगरेप की शिकार लड़की की मौत हो गई है। देश की जनता दुख और गुस्से से भरी है। दिल्ली का गुस्सा बहुत ज्यादा है। अपराधियों के खिलाफ यह गुस्सा अभूतपूर्व है और किसी लड़की की जिंदगी के लिये यह सहानुभूति भी अभूतपूर्व है। लोगों का यह गुस्सा बहुत स्वाभाविक और प्रत्याशित है। लेकिन बेचैन होने के बावजूद मन में यह सवाल उठता है कि जिस देश में लगभग हर बीस मिनट में एक बलात्कार होता है और कायदे से खबर भी नहीं बन पाता, वहीं यह घटना आखिर इतना आक्रोश क्यों पैदा करती है। जितने भी लोगों से मैंने यह सवाल पूछा है, सबका यही कहना है कि उन्हें आक्रोश उस हैवानियत पर है जो उस लड़की के साथ हुई। यह ईमानदारी भरा जवाब है। इस जवाब में यह ‘काॅमनसेंस’ शामिल है कि बलात्कार एक चिंताजनक अपराध तो है, लेकिन वह सहनशीलता के दायरे के भीतर है, इस घटना में जो कुछ हुआ है, वह बलात्कार से कहीं बहुत अधिक बढ़कर है। सवाल फिर भी उठता है कि इस देश में क्रूरतापूर्ण हत्याएं भी तो कम नहीं होतीं, सरे-आम फंासी पर लटका देने, जिंदा जला देने, काट डालने या फिर लाठी-डंडे से पीटते-पीटते मार डालने की घटनाएं अकसर सुनने को मिल जाती हैं, फिर भी दिल्ली वालों में इस कदर गुस्सा तो नहीं उमड़ता! कहीं ऐसा तो नहीं कि दिल्ली की ‘जनता’ अपनी सुरक्षित हाइ-टेक सभ्यता के दिवास्वप्न में इस कदर डूबी रहती है कि उसे आस-पास उठने वाली चीखें सुनाई ही नहीं देतीं और जब उसकी नाक के ऐन नीचे ऐसा कुछ घटित होता है, जिससे इस दिवास्वप्न में बाधा पड़ती है तो वह बौखला उठती है!
या फिर ऐसा है कि दिल्ली महिलाओं के प्रति बहुत संवेदनशील है और उसके खिलाफ रोज-ब-रोज होने वाले अपराधों से दिल्ली वालों के सब्र का बांध भर चुका है और इस विस्फोटक घटना ने उन्हें आन्दोलित करके सड़कों पर ला दिया है। या फिर यह आक्रोश इसलिये है कि यह बर्बरता एक स्त्री के साथ हुई है, जबकि सभ्य समाज में बर्बरता करना और सहना तो पुरुषों के क्षेत्र की चीज है। खुद पितृसत्तात्मक समाज स्त्रियों को ‘अबला’ करार देता है और उनपर हिंसा की खुली अभिव्यक्ति को जायज नहीं मानता। ‘सभ्यता’ का तकाजा है कि पति अपने घरों के भीतर पत्नियों के मुंह में कपड़े ठूंस कर लात-जूतों से चाहे जितनी पिटाई कर लें, चाहे उसकी इच्छा के विरुद्ध रोज बलात्कार करते रहें, चलेगा; लेकिन उसका ऐसा नृशंस प्रदर्शन कतई सहनीय नहीं है!
जो भी हो एक बात तो साफ है कि फिलहाल वह लड़की कोई इंडिविजुअल न रहकर एक प्रतीक बन चुकी है – अमानुषिक हिंसा झेलती, बलात्कृत होती देश भर की महिलाआंे का प्रतीक! उस लड़की का नाम-रूपहीन, धर्म-जातिहीन होना ही उसे एक प्रतीक बनाता है। इस रूप में हमारे तमाम पूर्वग्रह कुछ देर के लिये स्थगित हो जाते हैं और हम उसे केवल एक पीड़ित लड़की के रूप में देखते हैं। हालांकि उसकी वर्गीय और क्षेत्रीय स्थिति स्पष्ट है और शायद इस विशिष्ट समीकरण के चलते ही मीडिया के लिये यह घटना एक न्यूज वैल्यू भी रखती है। यही स्थिति छत्तीसगढ़ की सोनी सोरी, उत्तरपूर्व की मनोरमा, खैरलांजी की प्रियंका और सुरेखा और ऐसी ही तमाम स्त्रियों की नहीं थी, इसीलिये उनकी चर्चा भी नहीं होती और न ही ऐसा आक्रोश पैदा होता है। बहरहाल, इस मामले में अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद मीडिया ने यह सराहनीय काम तो किया ही है कि उसने महिलाओं के प्रति होने वाले इस अपराध के प्रति लोगों की संवेदना को झकझोरा है। अपने आक्रोश से लोगों ने साफ कर दिया है कि इस तरह की हिंसा को देखने-सुनने के लिये वे कतई तैयार नहीं हैं। लेकिन इस आक्रोश और प्रतीकीकरण की सार्थकता केवल तभी है, जब उसमें तमाम उत्पीड़ितों की लड़ाई को भी शामिल किया जाए। अन्यथा बड़ी आसानी से सारी लड़ाई प्रतीकात्मक प्रतिशोध लेने पर केन्द्रित हो सकती है, जैसा कि दिल्ली गैंगरेप के ‘बलात्कारियों का फंासी दो!’ जैसे नारों से ध्वनित हो रहा है।
जिस पैमाने पर इस घटना ने लोगों को आक्रोशित-आन्दोलित किया है, उससे यह संभावना जगती है कि शायद महिलाओं की सुरक्षा के लिये कुछ सार्थक न्यायिक सुधार किये जाएं, सड़कों और सार्वजनिक स्थलों पर पुलिस और मुस्तैदी से अपना काम करे। लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं है, यह तो रोग के प्रत्यक्ष दिखने वाले लक्षणों का इलाज है। सुरक्षा किस चीज से? कौन करेगा यह सुरक्षा? क्या खुद पुलिस मर्दवादी आग्रहों से ग्रस्त संस्था नहीं है? क्या खुद उन्होंने घिनौने गैंगरेप नहीं किये हैं? सबसे बढ़कर यह कि अगर सुरक्षा की व्यवस्था की जा रही है, तो जाहिर है कि असुरक्षित करने वाली, चोट पहुंचाने वाली और डराने वाली चीजें मौजूद हैं। यह समझा जाना चाहिए कि दंड जरूरी भले हो, वह समस्या का समाधान कभी नहीं होता। हत्या के लिये मृत्युदंड का प्रावधान है, लेकिन इससे हत्याओं का सिलसिला थम नहीं जाता। दंड का डर केवल कमजोर और होश वाले लोगों पर ही काम कर सकता है। जब अपराध का जुनून सवार होता है, तो अपराधी न तो पकड़े जाने के बारे में सोचता है और न मिलने वाली सजा की गणना करता है। सजा का डर अपराध की प्रेरणा को खत्म नहीं करता, बल्कि वह सजा से बचने के लिये प्रेरित करता है। कई बार तो दंड की संभावना और भी बड़े अपराधों को जन्म देती है। अपहरण या बलात्कार के बाद पीड़ित व्यक्ति की हत्या का जो दोहरा अपराध पिछले एक दशक से बहुत बढ़ा है, उसके पीछे एक बड़ी वजह पहचान लिये जाने के कारण सजा मिलने का डर और उससे बचने की कोशिश ही है।
दिल्ली गैंगरेप के प्रसंग में सबसे हैरतअंगेज चीज बलात्कार के साथ जुड़ा हुआ वहशीपन ही है। सामान्य परिकल्पना में बलात्कार के साथ इस तरह की बर्बरता का मेल बिठा पाना मुश्किल है। जो बात लोगों को आक्रोशित कर रही है वह यह कि अगर बलात्कार ही इच्छित था, तो फिर लड़की की ऐसी दुर्गति क्यों की गई, उसे जीने लायक हालत में क्यों नहीं छोड़ दिया गया! लेकिन समझने की बात यह है कि बलात्कार तो खुद ही हिंसा का एक संश्लिष्ट जेंडर्ड रूप है और उसके अधिकांश मामलों में शारीरिक हिंसा भी शामिल होती है। जितनी भीषण कुंठा होगी और जितना जोरदार उसका प्रतिवाद होगा, उतनी ही अधिक मात्रा में हिंसा भी होगी। यह कुंठा और हिंसा केवल उन छः अपराधियों के भीतर रही हो ऐसी बात नहीं है।
स्त्री-पुरुष के बीच अधिकतम विभेदीकरण और अलगाव के जरिये जो कुंठा पैदा की जाती है, उसी की चरम परिणति है यह घटना। एक तरफ लड़के-लड़कियों के सहज-स्वाभाविक मेल-जोल और संबंधों पर रोक लगाकर तथा दूसरी तरफ काम संबंधों के महिमामंडन के जरिये पितृसत्तात्मक समाज हमारे मन में एक दूसरे के प्रति अस्वाभाविक मिथक और कुंठाएं पैदा करता है। शुचिता स्त्री के लिये सबसे बड़ा मूल्य और पुरुष के लिये सबसे अलभ्य वस्तु बन जाती है। आज जो लोग ‘रेप इज वर्स दैन मर्डर’ या ‘रादर चाॅप इट आॅफ दैन टु रेप’ का नारा लगा रहे हैं, वे अपनी सारी सहानुभूति के बावजूद असल में उसी पितृसत्तात्मक धारणा से ग्रस्त हैं, जो स्त्री की शुचिता को उसके जीवन से अधिक मूल्यवान मानती है। वे इतना भी समझने को तैयार नहीं है कि इतनी पीड़ा झेलने के बाद भी उस लड़की ने कहा था कि वह जीना चाहती है।
स्त्री-पुरुष संबंधों के जो रूप हमारे पितृसत्तात्मक समाज ने विकसित किये हैं, हिंसा उसका लगभग एक अनिवार्य पहलू बन गया है, यहां तक कि प्रेम संबंधों में भी आधिपत्य और हार-जीत की शब्दावली में बात की जाती है। सहमति से बनने वाले संबंधों तक में नोचने-खसोटने-काटने और पिटाई करने जैसी घटनाएं आम हैं और इसे विकृति या अपराध नहीं माना जाता। वैवाहिक बलात्कार को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है। ऐसे में दिल्ली गैंगरेप की घटना चाहे जितनी भी दुखद हो, है वह इस विकृत सामाजिक ढांचे की ही पैदावार!
हम एक ‘रेप कल्चर’ में रह रहे हैं और उसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि बलात्कार हमारे लिये सामान्य सी घटना बन चुका है, वह हमारी संवेदनाओं को तब तक नहीं झकझोरता जब तक उसके साथ ऐसी दरिंदगी नहीं जुड़ जाती। इस घटना ने प्रत्यक्ष कर दिया है कि हमारी न्याय और सुरक्षा व्यवस्था में कितने पोल हैं, इनमें सुधार के लिये आक्रोश बेहद जरूरी है, लेकिन इस संस्कृति का बदलना भी उतना ही जरूरी है। हम दिल्ली गैंगरेप के अपराधियों के लिये फांसी की सजा की मांग करें और लड़कियों को घूरने और उनपर कमेंट करने को सामान्य सी बात मानें, यह दोहरापन है। लड़की के साथ हुई क्रूरता पर आक्रोश आना बिल्कुल जायज है, लेकिन अपने आस-पास लगातार हो रही कू्ररता से अगर आप उदासीन हैं तो यह आक्रोश बेमानी है। जो लोग अपने ‘मजे’ के लिये इस बात की परवाह नहीं करते कि उनके कमेंट करने या घूरने से किसी लड़की को तकलीफ पहुंच रही है, वे और ज्यादा ‘मजा’ लेने के लिये (अगर संभव हो) उसे और ज्यादा तकलीफ क्यों नहीं पहुंचाएंगे! लड़कियों को ‘आइटम’ और ‘माल’ का नाम देने वाले लोग उन्हें इंसान समझते ही कब हैं, जो उनकी भावनाओं की परवाह करें। जैसे दुनिया की तमाम वस्तुएं भोग के लिये हैं, वैसे ही स्त्रियां भी उनके लिये एक ‘आइटम’ हैं।
ऐसा नहीं है कि स्त्रियों को इंसान की बजाय वस्तु समझने की मानसिकता केवल लुच्चे-लफंगों में ही होती है। अपने घर की स्त्रियों की ‘सुरक्षा’ के लिये कटिबद्ध पुरुष भी इसी मानसिकता के शिकार होते हैं। अकसर एक ही व्यक्ति दोनों भूमिकाएं निभाता है। हम सभी इसके गवाह हैं कि अगर अपनी इच्छापूर्ति के लिये बाहर की स्त्रियों का बलात्कार और हत्या की जा रही है, तो अपनी इच्छा के उल्लंघन पर खुद घर के लोग अपनी बहन-बेटियों की हत्या कर रहे हैं। घर के बाहर की स्त्रियों पर लोलुप नजर और घर की स्त्रियों की स्वतंत्रता पर पाबंदी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। स्त्री की अपनी इच्छा का दोनों के लिये ही कोई मूल्य नहीं है। दिल्ली गैंगरेप के अपराधियों के लिये सजा की मांग करते वक्त अपराधियों के इस विशाल समूह को भी याद रखें तो एक सार्थक लड़ाई लड़ी जा सकती है। वरना छः नामालूम से लोगों को फांसी पर लटकाकर निश्चिंत हो जाइये कि न्याय मिल गया, समाज के खलनायकों का सफाया हो गया, बात खत्म हुई। सरकार तो खुद आनन-फानन में अपराधियों को फांसी पर लटकाकर अपनी पीठ थपथपाने और जनाक्रोश को ठंडा कर देने की कोशिश में लगी हुई है। कवितेंद्र इंदु Ham Ek Rape Culture Me Ji Rahe Hain
ये समझना बहुत जरूरी है कि जो लोग आज स्त्रियों की ‘सुरक्षा’ के लिये चिंतित हैं, उनमें से सभी उनकी आजादी के लिये भी चिंतित हों, जरूरी नहीं। ऐसे लोग भी हो सकते हैं, जो घर की स्त्रियों को डराकर उनपर और पाबंदियां लादने के लिये इस तरह की घटनाओं के हवाले दें। इसीलिये अगर यह आक्रोश हमें हमारे व्यक्तिगत दायरे में स्त्रियों के प्रति अधिक सचेत और अधिक संवेदनशील नहीं बनाता तो फिर यह अपने आपको अपराध-बोध से मुक्ति दिलाने का अनुष्ठान मात्र है। छोटे अपराधियों को बड़े अपराधियों को गुस्सा तो आता ही है, यह गुस्सा उन्हें एहसास दिलाता है कि वे अपराधी नहीं, शरीफ इंसान हैं। ऐसा गुस्सा दूसरों को देखकर ज्वार की तरह पैदा होता है और समय बीतने के साथ बैठ भी जाता है।
फिलहाल आक्रोश सबके मन में है, न्याय सभी चाहते हैं। लेकिन आक्रोश की प्रकृति और न्याय की धारणाएं कई तरह की हैं। लड़की की मौत के बाद उसे न्याय दिलाने की बात तो अर्थहीन हो गई है, लेकिन अगर वृहत्तर अर्थ में न्याय की बात की जाय तो स्त्रियों के लिये हिंसामुक्त-समतामूलक समाज के निर्माण की कोशिशों को ही न्याय कहा जा सकता है। फिर यह लड़ाई केवल दिल्ली तक सीमित नहीं रह सकती, फिर इस लड़ाई में दलित-मुसलमान-आदिवासी स्त्रियों और सेक्सवर्कर्स के सवाल भी शामिल होंगे। फिर बात केवल स्त्रियों की सुरक्षा पर नहीं, बराबरी और आजादी पर भी करनी होगी।
या फिर ऐसा है कि दिल्ली महिलाओं के प्रति बहुत संवेदनशील है और उसके खिलाफ रोज-ब-रोज होने वाले अपराधों से दिल्ली वालों के सब्र का बांध भर चुका है और इस विस्फोटक घटना ने उन्हें आन्दोलित करके सड़कों पर ला दिया है। या फिर यह आक्रोश इसलिये है कि यह बर्बरता एक स्त्री के साथ हुई है, जबकि सभ्य समाज में बर्बरता करना और सहना तो पुरुषों के क्षेत्र की चीज है। खुद पितृसत्तात्मक समाज स्त्रियों को ‘अबला’ करार देता है और उनपर हिंसा की खुली अभिव्यक्ति को जायज नहीं मानता। ‘सभ्यता’ का तकाजा है कि पति अपने घरों के भीतर पत्नियों के मुंह में कपड़े ठूंस कर लात-जूतों से चाहे जितनी पिटाई कर लें, चाहे उसकी इच्छा के विरुद्ध रोज बलात्कार करते रहें, चलेगा; लेकिन उसका ऐसा नृशंस प्रदर्शन कतई सहनीय नहीं है!
जो भी हो एक बात तो साफ है कि फिलहाल वह लड़की कोई इंडिविजुअल न रहकर एक प्रतीक बन चुकी है – अमानुषिक हिंसा झेलती, बलात्कृत होती देश भर की महिलाआंे का प्रतीक! उस लड़की का नाम-रूपहीन, धर्म-जातिहीन होना ही उसे एक प्रतीक बनाता है। इस रूप में हमारे तमाम पूर्वग्रह कुछ देर के लिये स्थगित हो जाते हैं और हम उसे केवल एक पीड़ित लड़की के रूप में देखते हैं। हालांकि उसकी वर्गीय और क्षेत्रीय स्थिति स्पष्ट है और शायद इस विशिष्ट समीकरण के चलते ही मीडिया के लिये यह घटना एक न्यूज वैल्यू भी रखती है। यही स्थिति छत्तीसगढ़ की सोनी सोरी, उत्तरपूर्व की मनोरमा, खैरलांजी की प्रियंका और सुरेखा और ऐसी ही तमाम स्त्रियों की नहीं थी, इसीलिये उनकी चर्चा भी नहीं होती और न ही ऐसा आक्रोश पैदा होता है। बहरहाल, इस मामले में अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद मीडिया ने यह सराहनीय काम तो किया ही है कि उसने महिलाओं के प्रति होने वाले इस अपराध के प्रति लोगों की संवेदना को झकझोरा है। अपने आक्रोश से लोगों ने साफ कर दिया है कि इस तरह की हिंसा को देखने-सुनने के लिये वे कतई तैयार नहीं हैं। लेकिन इस आक्रोश और प्रतीकीकरण की सार्थकता केवल तभी है, जब उसमें तमाम उत्पीड़ितों की लड़ाई को भी शामिल किया जाए। अन्यथा बड़ी आसानी से सारी लड़ाई प्रतीकात्मक प्रतिशोध लेने पर केन्द्रित हो सकती है, जैसा कि दिल्ली गैंगरेप के ‘बलात्कारियों का फंासी दो!’ जैसे नारों से ध्वनित हो रहा है।
जिस पैमाने पर इस घटना ने लोगों को आक्रोशित-आन्दोलित किया है, उससे यह संभावना जगती है कि शायद महिलाओं की सुरक्षा के लिये कुछ सार्थक न्यायिक सुधार किये जाएं, सड़कों और सार्वजनिक स्थलों पर पुलिस और मुस्तैदी से अपना काम करे। लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं है, यह तो रोग के प्रत्यक्ष दिखने वाले लक्षणों का इलाज है। सुरक्षा किस चीज से? कौन करेगा यह सुरक्षा? क्या खुद पुलिस मर्दवादी आग्रहों से ग्रस्त संस्था नहीं है? क्या खुद उन्होंने घिनौने गैंगरेप नहीं किये हैं? सबसे बढ़कर यह कि अगर सुरक्षा की व्यवस्था की जा रही है, तो जाहिर है कि असुरक्षित करने वाली, चोट पहुंचाने वाली और डराने वाली चीजें मौजूद हैं। यह समझा जाना चाहिए कि दंड जरूरी भले हो, वह समस्या का समाधान कभी नहीं होता। हत्या के लिये मृत्युदंड का प्रावधान है, लेकिन इससे हत्याओं का सिलसिला थम नहीं जाता। दंड का डर केवल कमजोर और होश वाले लोगों पर ही काम कर सकता है। जब अपराध का जुनून सवार होता है, तो अपराधी न तो पकड़े जाने के बारे में सोचता है और न मिलने वाली सजा की गणना करता है। सजा का डर अपराध की प्रेरणा को खत्म नहीं करता, बल्कि वह सजा से बचने के लिये प्रेरित करता है। कई बार तो दंड की संभावना और भी बड़े अपराधों को जन्म देती है। अपहरण या बलात्कार के बाद पीड़ित व्यक्ति की हत्या का जो दोहरा अपराध पिछले एक दशक से बहुत बढ़ा है, उसके पीछे एक बड़ी वजह पहचान लिये जाने के कारण सजा मिलने का डर और उससे बचने की कोशिश ही है।
दिल्ली गैंगरेप के प्रसंग में सबसे हैरतअंगेज चीज बलात्कार के साथ जुड़ा हुआ वहशीपन ही है। सामान्य परिकल्पना में बलात्कार के साथ इस तरह की बर्बरता का मेल बिठा पाना मुश्किल है। जो बात लोगों को आक्रोशित कर रही है वह यह कि अगर बलात्कार ही इच्छित था, तो फिर लड़की की ऐसी दुर्गति क्यों की गई, उसे जीने लायक हालत में क्यों नहीं छोड़ दिया गया! लेकिन समझने की बात यह है कि बलात्कार तो खुद ही हिंसा का एक संश्लिष्ट जेंडर्ड रूप है और उसके अधिकांश मामलों में शारीरिक हिंसा भी शामिल होती है। जितनी भीषण कुंठा होगी और जितना जोरदार उसका प्रतिवाद होगा, उतनी ही अधिक मात्रा में हिंसा भी होगी। यह कुंठा और हिंसा केवल उन छः अपराधियों के भीतर रही हो ऐसी बात नहीं है।
स्त्री-पुरुष के बीच अधिकतम विभेदीकरण और अलगाव के जरिये जो कुंठा पैदा की जाती है, उसी की चरम परिणति है यह घटना। एक तरफ लड़के-लड़कियों के सहज-स्वाभाविक मेल-जोल और संबंधों पर रोक लगाकर तथा दूसरी तरफ काम संबंधों के महिमामंडन के जरिये पितृसत्तात्मक समाज हमारे मन में एक दूसरे के प्रति अस्वाभाविक मिथक और कुंठाएं पैदा करता है। शुचिता स्त्री के लिये सबसे बड़ा मूल्य और पुरुष के लिये सबसे अलभ्य वस्तु बन जाती है। आज जो लोग ‘रेप इज वर्स दैन मर्डर’ या ‘रादर चाॅप इट आॅफ दैन टु रेप’ का नारा लगा रहे हैं, वे अपनी सारी सहानुभूति के बावजूद असल में उसी पितृसत्तात्मक धारणा से ग्रस्त हैं, जो स्त्री की शुचिता को उसके जीवन से अधिक मूल्यवान मानती है। वे इतना भी समझने को तैयार नहीं है कि इतनी पीड़ा झेलने के बाद भी उस लड़की ने कहा था कि वह जीना चाहती है।
स्त्री-पुरुष संबंधों के जो रूप हमारे पितृसत्तात्मक समाज ने विकसित किये हैं, हिंसा उसका लगभग एक अनिवार्य पहलू बन गया है, यहां तक कि प्रेम संबंधों में भी आधिपत्य और हार-जीत की शब्दावली में बात की जाती है। सहमति से बनने वाले संबंधों तक में नोचने-खसोटने-काटने और पिटाई करने जैसी घटनाएं आम हैं और इसे विकृति या अपराध नहीं माना जाता। वैवाहिक बलात्कार को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है। ऐसे में दिल्ली गैंगरेप की घटना चाहे जितनी भी दुखद हो, है वह इस विकृत सामाजिक ढांचे की ही पैदावार!
हम एक ‘रेप कल्चर’ में रह रहे हैं और उसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि बलात्कार हमारे लिये सामान्य सी घटना बन चुका है, वह हमारी संवेदनाओं को तब तक नहीं झकझोरता जब तक उसके साथ ऐसी दरिंदगी नहीं जुड़ जाती। इस घटना ने प्रत्यक्ष कर दिया है कि हमारी न्याय और सुरक्षा व्यवस्था में कितने पोल हैं, इनमें सुधार के लिये आक्रोश बेहद जरूरी है, लेकिन इस संस्कृति का बदलना भी उतना ही जरूरी है। हम दिल्ली गैंगरेप के अपराधियों के लिये फांसी की सजा की मांग करें और लड़कियों को घूरने और उनपर कमेंट करने को सामान्य सी बात मानें, यह दोहरापन है। लड़की के साथ हुई क्रूरता पर आक्रोश आना बिल्कुल जायज है, लेकिन अपने आस-पास लगातार हो रही कू्ररता से अगर आप उदासीन हैं तो यह आक्रोश बेमानी है। जो लोग अपने ‘मजे’ के लिये इस बात की परवाह नहीं करते कि उनके कमेंट करने या घूरने से किसी लड़की को तकलीफ पहुंच रही है, वे और ज्यादा ‘मजा’ लेने के लिये (अगर संभव हो) उसे और ज्यादा तकलीफ क्यों नहीं पहुंचाएंगे! लड़कियों को ‘आइटम’ और ‘माल’ का नाम देने वाले लोग उन्हें इंसान समझते ही कब हैं, जो उनकी भावनाओं की परवाह करें। जैसे दुनिया की तमाम वस्तुएं भोग के लिये हैं, वैसे ही स्त्रियां भी उनके लिये एक ‘आइटम’ हैं।
ऐसा नहीं है कि स्त्रियों को इंसान की बजाय वस्तु समझने की मानसिकता केवल लुच्चे-लफंगों में ही होती है। अपने घर की स्त्रियों की ‘सुरक्षा’ के लिये कटिबद्ध पुरुष भी इसी मानसिकता के शिकार होते हैं। अकसर एक ही व्यक्ति दोनों भूमिकाएं निभाता है। हम सभी इसके गवाह हैं कि अगर अपनी इच्छापूर्ति के लिये बाहर की स्त्रियों का बलात्कार और हत्या की जा रही है, तो अपनी इच्छा के उल्लंघन पर खुद घर के लोग अपनी बहन-बेटियों की हत्या कर रहे हैं। घर के बाहर की स्त्रियों पर लोलुप नजर और घर की स्त्रियों की स्वतंत्रता पर पाबंदी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। स्त्री की अपनी इच्छा का दोनों के लिये ही कोई मूल्य नहीं है। दिल्ली गैंगरेप के अपराधियों के लिये सजा की मांग करते वक्त अपराधियों के इस विशाल समूह को भी याद रखें तो एक सार्थक लड़ाई लड़ी जा सकती है। वरना छः नामालूम से लोगों को फांसी पर लटकाकर निश्चिंत हो जाइये कि न्याय मिल गया, समाज के खलनायकों का सफाया हो गया, बात खत्म हुई। सरकार तो खुद आनन-फानन में अपराधियों को फांसी पर लटकाकर अपनी पीठ थपथपाने और जनाक्रोश को ठंडा कर देने की कोशिश में लगी हुई है। कवितेंद्र इंदु Ham Ek Rape Culture Me Ji Rahe Hain
ये समझना बहुत जरूरी है कि जो लोग आज स्त्रियों की ‘सुरक्षा’ के लिये चिंतित हैं, उनमें से सभी उनकी आजादी के लिये भी चिंतित हों, जरूरी नहीं। ऐसे लोग भी हो सकते हैं, जो घर की स्त्रियों को डराकर उनपर और पाबंदियां लादने के लिये इस तरह की घटनाओं के हवाले दें। इसीलिये अगर यह आक्रोश हमें हमारे व्यक्तिगत दायरे में स्त्रियों के प्रति अधिक सचेत और अधिक संवेदनशील नहीं बनाता तो फिर यह अपने आपको अपराध-बोध से मुक्ति दिलाने का अनुष्ठान मात्र है। छोटे अपराधियों को बड़े अपराधियों को गुस्सा तो आता ही है, यह गुस्सा उन्हें एहसास दिलाता है कि वे अपराधी नहीं, शरीफ इंसान हैं। ऐसा गुस्सा दूसरों को देखकर ज्वार की तरह पैदा होता है और समय बीतने के साथ बैठ भी जाता है।
फिलहाल आक्रोश सबके मन में है, न्याय सभी चाहते हैं। लेकिन आक्रोश की प्रकृति और न्याय की धारणाएं कई तरह की हैं। लड़की की मौत के बाद उसे न्याय दिलाने की बात तो अर्थहीन हो गई है, लेकिन अगर वृहत्तर अर्थ में न्याय की बात की जाय तो स्त्रियों के लिये हिंसामुक्त-समतामूलक समाज के निर्माण की कोशिशों को ही न्याय कहा जा सकता है। फिर यह लड़ाई केवल दिल्ली तक सीमित नहीं रह सकती, फिर इस लड़ाई में दलित-मुसलमान-आदिवासी स्त्रियों और सेक्सवर्कर्स के सवाल भी शामिल होंगे। फिर बात केवल स्त्रियों की सुरक्षा पर नहीं, बराबरी और आजादी पर भी करनी होगी।
बहुत सुविचारित लेख. किसी भी उभार की खासियत होती है कि वह सोचने की बाध्यता भी पैदा करता है और सोचने में बाधा भी डालता है. पहले को अपनी शक्ति बना कर दूसरे को झटक पाना बहुत मुश्किल काम है, जो कवितेन्द्र यहाँ कर पाए हैं.
जो कुछ हुआ, उसे बर्बरता या पाशविकता कहना ही गलत है. वह सभ्यता की देन है. सभ्यता के साथ सख्ती, अस्वाभाविक अलगाव, सप्रेसन, कुंठाएं– इनका गहरा रिश्ता है. फांसी में निदान ढूँढने वाले दरअसल खुद टिपिकली “सभ्य” लोग हैं.
हम जानते हैं की ये परम्परा हमारे पूर्वजों से चलती आ रही है. दोस्तों मगर हम युवा ठान लें तो जो हमारे साथ हुआ है वो फिर किसी के साथ नहीं होगा.
भाई आपका लेख बहुत ही स्पष्ट तरीके से ऐसे विचारों को रखता है जो स्त्रियों की स्वतंत्रता के लिए बहुत ही ज़रूरी है…. एक षड्यंत्रकारी पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों को जीने के लिए मज़बूर कर दिया है…..
एक एक शब्द सारगर्भित …..सभी पहलुओ पर स्पष्ट विचार और समस्या का गहराई से आकलन ……छोटे अपराधियों को परिवर्तन की जरुरत न की समाजशास्त्री बनने की
Hey,
Very good thought, i’m good in hindi but i’ll communicate better then in English. Anywaz, we cannot blame the mentality of particular person, because we don’t know his mentality practically, we don’t have technology to do that…so change goes far behind…they may or may not change after listening to you……this is a homogeneous condition with heterogeneous factors or variables, In Haryana, women are raped but they are not killed because ‘samaj’ kills them, they suicide. Now, if we know we have problem in the system, we do have, we don’t introduce Technology, we don’t, if we’ll use them, things would improve but they wouldn’t let that happen, Cabinat. For example, transportation authorities in Delhi is still very barbaric in terms of technology, If they’ll use online system for filling and scheduling of test dates forms and applications, they would not only apprise, Govt. would have better control over Data required to take immediate steps. We need politicians, motivated, professionals from every part of the industry, say it be education, corporate or self-employed individuals, those who understand the seriousness and quickness of these issues, few from us or else we might last having millions debates online and only discussing topics and evaluating them without holding a grasp on their root cause, politics. And there’s nothing wrong in it, India has hierarchy based political stage fabricated say by not corrupt but non-serious genre of people, we need a change.
I would like to hear a opinion!
आपने बहुत सही कहा है की हम एक रेप कल्चर में जी रहे हैं. स्त्री के संबंध में मानदंड दुहरा है यह भी सही है. आपके हमारे जैसे लोग एक बदलाव के लिए कटिबद्ध हों. इसके लिए समाज में एक स्वस्थ संस्कार को विकसित करना होगा.