मृणाल विमर्श के बहाने

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जो व्यवस्था अपने पितृसत्तात्मक आग्रहों के बावजूद सभी पुरुषों तक को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार दे पाने में अक्षम है, उससे यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह सभी स्त्रियों को यह सब उपलब्ध कराएगी! जाहिर है कि यह मांग बेमानी है और इसका वास्तविक अभिप्राय स्त्रियों के लिए कुछ और नरमी बरतने की प्रार्थना करना है। स्त्रियों की छंटनी रोकना, उन्हें प्रसूति सम्बंधी अवकाश दिलाना इत्यादि एक छोटे वर्ग को ही राहत पहुंचाएगा, क्योंकि स्त्री श्रम का काफी बड़ा हिस्सा तो असंगठित क्षेत्र में लगा हुआ है। स्वरोजगार के डंडे से गरीबी भगाने का उपाय तो छलावा ही है; आखिर देश की पचास करोेड़ औरतें क्या-क्या बनाएंगी और उन्हें खरीदेगा कौन? जब बहुराष्ट्रीय बड़ी पूंजी स्थानीय उत्पादकों द्वारा तैयार किये गए हर उस बाजार को हथिया ले रही हैं जिसमें मुनाफे की सम्भावना है,मृणाल पांडे उन लेखकों में से नहीं हैं, जिन्होंने हिंदी में नारीवाद के प्रतिष्ठित हो जाने के बाद उसके प्रभाव और दबाव में लिखना शुरू किया। स्त्री केंद्रित लेखों का उनका पहला संकलन ‘स्त्री ः देह की राजनीति से देश की राजनीति तक’ 1987 में ही प्रकाशित हो चुका था। इस लिहाज से वे उन लोगों में से एक हैं जिन्होंने नारीवाद को प्रतिष्ठित करने, उसे दिशा देने एवं उसके दायरे को व्यापक बनाने के लिए निरंतर संघर्ष किया है। मृणाल बहुपठित हैं, उनके ज्ञान का दायरा संस्कृत साहित्य से लेकर अंग्रेजी तक विस्तृत है, किसी भी मुद्दे पर आंकड़ों तक उनकी सीधी पहुंच है, इससे भी बढ़कर उनके पास देश के विभिन्न भागों और विभिन्न तबकों की स्त्रियों की समस्याओं का प्रत्यक्ष अनुभव है। हिंदी में उनके स्त्री संबंधी लेखन का दायरा पांच सौ से अधिक पृष्ठों में फैला हुआ है, जाहिर है कि ऐसा लेखन अपने लिए किसी रियायत की मांग नहीं करता। Kingson
स्त्री कोई अमूर्त अवधारणा नहीं है, इसलिए स्त्री पर बात करने का अर्थ स्त्रियों पर बात करना है, उन स्त्रियों के बारे में बात करना है जो खास नहीं आम हैं। मृणाल पांडे इस तथ्य के प्रति लगातार सचेत रही हैं कि इस देश की आम स्त्री का अर्थ गरीब स्त्री है। स्त्रियों के प्रसंग में गरीबी केवल खाने और कपड़े के अभाव तक सीमित नहीं रह जाती बल्कि नाटकीय ढंग से ‘गरीबी का महिलाकरण’ हो जाता है- छंटनियों में सबसे पहला नम्बर उसी का होता है, गरीबी उससे घर में बैठकर उद्योगपतियों के लिए ‘पीस रेट’ पर काम करने के लिए मजबूर करती है, आसानी से हल हो सकने वाली बीमारियों को डॉक्टरी सलाह के अभाव में यह उसे गोपनीय बनाकर पालने-पोसने के लिए विवश करती है। गरीबी स्त्री को कुंठित और हिंसक लोगों का आसान शिकार बना सकती है, उसे वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर कर सकती है और एड्स के रुप में इस मजबूरी का दंड भी उसे दे सकती है। स्त्री के जीवन पर गरीबी के इन विशिष्ट प्रभावों की चर्चा मृणाल के लेखन में बार-बार आती है।
मृणाल के विमर्श में गरीबी के अलावा परिवार नियोजन, भ्रूण का लिंग परिक्षण, कन्या भ्रूण हत्या, दहेज और स्त्री की स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याओं को केंद्रीय स्थान मिला है। वे सरकारी नीतियों और व्यवस्था की तीखी आलोचना करती हैं, जिन्होंने स्त्री को ‘जिम्मेदार मानवीय संसाधन’ मानने के बजाय नसबंदी के ‘टारगेट’ के रुप में देखा है। भारतीय समाज में संतानोत्पत्ति के प्रसंग में निर्णयकर्ता पुरुष होता है जबकि वंध्याकरण के लिए मजबूर होना पड़ता है स्त्री को। तकनीकी एवं चिकित्सकीय दृष्टि से पुरुषों की नसंबदी आसान और सुरक्षित होने के बावजूद 96ः मामलों में नसबंदी स्त्रियों को ही करानी पड़ती है। मृणाल के लेखन से स्पष्ट है कि परिवार नियोजन के दबाव के नकारात्मक प्रभाव की कीमत भी स्त्रियों को ही चुकानी पड़ी है। पुत्र प्राप्ति की गहरी ‘राष्ट्रीय ललक’ ने ‘नियोजन’ के साथ मिलकर अवैध लिंग परीक्षण और स्त्री भ्रूण हत्या करने को प्रेरित किया है, नतीजतन लगभग पूरे देश में स्त्री-पुरुष अनुपात भीषण ढंग से असंतुलित होने लगा है।
मृणाल की उपलब्धियों की चर्चा और विस्तार से की जा सकती है, लेकिन उपलब्धियां आलोचनात्मक मूल्यांकन का केवल एक पक्ष हैं। अगर नारीवाद को गम्भीर और सार्थक सामाजिक विमर्श बनाए रखना है तो हमें उपलब्धियों के साथ-साथ समस्याओं को भी पहचानना होगा ताकि उन्हें दूर कर इसे और आगे बढ़ाया जा सके। मृणाल ने ज्यादातर विवरणात्मक लेखों की शक्ल में लिखा है, छिटपुट सैद्धांतिक टिप्पणियों के अलावा उन्होंने कहीं भी भारतीय स्त्री के अस्तित्व की समग्र सैद्धांतिकी विकसित करने की कोशिश नहीं की है। नतीजतन व्यवहारिक समस्याएं और तात्कालिक दबाव आवश्यकतानुसार उनकी मान्यताओं को प्रभावित करते रहते हैं।
मसलन स्त्रियों की गरीबी के ढेर सारे विवरण खुद देने के बावजूद जब मृणाल ‘माक्र्स या समाजशास्त्रियों की अवधारणाओं’ को ‘विफल’ घोषित करते हुए स्त्रियों की शोषण सम्बंधी समस्याओं को समझने के लिए ‘‘विशुद्ध भारतीय सामाजिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अंतर्धाराओं’’ पर ध्यान आकृष्ट कराती हैं या महिला कामगारों की छंटनी पर बात करते हुए यह लिखती हैं कि ‘‘सच्चाई यह है कि हमारी स्त्रियों की वर्तमान हीन दशा के मूल बीज आर्थिक क्षेत्र में नहीं हमारी पारम्परिक सामाजिक व्यवस्था में छिपे हैं। उदाहरण के लिए, पारम्परिक तौर से माना गया कि स्त्री जाति कमअक्ल है।…’’ तो समझ में नहीं आता कि तमाम सांस्कृतिक भिन्नताओं के बावजूद दुनिया भर में मौजूद स्त्रियों के दोयम दर्जे को समझने के लिए वे कौन सी ‘विशुद्ध भारतीय’ सैद्धांतिकी प्रस्तावित कर रही हैं। लगता है कि मृणाल पितृवंशीय समाजों की उस बुनियादी विशेषता को नजरंदाज कर रहीं हैं जिसमें श्रम विभाजन के जरिए स्त्री को पुनरुत्पादन के कार्यों में धकेला जाता है और इस तरह अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए ‘उत्पादक’ (या कमाऊ) श्रम करने वाले पुरुष पर निर्भर बना दिया जाता है। इस नियम के परिणामस्वरूप पुरुष को घर में प्रभुत्व प्राप्त होता है और बाहर की संस्थाओं में परिवार का प्रतिनिधित्व। उन मामलों में भी जिनमें स्त्री उत्पादक गतिविधियों में हिस्सेदारी करती है, उत्पादन के साधनों (घर, खेत, पशु, औजार इत्यादि) स्त्री की नहीं अपितु पुरुष की सम्पत्ति होते हैं तथा कुछ प्रमुख गतिविधियों (जैसे हल चलाना आदि) को स्त्री के लिए वर्जित कर दिया जाता है, नतीजतन स्त्री की हैसियत उत्पाद के मालिक या हिस्सेदार की नहीं, श्रमिक की होती है। तब पुरुष स्त्री का ‘भरतार’ और उसके जीवन का निर्णयकर्ता बन जाता है। ऐसे में स्त्री को आत्मनिर्भर बनाना उसकी मुक्ति की एकमात्र न सही लेकिन पहली शर्त तो अनिवार्य रूप से होगी!मृणाल विमर्श के बहाने
– किंगसन सिंह पटेल
पुरुष और स्त्री के बीच उत्पादन और पुनरुत्पादन का विभाजन न सिर्फ इतिहास का ‘सबसे पहला श्रम विभाजन’ है, अपितु यह सबसे स्थायी श्रम विभाजन भी है। पारिवारिक संबंधों में जिस स्थायित्व की तलाश की जाती है वह इसी स्थायी श्रम विभाजन की उपज है और स्त्री सदस्यों से जिस त्याग की अपेक्षा की जाती है वह असल में अपने श्रम के मूल्य और गरिमा के त्याग की ही अपेक्षा है। इस बात से बिल्कुल सहमत हुआ जा सकता है कि स्त्रियों की अधीनता को पूरी तरह समझने के लिए केवल माक्र्सवाद अपर्याप्त है, लेकिन यह कैसे हो सकता है कि आप बहुसंख्यक स्त्रियों की बात करें , उनकी गरीबी की चिंता करें और ‘घरेलू श्रम’, ‘पुनरुत्पादन’ जैसी श्रेणियों को भूल जाएं! यह भूल जाएं कि जेंडर विभेदीकरण के तंत्र के रूप में पितृसत्ता हमेशा उत्पादन प्रणाली (फिलहाल पूंजीवाद) से संबद्ध होकर काम करती रही है! इन समस्याओं पर माक्र्सवादी नारीवादियों से बेहतर काम किसने किया है!
स्त्री सशक्तीकरण के मद्देनजर मृणाल स्त्रियों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वरोजगार की सुविधाओं की मांग लगातार करती हैं। वह समस्या की चर्चा तो करती हैं लेकिन उसके मर्म पर ऊंगली रखने से बचती हैं। तो उसकी होड़ में टिकने का सवाल ही कहां पैदा होता है। मेरे कहने का अर्थ यह नहीं है कि उपरोक्त तरीकों को अपनाया नहीं जाना चाहिए, नहीं, इनमें से हर सलाह स्वागत योग्य है, मौजूदा स्थितियों में ये उपाय कम से कम उन कुछ स्त्रियों की स्थिति को तो बेहतर बना ही सकते हैं जो यथास्थिति से निकलने को छटपटा रही हैं, हर सम्भव प्रयास कर रही हैं। सवाल तो लेकिन यह है कि बतौर एक नारीवादी के आपके पास इन समस्याओं का कोई मुकम्मल हल है भी या नहीं! या यह मान लिया जाए कि समतामूलक समाज बनना सिद्धांततः असम्भव है और हमें केवल सुधार की ही बात करनी चाहिए, बदलाव की नहीं!
असल में मृणाल समस्याओं को मूलगामी नजरिये से देखने से ही इनकार कर देती हैं, गरीबी उनके लिए एक निरपेक्ष अवस्था बन जाती है जिसमें से लोगों को बारी-बारी खींचकर मुक्त कर दिया जाएगा। वे यह नहीं देखना चाहतीं कि एक छोर पर संसाधनों की भरमार का ही परिणाम है शेष जनता की संसाधनहीनता; एक व्यक्ति से हाड़-तोड़ मेहनत करवाई जाती है तो बदले में कइयों को बेरोजगार रखा जाता है- यानी संसाधनों और श्रम के पुनर्वितरण के अलावा समस्या का कोई मुकम्मल हल सम्भव नहीं।
मृणाल यह देख पाने में समर्थ हैं कि वित्तीय मदद पाने के लिए विश्व बैंक जैसी संस्थाओं की शर्तों को मानना अनिवार्य है, इन शर्तों में से एक आबादी नियंत्रण भी है। इस समस्या को हल करने के लिए सरकार ने गरीब स्त्री को ‘टारगेट’ बनाया है। महिला संगठनों की समझ का समर्थन करते हुए वे बिल्कुल ठीक लिखती हैं कि सामाजिक-आर्थिक विषमताओं और पर्यावरण क्षरण का कारण बढ़ती आबादी नहीं है और ‘‘प्रगति की कुंजी आथर््िाक और प्रशासनिक सुधारों में है, क्योंकि आर्थिक विषमताओं के चलते ही गरीब परिवारों पर यह बाध्यता बढ़ती गई है कि वे अधिक बच्चे पैदा करें जो बड़े होेने पर अधिक कमाई घर ला सकें।’’ लेकिन न तो यही सवाल उन्हें परेशान करता है कि स्वयं आर्थिक विषमता किस प्रक्रिया का परिणाम है और न ही वे इस बेहद सूक्ष्म रणनीति को समझ पाती हैं कि परिवार नियोजन का पूरा कार्यक्रम किस तरह सरकार की असफलताओं पर से ध्यान हटाकर पीड़ितोें (गरीबों) के मन में यह बात बैठा देने का सबसे कारगर उपाय है कि अपनी अवस्था के लिए जनता खुद दोषी है। इस रणनीति की ताकत तब और भी स्पष्टता से दिखाई देती है जब स्वयं मृणाल पांडे इस प्रचार से सहमत होकर यह लिखती हैं कि लोगों का ध्यान ‘‘सब कष्टों की जड़ यानी बढ़ती आबादी’’ पर नहीं जाता। ‘पहले भोजन फिर परिवार नियोजन’ जैसा लेख लिखने और परिवार नियोजन के लिए दबाव डालने का विरोध करने वाली मृणाल पांडे यहां यह भी सलाह देने से नहीं चूकतीं कि ‘‘समस्या का आकार तथा समय का तेजी से सरकता रथ देखते हुए कुछ अप्रिय कठोर कदम उठाने पड़ें तो भी कोई हर्ज नहीं।’’
‘छोटा परिवार, सुखी परिवार’ के आकर्षक सिक्के का ही दूसरा पहलू है भ्रूण का लिंग परीक्षण और मादा भ्रूण की हत्या। मृणाल पांडे मुम्बई के उस अस्पताल का हवाला देती हैं जहां ‘‘800 में से 799 नष्ट किए गए भ्रूण कन्या शिशुओं के ही थे।’’ वे बताती हैं कि निम्नवर्ग से लेकर उच्चवर्ग तक लोगों में ‘बेटे की उत्कट कामना’ मौजूद है, लेकिन जब वे सांस्कृतिक अवधारणाओं तथा भावनात्मक अमूर्तनों को इसका कारण बताती हैं तो जहां वे कुछ वजहों पर अनावश्यक जोर देती हैं तो वहीं दूसरी वजहों को नजरंदाज कर रही होती हैं। पितृवंशीय समाज पितृस्थानिक विवाहों के आधार पर संगठित होते हैं यानी विवाह के बाद स्त्री को अपनी जगह से उखड़ कर पति के पिता के घर जाना होता है (यह स्त्री को अधीन बनाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाता है)। ‘वंश चलाने’ या ‘बुढ़ापे का सहारा’ बनने जैसी चीजें केवल ‘धारणाएं’ या ‘अमूर्तन’ नहीं हैं, वे ठोस सामाजिक प्रक्रियाओं से जुड़ी हुई हैं, विवाह के बाद लड़कियां अपने पितृकुलों से छिटककर कहीं और विलीन हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में मां-बाप लड़की पैदा करने से क्यों न बचना चाहेंगे जबकि लड़की को ‘सुरक्षित’ रखने एवं पाल-पोस, पढ़ा-लिखा कर ‘तैयार’ करने का कर्तव्य उनका हो और विवाह के बाद उसके श्रम और जीवन का उपभोग करने का अधिकार किसी और का; जबकि विवाह के बाद उससे सम्बंध भी नाममात्र को रह जाएं, देने की जिम्मेदारियां तो बनी रहें लेकिन अधिकार न रह जाएं। कमाने, वंश चलाने के अलावा बेटे के जीवन भर साथ रहने की सम्भावना अधिक होती है, दहेज तो वह लाता ही है। जब तक कि विवाहों का स्वरूप पितृस्थानिक रहेगा, बेटी पर बेटों की वरीयता बनी रहेगी।
दहेज के सामाजिक आधार को व्याख्यायित न कर पाने के कारण लोग उसे प्रायः ‘कुप्रथा’ के तौर पर या वर पक्ष के लालच से जोड़कर देखते हैं और कड़े कानूनों को इसका हल बताते हैं। इसे स्वीकार करते हुए भी ‘स्थिति का जड़ से प्रतिकार’ करने के लिए मृणाल थोड़ा और गहराई में जाती हैं तथा सुझाव देती हैं कि ‘‘जब तक हमारे यहां वैवाहिक सम्बंध दो व्यक्तियों के पारस्परिक प्रेम पर आधारित होने के बजाय बिरादरी और घर वालों के माध्यम से ‘ठहराए पारिवारिक सामाजिक समझौते’ के रूप में तय होते रहेंगे दहेज के लिए हाशिए पर हमेशा जगह बनी रहेगी।’’ मृणाल का सुझाव सही है लेकिन कई सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं, मसलन अगर स्त्रियों की संख्या पुरुषों से कम है तो ऐसी स्थिति में उनकी मांग अधिक होनी चाहिए और निम्नतर शर्तों पर विवाह करने के लिए बाध्य पुरुषों को होना चाहिए! अगर यह सौदेबाजी है तो लड़के को खरीद लेने के चलते पत्नी पक्ष को प्रभावशाली होना चाहिए,जबकि होता ठीक उलटा है! यह सही है कि बहुत बहुत सारे प्रेमविवाह बिना दहेज के होते हैं, लेकिन सवाल तो यह भी है कि प्रेम भारतीय समाज में विवाह का प्राथमिक आधार क्यों नहीं बन सका है! स्वयं प्रेम भी बड़ी अस्पष्ट सी चीज है, अलग-अलग लोगों के लिए इसका अलग-अलग अर्थ है। विषमतापूर्ण समाज में प्रेम भी समतापरक नहीं होता , अधिकांश मामलों में वह स्त्री को लैंगिक वस्तु के रूप में ही देखता है और उसकी अधीनता को बनाए रखता है इसीलिए बहुत बार स्वयं प्रेमी भी दहेज और प्रेम का द्वंद्व उपस्थित होने पर दहेज को प्राथमिकता देते हैं। वैसे भी प्रेम जितने मामलों में विवाह में परिणत होता है उससे कई गुना अधिक मामलों में स्त्रियों के शोषण का जरिया बनता है। प्रेम विवाह को स्त्री की आत्महत्या तक पहुंचाने वाले ऐसे ही एक मामले पर मार्मिक टिप्पणी करते हुए कात्यायनी ने बिल्कुल ठीक याद दिलाया है कि ‘‘प्रेम भी जब विवाह के रूप में संस्थाबद्ध होता है तो फिर ऐतिहासिक रूप से विकसित इस संस्था कि पुरुष स्वामित्ववादी निरंकुशता उसमें प्रविष्ट हो ही जाती है।’’
बहरहाल हिंदी में मैत्रेयी पुष्पा ऐसी अकेली शख्स हैं जिन्होंने दहेज के सामाजिक कारणों को बिल्कुल ठीक पहचानते हुए उसे मौजूदा स्थितियों का अनिवार्य परिणाम बताया है। मैत्रेयी पुष्पा ने लिखा है कि एक तो लड़की के पालन-पोषण और शिक्षा पर लड़कों की अपेक्षा कम खर्च किया जाता है और सुरक्षा देने के नाम पर उसकी क्षमताओं और योग्यताओं को दबाया जाता है; दूसरे, विवाह के साथ ही उसे पिता की सम्पत्ति से बेदखल कर दिया जाता है। पिता अपनी प्रतिष्ठा और पुत्री के ‘भले’ के लिए उसका विवाह यथासम्भव ‘योग्यतम’ वर से करता है। विवाह के बाद लड़की अपने से ‘श्रेष्ठ’ ऐसे ‘योग्यतम’ वर की शक्ति, प्रतिष्ठा और योग्यता के फलों में साझीदारी करती है, जबकि इन्हें स्वयं अर्जित करने की क्षमता उसमें विकसित नहीं होने दी जाती। अंतर के बावजूद वर द्वारा ‘साझीदारी’ प्रदान करने की ‘भरपाई’ कन्या पक्ष दहेज के रूप में करता है। निष्कर्ष स्पष्ट है कि जब तक स्त्री की योग्यताओं को विकसित होने से रोका जाएगा और विवाह के लिए उससे ‘योग्य’ पुरुष को चुना जाएगा दहेज भी बना रहेगा।
‘ओ उब्बीरी ः भारतीय स्त्री का प्रजनन और यौन जीवन’ हिंदी में ऐसी अकेली किताब है जो विस्तार से ग्रामीण स्त्रियों की गरीबी और अशिक्षा के मिले-जुले रूप जहालत के परिणामों को प्रदर्शित करती है। लेखिका ने दो वर्षों तक विभिन्न राज्यों में घूमकर जो अनुभव और जानकारियां इकट्ठी कीं उसके आधार पर उन्होंने ग्रामीण स्त्रियों के स्वास्थ्य एवं प्रजनन सम्बंधी समस्याओं तथा उन्हें दूर करने में लगे स्वैच्छिक संगठनों (एन जी ओ) की कोशिशों का ब्योरा दिया है। उन्होंने दिखाया है कि पूरे समाज की लापरवाही, स्त्री की गरीबी, उसकी प्रजनन शक्ति पर पुरुष का आधिपत्य और सही डॉक्टरी सलाह का अभाव स्त्री को विभिन्न बीमारियों की गिरफ्त में धकेल देता है। खासकर जब मामला यौन रोगों का हो तो धार्मिक रूढ़ियां, ‘मर्यादा’ जैसे प्रतिबंध तथा बदचलन समझे जाने का भय स्त्रियों को चुपचाप सहने और रोग को पालते जाने के लिए मजबूर करता है, ‘क्योंकि प्रजनन, यौन जीवन और उससे जुड़ी बीमारियों के बारे में बात करना गर्हित विषय है’। सरकारी डॅाक्टरों द्वारा उपेक्षा और निर्मम ठंडा व्यवहार इस समस्या को और बढ़ाता है ऐसे में स्वैच्छिक संगठन के सदस्यों का अपनत्व तथा प्रोत्साहन ऐसी गम्भीर समस्याओं को दूर करने में कारगर भूमिका निभाता है। यह पुस्तक नारीवाद की किताबी बहसों को किनारे धकेलकर वास्तविक सुधार के काम में लगे हुए प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं के काम की मिशाल पेश करती है। मृणाल इस बात के लिए सरकारी योजनाआंे की घनघोर भत्र्सना करती हैं कि उनका सारा जोर ‘परिवार नियोजन’ पर है, स्त्री स्वास्थ्य पर नहीं- वे कंडोम बांटते हैं, सेनेटरी नैपकिन नहीं।
बहरहाल, मृणाल की इस पुस्तक में गाय, भैंस, बछड़ों इत्यादि के भावुकतापूर्ण अप्रासंगिक ब्योरों के अलावा जो बात बुरी तरह खटकती है वह यह कि इसमें न सिर्फ एकांगी विवरण हैं, बल्कि इस अध्ययन की पद्धति भी पक्षपातपूर्ण है। स्वैच्छिक संगठनों की कहानी उन्हीं की जुबानी कहने की बजाय अच्छा होता कि मृणाल ने यह अध्ययन अपनी पहल पर किया होता, अपने मौजूदा स्वरूप में यह किताब भारतीय स्त्री के प्रजनन और यौन जीवन की कम और कुछ एन जी ओ के काम की रिपोर्टिंग ज्यादा लगती है। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के दायरे उनके बजट, संसाधनों की कमी एवं उनपर पड़ने वाले काम के दबाव पर गौर करें तो एन जी ओ से उनकी तुलना की निरर्थकता स्वतः स्पष्ट हो जाएगी, शायद इसीलिए इतने विस्तार के बावजूद मृणाल कहीं भी इन संगठनों को चलाने में होने वाले खर्च पर एक वाक्य भी नहीं लिखतीं। सच तो मृणाल पांडे भी जानती हैं, ‘ओ उब्बीरी’ के उलट ‘पहले भोजन फिर परिवार नियोजन’ लेख में उन्होंने जो निष्कर्ष दिया था उसे देखना दिलचस्प होगा- ‘‘वह ढीला या अपर्याप्त हो पर हमारा सरकारी स्वास्थ्यतंत्र अभी भी काफी चिकित्सकीय कुशलता और सम्भावनाएं अपने भीतर समेटे हुए है और देशव्यापी पहुंच तो उसकी है ही।…. स्वैच्छिक संगठन सरकारी प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों के पूरक-अनुषांगिक अंग जरूर बने लेकिन उनका पूर्ण विकल्प बन पाना उनके लिए न सम्भव होगा और न ही ऐसा सोचना और करना व्यावहारिक होगा।’’ कार्यकर्ताओं एवं कुछ संगठनों की व्यक्तिगत प्रतिबद्धता बिल्कुल सराहनीय है लेकिन एन जी ओ को लगातार बढ़ावा देने और उनपर अधिकाधिक निर्भर होने का निश्चित परिणाम होगा सार्वजनिक कल्याण के क्षेत्र से सरकार को हाथ खींच लेने का मौका प्रदान करना।
स्त्री की स्थिति की कोई भी चर्चा मीडिया के विश्लेषण के बिना अधूरी रहेगी, न केवल इसलिए कि यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें स्त्रियों की भागीदारी गौरतलब है बल्कि इसलिए भी कि राष्ट्रीय स्तर पर स्त्री की छवि के निर्माण में तथा जनमत निर्मित करने में मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका है। खुद मृणाल को इस क्षेत्र का दीर्घ और गहन अनुभव है, इसलिए मीडिया के प्रसंग में मृणाल के निष्कर्ष बहुत सार्थक और उपयोगी हैं- स्त्रियों से सम्बंधित गम्भीर खबरों और जागरुक बनाने वाले कार्यक्रमों को मीडिया में बहुत कम जगह मिलती है, जब कि उससे जुड़ी चटपटी और सनसनीखेज खबरों को प्रमुखता दी जाती है। मध्यवर्गीय शहरी स्त्री की छवि को औसत भारतीय स्त्री का प्रतीक बनाने में मीडिया का बड़ा हाथ है और वह या तो स्त्री की घरेलू छवि का महिमामंडन करता है या उत्तेजक विज्ञापनों इत्यादि से स्त्री देह का वस्तुकरण करता है। मीडिया में स्त्री छवि की इस दुर्दशा की जिम्मेदारी को स्त्रियों के मत्थे मढ़ने की कोशिशों का खंडन करते हुए मृणाल ने स्पष्ट किया है कि ‘‘सिर्फ स्त्रियों को इन पेशों में आने को कहने से या डांटने-डपटने से तब तक कुछ न होगा जब तक इस पूरे क्षेत्र की मांग का मूल स्वरूप न बदले।’’ यह भी ध्यान देने की बात है कि यह टिप्पणियां मृणाल ने 1996 के पहले की थीं, अब तो यह सच्चाई और भी वीभत्स रूप धारण कर चुकी है।
आश्चर्य तब होता है जब मीडिया पर इतनी साफ समझ रखने वाली मृणाल सिद्धांत का पल्ला छोड़कर अंजलि कपूर को (वकील और मॉडल, जिनके उत्तेजक फोटो सेशन ने विवाद पैदा किया था) यह ‘व्यावहारिक’ सलाह देने लगती हैं कि अगर उन्हें वर्जनाओं को तोड़ना है तो वह लेखक या कलाकार जैसा पेशा चुनें वकालत का नहीं, क्योंकि ‘वकालत समाज की स्वीकृत व्यवस्था के भीतर एक प्रतिष्ठित पेशा है’ जो ‘कम से कम सार्वजनिक तौर पर अपने प्रतिनिधियों से एक आदर्श और साफ-सुथरी छवि बनाए रखने की अलिखित अपेक्षा रखता है’। इससे भी आगे बढ़कर वे ‘एडवोकेट्स एक्ट’ में परिवर्तन की मांग करने लगती हैं। जाहिर है कि यहां मृणाल जिस प्रतिष्ठा, आदर्श और साफ-सुथरी छवि को बचाने की चिंता कर रहीं हैं उसका पितृसत्तात्मक मूल्यों से चोली-दामन का साथ है। मृणाल यहां इस असुविधाजनक सवाल से कतराती हैं कि ‘महिलाओं के अर्धनग्न चित्र छापने के लिए चर्चित’ पत्रिकाओं के प्रकाशन की वैधता को चुनौती दिये बिना मॉडल (जो कि इस प्रसंग में वकील भी है) की नैतिकता की बात करना कितना उचित है! वह अंजलि कपूर की आलोचना के लिए वकालत के पेशे की गरिमा की आड़ लेती हैं, नारीवादी नजरिये से यह सवाल नहीं उठातीं कि स्त्री की गरिमा और उसके अधिकार के लिहाज से यह आचरण उचित है या अनुचित। शायद इसलिए कि तब इस सवाल के दायरे में वेश्याएं भी आ जाएंगी। आखिर जो सामाजिक प्रक्रिया वेश्यावृत्ति को संभव बनाती है, वही तो ‘न्यूड मॉडलिंग’ को भी !
मृणाल इस प्रसंग में जब अंजलि कपूर को कोसती हैं तो वे तकनीकि, पूंजीवाद और पितृसत्ता के बीच बन रहे नए समीकरणों और तद्जनित चिंताजनक परिघटनाओं को नजरअंदाज कर रही होती हैं। छोटे से सीमित पारंपरिक समुदाय के बजाय अजनबियों से भरे बड़े ’ाहरों में- जहाँ भागम-भाग मची हुई है- में जल्दी ही प्रभावित करने और आकर्षक दिखने की भूख बढ़ी है। श्रम की बचत करने वाले घरेलू उपकरणों की बदौलत छोटे आकार के एकल परिवारों में ’ाारीरिक श्रम की मांग घटने के परिणामस्वरूप स्त्रियों के ही अनुपयोगी होते जाने ने स्त्रियों की पारंपरिक जीविका- विवाह- पर कुछ खतरे पैदा किए हैं, लेकिन पूंजीवादी उत्पादन और प्रचार की जरूरतों ने स्त्रियों से संबंधित एक-दूसरा ही मूल्यबोध पैदा किया है- यह है सौंदर्य। सौंदर्य प्रसाधनों से लेकर विज्ञापनों तक और रिसेप्’ानिस्ट से लेकर सौंदर्य प्रतियोगिताओं तक का पूरा बाजार है जो स्त्री देह पर टिका है और पुरुषों की इच्छाओं के लिए बना है। स्त्रियाँ कोई रत्न, कोई कलाकृति बन गईं हैं- आखिर प्रत्यक्ष उपयोगिता खत्म होने के बाद ही तो कोई चीज कलाकृति बनती है, जिसका मूल्य उसकी उपयोगिता की बजाय केवल सौंदर्य सृष्टि के आधार पर दिया जाता है। पूंजीवादी मीडिया को चाहे और किसी बात का श्रेय दिया जाए या न दिया जाए, इस बात का श्रेय तो देना ही पड़ेगा कि उसने पुरुषों के मन में दुनिया भर की सुंदर स्त्रियों से प्रेम करने (स्वअम डंापदह) की इच्छा पैदा कर दी है। पूंजीवादी मीडिया ने परदे पर मनुष्य की काम भावना का ऐसा उदात्तीकरण किया है कि उसके सामने वास्तविक काम अनुभव हमे’ाा फीके पड़ जाते हैं। पूंजीवादी समाज और मीडिया ने ‘होने’ से अधिक ‘दिखने’ को, वस्तु से अधिक उसकी पैकेजिंग को महत्वपूर्ण बना डाला है। व्यक्तित्व का आकर्षण महज रूप के आकर्षण में बदल गया है और व्यक्तित्व का आनन्द ले सकने की इच्छा, व्यक्ति से यौनानंद उठा लेने की इच्छा में बदल गई है, यह मनुष्य की मृग मरीचिका है। व्यक्ति देह में भी नहीं, अंगों मात्र में सिमट गए हैं, ‘‘हम अब भी अंगों से प्रेम करते हैं, मनुष्यों से नहीं’’ , अंग प्रदर्शन इस परिघटना की स्वाभाविक परिणति है।
कानून और राजनीति जहां मृणाल की आलोचना के निशाने पर होते हैं, वहीं मृणाल को उम्मींद भी इनसे ही है। वह लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी को शुभ संकेत मानती हैं, हालांकि यह रेखांकित करना जरूरी समझती हैं कि इस भागीदारी के बावजूद अभी महिलाएं भाव-ताव कर सकने या जवाब-तलब कर सकने लायक दबाव समूह के रूप में नहीं उभर पाई हैं यानी असंगठित मजदूर होने के साथ-साथ वे असंगठित वोटर भी हैं। बहरहाल, आशावादिता और सरलीकरण का सबसे चरम रूप तब उभर कर सामने आता है जब वे कहती हैं कि समाजवादी क्रांति या कोई नवीन अर्थव्यवस्था गरीबी भले मिटा दे लेकिन महिलाओं की स्थिति में कोई बुनियादी सुधार नहीं कर सकती, ‘‘समाज की रचना तब तक पितृसत्ताक नियमों के अनुकूल ही होती रहेगी, जब तक महिलाओं की पहुंच संसद और नौकरशाही के ऊंचे पदों पर नहीं हो जाए।’’ यानी जरूरत पितृसत्तात्मक सामाजिक-राजनैतिक ढांचे को बदलने की नहीं, उसपर काबिज होने की है; यह उम्मींद भी तब जबकि प्रधानमंत्री (अब तो राष्ट्रपति भी) से लेकर राज्यों के मुख्यमंत्री पदों पर महिलाएं आती रही हैं, लेकिन किसी ने भी महिलाओं के लिए कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं किया। तब जबकि खुद मृणाल पांडे ने ‘यह तोे नारीवाद नहीं’ लेख में बड़े-बड़े पदों पर बैठी सफल स्त्रियों द्वारा अन्य स्त्रियों की बेहतरी के लिए कुछ भी न करने की भत्र्सना की है। तब जबकि वर्षाें तक सम्पादक जैसा सर्वाेच्च पद संभालने के बावजूद खुद मृणाल पांडे अपने अखबार (हिंदुस्तान) में स्त्री देह के आपत्तिजनक विज्ञापनों का छपना नहीं रोक पाई हैं, या रोकने की जरूरत नहीं समझी है। उपरोक्त भोली मान्यता को मृणाल ने अन्यत्र भी दुहराया है- ‘‘क्या इस तरह की अस्वस्थ परम्पराएं तभी नहीं हटेंगी जब पुराने न्यस्त स्वार्र्थी गुटों की जगह महिलाओं तथा सभी पिछड़े वगों को उनकी तादाद और महत्व के अनुपात में प्रतिनिधित्व मिलेगा?’’ आश्चर्य होता है कि महिलाओं के प्रसंग में आरक्षण की इतनी जोरदार हिमायत करने वाली ये वही मृणाल पांडे हैं जिन्हांेने जून 2006 में प्रसिद्ध समाजशास्त्री एवं सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव तथा कुछ अन्य पत्रकारों द्वारा दिल्ली के 37 बड़े मीडिया संस्थानों के 315 निर्णयकर्ता (डिसीजन मेकर) उच्च पदाधिकारियों के सर्वेक्षण- जिसमें पाया गया कि उनमें अनुसूचित जाति एवं जनजाति का एक भी सदस्य नहीं है एवं पिछड़े वर्ग के सदस्य केवल 4ः हैं – पर बौखलाया हुआ सम्पादकीय लिखा था कि ‘जात न पूछो पत्रकार की’- कबीर का कैसा संदर्भच्युत सदुपयोग है!!
कानून और राजनैतिक सुधारों से स्त्रियों की समस्याएं हल कर देने तथा उन्हें समानता प्रदान करने की उम्मींदों में मृणाल उदारवादी नारीवदियों की तरह ही नजर आती हैं। लेकिन स्टुअर्ट मिल जैसे उदारवादी आज से डेढ़ सौ साल पहले इस बात को कह चुके थे कि स्त्री का दोयम दर्जा पितृसत्तात्मक संस्थाओं (विवाह, परिवार इत्यादि) द्वारा सुनिश्चित किया जाता है और अगर उनकी स्थिति में बुनियादी बदलाव लाने हैं, तो इन्हें बदलना होगा। नारीवाद का इतिहास इन्हीं संस्थाओं की संरचना तथा कार्यप्रणाली पर गम्भीर बहसों का इतिहास है। जबकि मृणाल के लिए ये संस्थाएं प्रश्नों से परे हैं, इनका विकल्प सम्भव ही नहीं आज से दो सौ साल पहले मेरी वॉल्सटनक्राफ्ट ने पहचान लिया था कि स्त्री असमानता की बुनियाद उसका भिन्न समाजीकरण है, जिसमें उसे यौनिक वस्तु के रूप में विकसित किया जाता है मनुष्य के रूप में नहीं, अब तो ऐसे अध्ययन भारत में भी होने लगे हैं। प्राकृतिक सेक्स और सांस्कृतिक जंेडर के बीच विभेद की पहचान नारीवाद का प्रस्थान बिंदु है जबकि मृणाल के लिए स्त्री -पुरुष की जैविक ही नहीं मानसिक भिन्नता भी प्राकृतिक है, उनके अनुसार स्त्री पुरुष से ‘‘आकर्षक तथा सार्थक रूप से भिन्न’’ है। स्त्री को ‘आकर्षक’ मानने की समझ जाहिर है सांस्कृतिक सांैदर्यबोध को प्राकृतिक एवं वस्तुगत मानने पर ही पैदा होती है और इसी समझ का दोहन देह केंद्रित विज्ञापन और फिल्में करती हैं। मृणाल पुरुष के प्रति स्त्री के आकर्षण को ‘चिरंतन’ मानती हैं, कहना मुश्किल है कि ऐसे में वे स्त्री समलैंगिकता की व्याख्या किस प्रकार करेंगी! सेवा, ममता, त्याग इत्यादि मृणाल के लिए पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री के दमन और पुरुष से उसके विभेदीकरण का परिणाम नहीं, स्त्री का ‘स्वभाव’ हंै; जिसका खूब महिमामंडन वे अपने लेखन में करती हैं। इसी तरह स्त्री की रत्यात्मक अधीनता को अभिव्यक्ति देने वाले ‘जीतना’, ‘देना’, ‘समर्पित होना’ जैसे क्रियापद भी मृणाल के लिए स्त्री-पुरुष समता के सहयोगी ही हैं, विरोधी नहीं; इसके समर्थन में वे संस्कृत ग्रंथों से उदाहरण भी देती हैं – यह मृणाल पांडे का ‘पारम्परिक नारीवाद’ है। जाहिर है कि भारत जैसे देश में इस नारीवाद के नाम पर ऐसे पारम्परिक विमर्श को बहुत ज्यादा पसंद किया जाता है। ‘विपणन की कार्यनीति’ के तौर पर यह नारीवाद का वही इस्तेमाल है, जिससे बचने की चेतावनी केराल स्टेविले ने दी है।
ईमानदारी से कहूं तो स्पष्टता की कमी, अंतर्विरोधी मान्यताएं और निष्कर्ष तथा दुहराव ये मृणाल पांडे के लेखन के कुछ ऐसे गुण हैं जो खीझ पैदा करते हैं। समस्याओं की जटिलता या उनके स्थायित्व के कारणों को समझने के लिए ज्यादा माथापच्ची करना उन्हें मुनासिब नहीं लगता और समस्या के तात्कालिक हल सुझाने की जल्दबाजी उनके लेखों में अकसर दिखाई दे जाती है। लेकिन साथ ही मृणाल पांडे ने लगातार उन समस्याओं पर लोगों का ध्यान खींचा है जिन्हें हल किए बिना स्त्री मुक्ति असम्भव है। मृणाल हिंदी के उन गिन-चुने लेखकांे में से एक हैं जिन्होंने स्त्री विमर्श को मध्यवर्गीय स्त्रियों का उपभोक्तावादी विमर्श बनने से रोकने की चेष्टा की है तथा उपेक्षितों और वंचितों की ओर इस विमर्श को मोड़ा है।

 

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