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सुरेंद्र च©धरी गया (बिहार) में ही रहे। अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक घटनाक्रम के साथ साथ साहित्य की वैचारिकी अ©र राजनीति के विश्व परिदृश्य पर उनकी पैनी नजर रही। राजधानी से दूर रहने के चलते भले ही जाती त©र पर उन्ह¨ंने उपेक्षा झेली ह¨, लेकिन उनकी रचनात्मकता क¨ ज¨ स्थानीय परिवेश मिला, जन-आंद¨लन¨ं से ज¨ निकटता मिली, उसने उनकी दृष्टि क¨ धुंधलाने नहीं दिया। च©धरी जी की आल¨चना दृष्टि बाई-फ¨कल है। वह नजदीक अ©र दूर क¨ एक सी क्षमता के साथ, बराबर देखती है। च©धरी जी की एक आल¨चक के रूप में ज¨ तस्वीर इन संकलन¨ं से आज के पाठक के सामने उभरती है, उसे कुछ महत्वपूर्ण हिस्स¨ं में बांट कर देखने से सुविधा ह¨गी।
1. साहित्य में माक्र्सवादी विचारधारा की हिफाजत का संघर्ष
संकलन¨ं के पहले खंड में हमें आल¨चना पत्रिका के अक्टूबर-दिसम्बर, 1969 अ©र अप्रैल-जून, 1970 के अंक¨ं में च©धरी जी का द¨ हिस्स¨ं में प्रकाशित लेख ‘माक्र्सवाद अ©र समकालीन बूर्जुआ विचारधाराएं’ शीर्षक से मिलता है। पहले हिस्से का उप-शीर्षक है ”इतिहास: संय¨ग अ©र सार्थकता’’ अ©र दूसरे का उप-शीर्षक है ‘‘अस्तित्ववाद अ©र माकर््सवाद’’। इसी खंड में इस लेख के ठीक बाद ज्य¨त्सना के जुलाई, 1966 अंक में प्रकाशित ‘अनधिकारी विश्व अ©र भीड़ का आदमी’ शीर्षक लेख संकलित है। अच्छा ह¨ता यदि यह लेख कालक्रम के मुताबिक माक्र्सवाद वाले लेख से पहले दिया जाता ताकि आल¨चक के विचार¨ं में आया विकास स्पष्ट ह¨ता। ‘अनधिकारी विश्व अ©र भीड़ का आदमी’ में च©धरी जी ने हीगल, माक्र्स, किर्केगार्द, सात्र्र, हाइडेगर, यास्पर्स, सिम¨न आदि के द्वारा आधुनिक विश्व में पराएपन या ‘‘एलियनेशन’’ की परिघटना क¨ रेखांकित किए जाने की परम्परा क¨ समझाया है। इस परिघटना के साहित्यिक साक्ष्य के बत©र वे सात्र्र, कामू अ©र दास्ताएव्स्की की कृतिय¨ं का उदाहरण देते हैं। उन्हीं के शब्द¨ं में ”भीड़ का आदमी अपने ही संस्कार¨ं से कटा हुआ है, प्रचार का शिकार, संख्यात्मक अ©र आत्मचारित्र्य से हीन ह¨ता है।…सुरक्षा की भावना उसमें नहीं ह¨ती, आतंक से वह भरा ह¨ता है, यातना उसकी नियति ह¨ती है अ©र सबसे ऊपर वह अर्थहीन (ऐब्सर्ड) ह¨ता है।“ इस लेख में ‘‘एलियनेशन’’ की परिघटना की अस्तित्ववादी व्याख्या पर ही ज¨र है। निच¨ड़ के रूप में वे लिखते हैं, ‘‘आज के संदर्भ में यह आवश्यक ह¨ गया है कि व्यक्ति साहस के साथ भीड़ की इस दुनिया क¨ नकारे अ©र भीड़ के व्यक्तित्व क¨ अ¨ढ़ने क¨ तैय्यार न ह¨। इस क्रिया में दुख की असीम सम्भावनाएं हैं, किंतु किर्केगार्द के अनुसार ”दुख क¨ सम्पूर्ण जीने की क्षमता’’ रखकर ही मनुष्य उस एक की कामना कर सकता है जिसे हम अधिकारी जीवन या स्वतंत्र जीवन कहते हैं।“ ज्य¨त्सना के दिसम्बर, 1966 के अंक में उन्ह¨ंने प्रमुख अस्तित्ववादी चिन्तक यास्पर्स पर एक निबंध लिखा है, जिसके अंत में वे कहते हैं, ‘‘बीसवीं सदी में मनुष्य की वास्तविकता में कुछ विराट घटित हुआ है, इसने हमारी आंतरिकता क¨ ही कुछ इस तरह बदल डाला है कि पुराने सिद्धांत¨ं अ©र पारिभाषिक शब्द¨ं के द्वारा उसकी स्थिति का पूरा-पूरा ज्ञान नहीं ह¨ता… यास्पर्स का अस्तित्व-दर्शन अथवा चिन्तन विश्व की क¨ई नवीन छवि नहीं देता, मगर वह जिस मूल चीज के प्रति हमें आंतरिक रूप से सचेष्ट अ©र सचेत करता है, वह क्रांतिकारी स्थिति है। इस क्रांतिकारी स्थिति-ब¨ध के प्रति यास्पर्स हमें तत्पर करता है, प्रस्तुत करता है।“ ज्य¨त्स्ना में प्रकाशित उपर¨क्त द¨न¨ं लेख¨ं में च©धरी जी अस्तित्ववाद के दर्शन में मानव अस्तित्व की स्वतंत्रता अ©र प्रामाणिकता की सम्भावना के प्रति आश्वासन पाते हैं। वे अस्तित्ववाद क¨ आल¨चनात्मक नजरिए से नहीं देखते। ‘‘पराएपन’’ की माकर््सवादी अवधारणा पूंजीवादी उत्पादन-सम्बंध¨ं की जिस ऐतिहासिक जमीन पर खड़ी है अ©र अस्तित्ववाद में ‘‘पराएपन’’ की धारणा से कितनी भिन्न है, उसका क¨ई रेखांकन इन द¨न¨ं लेख¨ं में नहीं मिलता। लेकिन लगभग चार वषर्¨ं के अंतराल के बाद वे अस्तित्ववाद के दर्शन के समापन की हकीकत क¨ रेखांकित करते हैं। सात्र्र के अंदर अस्तित्व की वस्तुबद्धता अ©र आत्मचेतना के स्वतंत्र निर्णय का अंतर्विर¨ध शुरु से था जिसे वे स्वयं तब पहचानते हैं जब अल्जीरिया के मुक्तिसंग्राम से जुड़ते हैं, उपनिवेशवाद की ऐतिहासिक हकीकत से अपने दर्शन क¨ संगत कर पाने की चुन©ती झेलते हैं अ©र य¨रप के आत्मसंकट क¨ पहचानते हैं। च©धरी जी के शब्द¨ं में, ‘‘ऐसी स्थिति में इतिहास क¨ अमूर्त आत्मनिर्णय के संदर्भ में देखना उनके लिए असम्भव-सा ह¨ गया।“ सात्र्र लगातार अपनी ज्ञान-मीमांसा, पद्धति अ©र दर्शन में तब्दीली के लिए सन्नद्ध ह¨ते हैं, माकर््सवादी दर्शन के भीतर ही अस्तित्ववाद क¨ एक विचारधारा बताते हैं। सात्र्र की इस भंगिमा से पश्चिम में माक्र्सवाद अ©र अस्तित्ववाद के सह-अस्तित्व का भ्रम फैलता है, ‘‘नव-वाम’’ जैसी धाराएं अस्तित्व में आती हैं। इस तरह के विचारधारात्मक घाल-मेल का इस लेख में सात्र्र के प्रति पूरी इज्जत रखते हुए भी आल¨चक सुरेंद्र च©धरी ने बड़ी सफाई के साथ प्रत्याख्यान किया है। सुरेंद्र जी लिखते हैं, ‘‘आधुनिक मानवीय इतिहास में सत अ©र सत्ता का व्यवच्छेद केवल धर्म-रूपक नहीं है। वह एक ऐतिहासिक सत्य है। इस व्यवच्छेद (एलियनेशन) क¨ पाटने की जमीन शुद्ध दर्शन में प्राप्त नहीं ह¨ती… अगर मनुष्य वस्तुतः स्वतंत्र है त¨ उसकी वस्तुबद्धता क¨ई समस्या नहीं है। अ©र अगर आदमी अपनी सत्ता में वस्तुजगत से बंधा हुआ है त¨ उसकी स्वतंत्रता की समस्या केवल आत्मनिर्णय की समस्या नहीं रह जाती …अस्तित्ववादी संत्रास ऐतिहासिक क¨टि की धारणा नहीं है, अधिभ©तिक क¨टि की धारणा है। कुछ ल¨ग भ्रम से इसका विनिय¨ग ऐतिहासिक क¨टि में करते हैं। माकर््सवाद इस सनातन संत्रास के संदर्भ में व्यावहारिक जीवन के विर¨ध¨ं की व्याख्या करना स्वीकार नहीं करता। …माक्र्सवाद अ©र अस्तित्ववाद की संगति की क¨ई जमीन स्पष्टतः हमें नहीं मिलती।“
सुरेंद्र च©धरी 1966 में अगर अस्तित्ववाद क¨ इस बात का इस बात का श्रेय देते हैं कि आंतरिक मानवीय वास्तविकता में ”पराएपन’’ अ©र ”निरर्थकता’’ के विराट अपघट की अ¨र उसने ध्यान दिलाया है अ©र मनुष्य के सत के एकमात्र गुण यानि स्वतंत्र आत्मनिर्णय के प्रति सजग किया है, त¨ यह उस द©र में अस्तित्ववाद के विश्वव्यापी आकर्षण के प्रसंग में स्वाभाविक ही था। सात्र्र की उपनिवेशवाद-विर¨धी भूमिका अ©र माक्र्सवाद के प्रति उनकी उन्मुखता ने तीसरी दुनिया के ब©द्धिक¨ं के लिए अलग आकर्षण पैदा किया था। कहीं न कहीं भारत जैसे नव-स्वतंत्र देश¨ं में आजादी के आस-पास ह¨श सम्भालने वाली, खासकर शहरी, मध्यम-वर्ग की पीढ़ी में अनेक ऐतिहासिक कारण¨ से एक किस्म की रिक्तता, उखड़ापन अ©र निरर्थकता का ब¨ध भी वह जमीन थी जिसमें अस्तित्ववाद का दर्शन उस पीढ़ी के आत्मसंघर्ष में मदद का आश्वासन सा दे रहा था, भले ही अनैतिहासिक आधार पर। बादल सरकार का मशहूर नाटक एवम इंद्रजित (1965) रचना के स्तर पर इस परिघटना की तस्दीक करता है। सुरेंद्र च©धरी अपनी पीढ़ी के आत्मसंकट अ©र आत्मसंघर्ष क¨ गहरे स्तर पर पहचानते थे। महत्वपूर्ण लेकिन यह है कि अस्तित्ववाद के व्याम¨ह से वे माकर््सवाद के सहारे न केवल पूरी तरह मुक्त ह¨ते हैं, बल्कि उसकी सर्वांग आल¨चना प्रस्तुत करते हैं।
‘माक्र्सवाद अ©र समकालीन बूर्जुआ विचारधाराएं: संय¨ग अ©र सार्थकता’ शीर्षक लेख में उन्ह¨ंने तत्कालीन माक्र्सवाद-विर¨ध क¨ बूर्जुआ समाज के आत्मविघटन की प्रक्रिया से आत्मरक्षार्थ उपजा बताया। उन्ह¨ंने यह भी लक्ष्य किया कि जहां 1939-40 से पहले तक भ©तिकविद अ©र गणितज्ञ¨ं की अ¨र से भूत-द्रव, भ©तिक संय¨जन, भ©तिक अ©र आध्यात्मिक शक्तिय¨ं के स्वरूप जैसे विषय¨ं पर माकर््सवाद से बहस की जाती थी, वहीं ”39-40 के बाद से बहस अ©र विर¨ध का क्षेत्र बदल गया। अब ज्ञानमीमांसा अ©र पद्धति पर बहस केंद्रित की गई। बहस के बिंदु हुए – ”विधि की परिकल्पना’’, ”वास्तविकता अ©र सम्भावना’’,”अनिवार्यता अ©र आकस्मिकता’’, ”इतिहास अ©र स्वतंत्रता’’ आदि। माक्र्सवाद-विर¨ध का केंद्र बिंदु इतिहास बना। माक्र्सवाद-विर¨धिय¨ं ने इस द©र में माकर््सवाद पर इतिहास का दैवीकरण करने, प्राकृतिक विज्ञान की पद्धति क¨ मानव इतिहास पर लागू करने, व्यक्ति-स्वातंत्र्य-विर¨धी ह¨ने आदि के आर¨प लगाए। सुरेंद्र च©धरी ने इस लेख में फाइनेन म¨जेज, ऐल्फ्रेड श्वेत्स, ऐर¨ं, कार्ल पापर आदि की माकर््सवाद-विर¨धी धारणाअ¨ं की भ्रांतिय¨ं क¨ उद्घाटित किया। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात उन्ह¨ंने यह दिखलाई कि इस माक्र्सवाद-विर¨ध के पीछे पूंजीवादी समाज¨ं में ज्ञान के क्षेत्र का आत्मविघटन है जिसमें दार्शनिक वैज्ञानिक क¨ नहीं समझता न वैज्ञानिक दार्शनिक क¨। ज्ञान का हर क्षेत्र ऐसा स्वायत्त ह¨ चला है कि एक का दूसरे से संवाद ही संभव नहीं। ऐसे में माक्र्सवाद की अन्तःसम्बद्ध ज्ञान-पद्धति का विर¨ध बूर्जुआ ज्ञान-क्षेत्र के आत्मविघटन से ही पैदा ह¨ता है। ऐसा लगता है कि 1969 में लिखे इस लेख क¨ कई खण्ड¨ं में लिखने की य¨जना च©धरी जी की थी लेकिन या त¨ दूसरे खण्ड के बाद उन्ह¨ंने लिखा नहीं, या फिर वे लेख इस संकलन में संगृहीत ह¨ने से रह गए हैं।
सुरेंद्र च©धरी साहित्य में माक्र्सवादी विचारधारा क¨ यथार्थवाद अ©र इतिहास-दृष्टि के मानदण्ड¨ं में फलीभूत पाते हैं। प्रायः उनके यहां कहानिय¨ं अ©र कविताअ¨ं क¨ जांचने का निकष यह है कि उनमें व्यापाररत समाज के साथ संलग्नता है या नहीं अ©र यथार्थ क¨ भी देखने अ©र साहित्य में लाने की इतिहास-दृष्टि है या नहीं। आल¨चना की पद्धति अ©र मूल्य¨ं में वे इतिहाससजगता के अभाव क¨ तुरंत ही पहचान लेते हैं। कविता के नए प्रतिमान की समीक्षा करते हुए च©धरी जी लिखते हैं, ‘‘ ‘कविता के नए प्रतिमान’ में ज¨ सबसे बड़ा द¨ष है वह परिप्रेक्ष्य के ख¨ जाने का नहीं है, इतिहास के अदृश्य रह जाने का है। …क्या यह सही नहीं है कि नामवर सिंह ने कविता के नए प्रतिमान’ में सामयिक इतिहास की मूल लाक्षणिक विशेषता की प्रायः अवहेलना की है? ऐसा दृष्टिक¨ण क्या संय¨गवश अपनाया गया है? या इसके पीछे इतिहास की भूमिका क¨ नकारने का सचेत प्रयास है?“ (‘कविता के नए प्रतिमानः विसंगति अ©र विडम्बना का स©न्दर्यशास्त्र’ शीर्षक लेख, 1970) इतिहास: संय¨ग अ©र सार्थकता, पृष्ठ 206-12) आगे चलकर इसी लेख में वे कविता के मूल्यांकन में उस संरचनावादी दृष्टि पर उंगली रखते हैं ज¨ कविता के नए प्रतिमान की दुखती रग है, क्य¨ंकि संरचनावाद मूलतः इतिहास-विर¨धी दृष्टि है। सुरेंद्र च©धरी साहित्य अ©र इतिहास दृष्टि क¨ लेकर जिस सजगता के साथ सक्रिय रहे, उसकी मिसाल एक अन्य पुस्तक में मिलती है, वह है आल¨चक मैनेजर पाण्डेय की साहित्य अ©र इतिहास दृष्टि (1981) पुस्तक ज¨ इतिहास-विर¨धी आल¨चना-सिद्धांत¨ं में प्रभाववादी आल¨चना, मन¨वैज्ञानिक आल¨चना, नई समीक्षा, मिथकीय अ©र आद्य-बिंबात्मक आल¨चना, बिम्बवादी आल¨चना, संरचनावाद, शैलीवैज्ञानिक आल¨चना अ©र स©ंदर्यवादी आल¨चना के तमाम देशी-विदेशी प्रारूप¨ं के साथ गंभीर पाॅलेमिक्स है। उत्तर-आधुनिकता के इतिहास-विर¨धी चरित्र का संकेत त¨ है इस पुस्तक में लेकिन उत्तर-आधुनिकतावाद अ©र उत्तर-संरचनावादी धारणाअ¨ं से गंभीर जिरह आगे की कृतिय¨ं में स्थान पाती है। दर-असल हिंदी की माक्र्सवादी आल¨चना में आजादी के बाद द¨ तरह की प्रवृत्तियां स्पष्ट मिलती हैं। वे आल¨चक ज¨ विचारधारा, यथार्थवाद अ©र इतिहास-दृष्टि के खिलाफ चल रहे विश्व-अभियान के मूलस्र¨त¨ं तक जाकर बहस करते हैं, वे माक्र्सवादी स©न्दर्यशास्त्र, साहित्य के संयुक्त म¨र्चे आदि पर माक्र्सवाद के भीतर की बहस¨ं में भी अधिक साफ दृष्टिक¨ण रखते हैं। दूसरी अ¨र ज¨ आल¨चक बगैर इस विश्व-अभियान से ल¨हा लिए आत्माल¨चना में प्रवृत्त ह¨ते हैं, वे धीरे धीरे अपने माक्र्सवादी प्रस्थान-बिंदु का ही विसर्जन कर देते हैं। जाहिर है कि सुरेंद्र च©धरी ऐस¨ं में न थे। वे रामविलास शर्मा क¨ आदर्श मानते हैं।
सुरेंद्र च©धरी वामपंथ अ©र साहित्य में संयुक्त म¨र्चे के सवाल क¨ लेकर शायद सबसे लम्बे समय तक संघर्ष करनेवाले साहित्य्ाकार थे। इन संकलन¨ं में भी इस विषय पर उनकी चिंता क¨ जाहिर करनेवाले निबंध हैं। 1946 से 1950 के बीच प्रगतिशील लेखक संघ वामपंथी नेतृत्ववाले एक विराट राष्ट्रीय म¨र्चे का ही स्वरूप रखता था। वामपंथी पार्टिय¨ं के विभाजन अ©र दूसरी तमाम परिस्थितिय¨ं के बावजूद सुरेंद्र च©धरी न केवल उस तरह के म¨र्चे क¨ 1980 के दशक तक के अपने लेख¨ं में सम्भव मानते हैं, बल्कि जरूरी भी। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि साहित्य में संयुक्त म¨र्चे की बात विचारधारा क¨ केंद्र में रख कर ही की जा सकती है, राजनीति क¨ विचारधारा के ऊपर रखकर नहीं। वे विचारधारा के साथ समझ©ता किए बगैर संयुक्त कार्यक्रम की सम्भावना तलाशने पर बल देते हैं। उनकी निगाह में अलग अलग मंच¨ं का सह-अस्तित्व संयुक्त कार्यक्रम अ©र साझे मंच के निर्माण में बाधक नहीं है। इन बात¨ं पर आज भी ग©र करने की जरूरत है।
2. तीसरी दुनिया का यथार्थवाद: एक ऐतिहासिक तत्व
सुरेंद्र च©धरी लगातार इस बात पर ज¨र देते हैं कि उपनिवेशवाद से स्वतंत्र हुए देश¨ं का यथार्थ ऐसा है जिसे ठीक-ठीक यथार्थवाद की य¨रपीय क¨टिय¨ं में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता है। ‘एक विचारधारा का आत्मसंघर्ष’ शीर्षक निबंध उन्ह¨ंने कथा के अगस्त, 1974 के अंक में लिखा जार्ज लूकाच पर। आरम्भ में ही उन्ह¨ंने य¨रपीय यथार्थवाद के इस सबसे बडे़ आचार्य की एक भारतीय लेखक से बातचीत उद्धृत की है। इस बातचीत में लूकाच कहते हैं, ‘‘आज के युग में स्थितियां अ©र विचार जितने स्पष्ट रूप से हमारे सामने हैं उतने शायद पहले कभी नहीं थे। यूर¨पीय डिकेडेंस का गहरा प्रभाव हमारी संस्कृति पर पड़ा अ©र हिंदुस्तान भी उससे अछूता नहीं बचा है। इसका मुकाबला समाजवादी यथार्थवाद से नहीं किया जा सकता। इसके लिए एक ऐसे साहित्य की आवश्यकता है ज¨ हिंदुस्तान की जिंदगी क¨ सही रूप में अ©र सहानुभूति के साथ चित्रित करे। अ©र डिकेडेंट धाराअ¨ं की कड़ी आल¨चना करे। …राष्ट्रीय चेतना ह¨ने पर कलाकार के हाथ में शक्ति आ जाती है। …यथार्थवाद अ©र समाजवादी यथार्थवाद साथ साथ एक ही रास्ते पर बिना टकराव के चल सकते है- बूर्जुआ डिकेडेंस के विरुद्ध वे एक संयुक्त म¨र्चा तैय्यार कर सकते हैं…“ (‘एक विचारधारा का आत्मसंघर्ष’ शीर्षक निबंध, इतिहास: संय¨ग अ©र सार्थकता, पृष्ठ 83) जाहिर है इन वाक्य¨ं क¨ उद्धृत करके सुरेंद्र जी ने तीसरी दुनिया के यथार्थवाद की विशिष्ट ऐतिहासिकता की तस्दीक जार्ज लूकाच से कराई है।
स्वतंत्रता संग्राम ही नहीं, बल्कि 1945 से लेकर 1965 तक विउपनिवेशीकरण की विश्व-प्रक्रिया का हमारे देश अ©र उसके साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा अ©र इसका संज्ञान लेने के लिए जरूरी आल¨चनात्मक क¨टिय¨ं का विकास सुरेंद्र जी की प्रमुख चिंता है। 1990 के दशक में उत्तर- अ©पनिवेशिक साहित्य-सिद्धांत¨ं का ज¨ विश्व-व्यापी प्रसार देखने में आता है, उससे काफी पहले से सुरेंद्र च©धरी जैसे आल¨चक इस दिशा में सक्रिय रहे। आज की उत्तर-अ©पनिवेशिक साहित्य सिद्धांत¨ं की विडम्बना ही यह है वे पश्चिम में पैदा हुए, उत्तर-संरचनावाद अ©र उत्तर-आधुनिकतावाद से बुरी तरह संक्रमित हैं अ©र ऐसे वक्त उनका डंका बजा जब तीसरी दुनिया के देश¨ं की परिस्थिति उत्तर-अ©पनिवेशिक से ज्यादा नव-अ©पनिवेशिक लक्षण¨ं क¨ प्रकट कर रही थी। तीसरी दुनिया के यथार्थवाद का ज¨ विवेचन सुरेंद्र च©धरी की आल¨चना में मिलता है वह इस उत्तर-अ©पनिवेशिक सैद्धांतिकी की तमाम विडम्बनाअ¨ं से सर्वथा मुक्त है क्य¨ंकि ”अ©पनिवेशिकता’’ के पूरे संदर्भ क¨ वे माकर््सवादी दृष्टि से ही समझते हैं अ©र अपनी व्यावहाारिक आल¨चना के जरिए उसका अ©चित्य भी सिद्ध करते हैं। यहां भी, कहना चाहिए कि रामविलास शर्मा क¨ ही वे रास्ता दिखानेवाले अग्रणी आल¨चक के रूप में पाते हैं। च©धरी जी ने लिखा है, ‘‘माकर््सवादी विचारधारा के तहत समस्याअ¨ं का जैसा विश्लेषण चलता रहा है उसकी तुलना में डाॅ. शर्मा का विश्लेषण केवल सुसंगत, वैज्ञानिक समृद्धि का ही सूचक नहीं है बल्कि अ©पनिवेशिक दुनिया की ऐतिहासिक नियति अ©र संदर्भ का, उसकी कठिनाइय¨ं, जटिलताअ¨ं अ©र अनसुलझी समस्याअ¨ं का सृजनात्मक विकास भी सूचित करता है।“ (‘डाॅ.रामविलास शर्मा अ©र सांस्कृतिक आल¨चना’ शीर्षक लेख, इतिहासःसंय¨ग अ©र सार्थकता, पृष्ठ 202) सुरेंद्र च©धरी बार-बार आजादी से थ¨ड़ा पहले से ही अ©र बाद में लगातार साहित्य के भीतर आयत्त यथार्थ में न केवल व्यवस्था अ©र जनता के बीच अंतर्विर¨ध, बल्कि जनता के विभिन्न हिस्स¨ं के बीच अंतर्विर¨ध क¨ लक्ष्य करते हैं ज¨ कि उपनिवेश¨त्तर यथार्थ का एक प्रमुख लक्षण है। ”मैला आंचल’’ की नाटकीयता क¨ वे इसी संदर्भ में उद्घाटित करते हुए उसे महज तकनीक का मसला नहीं रहने देते जैसा कि ”मैला आंचल’’ के प्रकाशन के बाद निर्मल वर्मा की उत्साही टिप्पणी से जाहिर ह¨ता था। च©धरी जी ने लिखा“ व्यवस्था के अंतर्विर¨ध जिस तेजी से बढ़ते हैं, उससे ज्यादा तेजी से जनता के बीच के अंतर्विर¨ध बढ़ते हैं। नाटकीयता का स्र¨त हमारे इस सामाजिक आधार में हैं। …यह इतिहास के भीतर एक तीसरी दुनिया के जन्म की नाटकीयता है। यह तीसरी दुनिया एक विश्वक्रांतिकारी प्रक्रिया से जुड़कर अ©र भी ज्यादा नाटकीय ह¨ जाती है- वह व्यापक मानवता की मुक्ति का नाटक प्रस्तुत करती है।“ (‘रेणु का यथार्थवाद अ©र मैला आंचल की नाटकीयता’ शीर्षक लेख, साधारण की प्रतिज्ञा: अंधेरे से साक्षात्कार, पृष्ठ 35)। 1987 में लिखा यह लम्बा लेख हिंदी आल¨चना में एक मील का पत्थर है। सुरेंद्र च©धरी क¨ इस बात की बहुत फिक्र नहीं है कि तीसरी दुनिया के यथार्थ क¨ किसी आल¨चकीय फार्मूले में कस दिया जाए, या उसके पारिभाषिक लक्षण प्रतिपादित किए जाएं। फ्रेडरिक जेमसन ने तीसरी दुनिया के उपन्यास¨ं क¨ ”राष्ट्रीय रूपक’’ कहकर तीसरी दुनिया के उपन्यास¨ं में परिलक्षित यथार्थ की जटिलता क¨ एक सरल फार्मूले में ही कसने की क¨शिश की। उनकी इस धारणा क¨ लेकर हिंदी में बहस भी चली, खासत©र पर नामवर सिंह अ©र मैनेजर पाण्डेय के बीच। इस लेख में सुरेंद्र च©धरी ने स्पष्ट लिखा था, ‘‘रेणु ने समकालीन यथार्थवाद के लिए न क¨ई रूपक ही गढ़ा है अ©र न उनकी अतिरंजनाएं ही ऐसी हैं, जिनके द्वारा किसी स्थिर सर्वव्यापी मानवीय नियति क¨ लक्षित किया गया है।“( पृष्ठ 38) सुरेंद्र च©धरी की इतिहाससजगता ऐसी है कि वे तीसरी दुनिया के यथार्थवाद की किसी भी देसीवादी व्याख्या के प्रति सतर्क हैं। रेणु पर लिखे सााहित्य अकादमी के म¨न¨ग्राफ में उन्ह¨ंने लिखा, ‘‘यथार्थवाद कोई देशी, क्षेत्रीय तत्व नहीं है, वह एक ऐतिहासिक तत्व है और विश्व इतिहास का अंग है… विकसित होती हुई ग्रामीण वास्तविकता की संभावनाएं अभी तीसरी दुनिया की वास्तविकता को निर्धारित करने वाले तत्वों में गिनी जाएंगी। (सुरेन्द्र चैधरी ‘रेणु का कथा साहित्य’, फणीश्वर नाथ रेणु, साहित्य अकादमी दिल्ली, 1987, पृष्ठ 68-71) यदि च©धरी जी ने रेणु की कथात्मक उपलब्धिय¨ं की ऐसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्या न की ह¨ती, त¨ आज भी शायद रेणु आंचलिकता, जातीय सजीवता, प्रेमचंदीय कथात्मक ढांचे क¨ त¨ड़कर कथा के नए ढांचे क¨ लानेवाले कथाकार के रूप में ही आल¨चकीय हल्क¨ं में व्याख्यायित ह¨ते रहते। रेणु की सजीव सजातीयता, आंचलिकता क¨ सुरेंद्र च©धरी ने हिंदी की समकालीन रचना धारा की एक कड़ी बताया, जिसमें नागार्जुन भी हैं, भैरवप्रसाद गुप्त भी हैं, राजेंद्र यादव भी हैं (उखडे़ हुए ल¨ग)। वहीं कथात्मक ढांचे की जगह नाटकीय ढांचे के प्रय¨ग क¨ भी रेणु के पहले नागर जी में लक्षित कर बताया कि नागर जी के यहां द¨न¨ं ही ढांचे हैं। कुल मिलाकर रेणु की विशिष्टता क¨ रूप अ©र संरचना में सीमित कर देखने के प्रयास¨ं क¨ परे हटाकर च©धरी जी ने तीसरी दुनिया के जन्म लेने की विराट ऐतिहासिक प्रक्रिया के सन्दर्भ में रखकर रेणु की महत्ता क¨ ही स्थापित नहीं किया, बल्कि कथा समीक्षा की सही पद्धति अ©र प्रतिमान का भी उदाहरण सामने रखा। तीसरी दुनिया के विकासमान यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में प्रेमचंद अ©र रेणु उतने दूर नहीं रह जाते, जबकि रेणु के कथात्मक ढांचे अ©र रूप पर वाह! वाह! करनेवाले उन्हें सबसे पहले प्रेमचंद से ही अलगा रहे थे। डाॅ. च©धरी ने लिखा, ‘‘संक्रमण के काल में किसान समुदाय के विभेदीकरण क¨ प्रेमचंद अ©र रेणु ने समान रूप से एक आततायी यथार्थ के रूप में देखा… किसान व्यापक रूप से उत्पादन-चक्र में घसीटा जाकर किस तरह अपनी जड़ता से टूट रहा था, इसकी आततायी प्रक्रिया क¨ प्रेमचंद अ©र रेणु ने घटना-क्रम¨ं के द¨ अलग- अलग बिंदुअ¨ं पर पहचाना था। प्रेमचंद ने इतिहास के जिस बिंदु पर इस आततायी प्रक्रिया क¨ देखा था, वह बेहद निराशाजनक था। ”ग¨दान’ का किसान वर्ग इसी आततायी यथार्थ के बीच घिरा है अ©र उसका सम्पूर्ण जीवन इसी टूटने की त्रासदी प्रकट करता है।“ ( ‘रेणु का यथार्थवाद अ©र मैला आंचल की नाटकीयता’ शीर्षक लेख, साधारण की प्रतिज्ञा: अंधेरे से साक्षात्कार, पृष्ठ 47-48) आगे उन्ह¨ंने फिर लिखा ”ग¨दान में यह चेतना ( गांव के किसान- मजदूर¨ं की मुक्ति-चेतना) जन्म लेने की पीड़ा झेलती हुई शहीद ह¨ जाती है, ‘मैला आंचल’ में वह जीवित जन्म लेती है। इस दृष्टि से ‘मैला आंचल’ हिंदी कथा साहित्य में एक ऐतिहासिक भविष्य के जन्म की कथा भी है।“ (वही, पृ। 52) प्रेमचंद अ©र रेणु की कथा परम्परा एक है क्य¨ंकि जिस ऐतिहासिक प्रक्रिया ने उनके कथाकार क¨ गढा है, उस ऐतिहासिक प्रक्रिया के भीतर जिस कृषि समस्या अ©र खेतिहर समुदाय की जीवन-दशा में उनका कथाकार पैठता है, उसकी एक निरंतरता है। प्रेमचंद अ©र रेणु में ज¨ फर्क है उसे भी इस ऐतिहासिक यथार्थ के परिवर्तन से ही समझा जा सकता है। ऐसा नहीं कि सुरेंद्र च©धरी ने रेणु के शिल्प की विलक्षणता क¨ कम करके आंका है। एक कलाकार की अभिव्यक्ति के ढंग में म©लिकता की अवहेलना नहीं की जा सकती। च©धरी जी की आल¨चना यह दिखाती है कि इस म©लिकता का उत्स भी अंतर्वस्तु ( ऐतिहासिक यथार्थ) अ©र संवेदना (गांव के खेतिहर समाज के साथ कथाकार की संलग्नता) की मांग ही है। अंतिम विश्लेषण में अंतर्वस्तु ही रूप क¨ परिभाषित करती है, रुपगत आपेक्षिक स्वायत्तता के बावजूद।
3. परम्परा का मूल्यांकन
किसी भी बडे़ लेखक-समीक्षक के लिए परम्परा का पुनर्मूल्यांकन एक बड़ी चुन©ती ह¨ती है। तीसरी दुनिया के किसी देश के जनवादी रुपांतरण के लिए प्रतिबद्ध रचनाकार के लिए यह अ©र भी बड़ी चुनौती है क्य¨ंकि परम्परा उसके लिए कभी भी बनी बनाई चीज नहीं ह¨ती अ©र इस म¨र्चे पर उसे हरदम संघर्षरत रहना ह¨ता है। आधुनिकता अ©र समकालीनता-ब¨ध के संदर्भ इससे आवयविक रूप से जुडे ह¨ते हैं। परम्परा की गत्वरता में तमाम नई चीजें, तमाम आधुनिकताएं भी अंतर्भुक्त ह¨ती चलती हैं। च©धरी जी ने ज¨र देकर कहा है कि साहित्य में आधुनिकता ज¨ य¨रपीय संदर्भ में द¨ महायुद्ध¨ं के बीच के संकट ब¨ध के रूप में परिभाषित ह¨ती रही है, हिंदी साहित्य के संदर्भ में वह इस समय से 80-90 साल पहले की चीज है। भारतेंदु युग के कथा साहित्य का विवेचन करते हुए वे यह भी दिखलाते हैं कि उस समय हिंदी में आधुनिकता ब¨ध का संस्कार आत्मचेता नहीं, बल्कि वस्तुुचेता है। आधुनिकता यहां न त¨ पश्चिमी सत्ता अ©र न पश्चिमी शिक्षा से आई बल्कि पश्चिमी सत्ता के विर¨ध से आई। सुरेंद्र जी रामविलास की ही तर्ज पर यह मानते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था में क्रांति (पूंजीवादी?) शासन काल से पहले ही आ चुकी थी लेकिन केंद्रीय राजसत्ता के अभाव में भारतीय उत्पादन पद्धति के लिए राष्ट्रीय बाजार नहीं बना था। जब अंगे्रज¨ं ने अपने स्वार्थ के लिए इस राष्ट्रीय बाजार क¨ बनाया त¨ भारतीय पूंजी से उसका स्वाभाविक विर¨ध बना अ©र आधुनिकता इसी की उपज है। समकालीनता क¨ सुरेंद्र च©धरी आधुनिकता की ही अंतर्दशा मानते हैं अ©र साहित्य में उसे देश विभाजन की भावभूमि अ©र ब¨ध से निश्चित करते हैं । ‘परम्परा अ©र आधुनिकता’ शीर्षक लेख में द¨न¨ं के अंतर्संबंध की व्याख्या की चुन©ती क¨ सुरेंद्र जी ने श्री राव के इस कथन के माध्यम से रेखांकित किया है कि, ‘‘परम्परित समाज क¨ पहचानना जितना आसान है, उसे परिभाषित करना उतना ही कठिन’’। (इतिहासः संय¨ग अ©र सार्थकता, पृष्ठ 37)। 1967 में लिखे इस लेख में च©धरी जी ने दिखलाया है कि 19 वीं सदी के नवजागरण ने परम्परित भारतीय समाज क¨ आंद¨लित किया लेकिन उसपर क¨ई क्रांतिकारी असर नहीं डाल सका। किसी हद तक स्वाधीनता संग्राम ने पर¨क्षतः यह किया। आजाद भारत के संविधान ने आधुनिक ,ब©द्धिक, अ©द्य¨गिक, ल¨कतांत्रिक अ©र समाजवादी समाज की ज¨ तस्वीर पेश की वह हकीकत में स्थापित ही नहीं हुआ ( न केवल 1967 में, बल्कि आज भी -लेखक)। परम्परित, पितृसत्तात्मक, वर्ण-जाति से बंधा, छ¨टी किसानी वाला समाज अपनी जगह बना रहा। महानगर¨ं अ©र कस्बानुमा नगर¨ं के बीच, गांव अ©र शहर के बीच खाई बढ़ी। एक ऐसे अविकसित समाज की तस्वीर उभरी ज¨ अपना रास्ता ख¨ बैठा था। अ©द्य¨गिक सामाज की ताकत¨ं का परम्परा से टकराव 19 वीं सदी के उत्तरार्ध से ही जारी रहा। बहुत सी आधुनिक शक्तियां परम्परा में अंतर्भुक्त ह¨ गईं, लेकिन यह टकराव लगातार जारी ही है। परम्परा में जीवन-विधि बने रहने का नैतिक बल नहीं रहा, सामाजिक रूप से अमान्य ह¨ गईं, लेकिन व्यक्ति की स्वतंत्रता में ये र¨ड़ा बनी रहीं। जिस समय सुरेंद्र च©धरी यह लेख लिख रहे हैं (1967) उस समय भारत के बुद्धिजीवी वर्ग के आत्मसंकट की पहचान वे इन शब्द¨ं में करते हैं, ‘‘एक अ¨र परम्परा उसे अभिशप्त बनाती है, दूसरी अ¨र उसका आधुनिक भीड़ का समाज’’ (पृष्ठ 44)। परम्परा से उच्छेदित अ©र भविष्य के प्रति भयाक्रांत, परम्परा के प्रति नकार लिए, इस अराजक मध्यवर्गीय ब©द्धिक वर्ग से ही लेखक भी आ रहे थे। च©धरी जी इस नकार क¨ थ¨ड़ी सहानुभूति त¨ देते हैं, लेकिन इससे बढ़कर उनका आग्रह है कि परम्परा के सम्पूर्ण नकार की जगह बेहतर ऐतिहासिक नजरिया है उसका पुनरान्वेषण, परम्परा से उन अनुद्घाटित तत्व¨ं की ख¨ज ज¨ जनवादी समाज के बनाने में य¨ग दें। परम्परा अ©र आधुनिकता के टकराव की यह तस्वीर खींचने वाला आल¨चक जब आधुनिक साहित्य की परम्परा का मूल्यांकन करने बैठता है, तब वह निर्णायक रूप से अपना पक्ष चुनता है। दरअसल साहित्य की परम्परा में नकार एक अलग ही आयाम लिए हुए है। वहां अपने निकट अतीत का भी नकार है। क्रांतिकारी जनवाद के आग्रही कुछ साहित्यकार बूर्जुआ राष्ट्रीय जनवाद की विरासत क¨ खारिज कर रहे थे। परम्परा के मूल्यांकन क¨ लेकर बहस प्रगतिशील लेखक¨ं के बीच त¨ रही ही, बाद के दिन¨ं में 1960 के दशक के उत्तरार्ध के बंगाल में यह प्रवृत्ति बहस से आगे बढकर सड़क पर आ गई जब रामम¨हन राय आदि की मूर्तियां ध्वस्त की गईं क्रांतिकारी युवाअ¨ं द्वारा उन्हें अंगे्रज¨ं का वफादार मामने के चलते। इन युवक¨ं ने बांग्ला नवजागरण के आभिजात्य चरित्र अ©र उसके महापुरुष¨ं के द¨हरे आचरण के प्रति आक्र¨श प्रकट कर उसके इतिहास से एक ”विच्छेद’’ की चाहत की थी। रामविलास शर्मा अ©र सुरेंद्र च©धरी, द¨न¨ं ने नक्सलबाड़ी आंद¨लन के उत्ताप से जन्मी बंगाल में उभरी इस प्रवृत्ति का क¨ई खास विश्लेषण प्रस्तुत नहीं किया है। द¨न¨ं की यह मान्यता रही है कि हिंदी क्षेत्र का नवजागरण बांग्ला नवजागरण से अलग पहचान रखता है।
सुरेंद्र च©धरी के लेख¨ं के इस संकलन में हिंदी साहित्य के आधुनिक काल से पहले की साहित्यिक परम्परा के मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन पर बहुत कुछ नहीं है, हालांकि प्रसंगवश सन्दर्भ आते हैं। वे वस्तुतः अपने निकट के अतीत का सामना अधिक करते हैं। वे हिंदी नवजागरण क¨ फिर से परखने का उद्यम करते हैं। प्रस्थान बिंदु यह है कि ‘‘जातीय जीवन क¨ इंड¨-विक्ट¨रियन पृष्ठभूमि से उठाकर अपनी स्वतंत्रता अ©र आत्मनिर्णय के इतिहास तक लाने की एक पूरी अवधि क¨ हमारा साहित्य किस नजरिए से देखता है? शर्मा का समर्थन करते हुए मानते हैं कि स्वदेश अ©र स्वराज की भावना 1857 के मुक्तिसंग्राम की ही देन हैं। वे भारतेंदु युग क¨ 1857 से निकली राष्ट्रीय जनवादी चेतना के ही पुनर्गठन का काल-खण्ड मानते हैं, भारतेंदु की नव-वैष्णवता की तुलना अमरीकी स्वाधीनता संग्राम की नव-ईसाइयत से करते हैं या न्यू इंगलैंड के संदर्भ में काल्विनवादिय¨ं से। ”यहां से ह¨कर ही हम गांधी के हिंद स्वराज तक आते हैं ज¨ नव-वैश्णवता अ©र ल¨कचिंता का एक प्रारम्भिक दस्तावेज है। बचकाने, किंतु उत्साही ”माक्र्सवाद’’ क¨ इस संदर्भ से ज¨डने की जरूरत है।“(‘स्वाधीनता संग्राम अ©र हिंदी साहित्य’ (1994) शीर्षक लेख, इतिहासः संय¨ग अ©र सार्थकता, पृष्ठ 125)
नवजागरण की आगे की यात्रा क¨ सुरेंद्र च©धरी कुछ य¨ं रेखांकित करते हैं, ‘‘सत्याग्रह-असहय¨ग आंद¨लन के साथ साधारण की प्रतिष्ठा ने ऐतिहासिक अ©र सामाजिक परिवर्तन के लिए द्वार ख¨ल दिए। …इसी युग में मनुष्य अ©र परिस्थिति के बाहर-भीतर झांकने का सम्पूर्ण मार्ग खुला। छायावाद अ©र यथाथर्¨न्मुख-भावना के समन्वित रूप क¨ आज इस तरह भी देखा जा सकता है।…. अपने चरित्र¨ं क¨ यथार्थ परिस्थितिय¨ं के भीतर देखना उपन्यासकार के लिए सम्भव ह¨ गया।… भारतेंदु-युग का संकरा दरवाजा साहित्य के इस नए उत्थान में पूरा खुल गया था। दीवार में एक अ©र बड़ा दरवाजा खुलता नजर आ रहा था। कविता में यह दरवाजा धरती-आकाश क¨ एक साथ परिदृश्य बना रहा था।…. आत्म अ©र अनात्म के एकात्म में यह सार्वत्रिक स्वतंत्रता एक बड़ी भूमिका के रूप में प्रकट हुई। रहस्यवाद उसकी एक कड़ी थी, धीरे-धीरे रहस्य की पर्तें अनावृत्त ह¨ रही थीं। स्वतंत्रता अनेक आवेग¨ं से देश की स्वतंत्रता अ©र मानवीय स्वतंत्रता का उद्घ¨ष कर रही थी। राज्यसत्ता से लेखक-कवि की सत्ता की टकराहट ने प्रसाद के नाटक¨ं क¨ जन्म दिया था। जातीय स्मृति के संय¨जन के द्वारा वे प्रसंग क¨ उद्बुद्ध कर रहे थे। यथार्थ अ©र मिथक, यथार्थ अ©र इतिहास का यह संय¨ग गहरे मानसिक धरातल पर अर्थवान ह¨ता जा रहा था। इसी अर्थवत्ता के साथ ‘कंकाल’ में प्रसाद सामने आए, ‘बिल्लेसुर’ अ©र ‘चतुरी’ में निराला आए। कहानिय¨ं में इसके आवतर््त उठे। पुरस्कार की मधूलिका, छ¨टा जादूगर, निरंजन इसी आवत्र्तों की लहरिय¨ं से पैदा हुए थे। प्रेमचंद में यह आवत्र्त धारा में बदला जा रहा था। ‘सेवासदन’ से शुरू हुई यह धारा ‘कर्मभूमि’ तक राष्ट्रीय मुक्ति का एक सम्पूर्ण इतिहास बन जाती है।… पश्चिम के अविकल अनुवाद का युग समाप्त ह¨ गया था।… यह युग संघर्ष अ©र सृजन का था।… ऐसा युग बार-बार किसी राष्ट्र या जाति या जातीय समुदाय के जीवन में नहीं आता। पर इस उत्कर्षपूृर्ण भूमिका के बाधक तत्व¨ं की कमी तब भी न थी।…. बार बार लहरें ऊठकर सामान्य मनुष्य के तट से टकराती त¨ थीं पर ल©टती भी वहीं से थीं।… एक पूरी लहर की प्रतीक्षा ने भारतीय मन क¨ आक्रांत कर रखा था, पर वह लहर उठी बाद में। द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत के साथ उस लहर के दर्शन हमें 1942 के आसपास हुए।… साहित्य के क्षेत्र में सन 1930 की पीढ़ी अगले द¨ दशक¨ं तक क्या कर रही थी, इसमें मतभेद ह¨ सकता है, पर इतना त¨ नितांत सच है कि इस अर्से से मध्यवर्गीय चेतना का विस्तार असम्भव स्थितिय¨ं में ह¨ गया था। जन-आंद¨लन¨ं के भीतर से किसान-तत्व¨ं का उभार अ©र मध्यवर्गीय क्रांतिकारी तत्व¨ं से उसके ऐतिहासिक मेल ने ऐसी असम्भव स्थितियां पैदा कर दी थीं। प्रेमचंद के ‘गबन’ से ‘कर्मभूमि’ तक इसका प्रभाव विस्तार देखा जा सकता है।…. अज्ञेय-यशपाल के कथा साहित्य पर इसकी गहरी छाप थी।…. भावनात्मक विद्र¨ह क¨ एक क्रांतिकारी प्रक्रिया के रूप में देखा जा रहा था।… काव्य में प्रगतिवादी आंद¨लन इसी क्रांतिकारी प्रक्रिया की देन है। काव्य, ल¨क-नाटक, उपन्यास, कहानी, एकांकी अ©र साहित्य के तमाम दूसरे रूप¨ं में भी संघर्ष की तीव्रता प्रकट ह¨ रही थी।…. स्वतंत्रता की मानवीय आकांक्षाएं एक जीवित राष्ट्र की पहचान में शामिल ह¨ गईं थीं। उपनिवेश¨ं की मुक्ति के बिना यह सम्भव न था।…. साम्राज्यवाद-उपनिवेशवादविर¨धी मंच पर साहित्यकार, नागरिक अ©र राजनेता के साथ सामान्यजन आकर खड़ा ह¨ गया था।…. जनजीवन की प्रेरणाएं साहित्य अ©र समाज द¨न¨ं की पुनर्रचना की आकांक्षाअ¨ं में मूर्त ह¨ती हैं। प्रगतिशील शक्तिय¨ं ने अपनी भावधारा के अनुकूल अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितिय¨ं से अपनी स्वतंत्रता अ©र मुक्ति क¨ ज¨डा।…. साम्राज्यवाद अ©र फासीवाद के तमाम उत्पीड़न से जनगण की मुक्ति के इस संघर्ष में भारतीय मानस का य¨गदान भी हमें ढूंढना है।…. प्रेमचंद ने नवम्बर 1933 में ही ”राष्ट्रीयता अ©र अंतर्राष्ट्रीयता’’ शीर्षक से एक लम्बी टिप्पणी लिखी थी।…… स्वतंत्रता अ©र मुक्ति की इच्छा की ज¨ लड़ाई सदी भर से चली आ रही थी, उसका एक सुफल भारतीय मानस क¨ यह प्राप्त हुआ था कि उसने अपनी अजेय शक्ति क¨ पहचानने की दिशा में एक कदम अ©र आगे बढाया था। किसान-मजदूर अ©र मध्यवर्ग का विशाल म¨र्चा तैय्यार ह¨ रहा था।…… प्रगतिशील लेखक संघ का विशाल राष्ट्रीय म¨र्चा उसी का एक नाभिक था। ऐसा विशाल म¨र्चा सन 1946 के बाद फिर कभी न बना।“ (‘स्वाधीनता संग्राम अ©र हिंदी साहित्य’(1994) शीर्षक लेख, इतिहासः संय¨ग अ©र सार्थकता, पृष्ठ 128-132)
च©धरी जी के उपर¨क्त लेख से इस लम्बे उद्धरण क¨ देने के पीछे नवजागरण से लेकर आजादी तक, के साहित्य क¨ वे जिस परिप्रेक्ष्य में समझते हैं, उसकी एक बानगी प्रस्तुत करना है। इस विशाल परिप्रेक्ष्य में उन्ह¨ंने रामविलास जी की ही तरह एक सदी के साहित्य कि विभिन्न प्रवृत्तिय¨ं के आपाततः दिखनेवाले अंतर्विर¨ध¨ं के भीतर सक्रिय एक ही ऐतिहासिक प्रक्रिया क¨ लक्षित किया है।
रामविलाास जी ने हिंदी नवजागरण का ज¨ माडल पेश किया था, उस पर तमाम आपत्तियां प्रगतिशील-जनवादी खेमें में ही सदा रहीं। 1980 अ©र 1990 के दशक में भारतीय समाज में साम्प्रदायिक उभार, जन आंद¨लन¨ं की प्रतिक्रिया में दलित जनसंहार, पिछड़ी अ©र दलित जातिय¨ं की सत्ता में भागीदारी के आंद¨लन¨ं, आदिवासिय¨ं के आंद¨लन¨ं, स्त्री अधिकार¨ं के प्रति आई सजगता ने पूरे नवजागरण पर फिर से जिस दृष्टिपात क¨ प्रेरित किया है, वह इस पूरे परिप्रेक्ष्य से बिलकुल अलग दृष्टिक¨ण¨ं के साथ सक्रिय है। विखंडन अ©र अस्मिता विमशर्¨ं की रणनीतिय¨ं ने भी इन दृष्टिक¨ण¨ं से अपने निकट अतीत क¨ परखने के अ©जार मुहैय्या कराए हैं। आज किसी भी आल¨चक के लिए इन दृष्टिक¨ण¨ं की वर्ग-परीक्षा अ©र इनकी इतिहास-दृष्टि की समीक्षा करते हुए, उनका संज्ञान लेते हुए निकट अतीत के साहित्य का समग्र मूल्यांकन एक कठिन चुन©ती है।
सुरेंद्र च©धरी की आल¨चना में प्रेमचंद की परम्परा केंद्रीय महत्व की है। इन तीन संकलन¨ं में सर्वाधिक 5 निबंध प्रेमचंद अ©र उनके साहित्य पर स्वतंत्र रूप से हैं जबकि तमाम अन्य निबंध¨ं में प्रेमचंद की उपस्थिति एक आवश्यक संदर्भ की तरह है। सुरेंद्र जी की निगाह में प्रेमचंद का साहित्य न केवल हिंदी नवजागरण की सम्पूर्ण विचारधाराअ¨ं का प्रतिनिधित्व करता है ,बल्कि उनके बीच के संघर्ष का भी। वे पहले गैर-कम्यूनिस्ट लेखक थे जिन्ह¨ंने वामपंथी विचारधारा के साथ सक्रिय सम्बंध स्थापित किया अ©र विचारधारा क¨ जन सामान्य की भावधारा में उतारकर सामाजिक आधार पर विचारधारा की तीव्र प्रतिक्रिया उत्पन्न करने की चेष्टा की। यदि गबन में वे बूर्जुआ राष्ट्रीय जनवाद की सीमाएं अ©र आल¨चना दर्शा सके, भारतीय आधुनिक जीवन के अंतर्विर¨ध¨ं क¨ अपने समूचे साहित्य में जीवंत ढंग से रख सके, हिंदी नवजागरण के वर्गीय चरित्र क¨ उभार सके, राष्ट्रीय अ©र अंतर्राष्ट्रीय के सम्बंध क¨ देख सके, सामंत अ©र महाजन विर¨धी किसान-मजदूर एका क¨ राष्ट्रीय मुक्ति के केंद्र क्रे रूप में देख अ©र दिखा सके, त¨ यह उस विचारधारात्मक संघर्ष का ही परिणाम था ज¨ आज भी पहले से भी कहीं ज्यादा जरूरी है। इसीलिए च©धरी जी जी 1980 के अपने लेख में लिखते हैं, ‘‘प्रेमचंद की परम्परा क¨ समय के साथ ज¨ड़कर हम एक ऐसे साहित्यिक रिक्थ का निर्माण करने में सहायक ह¨ंगे, ज¨ वस्तुतः जनता का प्रतिनिधि साहित्य ह¨गा।“( ‘हिंदी नवजागरण अ©र प्रेमचंद’, इतिहासः संय¨ग अ©र सार्थकता, पृष्ठ 141) ‘ग¨दानः कथा अ©र अंतराल में मंथरता’ शीर्षक लेख (1999 में पुनः प्रकाशित) मेरे देखे किसी भी लेखक द्वारा ग¨दान के पुनर्पाठ का सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है। इसके सभी पहलुअ¨ं क¨ यहां नहीं रखा जा सकता, लेकिन सुरेंद्र च©धरी प्रेमचंद क¨ कैसे अपने समय से ज¨ड़ते हैं, उसका एक उदाहरण इस लेख की ये पंक्तियां हैं, ‘‘भारतीय मजदूर की बनावट की बाधाअ¨ं क¨ प्रेमचंद ने इसी समय लक्षित किया था। ग्रामीण आधार वाला भारतीय मजदूर वर्ग अभी अपना सर्वहारा स्वभाव नहीं बना सका है। आज भी वह शहर से गांव जाता है, त¨ मजदूर बन कर नहीं। ग¨बर का धंधा त¨ चल निकला है, वह गांव जा रहा है त¨ सबके लिए उसके पास देने क¨ कुछ न कुछ ह¨ना चाहिए। प्रेमचंद इन अंतर्विर¨ध¨ं क¨ सामाजिक व्यवहार के भीतर से उघाड़ देते हैं। भारतीय मजदूर की जड़े गाव¨ं में हैं, गांव के संस्कार से वह मुक्त नहीं है, उसकी भावधारा अ©र विचारधारा में एक गहरी ऐतिहासिक खाई है ज¨ उसके व्यवहार में अक्सर झांकती है। वह अर्थ की लडाई जिस झंडे तले लड़ता है, उसकी राजनीति वह नहीं अपनाता। द¨ष उसका भी है, द¨ष संगठन का भी है। मगर वस्तुस्थिति यही है। मजदूर¨ं की राजनीति के उस पहलू पर आज अ©र भी ध्यान जाना चाहिए।“ (‘ग¨दानः कथा अ©र अंतराल में मंथरता’ शीर्षक लेख, साधारण की प्रतिज्ञाः अंधेरे से साक्षात्कार, पृष्ठ 26)
हजारी प्रसाद द्विवेदी की इतिहस दृष्टि पर सुरेंद्र च©धरी का महत्वपूर्ण लेख है, ‘तीसरी आंख अ©र शव-साधना का वैकल्पिक मिथक’। संस्कृति के रास्ते इतिहास क¨ आयत्त करने वाले विद्वान¨ं में वे क¨सम्बी, राहुल अ©र द्विवेदी जी क¨ वे बड़ा मान देते हैं। द्विवेदी जी के अलावा बाकी द¨ स्वघ¨षित माक्र्सवादी हैं। इतिहास क¨ मनुष्यता की तीसरी आंख मानने वाले द्विवेदी जी अपनी ऐतिहासिक ज्ञान पद्धति के लिए ”शव-साधना’’ का भी रूपक अपनाते हैं। शव क¨ शिव करने के लिए द्विवेदी जी, सुरेंद्र जी के शब्द¨ं में विचारधारा के क्षेत्र से निकलकर जीवन-पद्धतिय¨ं की अ¨र उन्मुख ह¨ते हैं। उनके ऐतिहासिक गल्प¨ं क¨ च©धरी जी इसी प्रयास का हिस्सा मानते हैं। शुक्ल जी के यहां विचारधाराअ¨ं की व्याख्या शास्त्रीय है, वे विचारधाराअ¨ं की जटिलताअ¨ं क¨ तात्कालिक अ©र म¨टी ऐतिहासिक प्रक्रिया से हल करते हैं, जबकि द्विवेदी जी सामंतवादी विकास के भीतर भारतीय मानस के रचनात्मक संघटन अ©र भावभूमि की जटिलता में जाते हैं। मिथक अ©र यथार्थ के द्वंद्व¨ं से उलझते हैं, संस्कृति के उंचे-नीचे ब्राह्मणवादी विभाजन में से जनवादी पक्ष क¨ चाल कर निकाल लाते हैं। सुरेंद्र च©धरी के अनुसार सामाजिक एकरूपता अ©र जीवन-वैविध्य में द्विवेदी जी क¨ई अंतर्विर¨ध नहीं मानते जिसके चलते उनकी इतिहास-दृष्टि माक्र्सवाद के नजदीक आती है। द्विवेदी जी धार्मिक स्र¨त¨ं अ©र कलाअ¨ं की मार्फत सांस्कृतिक संसार अ©र साहित्यिक रिक्थ की एकरूपता की व्याख्या करते हैं लेकिन रामविलास शर्मा की तरह जातीय निर्माण की प्रक्रिया के भीतर से नहीं । यह उनकी सीमा है। डाॅ. रामविलास शर्मा की आल¨चकीय भूमिका के प्रति जैसा आदर भाव सुरेंद्र जी के यहां है, वैसा किसी अन्य के लिए नहीं, खासकर जातीयताअ¨ं के विकास का उनका अध्ययन, हालांकि समकालीन¨ं क¨ लेकर उनकी व्यावहारिक समीक्षा के वे उतने कायल नहीं हैं। द्विवेदी जी अ©र यशपाल पर सुरेंद्र च©धरी के लेख इसके गवाह हैं। आश्चर्य है कि मुक्तिब¨ध क¨ लेकर शर्मा जी की कुछ प्रस्थापनाअ¨ं से वे सहमत दिखते हैं।
निकट अतीत के जिन लेखक¨ं के मूल्यांकन में सुरेंद्र च©धरी समय के साथ अधिक समृद्ध दृष्टिक¨ण अपनाते हैं, उनमें जयशंकर प्रसाद एक हैं। 1964 में लिखे अपने एक लेख में वे ”छायावाद’’ क¨ फ्रेंच अ©र अंगे्रजी रूमानी आंद¨लन से सबल तकर्¨ं के आधार पर अलगाते हैं। लेकिन छायावाद के भीतर भी वह फ्रेंच अ©र जर्मन र¨मांटिक आंद¨लन¨ं में मध्ययुगीन संस्कृति की उपासना की तर्ज पर प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्ति का उदाहरण प्रसाद में देखते हैं। प्रसाद में वे अतीत-निष्ठा अ©र भारतीय इतिहास की गति क¨ अतीत की अ¨र म¨ड़ने की प्रवृत्ति देखते हैं। लेकिन सन 2002 में लिखे उनके लेख ‘हिंदी नवजागरण अ©र प्रसाद’ में वे प्रसाद के मूल्यांकन में एक अत्यंत परिष्कृत अ©र परिपक्व दृष्टि का परिचय देते हैं। यहां प्रसाद उन्हें इतिहास में बुद्धि अ©र आत्मा की लय पहचाननेवाले, उसकी ल¨कपरकता अ©र स्वार्थवादी दृष्टि की पहचान करने वाले, चंद्रगुप्त अ©र धुवस्वामिनी जैसे नाटक¨ं में जाति की गतिशीलता क¨ क¨ व्यापाररत जीवन के व्यापक आकार¨ं में मूर्त करनेवाले, कंकाल, तितली आदि उपन्यास¨ं अ©र धु्रवस्वामिनी नाटक में सामंतवाद का विर¨ध करनेवाले, उर्वशी में परम्परा की एकांत व्याख्या क¨ चुन©ती देनेवाले कलाकार दिखाई देते हैं। सुरेंद्र जी की निगाह में जहां प्रेमचंद गांधी के मार्ग से आगे बढ़कर सामाजिक चिंतन के व्यापक ऐतिहासिक-दार्शनिक मार्ग पर निकल आए, वहीं प्रसाद इतिहास से दर्शन की अ¨र चले गए। लेकिन अंतिम निष्कर्ष में, ‘‘प्रेमचंद अपने विषय क¨ गति अ©र वर्तमान में प्रतिष्ठित करते हैं अ©र प्रसाद इतिहास में, पर यह इतिहास अतीत का ह¨कर भी व्यतीत नहीं है अशेष है।….. हिंदी नवजागरण अ©र उसके अंतर्विर¨ध¨ं क¨ नकारकर हम क्रांतिकारी इतिहास के सही यथार्थ का निरुपण नहीं कर सकते। ऐतिहासिक काल हमेशा बहुआयामी ह¨ता है। यह ठीक है कि प्रेमचंद अ©र प्रसाद में ऐेसा ही अंतर्विर¨ध है, मगर यह विर¨ध नहीं है।“ (‘हिंदी नवजागरण अ©र प्रसाद’ शीर्षक लेख, इतिहासः संय¨ग अ©र सार्थकता, पृष्ठ 155)
एक आल¨चक के रूप में श्री सुरेंद्र च©धरी की ज¨ प्रतुति इन संकलन¨ं के माधयम से श्री उदयशंकर ने की है, वह इस मामले में भी उल्लेखनीय है कि उससे कम से कम पिछले 45 साल में हिंदी आल¨चना में चली बहस¨ं की भी झांकी मिल जाती है। जैसा हमने आरम्भ में ही निवेदन किया कि इन संकलन¨ं से यह बात उभरकर आती है कि सुरेंद्र जी सिर्फ कहानी के आल¨चक न थे। वे अपने समय में पूरी साहित्य-प्रक्रिया क¨ बदलते यथार्थ अ©र ऐतिहासिक प्रक्रिया से उसकी संगति-असंगति की ख¨ज करनेवाले, साहित्य की समाज में हस्तक्षेपकारी भूमिका क¨ प्रखर करने में लगातार लगे रहनेवाले माक्र्सवादी थे। वे कहानी ही नहीं बल्कि कविता की बेहतर समझ क¨ अभिव्यक्त करते हैं। उनके आरम्भिक लेखन में उनका एक महत्वपूर्ण आयाम यह उभरता है कि उन्ह¨ंने अपनी पीढ़ी की अ¨र से, प्रवक्ता के अर्थ में नहीं, बल्कि उस पीढी क¨ बेहतर समझे जाने के आग्रह के साथ समकालीन साहित्य के विमशर्¨ं में हस्तक्षेप किया है। ये लेख खासत©र पर 1965 से 1968 के बीच के हैं,जब श्री च©धरी खुद 33-34 साल के रहे ह¨ंगे। आगे चलकर उन्ह¨ंने कहानी विधा क¨ अपने आल¨चना-कर्म का प्रमुख विषय बनाया। इस प्रक्रिया में हिंदी कहानी क¨ अपना इकल©ता पूरा आल¨चक मिला। श्री देवीशंकर अवस्थी में भी यह संभावना थी, लेकिन उनकी असामयिक मृत्यु के चलते वह चरितार्थ न ह¨ सकी। नामवर सिंह ने कहानी की आल¨चना में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप करने के बाद कविता की आल¨चना की ही राह ली। बया पत्रिका सुरेन्द्र चौधरी विशेषांक अप्रैल-जून 2011 में प्रकाशित ऐतिहासिक प्रक्रिया से संगति-असंगति खोजने वाले आलोचक – प्रणय कृष्ण