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अनुभूति की प्रामाणिकता हिन्दी दलित आलोचना का पारिभाषिक पद है। अनुभूति की प्रामाणिकता या ‘भोगे हुए यथार्थ’ का सवाल नयी कविता-कहानी के दौर में भी उठा था। लेकिन वहां रचनाकारों ने मध्यवर्गीय जीवन-अनुभवों तक सीमित रहने के औचित्य निरूपण के तौर पर इसे तर्क बनाया था, जबकि अनुभूति की प्रामाणिकता दलित विमर्श के लिए नैतिक आधार भी है और रणनैतिक आधार भी। इस तर्क से ही दलित लेखक-आलोचक अपने लेखन की विशिष्ट यथार्थपरकता को भी रेखांकित करते हैं और इसी के आधार पर गैर दलित लेखकों को दलित साहित्य के लेखन के लिये अयोग्य ठहराते हुए उनके लेखन को ‘सहानुभूति’ तक सीमित कर देते हैं। ज्यादातर दलित लेखकों-आलोचकों को तो छोड़ ही दिया जाय जो सीधे-सीधे जाति के आधार पर साहित्य की संवेदना का निर्धारण करते हैं, लेकिन जब गंभीर आलोचक भी गैर दलित लेखकों की अनुभूति पर सवाल उठाते हैं तो मामला गंभीर हो जाता है। कंवल भारती भी जो कि गैर दलित लेखकों के दलित विषयक लेखन का महत्व स्वीकारने के मामले में संकीर्ण नहीं हंै, सवर्ण और दलित लेखन के बीच भेद करते हैं। उनका कहना है कि दलित समस्याओं पर गैर दलित लेखक ‘‘जरूर लिख सकते हैं, उन्होंने लिखा भी है और वे लिख भी रहे हैं। पर सवाल अनुभूतियों और चिंतन का है। दलित जीवन की पीड़ा की जैसी अनुभूतियंा एक दलित को होती हैं, वैसी अनुभूतियंा एक सवर्ण को नहीं हो सकती।’’ इस उद्धरण में भी हम देख सकते हैं कि हालांकि कंवल भारती अनुभूति और चिंतन दोनों का सवाल उठाते हैं लेकिन भिन्नता केवल अनुभूति की ही दिखाते हैं। यह सच भी है। चिंतन के स्तर पर अश्वघोष से लेकर फुले और आधुनिक काल में राहुल जी तथा कई अन्य माक्र्सवादी गैर दलित लेखकों का नाम लिया जा सकता है जिन्होंने जातिवाद के खिलाफ गंभीर वैचारिक लड़ाई लड़ी है। लेकिन अनुभूति के स्तर पर किस की अनुभूति प्रमाणिक थी किस की नहीं, कहा नहीं जा सकता। बहरहाल, अगर साहित्य का स्वरूप निर्धारित करने में ‘अनुभूति’ का महत्व इतना अधिक है (जितना दलित लेखक बताते हैं) तो उसे गंभीरतापूर्वक विश्लेषण का विषय बनाया जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ दलित लेखन का अव्याख्यायित बीज शब्द है, इससे जुड़ी समस्याओं को समझने के लिए हमें दलित साहित्य से जुड़े कुछ ऐसे पहलुओं पर ध्यान देना होगा, जो प्रथम दृष्ट्या अप्रासंगिक मालूम होते हैं।
दलित साहित्य व्यापक दलित आंदोलन का ही एक महत्वपूर्ण अंग है। दलित आंदोलन ने अगर जाति व्यवस्था के विरूद्ध संघर्ष की जरूरतों को रेंखाकित किया तो दलित साहित्य ने जाति व्यवस्था की क्रूरताओं, कुरूपताओं और कार्य पद्धति को उसके भयावहतम रूप में लोगों के सामने रखा। जातिवाद केवल एक वैचारिकी नहीं है, वह एक सम्पूर्ण भाव बोध है, अतः उसके समूल नाश के लिए जातिवाद के प्रति केवल बौद्धिक असहमति का होना अपर्याप्त है, बहुत बार ऐसा देखा गया है कि वैचारिक रूप से जाति-पंाति को गलत मानने के बावजूद लोग संस्कारवश व्यवहार में उसका पालन करते हैं। इस अंतविरोध से मुक्ति तभी संभव है जब व्यक्ति बौद्धिक ही नहीं भावनात्मक रूप से भी जातिवाद के खिलाफ हो। संस्कारों को बदलना, विचारों को बदलने की अपेक्षा कहीं अधिक मुश्किल है। दलित साहित्य को जातिवाद के खिलाफ इसी भावनात्मक आक्रोश को उद्वेलित करने का श्रेय जाता है। जातिगत भेदभावों, अत्याचारों और यातनाओं के विभिन्न रूपों को विचारों के धरातल पर नहीं, बल्कि परिस्थितियों और घटनाओं की शक्ल में विश्वसनीय और जीवंत ढंग से अंकित करके दलित साहित्य ने पाठकों के अंतर्मन को झकझोर दिया। दलित साहित्य ने भारतीय समाज के उस वीभत्स पहलू के प्रति लोगों में बेचैनी पैदा की, जिसे या तो (सवर्ण) अनदेखा कर रहे थे, अथवा (दलित) अपने जीवन की नियति मानकर स्वीकार कर चुके थे। ऐसे में दलित साहित्यकारों का यह दावा कि उन्होंने अपनी रचनाओं में भारतीय समाज के यथार्थ को प्रस्तुत किया है, बिल्कुल सही है।
साहित्य के प्रसंग में यह बात गौरतलब है कि उसकी प्रभावशीलता परिस्थितियों और व्यक्तियों केे विश्वसनीय प्रातिनिधिक चित्रण पर निर्भर करती है- तथ्यपरकता पर नहीं। साहित्य में व्यक्त होने वाला यथार्थ परिवेश और संवेदना का यथार्थ होता है, तथ्यों का यथार्थ नहीं। इसीलिए काल्पनिक व्यक्तियों और घटनाओं को उपजीव्य बनाने के बावजूद कोई श्रेष्ठ रचना पाठक को रोने के लिए विवश कर सकती है, जबकि किसी त्रासद घटना की तथ्यपरक सूचना देने वाला अखबार वैसा प्रभाव कभी नहीं पैदा कर सकता। कारण यह है कि अखबार (या अन्य वैचारिक अनुशासनों) में वर्णित घटनायंे और व्यक्ति तथ्यपरक रूप से वास्तविक होने के बावजूद अपने मानवीय पहलुओं और संवेदनशील डीटेल्स से वंचित कर दिये जाते हैं, जबकि साहित्य का जोर सबसे अधिक इसी पहलू पर होता है। साहित्य की यथार्थपरकता इस बात पर निर्भर नहीं करती कि किस घटना या व्यक्ति का वर्णन कृति में हुआ है, कि सभी सूचनाओं और तफसीलें पूरी तरह सच्ची हैं या नहीं, बल्कि उसकी यथार्थथता इस बात पर निर्भर करती है कि वैसे संबंध, परिवेश और घटनायें समाज में होती हैं या नहीं। इसीलिए साहित्य किसी व्यक्ति विशेष का सच ना होकर एक सामाजिक सत्य बन जाता है और यही वजह है कि कोई व्यक्तिगत संबंध ना होने के बावजूद पाठक कृति के परिवेश और पात्रों से तादात्म्य स्वीकार कर लेता है। Dalit VImarsh Narivad Stri Vimarsh Marxvad, Article Alochana,
आत्मकथायें दलित साहित्य के केन्द्र में हैं, हिन्दी दलित साहित्य में तो दलित आत्मकथायें दलित साहित्य के पर्याय के तौर पर देखी जाती हैं। लेखक-आलोचक दलित साहित्य की विशिष्टताओं और उपलब्धियों की चर्चा करते समय प्रायः आत्मकथाओं की चर्चा कर रहे होते हैं। इसके कुछ फायदे हैं तो इससे कुछ उलझने भी पैदा हुई हैंैै। आत्मकथा इस लिहाज से एक विशिष्ट विधा है कि उसका एक छोर अगर साहित्य से जुड़ता है तो दूसरा छोर इतिहास से। अगर उसमें साहित्य की सर्जनात्मक संवेदना होती है तो इतिहास की तथ्यपरकता भी। आत्मकथा लेखक के जीवन का इतिहास ही है। यानि आत्मकथायें संवेदना और परिवेश के स्तर पर यथार्थता का दावा तो करती ही हैं, व्यक्तियों और घटनाओं की तथ्यपरक सच्चाई का भी दावा करती हैं। इस विशेषता के चलते ही वे दलित आंदोलन की रीढ़ बन गईं, क्योंकि उन्होंने पाठकों को विश्वास दिलाया कि वे जिस लोमहर्षक, वीभत्स और भयावह वर्णन को पढ़ रहे हैं, वह कोई कल्प सृष्टि नहीं, बल्कि एक व्यक्ति और उसके समुदाय की आप बीती हैं। अपनी इस विशिष्टता के कारण दलित आत्मकथायें दलित समुदाय के परिवेश, संस्कृति, शोषण और यातना का प्रामाणिक दस्तावेज मानी जाती हैं।
भारतीय समाज के यथार्थ की प्रामाणिक प्रस्तुति के दलित साहित्यकारों के दावे को आत्मकथाओं ने सिद्ध कर दिया। लेकिन यहीं एक समस्या भी पैदा हुई। आत्मकथा एक वास्तविक व्यक्ति का जीवन होता है। इसलिए लक्ष्य स्पष्ट न होने या असावधानी होने की स्थिति में आत्मकथाओं का लेखन और पाठन बहुत आसानी से व्यक्तिवाद का शिकार हो सकता है। अधिकांश सवर्ण आत्मकथायेें इसी कारण आत्ममुग्धता का शिकार हैं। आत्मकथाओं को केन्द्र में रखने से दलित साहित्य के प्रसंग में समस्या यह पैदा हुई कि दलित लेखकों- आलोचकों ने ‘यथार्थ की प्रामाणिकता’ की बजाय ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ का दावा किया। इस दावे का एक रणनीतिक पहलू भी था, जिसके चलते यह गंभीर बहस का क्षेत्र बन गया। सवर्ण लेखकों के दलित विषयक लेखन को दलित साहित्य का अंग मानने की वकालत करने वालों ने इस बात पर जोर दिया कि प्रतिबद्धता और निरीक्षण के सहारे गैर दलित लेखक भी दलित जीवन से संबंधित श्रेष्ठ रचना दे सकता है। बात तर्किक रूप से बिल्कुल सही है, सवाल यह है कि जातिवाद के खिलाफ दलित लेखकों जैसी एकसूत्रीय प्रतिबद्धता और वैसा सूक्ष्म अंतरंग निरीक्षण किस सवर्ण लेखक के साहित्य से मिलता है? लेकिन यह सवाल उठाने की बजाय दलित लेखकों- आलोचकों ने ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ का सवाल उठाया। इसका सब से बड़ा लाभ यह था कि यह बिना किसी लम्बी बहस के एक झटके में सारे सवर्णों को दलित साहित्य के लेखन के लिए अयोग्य सिद्ध कर देता था। जिसने व्यक्तिगत रूप से खुद दलित जीवन के अपमान और अत्याचार को नहीं अनुभूत किया है, जब उसे उस अनुभूति का पता नहीं तो वह किसी दलित नायक का दलित पात्र के अंतर्मन की अनुभूतियों को कैसे व्यक्त कर पायेगा? ऐसे में वह जो कुछ लिखता है वह या तो फर्जी अनुभूति होगी या फिर सहानुभूति! और ये दोनों ही स्थितियंा दलित साहित्य के पक्षधरों को एकदम अस्वीकार हैं। गैर दलित लेखकों के लेखन पर उठाई गयी ये आपत्ति सैद्धांतिक किस्म की है। इस पर जैसा चिंतन मनन होना चाहिए था, बिल्कुल नहीं हुआ। जहंा दलित लेखकों ने अपने पक्ष में होने के चलते इस तर्क को आलोचनात्मक ढंग से परखने की जरूरत नहीं समझी, वहीं गैर दलित लेखकों के पक्षधरों ने ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ के सवाल से या तो टकराने की हिम्मत ही नहीं दिखाई, या उस पर सतही टिप्पणियंा कर के आगे बढ़ गये। उदाहरण के लिए अजय तिवारी ने लिखा है कि
स्वानुभूति पर बल मूलतः अस्तित्ववादी धारणा है और अस्तित्ववाद पूंजीवादी विचारधारा है। स्वानुभूति वाला तर्क नयी कविता का तर्क है – अनुभूति की प्रामाणिकता। यही तर्क दलित लेखकों का है क्योंकि हम दलित हैं। इसलिये उसका प्रामाणिक अनुभव हमें नहीं है, उस पर सच्ची प्रतिक्रिया हम ही व्यक्त कर सकते हैं और शायद इसी कारण साहित्य की नहीं, दलित साहित्य की बात की जाती है। उसे आप दलित अभिव्यक्ति कहें; दलित साहित्य कहने पर क्यों जोर है?
‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ पूजीवादी विचारधारा कैसे है? यह बताने की जहमत अजय तिवारी क्यों उठायें, जो भी चीज असुविधाजनक लगे उसे पंूजीवाद से जोड़ कर खारिज कर देना कुछ आलोचकों के लिए एक सुविधाजनक रास्ता है। अगर मान भी लें कि ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ एक पंूजीवादी विचारधारा है तो क्या उससे उस आपत्ति का हल निकल आयेगा जो दलित लेखकों ने उठाई है? या कि ‘आत्मा’ को ढूढ़ निकालने भर से ‘इन विमर्शों द्वारा उठाये गयें गंभीर सवालों पर विचार करने की जरूरत खत्म हो जायेगी?
इस बहस के प्रसंग में यह याद रखना जरूरी है कि ‘अनुभूति’ और ‘अनुभव’ दो भिन्न चीजें हैं। जहां अनुभूति व्यक्ति की भावनात्मक मनोदशा को सूचित करने वाला शब्द है, जिसका संबंध क्षण विशेष से है, वहीं अनुभव अतीत की घटनाओं से व्यक्ति जो कुछ सबक हासिल करता है, उसका पयार्य है। कभी-कभी ‘अनुभव’ का इस्तेमाल घटनाओं पर व्यक्ति की समग्र प्रतिक्रिया को बताने के लिए भी किया जाता है, लेकिन यह ‘भावनात्मक’ ‘मनोदशा’ का पयार्य नहीं होता। जहां अनुभूति एक अस्थाई भावनात्मक मनोदशा है, वहीं अनुभव अपेक्षाकृृत दीर्घ और स्थाई होते हैं और उसका एक ज्ञानात्मक मूल्य भी होता है। इसीलिए ‘तुम्हारे पास अभी अनुभव ही कितना है’ ‘तुमने अपने अनुभवों के क्या लाभ उठाया’ जैसे प्रयोग अकसर सुनने को मिलते हैं, जब कि अनुभूतियों के बारे में इस तरह की बात नहीं की जाती। अनुभूतियां ‘गहरी’ होती है, ‘तीव्र’ होती है। साहित्य के प्रसंग में अनुभूति और अनुभव के बीच एक महत्वपूर्ण भेद यह होता है कि अनुभूतियंा भाषा से परे होती हैं, जबकि ज्ञानात्मक पक्ष से संबंधित होने के चलते जहंा वह घटनाओं की स्मृति से जुड़ा होता है वहीं विचारों से भी। अनुभूतियंा केवल महसूस की जा सकती हैं, जबकि अनुभव बनाये जा सकते हैं, साझा किये जा सकते है। अनुभूतियां गंूगे का ‘गुड़’ है।
अनुभूतियों की दूसरी समस्या यह है कि वे व्यक्तिगत होती हैं, ऐसे में लेखक अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों की बात तो कर सकता है, लेकिन उन्हें किसी समुदाय के साथ कैसे जोड़ा जा सकता है? इसके साथ सवाल यह भी है कि कोई दलित शहर में रहता है, कोई गांव में। उनमें आर्थिक भेद भी हैं अगर हम कंवल भारती के तर्क को दुबारा याद करें कि दलित जीवन की पीड़ा की जैसी अनुभूति एक दलित को होती है, वैसी अनुभूति एक सवर्ण को नहीं हो सकती तो हम कह सकते हैं कि जातिगत भिन्नता के चलते एक भंगी के जीवन की पीड़ा को एक चमार वैसे ही नहीं महसूस कर सकता। एक ही समुदाय का होने के बावजूद अलग-अलग व्यक्तियों की अनुभूति की गहराई में फर्क होता है।
साहित्य के प्रसंग में अनुभूतियों की चर्चा क्यों की जाती है। किसी कृति में अनुभूति कहां और कितनी मात्रा में होती है- इस तरह के सवाल इस बहस में नहीं उठाये गये है’। निःसंदेह साहित्य एक बौद्धिक उत्पाद है और ठीक इसीलिए उसमें मानवीय चेतना के विविध पहलुओं अनुभव, कल्पना, ज्ञान, विचारधारा, कामना इत्यादि की भूमिका होती है, इस लिहाज से अनुभूति के महत्व पर कोई संदेह नहीं है। समस्या तब होती है कि जब अनुभूति को साहित्य का एकमात्र या सबसे महत्वपूर्ण कारण बना दिया जाता है, जब साहित्यिक कृति को भी अनुभूतियों का पंुज भर मान लिया जाता है। साहित्य को मनोरोगों का उत्पाद मानना एक रोमैंटिक धारणा है, याद करे वड्सवर्थ के प्रसिद्ध कथन ‘च्वमजतल पे ेचवदजंदपवने वअमतसिवू व िचवूमतनिसस पउवजपवदश् जिस पर व्यंग्य करते हुए मलार्मे में कहा था कि ‘कविता भावनाओं से नहीं, शब्दों से रची जाती है।
शब्दों से रचे होने के चलते ही साहित्य का अपना विशिष्ट स्वभाव निर्मित होता है। वह एक सहज नहीं सायास प्रक्रिया का परिणाम होता है। साहित्य अनुभूति नहीं है, वह एक सायास अभिव्यक्ति है और इस अभिव्यक्त प्रक्रिया में ही अनुभव से अलगाव उत्पन्न होता है। रोमैंटिक धारणाओं से संघर्ष करते हुए इलियट ने भोला मानस और रचयिता मानस के बीच की दूरी को महत्वपूर्ण माना था और कहा था कि जितनी ही अधिक श्रेष्ठ रचना होगी, यह दूरी उतनी ही अधिक होगी। ऐसा नहीं है कि इस अंतर पर केवल इलियट ने ही जोर दिया। जीवनानुभूति और कलानुभूति के जटिल और गहरे रिश्ते पर बल देने वाले मुक्तिबोध ने भी कला के तीन क्षेत्रों- अनुभव का क्षण, अनुभव के अपने दुखते- कसकते मूलों से अलगाव का क्षण और रचना का क्षण- की चर्चा की है। इस अलगाव के जरिये ही, रचनाकार अपने व्यक्तिगत अनुभवों को सावजनिक अनुभव में तब्दील कर पाता है।
दलित लेखक अपने साहित्य को प्रामाणिक अनुभूतियों का साहित्य बताते हैं, उनकी नीयत पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है, फिर भी सवाल है कि क्या लेखक के दावा कर देने भर से उसके साहित्य के पीछे प्रेरक अनुभूतियां प्रामाणिक मान ली जाय? फिर क्या कोई लेखक ऐसा होगा जो अपनी अनुभूति को प्रामाणिक न कहें? और सबसे बड़ा सवाल यह है कि लेखक के दावे से इतर पाठक के पास कृति के अलावा और कौन सा ऐसा तरीका है, जिससे वह उसकी तथाकथित ‘प्रामाणिकता’ की जंाच कर सकें? और अगर जंाच का आधार कृति ही है तो फिर लेखक की अनुभूति की चर्चा ही क्योें करें? यह ध्यान देना चाहिए कि कई बार दलित आत्मकथाओं तक में व्यक्त प्रसंगों की सच्चाई पर स्वंय दलित लेखकों ने संदेह प्रकट किया है। केवल दलित हो जाने भर से इस बात की कोई गारंटी नहीं की जा सकती कि दलित साहित्यकार जो कुछ लिख रहे हैं वह सब सच और प्रामाणिक ही है। सूर्यनारायण रणसुभे ने लिखा है – यह जरूरी नहीं कि दलित जो कुछ भी लिखता है वह सब सच ही हो। यह महत्वपूर्ण है कि किसी भी लेखक को रचना कर्म की एक पूरी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इसलिए कोई भी लेखक ऐसे ही रचना कर्म नहीं कर देता है, इसकी एक पूरी प्रक्रिया होती है। साहित्य सृजन में स्मृति का विशेष महत्व है। हम जो कुछ देखते हैं, उसको तुरंत ही सृजनात्मक लेखन का विषय नहीं बना देते। वह सब हमारी स्मृति में संचित रहता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब हम लिखने बैठते हैं, तो अपने सारे अनुभवों को लेखन का विषय नहीं बनाते। हमारी दृष्टि चयनात्मक होती है। हम कुछ खास अनुभवों का चयन कर उनसे संबंधित तथ्यों की स्वयं (कभी-कभी अपनी मर्जी अनुसार भी) व्याख्या करते हैं। इस प्रक्रिया में कुछ तथ्यों की निर्मिति भी करते हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि चयन, व्याख्या और निर्मिति से युक्त इस प्रक्रिया में अनुभूति कितनी प्रामाणिक रह जाती है। यह महत्वपूर्ण है कि ‘अनुभूति’ और ‘अभिव्यक्ति’ के बीच रचना-प्रक्र्रिया से जुड़ी कुछ अवस्थाएं होती हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। नामवर सिंह ने ठीक ही लिखा है ‘‘दलितों को एहसान की जरूरत नहीं है। पर यह विचारणीय जरूर है कि दलित साहित्य लिखने के लिए क्या दलित जीवन के यथार्थ से एक तरह की दूरी या तटस्थता जरूरी नहीं है?’’ नामवर सिंह का यह मत भी उचित है कि ‘ट्रेजेडी में होकर ट्रेजेडी लिख पाना कठिन है’। कंवल भारती ने इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा कि दूरी और तटस्थता गैर दलितों के यहां होती है और
यह सोच ही दलित और सवर्ण साहित्य के बीच की विभाजक रेखा है।… कल्पना की जरूरत प्रतीक या बिम्ब-संयोजन के लिए हो सकती है, पर अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए नहीं। दलित साहित्य का प्रमुख तत्व अनुभूति ही है और यह दलित जीवन को जीकर ही प्राप्त होती है, उसके साथ दूरी या तटस्थता बरतकर नहीं
कोई लेखक उसी समय जब उस पर अन्याय, दमन या अत्याचार हो रहा हो, अपने अनुभवों को अभिव्यक्ति नहीं दे देता है। सबसे पहले उसका उस यथार्थ से तटस्थ होना जरूरी होता है तभी उस पर विचार करना संभव हो पाता है। निराला द्वारा लिखी गई कविता सरोज-स्मृति उनकी बेटी सरोज की अकाल मृत्यु के समय की ट्रैजिक अवस्था में नहीं लिखी गई थी, वे लिख भी नहीं सकते थे। उस स्थिति के पश्चात अपने आप को तटस्थ और व्यवस्थित करने के बाद ही अपने भीतर की पीड़ा, अन्तद्र्वन्द्वों और उस समय के अनुभवों को उन्होंने कविता में मार्मिक ढंग से शब्दबद्ध किया था। ठीक उसी प्रकार दलित जीवन की पीड़ा की अभिव्यक्ति करने में भी विचारों को संग्रहित, व्यवस्थित और फिर अभिव्यक्त करने की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रक्रिया में कहना न होगा कि वे सारी बातें वैसे ही अभिव्यक्त नहीं हो सकती हैं जैसी कि अनुभूत की गईं थी। कुछ बातें अपनी याददाश्त और अनुमान के आधार लिखी जाती हैं और उसमें कल्पना का पुट भी आना स्वाभाविक ही है।
अनुभूति चाहे सुन्दर हो चाहे कुरूप, चाहे सुखद हो चाहे त्रासद, अपने आप में साहित्य नहीं होती। अनुभूति के स्तर से ही साहित्य की श्रेष्ठता नापने वाले अभिव्यंजनावादी कहे जाते हैं। अनुभूति सबको होती है, लेकिन सभी साहित्यकार नहीं होते। साहित्यकार तो वही होता है जो अपने वास्तविक अथवा कल्पित अनुभव को शब्दों के माध्यम से इस तरह प्रस्तुत करता है कि वह पाठक में भी संवेदना जगा दे। अनुभूति लेखक के पास भी होती है और पाठक के पास भी, लेकिन मध्यस्थता साहित्य करता है, साहित्यिक कृति कोई जीवित मनुष्य नहीं होती, शब्दों से रचित कृति में अनुभूतियंा नहीं होती। उसमें वर्णन होते हैं, घटना प्रसंगों, चरित्र और परिस्थितियों और घटना प्रसंगों के विश्वसनीय और मार्मिक वर्णन ही पाठक को उद्वेलित करते हैं, आप जूठन या तिरस्कृत या किसी भी रचना को याद कीजिये, आपको प्रभावशाली अंश किसी घटना प्रसंग या परिस्थिति के ही लगेगें, किसी अनुभूति वर्णन के नहीं। प्रभावशीलता लेखक की व्यक्तिगत अनुभूति पर नहीं, बल्कि कृति में प्रस्तुत ‘वर्णन’ पर निर्भर करती है। इसीलिए अगर पूर्वग्रहों को छोड़ कर वस्तुगत निर्णय करना हो तो बात अनुभूति की नहीं, अभिव्यक्ति की होनी चाहिए। इस प्रसंग में कवितेन्द्र इन्दु ने बिल्कुल ठीक पहचाना है कि
अगर साहित्य की साहित्यिकता ‘भाषा के सूचनात्मक प्रयोग की बजाय ‘सर्जनात्मक-प्रयोग’ तथा इस प्रयोग के माध्यम से एक की संवेदना को दूसरे तक पहंुचाने (संवेदना विस्तार, परकाया प्रवेश) से तय होती है-और आत्मकथा भी साहित्य ही है- तो मानना पड़ेगा कि आत्मकथा के लिए भी सिर्फ अनुभूति की प्रामाणिकता ही पर्याप्त नहीं होती, उसकी अभिव्यक्ति भी प्रामाणिक होनी चाहिए।
अनुभूति या अनुभव रचना के लिए पृष्ठभूमि का ही काम करते हैं। अनुभूति और अनुभव तो सभी के पास होते हैं और अगर प्रामाणिक अनुभूति ही सबसे बड़ा प्रतिमान है तो फिर मध्यवर्गीय दलित रचनाकारों की अनुभूति ही क्यों महत्वपूर्ण हो, क्या दलितों में ही उनसे अधिक शोषित -उत्पीड़ित और असहाय लोग आज भी यातना भरी जिन्दगी नहीं गुजार रहें हैंै। फिर साहित्य की क्या जरूरत है और साहित्यिक आलोचना भी क्यों की जाय। झज्झर, गुहाना और खैरलंाजी के दलितों की अनुभूतियां क्या दलित आत्मकथाकारों से कम भयावह, कम ‘प्रामाणिक’ रही हांेगी ? निस्संदेह उसकी चर्चा होनी चाहिए, हुई भी है, लेकिन वह साहित्य नहीं अखबारी चर्चा थी। उसमें सूचना थी, संवेदना नहीं। यही वजह है कि हम जितनी सहानुभूति के साथ आत्मकथाकारों को देखते हैं, उतनी सहानुभूति अखबार में भयावह उत्पीड़न के शिकार लोगोें की खबर पढ़कर नहीं उमड़ती। क्या यह दलित साहित्यकारों का कर्तव्य नहीं है कि अपने साहित्य से उन घटनाओं की भयानकता की और लोगों का ध्यान खींचे। पूछा जाना चाहिए कि इतनी वीभत्स अमानवीय घटना के बावजूद दलित लेखकों ने उसे आधार बनाकर कोई रचना क्यों नहीं की ? क्या वह कम मार्मिक और त्रासद होती, क्या वह दलित अंादोेलन के लिए हानिकारक होती ? या कि वह हमारे दलित लेखकों का भोगा हुआ यथार्थ न होने के कारण ‘काल्पनिक’ होती और इसीलिए उपेक्षणीय भी होती?
उत्पीड़न के विरूद्ध न्याय के लिए, क्षति के विरूद्ध क्षतिपूर्ति के लिए संघर्ष करना जितना जरूरी है, उतना ही ज्यादा जरूरी है ऐसे अत्याचारों के विरूद्ध लोगो को संवेदनशील बनाना। साहित्य इसी भूमिका को निभाता है, यही उसका महत्व है। आलोचना का दायित्व साहित्य को उसकी भूमिका याद दिलाना है। ‘प्रामाणिक अनुभूति’ पर जोर देकर लोगों में संवेदनशीलता पैदा करना संभव नहीं है, यह काम केवल ‘प्रामाणिक अभिव्यक्ति’ के जरिए किया जा सकता है। वास्तविक जीवन और साहित्य के संबंध और अंतरों को पहचानना बेहद जरूरी है, अन्यथा हम संघर्ष के मोर्चें पर पलायन करेंगे और साहित्य सृजन में जहां संवेदनशील और प्रामाणिक चित्रण की जरूरत होती है- क्रंातिकारी वक्तव्य देकर खुद को ‘क्रंातिकारी’ और अपने साहित्य को ‘महान’ सिद्ध कर देंगे। अनुभूति (वास्तविक जीवन मेें उत्पीड़न) और अभिव्यक्ति (उत्पीड़न का वर्णन) संघर्ष के दो भिन्न मोर्चों से संबंधित हैं, इस फर्क को पहचानते हुए कवितेन्द्र इन्दु ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि
हकीकत तो यही है कि साहित्य का सृजन जब भी किया जायेगा, दूसरों (पाठकों) को केन्द्र में रखकर ही । इसलिए अनुभूति की प्रामाणिकता का प्रश्न उत्पीड़ितों को उत्पीड़न का मुआवजा देते समय उठना ही चाहिए लेकिन साहित्य की चर्चा करते समय तो यक्ष प्रश्न यही होगा कि जिस अनुभूति को व्यक्त करने का दावा आप कर रहे हैं, वह कितनी विश्वसनीय और मार्मिक बन पाई है। किसने कितना अनुभव किया है, यह आप का व्यक्तिगत मामला हो सकता है लेकिन किसकी अभिव्यक्ति भोगे हुये अथवा कल्पित (क्योंकि साहित्य में सिर्फ आत्मकथायें ही नहीं होती) अनुभव का पाठक के मानस में पुनसृर्जन कर सकती है, चर्चा इस पर भी होनी चाहिए-दुर्भाग्य से होती नहीं हैं।
दलित लेखकों द्वारा ‘अभिव्यक्ति की प्रामाणिकता’ की चर्चा नहीं होती लेकिन ऐसा ‘दुर्भाग्यवश’ नहीं, बल्कि एक रणनीति के तहत होता है। अभिव्यक्त से जुड़े सवालों पर चर्चा करने पर आपको साहित्य के प्रतिमानों की समस्या से जूझना पड़ेगा। तब आप की रचना केवल ‘दलित साहित्य’ होने भर से श्रेष्ठ नहीं हो जायेगी बल्कि भाषा, शिल्प, संरचना, विचारधारा और यथार्थपरकता के सवालों के ठोस धरातल पर आपको अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करनी पड़ेगी। जाहिर है कि इन क्षेत्रों में दलित लेखकों को अभी और अभ्यास की जरूरत है, इसलिए श्रेष्ठ रचना के जरिये विरोधियों का मंुह बंद करने को श्रम साध्य मार्ग अपनाने की बजाय अधिकांश दलित लेखक ‘अनुभूति’ का सवाल उठाकर अपने विरोधियों को ही कठघरे में खड़ा करने का आसान मार्ग चुनना अधिक पसंद करते हैं। दलित साहित्य: ‘प्रामाणिकता’ पर पुनर्विचार
जयसिंह मीणा anubhuti ki pramanikata hindi dalita alochana ka paribhashika pada hai| anubhuti ki pramanikata ya ‘bhoge hue yathartha’ ka savala nayi kavita-kahani ke daura mem bhi utha tha| lekina vaham rachanakarom ne madhyavargiya jivana-anubhavom taka simita rahane ke auchitya nirupana ke taura para ise tarka banaya tha, jabaki anubhuti ki pramanikata dalita vimarsha ke lie naitika adhara bhi hai aura rananaitika adhara bhi| isa tarka se hi dalita lekhaka-alochaka apane lekhana ki vishishta yatharthaparakata ko bhi rekhamkita karate haim aura isi ke adhara para gaira dalita lekhakom ko dalita sahitya ke lekhana ke liye ayogya thaharate hue unake lekhana ko ‘sahanubhuti’ taka simita kara dete haim| jyadatara dalita lekhakom-alochakom ko to choड़ hi diya jaya jo sidhe-sidhe jati ke adhara para sahitya ki samvedana ka nirdharana karate haim, lekina jaba gambhira alochaka bhi gaira dalita lekhakom ki anubhuti para savala uthate haim to mamala gambhira ho jata hai| kamvala bharati bhi jo ki gaira dalita lekhakom ke dalita vishayaka lekhana ka mahatva svikarane ke mamale mem samkirna nahim hamai, savarna aura dalita lekhana ke bicha bheda karate haim| unaka kahana hai ki dalita samasyaom para gaira dalita lekhaka ‘‘jarura likha sakate haim, unhomne likha bhi hai aura ve likha bhi rahe haim| para savala anubhutiyom aura chimtana ka hai| dalita jivana ki piड़a ki jaisi anubhutiyama eka dalita ko hoti haim, vaisi anubhutiyama eka savarna ko nahim ho sakati|’’ isa uddharana mem bhi hama dekha sakate haim ki halamki kamvala bharati anubhuti aura chimtana donom ka savala uthate haim lekina bhinnata kevala anubhuti ki hi dikhate haim| yaha sacha bhi hai| chimtana ke stara para ashvaghosha se lekara phule aura adhunika kala mem rahula ji tatha kai anya makrsavadi gaira dalita lekhakom ka nama liya ja sakata hai jinhomne jativada ke khilapha gambhira vaicharika laड़ai laड़i hai| lekina anubhuti ke stara para kisa ki anubhuti pramanika thi kisa ki nahim, kaha nahim ja sakata| baharahala, agara sahitya ka svarupa nirdharita karane mem ‘anubhuti’ ka mahatva itana adhika hai (jitana dalita lekhaka batate haim) to use gambhiratapurvaka vishleshana ka vishaya banaya jana chahie tha, lekina aisa hua nahim| ‘anubhuti ki pramanikata’ dalita lekhana ka avyakhyayita bija shabda hai, isase juड़i samasyaom ko samajhane ke lie hamem dalita sahitya se juड़e kucha aise pahaluom para dhyana dena hoga, jo prathama drrishtya aprasamgika maluma hote haim|
dalita sahitya vyapaka dalit andolana ka hi eka mahatvapurna anga hai| dalita amdolana ne agara jati vyavastha ke viruddha samgharsha ki jaruratom ko remkhakita kiya to dalita sahitya ne jati vyavastha ki krurataon, kurupataon aura karya paddhati ko usake bhayavahatama rupa mem logom ke samane rakha| jativada kevala eka vaichariki nahim hai, vaha eka sampurna bhava bodha hai, atah usake samula nasha ke lie jativada ke prati kevala bauddhika asahamati ka hona aparyapta hai, bahuta bara aisa dekha gaya hai ki vaicharika rupa se jati-pamati ko galata manane ke bavajuda loga samskaravasha vyavahara mem usaka palana karate haim| isa amtavirodha se mukti tabhi sambhava hai jaba vyakti bauddhika hi nahim bhavanatmaka rupa se bhi jativada ke khilapha ho| samskarom ko badalana, vicharom ko badalane ki apeksha kahim adhika mushkila hai| dalita sahitya ko jativada ke khilapha isi bhavanatmaka akrosha ko udvelita karane ka shreya jata hai| jatigata bhedabhavom, atyacharom aura yatanaom ke vibhinna rupom ko vicharom ke dharatala para nahim, balki paristhitiyom aura ghatanaom ki shakla mem vishvasaniya aura jivamta dhamga se amkita karake dalita sahitya ne pathakom ke amtarmana ko jhakajhora diya| dalita sahitya ne bharatiya samaja ke usa vibhatsa pahalu ke prati logom mem bechaini paida ki, jise ya to (savarna) anadekha kara rahe the, athava (dalita) apane jivana ki niyati manakara svikara kara chuke the| aise mem dalita sahityakarom ka yaha dava ki unhomne apani rachanaom mem bharatiya samaja ke yathartha ko prastuta kiya hai, bilkula sahi hai|
sahitya ke prasamga mem yaha bata gauratalaba hai ki usaki prabhavashilata paristhitiyom aura vyaktiyom kee vishvasaniya pratinidhika chitrana para nirbhara karati hai- tathyaparakata para nahim| sahitya mem vyakta hone vala yathartha parivesha aura samvedana ka yathartha hota hai, tathyom ka yathartha nahim| isilie kalpanika vyaktiyom aura ghatanaom ko upajivya banane ke bavajuda koi shreshtha rachana pathaka ko rone ke lie vivasha kara sakati hai, jabaki kisi trasada ghatana ki tathyaparaka suchana dene vala akhabara vaisa prabhava kabhi nahim paida kara sakata| karana yaha hai ki akhabara (ya anya vaicharika anushasanom) mem varnita ghatanayame aura vyakti tathyaparaka rupa se vastavika hone ke bavajuda apane manaviya pahaluom aura samvedanashila ditelsa se vamchita kara diye jate haim, jabaki sahitya ka jora sabase adhika isi pahalu para hota hai| sahitya ki yatharthaparakata isa bata para nirbhara nahim karati ki kisa ghatana ya vyakti ka varnana krriti mem hua hai, ki sabhi suchanaom aura taphasilem puri taraha sachchi haim ya nahim, balki usaki yatharthathata isa bata para nirbhara karati hai ki vaise sambamdha, parivesha aura ghatanayem samaja mem hoti haim ya nahim| isilie sahitya kisi vyakti vishesha ka sacha na hokara eka samajika satya bana jata hai aura yahi vajaha hai ki koi vyaktigata sambamdha na hone ke bavajuda pathaka krriti ke parivesha aura patrom se tadatmya svikara kara leta hai| dalit vimarsh narivad stri vimarsh marxvad, article alochana,
atmakathayem dalita sahitya ke kendra mem haim, hindi dalita sahitya mem to dalita atmakathayem dalita sahitya ke paryaya ke taura para dekhi jati haim| lekhaka-alochaka dalita sahitya ki vishishtataom aura upalabdhiyom ki charcha karate samaya prayah atmakathaom ki charcha kara rahe hote haim| isake kucha phayade haim to isase kucha ulajhane bhi paida hui haimaiai| atmakatha isa lihaja se eka vishishta vidha hai ki usaka eka chora agara sahitya se juड़ta hai to dusara chora itihasa se| agara usamem sahitya ki sarjanatmaka samvedana hoti hai to itihasa ki tathyaparakata bhi| atmakatha lekhaka ke jivana ka itihasa hi hai| yani atmakathayem samvedana aura parivesha ke stara para yatharthata ka dava to karati hi haim, vyaktiyom aura ghatanaom ki tathyaparaka sachchai ka bhi dava karati haim| isa visheshata ke chalate hi ve dalita amdolana ki riढ़ bana gaim, kyomki unhomne pathakom ko vishvasa dilaya ki ve jisa lomaharshaka, vibhatsa aura bhayavaha varnana ko paढ़ rahe haim, vaha koi kalpa srrishti nahim, balki eka vyakti aura usake samudaya ki apa biti haim| apani isa vishishtata ke karana dalita atmakathayem dalita samudaya ke parivesha, samskrriti, shoshana aura yatana ka pramanika dastaveja mani jati haim|
bharatiya samaja ke yathartha ki pramanika prastuti ke dalita sahityakarom ke dave ko atmakathaom ne siddha kara diya| lekina yahim eka samasya bhi paida hui| atmakatha eka vastavika vyakti ka jivana hota hai| isalie lakshya spashta na hone ya asavadhani hone ki sthiti mem atmakathaom ka lekhana aura pathana bahuta asani se vyaktivada ka shikara ho sakata hai| adhikamsha savarna atmakathayeem isi karana atmamugdhata ka shikara haim|atmakathaon ko kendra me rakhane se dalit sahitya ke prasamga mem samasya yaha paida hui ki dalita lekhakom- alochakom ne ‘yathartha ki pramanikata’ ki bajaya ‘anubhuti ki pramanikata’ ka dava kiya| isa dave ka eka rananitika pahalu bhi tha, jisake chalate yaha gambhira bahasa ka kshetra bana gaya| savarna lekhakom ke dalita vishayaka lekhana ko dalita sahitya ka amga manane ki vakalata karane valom ne isa bata para jora diya ki pratibaddhata aura nirikshana ke sahare gaira dalita lekhaka bhi dalita jivana se sambamdhita shreshtha rachana de sakata hai| bata tarkika rupa se bilkula sahi hai, savala yaha hai ki jativada ke khilapha dalita lekhakom jaisi ekasutriya pratibaddhata aura vaisa sukshma amtaramga nirikshana kisa savarna lekhaka ke sahitya se milata hai? lekina yaha savala uthane ki bajaya dalita lekhakom- alochakom ne ‘anubhuti ki pramanikata’ ka savala uthaya| isaka saba se baड़a labha yaha tha ki yaha bina kisi lambi bahasa ke eka jhatake mem sare savarnom ko dalita sahitya ke lekhana ke lie ayogya siddha kara deta tha| jisane vyaktigata rupa se khuda dalita jivana ke apamana aura atyachara ko nahim anubhuta kiya hai, jaba use usa anubhuti ka pata nahim to vaha kisi dalita nayaka ka dalita patra ke amtarmana ki anubhutiyom ko kaise vyakta kara payega? aise mem vaha jo kucha likhata hai vaha ya to pharji anubhuti hogi ya phira sahanubhuti! aura ye donom hi sthitiyama dalita sahitya ke pakshadharom ko ekadama asvikara haim| gaira dalita lekhakom ke lekhana para uthai gayi ye apatti saiddhamtika kisma ki hai| isa para jaisa chimtana manana hona chahie tha, bilkula nahim hua| jahama dalita lekhakom ne apane paksha mem hone ke chalate isa tarka ko alochanatmaka dhamga se parakhane ki jarurata nahim samajhi, vahim gaira dalita lekhakom ke pakshadharom ne ‘anubhuti ki pramanikata’ ke savala se ya to takarane ki himmata hi nahim dikhai, ya usa para satahi tippaniyama kara ke age baढ़ gaye| udaharana ke lie ajaya tivari ne likha hai ki
svanubhuti para bala mulatah astitvavadi dharana hai aura astitvavada pumjivadi vicharadhara hai| svanubhuti vala tarka nayi kavita ka tarka hai – anubhuti ki pramanikata| yahi tarka dalita lekhakom ka hai kyomki hama dalita haim| isaliye usaka pramanika anubhava hamem nahim hai, usa para sachchi pratikriya hama hi vyakta kara sakate haim aura shayada isi karana sahitya ki nahim, dalita sahitya ki bata ki jati hai| use apa dalita abhivyakti kahem; dalita sahitya kahane para kyom jora hai?
‘anubhuti ki pramanikata’ pujivadi vicharadhara kaise hai? yaha batane ki jahamata ajaya tivari kyom uthayem, jo bhi chija asuvidhajanaka lage use pamujivada se joड़ kara kharija kara dena kucha alochakom ke lie eka suvidhajanaka rasta hai| agara mana bhi lem ki ‘anubhuti ki pramanikata’ eka pamujivadi vicharadhara hai to kya usase usa apatti ka hala nikala ayega jo dalita lekhakom ne uthai hai? ya ki ‘atma’ ko dhuढ़ nikalane bhara se ‘ina vimarshom dvara uthaye gayem gambhira savalom para vichara karane ki jarurata khatma ho jayegi?
isa bahasa ke prasamga mem yaha yada rakhana jaruri hai ki ‘anubhuti’ aura ‘anubhava’ do bhinna chijem haim| jaham anubhuti vyakti ki bhavanatmaka manodasha ko suchita karane vala shabda hai, jisaka sambamdha kshana vishesha se hai, vahim anubhava atita ki ghatanaom se vyakti jo kucha sabaka hasila karata hai, usaka payarya hai| kabhi-kabhi ‘anubhava’ ka istemala ghatanaom para vyakti ki samagra pratikriya ko batane ke lie bhi kiya jata hai, lekina yaha ‘bhavanatmaka’ ‘manodasha’ ka payarya nahim hota| jaham anubhuti eka asthai bhavanatmaka manodasha hai, vahim anubhava apekshakrrirrita dirgha aura sthai hote haim aura usaka eka j~nanatmaka mulya bhi hota hai| isilie ‘tumhare pasa abhi anubhava hi kitana hai’ ‘tumane apane anubhavom ke kya labha uthaya’ jaise prayoga akasara sunane ko milate haim, jaba ki anubhutiyom ke bare mem isa taraha ki bata nahim ki jati| anubhutiyam ‘gahari’ hoti hai, ‘tivra’ hoti hai| sahitya ke prasamga mem anubhuti aura anubhava ke bicha eka mahatvapurna bheda yaha hota hai ki anubhutiyama bhasha se pare hoti haim, jabaki j~nanatmaka paksha se sambamdhita hone ke chalate jahama vaha ghatanaom ki smrriti se juड़a hota hai vahim vicharom se bhi| anubhutiyama kevala mahasusa ki ja sakati haim, jabaki anubhava banaye ja sakate haim, sajha kiye ja sakate hai| anubhutiyam gamuge ka ‘guड़’ hai|
anubhutiyom ki dusari samasya yaha hai ki ve vyaktigata hoti haim, aise mem lekhaka apani vyaktigata anubhutiyom ki bata to kara sakata hai, lekina unhem kisi samudaya ke satha kaise joड़a ja sakata hai? isake satha savala yaha bhi hai ki koi dalita shahara mem rahata hai, koi gamva mem| unamem arthika bheda bhi haim agara hama kamvala bharati ke tarka ko dubara yada karem ki dalita jivana ki piड़a ki jaisi anubhuti eka dalita ko hoti hai, vaisi anubhuti eka savarna ko nahim ho sakati to hama kaha sakate haim ki jatigata bhinnata ke chalate eka bhamgi ke jivana ki piड़a ko eka chamara vaise hi nahim mahasusa kara sakata| eka hi samudaya ka hone ke bavajuda alaga-alaga vyaktiyom ki anubhuti ki gaharai mem pharka hota hai|
sahitya ke prasamga mem anubhutiyom ki charcha kyom ki jati hai| kisi krriti mem anubhuti kaham aura kitani matra mem hoti hai- isa taraha ke savala isa bahasa mem nahim uthaye gaye hai’| nihsamdeha sahitya eka bauddhika utpada hai aura thika isilie usamem manaviya chetana ke vividha pahaluom anubhava, kalpana, j~nana, vicharadhara, kamana ityadi ki bhumika hoti hai, isa lihaja se anubhuti ke mahatva para koi samdeha nahim hai| samasya taba hoti hai ki jaba anubhuti ko sahitya ka ekamatra ya sabase mahatvapurna karana bana diya jata hai, jaba sahityika krriti ko bhi anubhutiyom ka pamuja bhara mana liya jata hai| sahitya ko manorogom ka utpada manana eka romaimtika dharana hai, yada kare vadsavartha ke prasiddha kathana ‘chvamajatala pe echavadajamdapavane vaamatasivu va ichavumatanisasa pauvajapavadash jisa para vyamgya karate hue malarme mem kaha tha ki ‘kavita bhavanaom se nahim, shabdom se rachi jati hai|
shabdom se rache hone ke chalate hi sahitya ka apana vishishta svabhava nirmita hota hai| vaha eka sahaja nahim sayasa prakriya ka parinama hota hai| sahitya anubhuti nahim hai, vaha eka sayasa abhivyakti hai aura isa abhivyakta prakriya mem hi anubhava se alagava utpanna hota hai| romaimtika dharanaom se samgharsha karate hue iliyata ne bhola manasa aura rachayita manasa ke bicha ki duri ko mahatvapurna mana tha aura kaha tha ki jitani hi adhika shreshtha rachana hogi, yaha duri utani hi adhika hogi| aisa nahim hai ki isa amtara para kevala iliyata ne hi jora diya| jivananubhuti aura kalanubhuti ke jatila aura gahare rishte para bala dene vale muktibodha ne bhi kala ke tina kshetrom- anubhava ka kshana, anubhava ke apane dukhate- kasakate mulom se alagava ka kshana aura rachana ka kshana- ki charcha ki hai| isa alagava ke jariye hi, rachanakara apane vyaktigata anubhavom ko savajanika anubhava mem tabdila kara pata hai|
dalita lekhaka apane sahitya ko pramanika anubhutiyo ka sahitya batate haim, unaki niyata para samdeha karane ka koi karana nahim hai, phira bhi savala hai ki kya lekhaka ke dava kara dene bhara se usake sahitya ke piche preraka anubhutiyam pramanika mana li jaya? phira kya koi lekhaka aisa hoga jo apani anubhuti ko pramanika na kahem? aura sabase baड़a savala yaha hai ki lekhaka ke dave se itara pathaka ke pasa krriti ke alava aura kauna sa aisa tarika hai, jisase vaha usaki tathakathita ‘pramanikata’ ki jamacha kara sakem? aura agara jamacha ka adhara krriti hi hai to phira lekhaka ki anubhuti ki charcha hi kyoem karem? yaha dhyana dena chahie ki kai bara dalita atmakathaom taka mem vyakta prasamgom ki sachchai para svamya dalita lekhakom ne samdeha prakata kiya hai| kevala dalita ho jane bhara se isa bata ki koi garamti nahim ki ja sakati ki dalita sahityakara jo kucha likha rahe haim vaha saba sacha aura pramanika hi hai| suryanarayana ranasubhe ne likha hai – yaha jaruri nahim ki dalita jo kucha bhi likhata hai vaha saba sacha hi ho| yaha mahatvapurna hai ki kisi bhi lekhaka ko rachana karma ki eka puri prakriya se gujarana paड़ta hai| isalie koi bhi lekhaka aise hi rachana karma nahim kara deta hai, isaki eka puri prakriya hoti hai| sahitya srrijana mem smrriti ka vishesha mahatva hai| hama jo kucha dekhate haim, usako turamta hi srrijanatmaka lekhana ka vishaya nahim bana dete| vaha saba hamari smrriti mem samchita rahata hai| dhyana dene yogya bata yaha hai ki jaba hama likhane baithate haim, to apane sare anubhavom ko lekhana ka vishaya nahim banate| hamari drrishti chayanatmaka hoti hai| hama kucha khasa anubhavom ka chayana kara unase sambamdhita tathyom ki svayam (kabhi-kabhi apani marji anusara bhi) vyakhya karate haim| isa prakriya mem kucha tathyom ki nirmiti bhi karate haim| anumana lagaya ja sakata hai ki chayana, vyakhya aura nirmiti se yukta isa prakriya mem anubhuti kitani pramanika raha jati hai| yaha mahatvapurna hai ki ‘anubhuti’ aura ‘abhivyakti’ ke bicha rachana-prakrriya se juड़i kucha avasthaem hoti haim jinaki anadekhi nahim ki ja sakati| namavara simha ne thika hi likha hai ‘‘dalitom ko ehasana ki jarurata nahim hai| para yaha vicharaniya jarura hai ki dalita sahitya likhane ke lie kya dalita jivana ke yathartha se eka taraha ki duri ya tatasthata jaruri nahim hai?’’ namavara simha ka yaha mata bhi uchita hai ki ‘trejedi mem hokara trejedi likha pana kathina hai’| kamvala bharati ne isa para pratikriya vyakta karate hue likha ki duri aura tatasthata gaira dalitom ke yaham hoti hai aura
yaha socha hi dalita aura savarna sahitya ke bicha ki vibhajaka rekha hai|… kalpana ki jarurata pratika ya bimba-samyojana ke lie ho sakati hai, para anubhutiyom ki abhivyakti ke lie nahim| dalita sahitya ka pramukha tatva anubhuti hi hai aura yaha dalita jivana ko jikara hi prapta hoti hai, usake satha duri ya tatasthata baratakara nahim
koi lekhaka usi samaya jaba usa para anyaya, damana ya atyachara ho raha ho, apane anubhavom ko abhivyakti nahim de deta hai| sabase pahale usaka usa yathartha se tatastha hona jaruri hota hai tabhi usa para vichara karana sambhava ho pata hai| nirala dvara likhi gai kavita saroja-smrriti unaki beti saroja ki akala mrrityu ke samaya ki traijika avastha mem nahim likhi gai thi, ve likha bhi nahim sakate the| usa sthiti ke pashchata apane apa ko tatastha aura vyavasthita karane ke bada hi apane bhitara ki piड़a, antadrvandvom aura usa samaya ke anubhavom ko unhomne kavita mem marmika dhamga se shabdabaddha kiya tha| thika usi prakara dalita jivana ki piड़a ki abhivyakti karane mem bhi vicharom ko samgrahita, vyavasthita aura phira abhivyakta karane ki avashyakata paड़ti hai| isa prakriya mem kahana na hoga ki ve sari batem vaise hi abhivyakta nahim ho sakati haim jaisi ki anubhuta ki gaim thi| kucha batem apani yadadashta aura anumana ke adhara likhi jati haim aura usamem kalpana ka puta bhi ana svabhavika hi hai|
anubhuti chahe sundara ho chahe kurupa, chahe sukhada ho chahe trasada, apane apa mem sahitya nahim hoti| anubhuti ke stara se hi sahitya ki shreshthata napane vale abhivyamjanavadi kahe jate haim| anubhuti sabako hoti hai, lekina sabhi sahityakara nahim hote| sahityakara to vahi hota hai jo apane vastavika athava kalpita anubhava ko shabdom ke madhyama se isa taraha prastuta karata hai ki vaha pathaka mem bhi samvedana jaga de| anubhuti lekhaka ke pasa bhi hoti hai aura pathaka ke pasa bhi, lekina madhyasthata sahitya karata hai, sahityika krriti koi jivita manushya nahim hoti, shabdom se rachita krriti mem anubhutiyama nahim hoti| usamem varnana hote haim, ghatana prasamgom, charitra aura paristhitiyom aura ghatana prasamgom ke vishvasaniya aura marmika varnana hi pathaka ko udvelita karate haim, apa juthana ya tiraskrrita ya kisi bhi rachana ko yada kijiye, apako prabhavashali amsha kisi ghatana prasamga ya paristhiti ke hi lagegem, kisi anubhuti varnana ke nahim| prabhavashilata lekhaka ki vyaktigata anubhuti para nahim, balki krriti mem prastuta ‘varnana’ para nirbhara karati hai| isilie agara purvagrahom ko choड़ kara vastugata nirnaya karana ho to bata anubhuti ki nahim, abhivyakti ki honi chahie| isa prasamga mem kavitendra indu ne bilkula thika pahachana hai ki
agara sahitya ki sahityikata ‘bhasha ke suchanatmaka prayoga ki bajaya ‘sarjanatmaka-prayoga’ tatha isa prayoga ke madhyama se eka ki samvedana ko dusare taka pahamuchane (samvedana vistara, parakaya pravesha) se taya hoti hai-aura atmakatha bhi sahitya hi hai- to manana paड़ega ki atmakatha ke lie bhi sirpha anubhuti ki pramanikata hi paryapta nahim hoti, usaki abhivyakti bhi pramanika honi chahie|
anubhuti ya anubhava rachana ke lie prrishthabhumi ka hi kama karate haim| anubhuti aura anubhava to sabhi ke pasa hote haim aura agara pramanika anubhuti hi sabase baड़a pratimana hai to phira madhyavargiya dalita rachanakarom ki anubhuti hi kyom mahatvapurna ho, kya dalitom mem hi unase adhika shoshita -utpiड़ita aura asahaya loga aja bhi yatana bhari jindagi nahim gujara rahem haimai| phira sahitya ki kya jarurata hai aura sahityika alochana bhi kyom ki jaya| jhajjhara, guhana aura khairalamaji ke dalitom ki anubhutiyam kya dalita atmakathakarom se kama bhayavaha, kama ‘pramanika’ rahi hamegi ? nissamdeha usaki charcha honi chahie, hui bhi hai, lekina vaha sahitya nahim akhabari charcha thi| usamem suchana thi, samvedana nahim| yahi vajaha hai ki hama jitani sahanubhuti ke satha atmakathakarom ko dekhate haim, utani sahanubhuti akhabara mem bhayavaha utpiड़na ke shikara logoem ki khabara paढ़kara nahim umaड़ti| kya yaha dalita sahityakarom ka kartavya nahim hai ki apane sahitya se una ghatanaom ki bhayanakata ki aura logom ka dhyana khimche| pucha jana chahie ki itani vibhatsa amanaviya ghatana ke bavajuda dalita lekhakom ne use adhara banakara koi rachana kyom nahim ki ? kya vaha kama marmika aura trasada hoti, kya vaha dalita amadoelana ke lie hanikaraka hoti ? ya ki vaha hamare dalita lekhakom ka bhoga hua yathartha na hone ke karana ‘kalpanika’ hoti aura isilie upekshaniya bhi hoti?
utpiड़na ke viruddha nyaya ke lie, kshati ke viruddha kshatipurti ke lie samgharsha karana jitana jaruri hai, utana hi jyada jaruri hai aise atyacharom ke viruddha logo ko samvedanashila banana| sahitya isi bhumika ko nibhata hai, yahi usaka mahatva hai| alochana ka dayitva sahitya ko usaki bhumika yada dilana hai| ‘pramanika anubhuti’ para jora dekara logom mem samvedanashilata paida karana sambhava nahim hai, yaha kama kevala ‘pramanika abhivyakti’ ke jarie kiya ja sakata hai| vastavika jivana aura sahitya ke sambamdha aura amtarom ko pahachanana behada jaruri hai, anyatha hama samgharsha ke morchem para palayana karemge aura sahitya srrijana mem jaham samvedanashila aura pramanika chitrana ki jarurata hoti hai- kramatikari vaktavya dekara khuda ko ‘kramatikari’ aura apane sahitya ko ‘mahana’ siddha kara demge| anubhuti (vastavika jivana meem utpiड़na) aura abhivyakti (utpiड़na ka varnana) samgharsha ke do bhinna morchom se sambamdhita haim, isa pharka ko pahachanate hue kavitendra indu ne bilkula thika likha hai ki
hakikata to yahi hai ki sahitya ka srrijana jaba bhi kiya jayega, dusarom (pathakom) ko kendra mem rakhakara hi | isalie anubhuti ki pramanikata ka prashna utpiड़itom ko utpiड़na ka muavaja dete samaya uthana hi chahie lekina sahitya ki charcha karate samaya to yaksha prashna yahi hoga ki jisa anubhuti ko vyakta karane ka dava apa kara rahe haim, vaha kitani vishvasaniya aura marmika bana pai hai| kisane kitana anubhava kiya hai, yaha apa ka vyaktigata mamala ho sakata hai lekina kisaki abhivyakti bhoge huye athava kalpita (kyomki sahitya mem sirpha atmakathayem hi nahim hoti) anubhava ka pathaka ke manasa mem punasrrirjana kara sakati hai, charcha isa para bhi honi chahie-durbhagya se hoti nahim haim|
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jaysingh meena
दलित साहित्य व्यापक दलित आंदोलन का ही एक महत्वपूर्ण अंग है। दलित आंदोलन ने अगर जाति व्यवस्था के विरूद्ध संघर्ष की जरूरतों को रेंखाकित किया तो दलित साहित्य ने जाति व्यवस्था की क्रूरताओं, कुरूपताओं और कार्य पद्धति को उसके भयावहतम रूप में लोगों के सामने रखा। जातिवाद केवल एक वैचारिकी नहीं है, वह एक सम्पूर्ण भाव बोध है, अतः उसके समूल नाश के लिए जातिवाद के प्रति केवल बौद्धिक असहमति का होना अपर्याप्त है, बहुत बार ऐसा देखा गया है कि वैचारिक रूप से जाति-पंाति को गलत मानने के बावजूद लोग संस्कारवश व्यवहार में उसका पालन करते हैं। इस अंतविरोध से मुक्ति तभी संभव है जब व्यक्ति बौद्धिक ही नहीं भावनात्मक रूप से भी जातिवाद के खिलाफ हो। संस्कारों को बदलना, विचारों को बदलने की अपेक्षा कहीं अधिक मुश्किल है। दलित साहित्य को जातिवाद के खिलाफ इसी भावनात्मक आक्रोश को उद्वेलित करने का श्रेय जाता है। जातिगत भेदभावों, अत्याचारों और यातनाओं के विभिन्न रूपों को विचारों के धरातल पर नहीं, बल्कि परिस्थितियों और घटनाओं की शक्ल में विश्वसनीय और जीवंत ढंग से अंकित करके दलित साहित्य ने पाठकों के अंतर्मन को झकझोर दिया। दलित साहित्य ने भारतीय समाज के उस वीभत्स पहलू के प्रति लोगों में बेचैनी पैदा की, जिसे या तो (सवर्ण) अनदेखा कर रहे थे, अथवा (दलित) अपने जीवन की नियति मानकर स्वीकार कर चुके थे। ऐसे में दलित साहित्यकारों का यह दावा कि उन्होंने अपनी रचनाओं में भारतीय समाज के यथार्थ को प्रस्तुत किया है, बिल्कुल सही है।
साहित्य के प्रसंग में यह बात गौरतलब है कि उसकी प्रभावशीलता परिस्थितियों और व्यक्तियों केे विश्वसनीय प्रातिनिधिक चित्रण पर निर्भर करती है- तथ्यपरकता पर नहीं। साहित्य में व्यक्त होने वाला यथार्थ परिवेश और संवेदना का यथार्थ होता है, तथ्यों का यथार्थ नहीं। इसीलिए काल्पनिक व्यक्तियों और घटनाओं को उपजीव्य बनाने के बावजूद कोई श्रेष्ठ रचना पाठक को रोने के लिए विवश कर सकती है, जबकि किसी त्रासद घटना की तथ्यपरक सूचना देने वाला अखबार वैसा प्रभाव कभी नहीं पैदा कर सकता। कारण यह है कि अखबार (या अन्य वैचारिक अनुशासनों) में वर्णित घटनायंे और व्यक्ति तथ्यपरक रूप से वास्तविक होने के बावजूद अपने मानवीय पहलुओं और संवेदनशील डीटेल्स से वंचित कर दिये जाते हैं, जबकि साहित्य का जोर सबसे अधिक इसी पहलू पर होता है। साहित्य की यथार्थपरकता इस बात पर निर्भर नहीं करती कि किस घटना या व्यक्ति का वर्णन कृति में हुआ है, कि सभी सूचनाओं और तफसीलें पूरी तरह सच्ची हैं या नहीं, बल्कि उसकी यथार्थथता इस बात पर निर्भर करती है कि वैसे संबंध, परिवेश और घटनायें समाज में होती हैं या नहीं। इसीलिए साहित्य किसी व्यक्ति विशेष का सच ना होकर एक सामाजिक सत्य बन जाता है और यही वजह है कि कोई व्यक्तिगत संबंध ना होने के बावजूद पाठक कृति के परिवेश और पात्रों से तादात्म्य स्वीकार कर लेता है। Dalit VImarsh Narivad Stri Vimarsh Marxvad, Article Alochana,
आत्मकथायें दलित साहित्य के केन्द्र में हैं, हिन्दी दलित साहित्य में तो दलित आत्मकथायें दलित साहित्य के पर्याय के तौर पर देखी जाती हैं। लेखक-आलोचक दलित साहित्य की विशिष्टताओं और उपलब्धियों की चर्चा करते समय प्रायः आत्मकथाओं की चर्चा कर रहे होते हैं। इसके कुछ फायदे हैं तो इससे कुछ उलझने भी पैदा हुई हैंैै। आत्मकथा इस लिहाज से एक विशिष्ट विधा है कि उसका एक छोर अगर साहित्य से जुड़ता है तो दूसरा छोर इतिहास से। अगर उसमें साहित्य की सर्जनात्मक संवेदना होती है तो इतिहास की तथ्यपरकता भी। आत्मकथा लेखक के जीवन का इतिहास ही है। यानि आत्मकथायें संवेदना और परिवेश के स्तर पर यथार्थता का दावा तो करती ही हैं, व्यक्तियों और घटनाओं की तथ्यपरक सच्चाई का भी दावा करती हैं। इस विशेषता के चलते ही वे दलित आंदोलन की रीढ़ बन गईं, क्योंकि उन्होंने पाठकों को विश्वास दिलाया कि वे जिस लोमहर्षक, वीभत्स और भयावह वर्णन को पढ़ रहे हैं, वह कोई कल्प सृष्टि नहीं, बल्कि एक व्यक्ति और उसके समुदाय की आप बीती हैं। अपनी इस विशिष्टता के कारण दलित आत्मकथायें दलित समुदाय के परिवेश, संस्कृति, शोषण और यातना का प्रामाणिक दस्तावेज मानी जाती हैं।
भारतीय समाज के यथार्थ की प्रामाणिक प्रस्तुति के दलित साहित्यकारों के दावे को आत्मकथाओं ने सिद्ध कर दिया। लेकिन यहीं एक समस्या भी पैदा हुई। आत्मकथा एक वास्तविक व्यक्ति का जीवन होता है। इसलिए लक्ष्य स्पष्ट न होने या असावधानी होने की स्थिति में आत्मकथाओं का लेखन और पाठन बहुत आसानी से व्यक्तिवाद का शिकार हो सकता है। अधिकांश सवर्ण आत्मकथायेें इसी कारण आत्ममुग्धता का शिकार हैं। आत्मकथाओं को केन्द्र में रखने से दलित साहित्य के प्रसंग में समस्या यह पैदा हुई कि दलित लेखकों- आलोचकों ने ‘यथार्थ की प्रामाणिकता’ की बजाय ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ का दावा किया। इस दावे का एक रणनीतिक पहलू भी था, जिसके चलते यह गंभीर बहस का क्षेत्र बन गया। सवर्ण लेखकों के दलित विषयक लेखन को दलित साहित्य का अंग मानने की वकालत करने वालों ने इस बात पर जोर दिया कि प्रतिबद्धता और निरीक्षण के सहारे गैर दलित लेखक भी दलित जीवन से संबंधित श्रेष्ठ रचना दे सकता है। बात तर्किक रूप से बिल्कुल सही है, सवाल यह है कि जातिवाद के खिलाफ दलित लेखकों जैसी एकसूत्रीय प्रतिबद्धता और वैसा सूक्ष्म अंतरंग निरीक्षण किस सवर्ण लेखक के साहित्य से मिलता है? लेकिन यह सवाल उठाने की बजाय दलित लेखकों- आलोचकों ने ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ का सवाल उठाया। इसका सब से बड़ा लाभ यह था कि यह बिना किसी लम्बी बहस के एक झटके में सारे सवर्णों को दलित साहित्य के लेखन के लिए अयोग्य सिद्ध कर देता था। जिसने व्यक्तिगत रूप से खुद दलित जीवन के अपमान और अत्याचार को नहीं अनुभूत किया है, जब उसे उस अनुभूति का पता नहीं तो वह किसी दलित नायक का दलित पात्र के अंतर्मन की अनुभूतियों को कैसे व्यक्त कर पायेगा? ऐसे में वह जो कुछ लिखता है वह या तो फर्जी अनुभूति होगी या फिर सहानुभूति! और ये दोनों ही स्थितियंा दलित साहित्य के पक्षधरों को एकदम अस्वीकार हैं। गैर दलित लेखकों के लेखन पर उठाई गयी ये आपत्ति सैद्धांतिक किस्म की है। इस पर जैसा चिंतन मनन होना चाहिए था, बिल्कुल नहीं हुआ। जहंा दलित लेखकों ने अपने पक्ष में होने के चलते इस तर्क को आलोचनात्मक ढंग से परखने की जरूरत नहीं समझी, वहीं गैर दलित लेखकों के पक्षधरों ने ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ के सवाल से या तो टकराने की हिम्मत ही नहीं दिखाई, या उस पर सतही टिप्पणियंा कर के आगे बढ़ गये। उदाहरण के लिए अजय तिवारी ने लिखा है कि
स्वानुभूति पर बल मूलतः अस्तित्ववादी धारणा है और अस्तित्ववाद पूंजीवादी विचारधारा है। स्वानुभूति वाला तर्क नयी कविता का तर्क है – अनुभूति की प्रामाणिकता। यही तर्क दलित लेखकों का है क्योंकि हम दलित हैं। इसलिये उसका प्रामाणिक अनुभव हमें नहीं है, उस पर सच्ची प्रतिक्रिया हम ही व्यक्त कर सकते हैं और शायद इसी कारण साहित्य की नहीं, दलित साहित्य की बात की जाती है। उसे आप दलित अभिव्यक्ति कहें; दलित साहित्य कहने पर क्यों जोर है?
‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ पूजीवादी विचारधारा कैसे है? यह बताने की जहमत अजय तिवारी क्यों उठायें, जो भी चीज असुविधाजनक लगे उसे पंूजीवाद से जोड़ कर खारिज कर देना कुछ आलोचकों के लिए एक सुविधाजनक रास्ता है। अगर मान भी लें कि ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ एक पंूजीवादी विचारधारा है तो क्या उससे उस आपत्ति का हल निकल आयेगा जो दलित लेखकों ने उठाई है? या कि ‘आत्मा’ को ढूढ़ निकालने भर से ‘इन विमर्शों द्वारा उठाये गयें गंभीर सवालों पर विचार करने की जरूरत खत्म हो जायेगी?
इस बहस के प्रसंग में यह याद रखना जरूरी है कि ‘अनुभूति’ और ‘अनुभव’ दो भिन्न चीजें हैं। जहां अनुभूति व्यक्ति की भावनात्मक मनोदशा को सूचित करने वाला शब्द है, जिसका संबंध क्षण विशेष से है, वहीं अनुभव अतीत की घटनाओं से व्यक्ति जो कुछ सबक हासिल करता है, उसका पयार्य है। कभी-कभी ‘अनुभव’ का इस्तेमाल घटनाओं पर व्यक्ति की समग्र प्रतिक्रिया को बताने के लिए भी किया जाता है, लेकिन यह ‘भावनात्मक’ ‘मनोदशा’ का पयार्य नहीं होता। जहां अनुभूति एक अस्थाई भावनात्मक मनोदशा है, वहीं अनुभव अपेक्षाकृृत दीर्घ और स्थाई होते हैं और उसका एक ज्ञानात्मक मूल्य भी होता है। इसीलिए ‘तुम्हारे पास अभी अनुभव ही कितना है’ ‘तुमने अपने अनुभवों के क्या लाभ उठाया’ जैसे प्रयोग अकसर सुनने को मिलते हैं, जब कि अनुभूतियों के बारे में इस तरह की बात नहीं की जाती। अनुभूतियां ‘गहरी’ होती है, ‘तीव्र’ होती है। साहित्य के प्रसंग में अनुभूति और अनुभव के बीच एक महत्वपूर्ण भेद यह होता है कि अनुभूतियंा भाषा से परे होती हैं, जबकि ज्ञानात्मक पक्ष से संबंधित होने के चलते जहंा वह घटनाओं की स्मृति से जुड़ा होता है वहीं विचारों से भी। अनुभूतियंा केवल महसूस की जा सकती हैं, जबकि अनुभव बनाये जा सकते हैं, साझा किये जा सकते है। अनुभूतियां गंूगे का ‘गुड़’ है।
अनुभूतियों की दूसरी समस्या यह है कि वे व्यक्तिगत होती हैं, ऐसे में लेखक अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों की बात तो कर सकता है, लेकिन उन्हें किसी समुदाय के साथ कैसे जोड़ा जा सकता है? इसके साथ सवाल यह भी है कि कोई दलित शहर में रहता है, कोई गांव में। उनमें आर्थिक भेद भी हैं अगर हम कंवल भारती के तर्क को दुबारा याद करें कि दलित जीवन की पीड़ा की जैसी अनुभूति एक दलित को होती है, वैसी अनुभूति एक सवर्ण को नहीं हो सकती तो हम कह सकते हैं कि जातिगत भिन्नता के चलते एक भंगी के जीवन की पीड़ा को एक चमार वैसे ही नहीं महसूस कर सकता। एक ही समुदाय का होने के बावजूद अलग-अलग व्यक्तियों की अनुभूति की गहराई में फर्क होता है।
साहित्य के प्रसंग में अनुभूतियों की चर्चा क्यों की जाती है। किसी कृति में अनुभूति कहां और कितनी मात्रा में होती है- इस तरह के सवाल इस बहस में नहीं उठाये गये है’। निःसंदेह साहित्य एक बौद्धिक उत्पाद है और ठीक इसीलिए उसमें मानवीय चेतना के विविध पहलुओं अनुभव, कल्पना, ज्ञान, विचारधारा, कामना इत्यादि की भूमिका होती है, इस लिहाज से अनुभूति के महत्व पर कोई संदेह नहीं है। समस्या तब होती है कि जब अनुभूति को साहित्य का एकमात्र या सबसे महत्वपूर्ण कारण बना दिया जाता है, जब साहित्यिक कृति को भी अनुभूतियों का पंुज भर मान लिया जाता है। साहित्य को मनोरोगों का उत्पाद मानना एक रोमैंटिक धारणा है, याद करे वड्सवर्थ के प्रसिद्ध कथन ‘च्वमजतल पे ेचवदजंदपवने वअमतसिवू व िचवूमतनिसस पउवजपवदश् जिस पर व्यंग्य करते हुए मलार्मे में कहा था कि ‘कविता भावनाओं से नहीं, शब्दों से रची जाती है।
शब्दों से रचे होने के चलते ही साहित्य का अपना विशिष्ट स्वभाव निर्मित होता है। वह एक सहज नहीं सायास प्रक्रिया का परिणाम होता है। साहित्य अनुभूति नहीं है, वह एक सायास अभिव्यक्ति है और इस अभिव्यक्त प्रक्रिया में ही अनुभव से अलगाव उत्पन्न होता है। रोमैंटिक धारणाओं से संघर्ष करते हुए इलियट ने भोला मानस और रचयिता मानस के बीच की दूरी को महत्वपूर्ण माना था और कहा था कि जितनी ही अधिक श्रेष्ठ रचना होगी, यह दूरी उतनी ही अधिक होगी। ऐसा नहीं है कि इस अंतर पर केवल इलियट ने ही जोर दिया। जीवनानुभूति और कलानुभूति के जटिल और गहरे रिश्ते पर बल देने वाले मुक्तिबोध ने भी कला के तीन क्षेत्रों- अनुभव का क्षण, अनुभव के अपने दुखते- कसकते मूलों से अलगाव का क्षण और रचना का क्षण- की चर्चा की है। इस अलगाव के जरिये ही, रचनाकार अपने व्यक्तिगत अनुभवों को सावजनिक अनुभव में तब्दील कर पाता है।
दलित लेखक अपने साहित्य को प्रामाणिक अनुभूतियों का साहित्य बताते हैं, उनकी नीयत पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है, फिर भी सवाल है कि क्या लेखक के दावा कर देने भर से उसके साहित्य के पीछे प्रेरक अनुभूतियां प्रामाणिक मान ली जाय? फिर क्या कोई लेखक ऐसा होगा जो अपनी अनुभूति को प्रामाणिक न कहें? और सबसे बड़ा सवाल यह है कि लेखक के दावे से इतर पाठक के पास कृति के अलावा और कौन सा ऐसा तरीका है, जिससे वह उसकी तथाकथित ‘प्रामाणिकता’ की जंाच कर सकें? और अगर जंाच का आधार कृति ही है तो फिर लेखक की अनुभूति की चर्चा ही क्योें करें? यह ध्यान देना चाहिए कि कई बार दलित आत्मकथाओं तक में व्यक्त प्रसंगों की सच्चाई पर स्वंय दलित लेखकों ने संदेह प्रकट किया है। केवल दलित हो जाने भर से इस बात की कोई गारंटी नहीं की जा सकती कि दलित साहित्यकार जो कुछ लिख रहे हैं वह सब सच और प्रामाणिक ही है। सूर्यनारायण रणसुभे ने लिखा है – यह जरूरी नहीं कि दलित जो कुछ भी लिखता है वह सब सच ही हो। यह महत्वपूर्ण है कि किसी भी लेखक को रचना कर्म की एक पूरी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इसलिए कोई भी लेखक ऐसे ही रचना कर्म नहीं कर देता है, इसकी एक पूरी प्रक्रिया होती है। साहित्य सृजन में स्मृति का विशेष महत्व है। हम जो कुछ देखते हैं, उसको तुरंत ही सृजनात्मक लेखन का विषय नहीं बना देते। वह सब हमारी स्मृति में संचित रहता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब हम लिखने बैठते हैं, तो अपने सारे अनुभवों को लेखन का विषय नहीं बनाते। हमारी दृष्टि चयनात्मक होती है। हम कुछ खास अनुभवों का चयन कर उनसे संबंधित तथ्यों की स्वयं (कभी-कभी अपनी मर्जी अनुसार भी) व्याख्या करते हैं। इस प्रक्रिया में कुछ तथ्यों की निर्मिति भी करते हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि चयन, व्याख्या और निर्मिति से युक्त इस प्रक्रिया में अनुभूति कितनी प्रामाणिक रह जाती है। यह महत्वपूर्ण है कि ‘अनुभूति’ और ‘अभिव्यक्ति’ के बीच रचना-प्रक्र्रिया से जुड़ी कुछ अवस्थाएं होती हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। नामवर सिंह ने ठीक ही लिखा है ‘‘दलितों को एहसान की जरूरत नहीं है। पर यह विचारणीय जरूर है कि दलित साहित्य लिखने के लिए क्या दलित जीवन के यथार्थ से एक तरह की दूरी या तटस्थता जरूरी नहीं है?’’ नामवर सिंह का यह मत भी उचित है कि ‘ट्रेजेडी में होकर ट्रेजेडी लिख पाना कठिन है’। कंवल भारती ने इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा कि दूरी और तटस्थता गैर दलितों के यहां होती है और
यह सोच ही दलित और सवर्ण साहित्य के बीच की विभाजक रेखा है।… कल्पना की जरूरत प्रतीक या बिम्ब-संयोजन के लिए हो सकती है, पर अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए नहीं। दलित साहित्य का प्रमुख तत्व अनुभूति ही है और यह दलित जीवन को जीकर ही प्राप्त होती है, उसके साथ दूरी या तटस्थता बरतकर नहीं
कोई लेखक उसी समय जब उस पर अन्याय, दमन या अत्याचार हो रहा हो, अपने अनुभवों को अभिव्यक्ति नहीं दे देता है। सबसे पहले उसका उस यथार्थ से तटस्थ होना जरूरी होता है तभी उस पर विचार करना संभव हो पाता है। निराला द्वारा लिखी गई कविता सरोज-स्मृति उनकी बेटी सरोज की अकाल मृत्यु के समय की ट्रैजिक अवस्था में नहीं लिखी गई थी, वे लिख भी नहीं सकते थे। उस स्थिति के पश्चात अपने आप को तटस्थ और व्यवस्थित करने के बाद ही अपने भीतर की पीड़ा, अन्तद्र्वन्द्वों और उस समय के अनुभवों को उन्होंने कविता में मार्मिक ढंग से शब्दबद्ध किया था। ठीक उसी प्रकार दलित जीवन की पीड़ा की अभिव्यक्ति करने में भी विचारों को संग्रहित, व्यवस्थित और फिर अभिव्यक्त करने की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रक्रिया में कहना न होगा कि वे सारी बातें वैसे ही अभिव्यक्त नहीं हो सकती हैं जैसी कि अनुभूत की गईं थी। कुछ बातें अपनी याददाश्त और अनुमान के आधार लिखी जाती हैं और उसमें कल्पना का पुट भी आना स्वाभाविक ही है।
अनुभूति चाहे सुन्दर हो चाहे कुरूप, चाहे सुखद हो चाहे त्रासद, अपने आप में साहित्य नहीं होती। अनुभूति के स्तर से ही साहित्य की श्रेष्ठता नापने वाले अभिव्यंजनावादी कहे जाते हैं। अनुभूति सबको होती है, लेकिन सभी साहित्यकार नहीं होते। साहित्यकार तो वही होता है जो अपने वास्तविक अथवा कल्पित अनुभव को शब्दों के माध्यम से इस तरह प्रस्तुत करता है कि वह पाठक में भी संवेदना जगा दे। अनुभूति लेखक के पास भी होती है और पाठक के पास भी, लेकिन मध्यस्थता साहित्य करता है, साहित्यिक कृति कोई जीवित मनुष्य नहीं होती, शब्दों से रचित कृति में अनुभूतियंा नहीं होती। उसमें वर्णन होते हैं, घटना प्रसंगों, चरित्र और परिस्थितियों और घटना प्रसंगों के विश्वसनीय और मार्मिक वर्णन ही पाठक को उद्वेलित करते हैं, आप जूठन या तिरस्कृत या किसी भी रचना को याद कीजिये, आपको प्रभावशाली अंश किसी घटना प्रसंग या परिस्थिति के ही लगेगें, किसी अनुभूति वर्णन के नहीं। प्रभावशीलता लेखक की व्यक्तिगत अनुभूति पर नहीं, बल्कि कृति में प्रस्तुत ‘वर्णन’ पर निर्भर करती है। इसीलिए अगर पूर्वग्रहों को छोड़ कर वस्तुगत निर्णय करना हो तो बात अनुभूति की नहीं, अभिव्यक्ति की होनी चाहिए। इस प्रसंग में कवितेन्द्र इन्दु ने बिल्कुल ठीक पहचाना है कि
अगर साहित्य की साहित्यिकता ‘भाषा के सूचनात्मक प्रयोग की बजाय ‘सर्जनात्मक-प्रयोग’ तथा इस प्रयोग के माध्यम से एक की संवेदना को दूसरे तक पहंुचाने (संवेदना विस्तार, परकाया प्रवेश) से तय होती है-और आत्मकथा भी साहित्य ही है- तो मानना पड़ेगा कि आत्मकथा के लिए भी सिर्फ अनुभूति की प्रामाणिकता ही पर्याप्त नहीं होती, उसकी अभिव्यक्ति भी प्रामाणिक होनी चाहिए।
अनुभूति या अनुभव रचना के लिए पृष्ठभूमि का ही काम करते हैं। अनुभूति और अनुभव तो सभी के पास होते हैं और अगर प्रामाणिक अनुभूति ही सबसे बड़ा प्रतिमान है तो फिर मध्यवर्गीय दलित रचनाकारों की अनुभूति ही क्यों महत्वपूर्ण हो, क्या दलितों में ही उनसे अधिक शोषित -उत्पीड़ित और असहाय लोग आज भी यातना भरी जिन्दगी नहीं गुजार रहें हैंै। फिर साहित्य की क्या जरूरत है और साहित्यिक आलोचना भी क्यों की जाय। झज्झर, गुहाना और खैरलंाजी के दलितों की अनुभूतियां क्या दलित आत्मकथाकारों से कम भयावह, कम ‘प्रामाणिक’ रही हांेगी ? निस्संदेह उसकी चर्चा होनी चाहिए, हुई भी है, लेकिन वह साहित्य नहीं अखबारी चर्चा थी। उसमें सूचना थी, संवेदना नहीं। यही वजह है कि हम जितनी सहानुभूति के साथ आत्मकथाकारों को देखते हैं, उतनी सहानुभूति अखबार में भयावह उत्पीड़न के शिकार लोगोें की खबर पढ़कर नहीं उमड़ती। क्या यह दलित साहित्यकारों का कर्तव्य नहीं है कि अपने साहित्य से उन घटनाओं की भयानकता की और लोगों का ध्यान खींचे। पूछा जाना चाहिए कि इतनी वीभत्स अमानवीय घटना के बावजूद दलित लेखकों ने उसे आधार बनाकर कोई रचना क्यों नहीं की ? क्या वह कम मार्मिक और त्रासद होती, क्या वह दलित अंादोेलन के लिए हानिकारक होती ? या कि वह हमारे दलित लेखकों का भोगा हुआ यथार्थ न होने के कारण ‘काल्पनिक’ होती और इसीलिए उपेक्षणीय भी होती?
उत्पीड़न के विरूद्ध न्याय के लिए, क्षति के विरूद्ध क्षतिपूर्ति के लिए संघर्ष करना जितना जरूरी है, उतना ही ज्यादा जरूरी है ऐसे अत्याचारों के विरूद्ध लोगो को संवेदनशील बनाना। साहित्य इसी भूमिका को निभाता है, यही उसका महत्व है। आलोचना का दायित्व साहित्य को उसकी भूमिका याद दिलाना है। ‘प्रामाणिक अनुभूति’ पर जोर देकर लोगों में संवेदनशीलता पैदा करना संभव नहीं है, यह काम केवल ‘प्रामाणिक अभिव्यक्ति’ के जरिए किया जा सकता है। वास्तविक जीवन और साहित्य के संबंध और अंतरों को पहचानना बेहद जरूरी है, अन्यथा हम संघर्ष के मोर्चें पर पलायन करेंगे और साहित्य सृजन में जहां संवेदनशील और प्रामाणिक चित्रण की जरूरत होती है- क्रंातिकारी वक्तव्य देकर खुद को ‘क्रंातिकारी’ और अपने साहित्य को ‘महान’ सिद्ध कर देंगे। अनुभूति (वास्तविक जीवन मेें उत्पीड़न) और अभिव्यक्ति (उत्पीड़न का वर्णन) संघर्ष के दो भिन्न मोर्चों से संबंधित हैं, इस फर्क को पहचानते हुए कवितेन्द्र इन्दु ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि
हकीकत तो यही है कि साहित्य का सृजन जब भी किया जायेगा, दूसरों (पाठकों) को केन्द्र में रखकर ही । इसलिए अनुभूति की प्रामाणिकता का प्रश्न उत्पीड़ितों को उत्पीड़न का मुआवजा देते समय उठना ही चाहिए लेकिन साहित्य की चर्चा करते समय तो यक्ष प्रश्न यही होगा कि जिस अनुभूति को व्यक्त करने का दावा आप कर रहे हैं, वह कितनी विश्वसनीय और मार्मिक बन पाई है। किसने कितना अनुभव किया है, यह आप का व्यक्तिगत मामला हो सकता है लेकिन किसकी अभिव्यक्ति भोगे हुये अथवा कल्पित (क्योंकि साहित्य में सिर्फ आत्मकथायें ही नहीं होती) अनुभव का पाठक के मानस में पुनसृर्जन कर सकती है, चर्चा इस पर भी होनी चाहिए-दुर्भाग्य से होती नहीं हैं।
दलित लेखकों द्वारा ‘अभिव्यक्ति की प्रामाणिकता’ की चर्चा नहीं होती लेकिन ऐसा ‘दुर्भाग्यवश’ नहीं, बल्कि एक रणनीति के तहत होता है। अभिव्यक्त से जुड़े सवालों पर चर्चा करने पर आपको साहित्य के प्रतिमानों की समस्या से जूझना पड़ेगा। तब आप की रचना केवल ‘दलित साहित्य’ होने भर से श्रेष्ठ नहीं हो जायेगी बल्कि भाषा, शिल्प, संरचना, विचारधारा और यथार्थपरकता के सवालों के ठोस धरातल पर आपको अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करनी पड़ेगी। जाहिर है कि इन क्षेत्रों में दलित लेखकों को अभी और अभ्यास की जरूरत है, इसलिए श्रेष्ठ रचना के जरिये विरोधियों का मंुह बंद करने को श्रम साध्य मार्ग अपनाने की बजाय अधिकांश दलित लेखक ‘अनुभूति’ का सवाल उठाकर अपने विरोधियों को ही कठघरे में खड़ा करने का आसान मार्ग चुनना अधिक पसंद करते हैं। दलित साहित्य: ‘प्रामाणिकता’ पर पुनर्विचार
जयसिंह मीणा anubhuti ki pramanikata hindi dalita alochana ka paribhashika pada hai| anubhuti ki pramanikata ya ‘bhoge hue yathartha’ ka savala nayi kavita-kahani ke daura mem bhi utha tha| lekina vaham rachanakarom ne madhyavargiya jivana-anubhavom taka simita rahane ke auchitya nirupana ke taura para ise tarka banaya tha, jabaki anubhuti ki pramanikata dalita vimarsha ke lie naitika adhara bhi hai aura rananaitika adhara bhi| isa tarka se hi dalita lekhaka-alochaka apane lekhana ki vishishta yatharthaparakata ko bhi rekhamkita karate haim aura isi ke adhara para gaira dalita lekhakom ko dalita sahitya ke lekhana ke liye ayogya thaharate hue unake lekhana ko ‘sahanubhuti’ taka simita kara dete haim| jyadatara dalita lekhakom-alochakom ko to choड़ hi diya jaya jo sidhe-sidhe jati ke adhara para sahitya ki samvedana ka nirdharana karate haim, lekina jaba gambhira alochaka bhi gaira dalita lekhakom ki anubhuti para savala uthate haim to mamala gambhira ho jata hai| kamvala bharati bhi jo ki gaira dalita lekhakom ke dalita vishayaka lekhana ka mahatva svikarane ke mamale mem samkirna nahim hamai, savarna aura dalita lekhana ke bicha bheda karate haim| unaka kahana hai ki dalita samasyaom para gaira dalita lekhaka ‘‘jarura likha sakate haim, unhomne likha bhi hai aura ve likha bhi rahe haim| para savala anubhutiyom aura chimtana ka hai| dalita jivana ki piड़a ki jaisi anubhutiyama eka dalita ko hoti haim, vaisi anubhutiyama eka savarna ko nahim ho sakati|’’ isa uddharana mem bhi hama dekha sakate haim ki halamki kamvala bharati anubhuti aura chimtana donom ka savala uthate haim lekina bhinnata kevala anubhuti ki hi dikhate haim| yaha sacha bhi hai| chimtana ke stara para ashvaghosha se lekara phule aura adhunika kala mem rahula ji tatha kai anya makrsavadi gaira dalita lekhakom ka nama liya ja sakata hai jinhomne jativada ke khilapha gambhira vaicharika laड़ai laड़i hai| lekina anubhuti ke stara para kisa ki anubhuti pramanika thi kisa ki nahim, kaha nahim ja sakata| baharahala, agara sahitya ka svarupa nirdharita karane mem ‘anubhuti’ ka mahatva itana adhika hai (jitana dalita lekhaka batate haim) to use gambhiratapurvaka vishleshana ka vishaya banaya jana chahie tha, lekina aisa hua nahim| ‘anubhuti ki pramanikata’ dalita lekhana ka avyakhyayita bija shabda hai, isase juड़i samasyaom ko samajhane ke lie hamem dalita sahitya se juड़e kucha aise pahaluom para dhyana dena hoga, jo prathama drrishtya aprasamgika maluma hote haim|
dalita sahitya vyapaka dalit andolana ka hi eka mahatvapurna anga hai| dalita amdolana ne agara jati vyavastha ke viruddha samgharsha ki jaruratom ko remkhakita kiya to dalita sahitya ne jati vyavastha ki krurataon, kurupataon aura karya paddhati ko usake bhayavahatama rupa mem logom ke samane rakha| jativada kevala eka vaichariki nahim hai, vaha eka sampurna bhava bodha hai, atah usake samula nasha ke lie jativada ke prati kevala bauddhika asahamati ka hona aparyapta hai, bahuta bara aisa dekha gaya hai ki vaicharika rupa se jati-pamati ko galata manane ke bavajuda loga samskaravasha vyavahara mem usaka palana karate haim| isa amtavirodha se mukti tabhi sambhava hai jaba vyakti bauddhika hi nahim bhavanatmaka rupa se bhi jativada ke khilapha ho| samskarom ko badalana, vicharom ko badalane ki apeksha kahim adhika mushkila hai| dalita sahitya ko jativada ke khilapha isi bhavanatmaka akrosha ko udvelita karane ka shreya jata hai| jatigata bhedabhavom, atyacharom aura yatanaom ke vibhinna rupom ko vicharom ke dharatala para nahim, balki paristhitiyom aura ghatanaom ki shakla mem vishvasaniya aura jivamta dhamga se amkita karake dalita sahitya ne pathakom ke amtarmana ko jhakajhora diya| dalita sahitya ne bharatiya samaja ke usa vibhatsa pahalu ke prati logom mem bechaini paida ki, jise ya to (savarna) anadekha kara rahe the, athava (dalita) apane jivana ki niyati manakara svikara kara chuke the| aise mem dalita sahityakarom ka yaha dava ki unhomne apani rachanaom mem bharatiya samaja ke yathartha ko prastuta kiya hai, bilkula sahi hai|
sahitya ke prasamga mem yaha bata gauratalaba hai ki usaki prabhavashilata paristhitiyom aura vyaktiyom kee vishvasaniya pratinidhika chitrana para nirbhara karati hai- tathyaparakata para nahim| sahitya mem vyakta hone vala yathartha parivesha aura samvedana ka yathartha hota hai, tathyom ka yathartha nahim| isilie kalpanika vyaktiyom aura ghatanaom ko upajivya banane ke bavajuda koi shreshtha rachana pathaka ko rone ke lie vivasha kara sakati hai, jabaki kisi trasada ghatana ki tathyaparaka suchana dene vala akhabara vaisa prabhava kabhi nahim paida kara sakata| karana yaha hai ki akhabara (ya anya vaicharika anushasanom) mem varnita ghatanayame aura vyakti tathyaparaka rupa se vastavika hone ke bavajuda apane manaviya pahaluom aura samvedanashila ditelsa se vamchita kara diye jate haim, jabaki sahitya ka jora sabase adhika isi pahalu para hota hai| sahitya ki yatharthaparakata isa bata para nirbhara nahim karati ki kisa ghatana ya vyakti ka varnana krriti mem hua hai, ki sabhi suchanaom aura taphasilem puri taraha sachchi haim ya nahim, balki usaki yatharthathata isa bata para nirbhara karati hai ki vaise sambamdha, parivesha aura ghatanayem samaja mem hoti haim ya nahim| isilie sahitya kisi vyakti vishesha ka sacha na hokara eka samajika satya bana jata hai aura yahi vajaha hai ki koi vyaktigata sambamdha na hone ke bavajuda pathaka krriti ke parivesha aura patrom se tadatmya svikara kara leta hai| dalit vimarsh narivad stri vimarsh marxvad, article alochana,
atmakathayem dalita sahitya ke kendra mem haim, hindi dalita sahitya mem to dalita atmakathayem dalita sahitya ke paryaya ke taura para dekhi jati haim| lekhaka-alochaka dalita sahitya ki vishishtataom aura upalabdhiyom ki charcha karate samaya prayah atmakathaom ki charcha kara rahe hote haim| isake kucha phayade haim to isase kucha ulajhane bhi paida hui haimaiai| atmakatha isa lihaja se eka vishishta vidha hai ki usaka eka chora agara sahitya se juड़ta hai to dusara chora itihasa se| agara usamem sahitya ki sarjanatmaka samvedana hoti hai to itihasa ki tathyaparakata bhi| atmakatha lekhaka ke jivana ka itihasa hi hai| yani atmakathayem samvedana aura parivesha ke stara para yatharthata ka dava to karati hi haim, vyaktiyom aura ghatanaom ki tathyaparaka sachchai ka bhi dava karati haim| isa visheshata ke chalate hi ve dalita amdolana ki riढ़ bana gaim, kyomki unhomne pathakom ko vishvasa dilaya ki ve jisa lomaharshaka, vibhatsa aura bhayavaha varnana ko paढ़ rahe haim, vaha koi kalpa srrishti nahim, balki eka vyakti aura usake samudaya ki apa biti haim| apani isa vishishtata ke karana dalita atmakathayem dalita samudaya ke parivesha, samskrriti, shoshana aura yatana ka pramanika dastaveja mani jati haim|
bharatiya samaja ke yathartha ki pramanika prastuti ke dalita sahityakarom ke dave ko atmakathaom ne siddha kara diya| lekina yahim eka samasya bhi paida hui| atmakatha eka vastavika vyakti ka jivana hota hai| isalie lakshya spashta na hone ya asavadhani hone ki sthiti mem atmakathaom ka lekhana aura pathana bahuta asani se vyaktivada ka shikara ho sakata hai| adhikamsha savarna atmakathayeem isi karana atmamugdhata ka shikara haim|atmakathaon ko kendra me rakhane se dalit sahitya ke prasamga mem samasya yaha paida hui ki dalita lekhakom- alochakom ne ‘yathartha ki pramanikata’ ki bajaya ‘anubhuti ki pramanikata’ ka dava kiya| isa dave ka eka rananitika pahalu bhi tha, jisake chalate yaha gambhira bahasa ka kshetra bana gaya| savarna lekhakom ke dalita vishayaka lekhana ko dalita sahitya ka amga manane ki vakalata karane valom ne isa bata para jora diya ki pratibaddhata aura nirikshana ke sahare gaira dalita lekhaka bhi dalita jivana se sambamdhita shreshtha rachana de sakata hai| bata tarkika rupa se bilkula sahi hai, savala yaha hai ki jativada ke khilapha dalita lekhakom jaisi ekasutriya pratibaddhata aura vaisa sukshma amtaramga nirikshana kisa savarna lekhaka ke sahitya se milata hai? lekina yaha savala uthane ki bajaya dalita lekhakom- alochakom ne ‘anubhuti ki pramanikata’ ka savala uthaya| isaka saba se baड़a labha yaha tha ki yaha bina kisi lambi bahasa ke eka jhatake mem sare savarnom ko dalita sahitya ke lekhana ke lie ayogya siddha kara deta tha| jisane vyaktigata rupa se khuda dalita jivana ke apamana aura atyachara ko nahim anubhuta kiya hai, jaba use usa anubhuti ka pata nahim to vaha kisi dalita nayaka ka dalita patra ke amtarmana ki anubhutiyom ko kaise vyakta kara payega? aise mem vaha jo kucha likhata hai vaha ya to pharji anubhuti hogi ya phira sahanubhuti! aura ye donom hi sthitiyama dalita sahitya ke pakshadharom ko ekadama asvikara haim| gaira dalita lekhakom ke lekhana para uthai gayi ye apatti saiddhamtika kisma ki hai| isa para jaisa chimtana manana hona chahie tha, bilkula nahim hua| jahama dalita lekhakom ne apane paksha mem hone ke chalate isa tarka ko alochanatmaka dhamga se parakhane ki jarurata nahim samajhi, vahim gaira dalita lekhakom ke pakshadharom ne ‘anubhuti ki pramanikata’ ke savala se ya to takarane ki himmata hi nahim dikhai, ya usa para satahi tippaniyama kara ke age baढ़ gaye| udaharana ke lie ajaya tivari ne likha hai ki
svanubhuti para bala mulatah astitvavadi dharana hai aura astitvavada pumjivadi vicharadhara hai| svanubhuti vala tarka nayi kavita ka tarka hai – anubhuti ki pramanikata| yahi tarka dalita lekhakom ka hai kyomki hama dalita haim| isaliye usaka pramanika anubhava hamem nahim hai, usa para sachchi pratikriya hama hi vyakta kara sakate haim aura shayada isi karana sahitya ki nahim, dalita sahitya ki bata ki jati hai| use apa dalita abhivyakti kahem; dalita sahitya kahane para kyom jora hai?
‘anubhuti ki pramanikata’ pujivadi vicharadhara kaise hai? yaha batane ki jahamata ajaya tivari kyom uthayem, jo bhi chija asuvidhajanaka lage use pamujivada se joड़ kara kharija kara dena kucha alochakom ke lie eka suvidhajanaka rasta hai| agara mana bhi lem ki ‘anubhuti ki pramanikata’ eka pamujivadi vicharadhara hai to kya usase usa apatti ka hala nikala ayega jo dalita lekhakom ne uthai hai? ya ki ‘atma’ ko dhuढ़ nikalane bhara se ‘ina vimarshom dvara uthaye gayem gambhira savalom para vichara karane ki jarurata khatma ho jayegi?
isa bahasa ke prasamga mem yaha yada rakhana jaruri hai ki ‘anubhuti’ aura ‘anubhava’ do bhinna chijem haim| jaham anubhuti vyakti ki bhavanatmaka manodasha ko suchita karane vala shabda hai, jisaka sambamdha kshana vishesha se hai, vahim anubhava atita ki ghatanaom se vyakti jo kucha sabaka hasila karata hai, usaka payarya hai| kabhi-kabhi ‘anubhava’ ka istemala ghatanaom para vyakti ki samagra pratikriya ko batane ke lie bhi kiya jata hai, lekina yaha ‘bhavanatmaka’ ‘manodasha’ ka payarya nahim hota| jaham anubhuti eka asthai bhavanatmaka manodasha hai, vahim anubhava apekshakrrirrita dirgha aura sthai hote haim aura usaka eka j~nanatmaka mulya bhi hota hai| isilie ‘tumhare pasa abhi anubhava hi kitana hai’ ‘tumane apane anubhavom ke kya labha uthaya’ jaise prayoga akasara sunane ko milate haim, jaba ki anubhutiyom ke bare mem isa taraha ki bata nahim ki jati| anubhutiyam ‘gahari’ hoti hai, ‘tivra’ hoti hai| sahitya ke prasamga mem anubhuti aura anubhava ke bicha eka mahatvapurna bheda yaha hota hai ki anubhutiyama bhasha se pare hoti haim, jabaki j~nanatmaka paksha se sambamdhita hone ke chalate jahama vaha ghatanaom ki smrriti se juड़a hota hai vahim vicharom se bhi| anubhutiyama kevala mahasusa ki ja sakati haim, jabaki anubhava banaye ja sakate haim, sajha kiye ja sakate hai| anubhutiyam gamuge ka ‘guड़’ hai|
anubhutiyom ki dusari samasya yaha hai ki ve vyaktigata hoti haim, aise mem lekhaka apani vyaktigata anubhutiyom ki bata to kara sakata hai, lekina unhem kisi samudaya ke satha kaise joड़a ja sakata hai? isake satha savala yaha bhi hai ki koi dalita shahara mem rahata hai, koi gamva mem| unamem arthika bheda bhi haim agara hama kamvala bharati ke tarka ko dubara yada karem ki dalita jivana ki piड़a ki jaisi anubhuti eka dalita ko hoti hai, vaisi anubhuti eka savarna ko nahim ho sakati to hama kaha sakate haim ki jatigata bhinnata ke chalate eka bhamgi ke jivana ki piड़a ko eka chamara vaise hi nahim mahasusa kara sakata| eka hi samudaya ka hone ke bavajuda alaga-alaga vyaktiyom ki anubhuti ki gaharai mem pharka hota hai|
sahitya ke prasamga mem anubhutiyom ki charcha kyom ki jati hai| kisi krriti mem anubhuti kaham aura kitani matra mem hoti hai- isa taraha ke savala isa bahasa mem nahim uthaye gaye hai’| nihsamdeha sahitya eka bauddhika utpada hai aura thika isilie usamem manaviya chetana ke vividha pahaluom anubhava, kalpana, j~nana, vicharadhara, kamana ityadi ki bhumika hoti hai, isa lihaja se anubhuti ke mahatva para koi samdeha nahim hai| samasya taba hoti hai ki jaba anubhuti ko sahitya ka ekamatra ya sabase mahatvapurna karana bana diya jata hai, jaba sahityika krriti ko bhi anubhutiyom ka pamuja bhara mana liya jata hai| sahitya ko manorogom ka utpada manana eka romaimtika dharana hai, yada kare vadsavartha ke prasiddha kathana ‘chvamajatala pe echavadajamdapavane vaamatasivu va ichavumatanisasa pauvajapavadash jisa para vyamgya karate hue malarme mem kaha tha ki ‘kavita bhavanaom se nahim, shabdom se rachi jati hai|
shabdom se rache hone ke chalate hi sahitya ka apana vishishta svabhava nirmita hota hai| vaha eka sahaja nahim sayasa prakriya ka parinama hota hai| sahitya anubhuti nahim hai, vaha eka sayasa abhivyakti hai aura isa abhivyakta prakriya mem hi anubhava se alagava utpanna hota hai| romaimtika dharanaom se samgharsha karate hue iliyata ne bhola manasa aura rachayita manasa ke bicha ki duri ko mahatvapurna mana tha aura kaha tha ki jitani hi adhika shreshtha rachana hogi, yaha duri utani hi adhika hogi| aisa nahim hai ki isa amtara para kevala iliyata ne hi jora diya| jivananubhuti aura kalanubhuti ke jatila aura gahare rishte para bala dene vale muktibodha ne bhi kala ke tina kshetrom- anubhava ka kshana, anubhava ke apane dukhate- kasakate mulom se alagava ka kshana aura rachana ka kshana- ki charcha ki hai| isa alagava ke jariye hi, rachanakara apane vyaktigata anubhavom ko savajanika anubhava mem tabdila kara pata hai|
dalita lekhaka apane sahitya ko pramanika anubhutiyo ka sahitya batate haim, unaki niyata para samdeha karane ka koi karana nahim hai, phira bhi savala hai ki kya lekhaka ke dava kara dene bhara se usake sahitya ke piche preraka anubhutiyam pramanika mana li jaya? phira kya koi lekhaka aisa hoga jo apani anubhuti ko pramanika na kahem? aura sabase baड़a savala yaha hai ki lekhaka ke dave se itara pathaka ke pasa krriti ke alava aura kauna sa aisa tarika hai, jisase vaha usaki tathakathita ‘pramanikata’ ki jamacha kara sakem? aura agara jamacha ka adhara krriti hi hai to phira lekhaka ki anubhuti ki charcha hi kyoem karem? yaha dhyana dena chahie ki kai bara dalita atmakathaom taka mem vyakta prasamgom ki sachchai para svamya dalita lekhakom ne samdeha prakata kiya hai| kevala dalita ho jane bhara se isa bata ki koi garamti nahim ki ja sakati ki dalita sahityakara jo kucha likha rahe haim vaha saba sacha aura pramanika hi hai| suryanarayana ranasubhe ne likha hai – yaha jaruri nahim ki dalita jo kucha bhi likhata hai vaha saba sacha hi ho| yaha mahatvapurna hai ki kisi bhi lekhaka ko rachana karma ki eka puri prakriya se gujarana paड़ta hai| isalie koi bhi lekhaka aise hi rachana karma nahim kara deta hai, isaki eka puri prakriya hoti hai| sahitya srrijana mem smrriti ka vishesha mahatva hai| hama jo kucha dekhate haim, usako turamta hi srrijanatmaka lekhana ka vishaya nahim bana dete| vaha saba hamari smrriti mem samchita rahata hai| dhyana dene yogya bata yaha hai ki jaba hama likhane baithate haim, to apane sare anubhavom ko lekhana ka vishaya nahim banate| hamari drrishti chayanatmaka hoti hai| hama kucha khasa anubhavom ka chayana kara unase sambamdhita tathyom ki svayam (kabhi-kabhi apani marji anusara bhi) vyakhya karate haim| isa prakriya mem kucha tathyom ki nirmiti bhi karate haim| anumana lagaya ja sakata hai ki chayana, vyakhya aura nirmiti se yukta isa prakriya mem anubhuti kitani pramanika raha jati hai| yaha mahatvapurna hai ki ‘anubhuti’ aura ‘abhivyakti’ ke bicha rachana-prakrriya se juड़i kucha avasthaem hoti haim jinaki anadekhi nahim ki ja sakati| namavara simha ne thika hi likha hai ‘‘dalitom ko ehasana ki jarurata nahim hai| para yaha vicharaniya jarura hai ki dalita sahitya likhane ke lie kya dalita jivana ke yathartha se eka taraha ki duri ya tatasthata jaruri nahim hai?’’ namavara simha ka yaha mata bhi uchita hai ki ‘trejedi mem hokara trejedi likha pana kathina hai’| kamvala bharati ne isa para pratikriya vyakta karate hue likha ki duri aura tatasthata gaira dalitom ke yaham hoti hai aura
yaha socha hi dalita aura savarna sahitya ke bicha ki vibhajaka rekha hai|… kalpana ki jarurata pratika ya bimba-samyojana ke lie ho sakati hai, para anubhutiyom ki abhivyakti ke lie nahim| dalita sahitya ka pramukha tatva anubhuti hi hai aura yaha dalita jivana ko jikara hi prapta hoti hai, usake satha duri ya tatasthata baratakara nahim
koi lekhaka usi samaya jaba usa para anyaya, damana ya atyachara ho raha ho, apane anubhavom ko abhivyakti nahim de deta hai| sabase pahale usaka usa yathartha se tatastha hona jaruri hota hai tabhi usa para vichara karana sambhava ho pata hai| nirala dvara likhi gai kavita saroja-smrriti unaki beti saroja ki akala mrrityu ke samaya ki traijika avastha mem nahim likhi gai thi, ve likha bhi nahim sakate the| usa sthiti ke pashchata apane apa ko tatastha aura vyavasthita karane ke bada hi apane bhitara ki piड़a, antadrvandvom aura usa samaya ke anubhavom ko unhomne kavita mem marmika dhamga se shabdabaddha kiya tha| thika usi prakara dalita jivana ki piड़a ki abhivyakti karane mem bhi vicharom ko samgrahita, vyavasthita aura phira abhivyakta karane ki avashyakata paड़ti hai| isa prakriya mem kahana na hoga ki ve sari batem vaise hi abhivyakta nahim ho sakati haim jaisi ki anubhuta ki gaim thi| kucha batem apani yadadashta aura anumana ke adhara likhi jati haim aura usamem kalpana ka puta bhi ana svabhavika hi hai|
anubhuti chahe sundara ho chahe kurupa, chahe sukhada ho chahe trasada, apane apa mem sahitya nahim hoti| anubhuti ke stara se hi sahitya ki shreshthata napane vale abhivyamjanavadi kahe jate haim| anubhuti sabako hoti hai, lekina sabhi sahityakara nahim hote| sahityakara to vahi hota hai jo apane vastavika athava kalpita anubhava ko shabdom ke madhyama se isa taraha prastuta karata hai ki vaha pathaka mem bhi samvedana jaga de| anubhuti lekhaka ke pasa bhi hoti hai aura pathaka ke pasa bhi, lekina madhyasthata sahitya karata hai, sahityika krriti koi jivita manushya nahim hoti, shabdom se rachita krriti mem anubhutiyama nahim hoti| usamem varnana hote haim, ghatana prasamgom, charitra aura paristhitiyom aura ghatana prasamgom ke vishvasaniya aura marmika varnana hi pathaka ko udvelita karate haim, apa juthana ya tiraskrrita ya kisi bhi rachana ko yada kijiye, apako prabhavashali amsha kisi ghatana prasamga ya paristhiti ke hi lagegem, kisi anubhuti varnana ke nahim| prabhavashilata lekhaka ki vyaktigata anubhuti para nahim, balki krriti mem prastuta ‘varnana’ para nirbhara karati hai| isilie agara purvagrahom ko choड़ kara vastugata nirnaya karana ho to bata anubhuti ki nahim, abhivyakti ki honi chahie| isa prasamga mem kavitendra indu ne bilkula thika pahachana hai ki
agara sahitya ki sahityikata ‘bhasha ke suchanatmaka prayoga ki bajaya ‘sarjanatmaka-prayoga’ tatha isa prayoga ke madhyama se eka ki samvedana ko dusare taka pahamuchane (samvedana vistara, parakaya pravesha) se taya hoti hai-aura atmakatha bhi sahitya hi hai- to manana paड़ega ki atmakatha ke lie bhi sirpha anubhuti ki pramanikata hi paryapta nahim hoti, usaki abhivyakti bhi pramanika honi chahie|
anubhuti ya anubhava rachana ke lie prrishthabhumi ka hi kama karate haim| anubhuti aura anubhava to sabhi ke pasa hote haim aura agara pramanika anubhuti hi sabase baड़a pratimana hai to phira madhyavargiya dalita rachanakarom ki anubhuti hi kyom mahatvapurna ho, kya dalitom mem hi unase adhika shoshita -utpiड़ita aura asahaya loga aja bhi yatana bhari jindagi nahim gujara rahem haimai| phira sahitya ki kya jarurata hai aura sahityika alochana bhi kyom ki jaya| jhajjhara, guhana aura khairalamaji ke dalitom ki anubhutiyam kya dalita atmakathakarom se kama bhayavaha, kama ‘pramanika’ rahi hamegi ? nissamdeha usaki charcha honi chahie, hui bhi hai, lekina vaha sahitya nahim akhabari charcha thi| usamem suchana thi, samvedana nahim| yahi vajaha hai ki hama jitani sahanubhuti ke satha atmakathakarom ko dekhate haim, utani sahanubhuti akhabara mem bhayavaha utpiड़na ke shikara logoem ki khabara paढ़kara nahim umaड़ti| kya yaha dalita sahityakarom ka kartavya nahim hai ki apane sahitya se una ghatanaom ki bhayanakata ki aura logom ka dhyana khimche| pucha jana chahie ki itani vibhatsa amanaviya ghatana ke bavajuda dalita lekhakom ne use adhara banakara koi rachana kyom nahim ki ? kya vaha kama marmika aura trasada hoti, kya vaha dalita amadoelana ke lie hanikaraka hoti ? ya ki vaha hamare dalita lekhakom ka bhoga hua yathartha na hone ke karana ‘kalpanika’ hoti aura isilie upekshaniya bhi hoti?
utpiड़na ke viruddha nyaya ke lie, kshati ke viruddha kshatipurti ke lie samgharsha karana jitana jaruri hai, utana hi jyada jaruri hai aise atyacharom ke viruddha logo ko samvedanashila banana| sahitya isi bhumika ko nibhata hai, yahi usaka mahatva hai| alochana ka dayitva sahitya ko usaki bhumika yada dilana hai| ‘pramanika anubhuti’ para jora dekara logom mem samvedanashilata paida karana sambhava nahim hai, yaha kama kevala ‘pramanika abhivyakti’ ke jarie kiya ja sakata hai| vastavika jivana aura sahitya ke sambamdha aura amtarom ko pahachanana behada jaruri hai, anyatha hama samgharsha ke morchem para palayana karemge aura sahitya srrijana mem jaham samvedanashila aura pramanika chitrana ki jarurata hoti hai- kramatikari vaktavya dekara khuda ko ‘kramatikari’ aura apane sahitya ko ‘mahana’ siddha kara demge| anubhuti (vastavika jivana meem utpiड़na) aura abhivyakti (utpiड़na ka varnana) samgharsha ke do bhinna morchom se sambamdhita haim, isa pharka ko pahachanate hue kavitendra indu ne bilkula thika likha hai ki
hakikata to yahi hai ki sahitya ka srrijana jaba bhi kiya jayega, dusarom (pathakom) ko kendra mem rakhakara hi | isalie anubhuti ki pramanikata ka prashna utpiड़itom ko utpiड़na ka muavaja dete samaya uthana hi chahie lekina sahitya ki charcha karate samaya to yaksha prashna yahi hoga ki jisa anubhuti ko vyakta karane ka dava apa kara rahe haim, vaha kitani vishvasaniya aura marmika bana pai hai| kisane kitana anubhava kiya hai, yaha apa ka vyaktigata mamala ho sakata hai lekina kisaki abhivyakti bhoge huye athava kalpita (kyomki sahitya mem sirpha atmakathayem hi nahim hoti) anubhava ka pathaka ke manasa mem punasrrirjana kara sakati hai, charcha isa para bhi honi chahie-durbhagya se hoti nahim haim|
dalita lekhakom dvara ‘abhivyakti ki pramanikata’ ki charcha nahim hoti lekina aisa ‘durbhagyavasha’ nahim, balki eka rananiti ke tahata hota hai| abhivyakta se juड़e savalom para charcha karane para apako sahitya ke pratimanom ki samasya se jujhana paड़ega| taba apa ki rachana kevala ‘dalita sahitya’ hone bhara se shreshtha nahim ho jayegi balki bhasha, shilpa, samrachana, vicharadhara aura yatharthaparakata ke savalom ke thosa dharatala para apako apani shreshthata siddha karani paड़egi| jahira hai ki ina kshetrom mem dalita lekhakom ko abhi aura abhyasa ki jarurata hai, isalie shreshtha rachana ke jariye virodhiyom ka mamuha bamda karane ko shrama sadhya marga apanane ki bajaya adhikamsha dalita lekhaka ‘anubhuti’ ka savala uthakara apane virodhiyom ko hi kathaghare mem khaड़a karane ka asana marga chunana adhika pasamda karate haim| dalita sahitya: ‘pramanikata’ para punarvichara
jaysingh meena
hi pls see article.
I really appreciate the way author depicted the difference between feeling and experience.,Emotion and creativity, it is worth reading.