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पिछले कई वर्षों से डा. धर्मवीर स्त्री संबंधी अपने विचार को लेकर खासे चर्चित और विवादित रहे हैं, इस पुस्तक में उन्होंने अपने उस मिशन को और आगे बढ़ाया है। यह पुस्तक उनके विचारों के व्यक्तिगत स्रोतों को समझने के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने अपने वैवाहिक जीवन के तनाव भरे कुछ वर्षों के बारे में अपना पक्ष रखा है। हालांकि यह इकतरफा बयानबाजी है और पूरी सच्चाई तो तभी सामने आ सकती है, जब दूसरा पक्ष भी अपनी खामोशी तोड़े। इसी वर्ष अनिरुद्ध बुक्स से प्रकाशित रूप नारायण सोनकर का उपन्यास डंक आकार में छोटा होने के बावजूद विविध समस्याओं की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करता है। आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास प्रस्तुति के धरातल पर कुछ कमजोर पड़ जाता है। लेखक द्वारा बार-बार हस्तक्षेप करके मूल्य निर्णय देने तथा हर चीज की व्याख्या करने के चलते औपन्यासिक प्रवाह बाधित होता है।
दलित प्रश्न के संदर्भ में वर्ष 2010 में यह एक नई बात देखने को मिली है कि विमर्शपरक लेखन की ओर लेखकों का झुकाव बढ़ा है, जबकि सर्जनात्मक कृतियों की संख्या कम हुई है। हर बार की तरह उपन्यास विधा उपेक्षित ही रही है, लेकिन कहानियांे का अभाव नहीं रहा है। रजतरानी मीनू द्वारा संपादित कहानी संग्रह हाशिये से बाहर अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली से प्रकाशित हुआ। 22 कहानियों के इस संग्रह में एक तरफ जयप्रकाश कर्दम की नो बार, ओमप्रकाश वाल्मीकि की प्रमोशन तथा सुशीला टाकभौरे की कड़वा सच और साक्षात्कार जैसी अंतर्दृष्टिपूर्ण कहानियां शामिल हैं, तो दूसरी तरफ भीमसेन संतोष की समता और ममता तथा चन्द्रभान प्रसाद की चमरिया मइया का शाप जैसी विवादास्पद कहानियां भी शामिल हैं जिनमें स्त्री की छवि को बहुत गलत नजरिये के साथ पेश किया गया है। कुछ महत्वपूर्ण काव्य संग्रह इस वर्ष प्रकाशित हुए हैं। प्रगतिशील दलित कवि अर्जुन के दोहों का दूसरा संग्रह दो अक्षर सौ ज्ञान शिल्पायन दिल्ली से छपा है। इसका संकलन, पाठ निर्धारण, कठिन शब्दों की व्याख्या शंभुगुप्त ने की है। अर्जुन कवि के दोहे दलित आलोचना के समक्ष चुनौती हैं। इस पर आलोचकों को अपनी चुप्पी तोड़नी चाहिए। डाॅ. सुधीर सागर का कविता संग्रह बस! एक बार सोचो शिल्पायन बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसमें दलितों के साथ-साथ स्त्रियों और आदिवासियों की पीड़ा को भी व्यक्त करने का प्रयास किया गया है। विभिन्न उत्पीड़ित अस्मिताओं को साथ लेकर चलने की यह कोशिश निश्चित रूप से सराहनीय है।
वैचारिक पुस्तकों के लिहाज से वर्ष 2010 बेहद समृद्ध रहा है। दलित लेखकों ने अपनी ऊर्जा को केवल आक्रोश के रूप में व्यक्त करने की बजाय संतुलित दृष्टिकोण के साथ जटिल सवालों से जूझने में लगाया है। कुछ शोधपरक पुस्तकों का प्रकाशन भी इस वर्ष हुआ है। रजतरानी मीनू का पी एच डी शोध प्रबंध परिष्कृत रूप में अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रिब्यूटर्स से हिंदी दलित कथा साहित्यः अवधारणाएं और विधाएं नाम से छपा है। दलित साहित्य से जुड़े विभिन्न सवालों पर लेखिका ने संतुलित दृष्टिकोण और सटीक भाषा में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। सूरज बड़त्या ने अपने शोध प्रबंध को परिष्कृत और परिवर्धित रूप में सत्ता-संस्कृति और दलित सौंदर्यशास्त्र शीर्षक से प्रकाशित कराया है। दलित सौंदर्यशास्त्र की भिन्नता को दर्शाते हुए उन्होंने श्रम, संघर्ष, पक्षधरता और परिवर्तन को दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों के तौर पर देखने का प्रस्ताव किया है। अतिशय वर्ग केंद्रिकता और जाति के प्रश्न की उपेक्षा के लिये भारतीय माक्र्सवादियों की आलोचना करने के बावजूद उनका निष्कर्ष है कि दलित और वामपंथी वैचारिकी के साझे अभियान से ही सामाजिक परिवर्तन की आधारभूमि खड़ी की जा सकती है। कांतिमोहन ने अपनी अनुपलब्ध पुस्तक प्रेमचंद और अछूत समस्या (1982) को प्रेमचंद और दलित विमर्श शीर्षक से स्वराज प्रकाशन दिल्ली से पुनप्र्रकाशित कराया है। प्रेमचंद पर अंबेडकर के नेतृत्व मंय चल रहे आंदोलन के प्रभाव तथा क्रमशः गांधीवाद की वैचारिक जकड़बंदी से मुक्त होने की प्रक्रिया को प्रदर्शित करना लेखक का मुख्य ध्येय है। सामंतवाद, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के गठबंधन को दलित मुक्ति की राह में सबसे बड़ी बाधा बताते हुए लेखक ने इस समस्या का निदान ‘कृषि क्रांति’ में देखा है।
डाॅ. सेवा सिंह ने अपनी पुस्तक ब्राह्मणवाद और जनविमर्श आधार प्रकाशन हरियाणा में ब्राह्मणवादी विचारधारा के स्रोतों और षडयंत्रों को व्याख्यायित करते हुए प्रगतिशील शक्तियों (बौद्ध, जैन, चार्वाक, षडदर्शन तथा निर्गुण संतों) के साथ उसके टकरावों के इतिहास को सामने रखा है। डाॅ. सेवा सिंह का मानना है कि पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के रूप में उभरा नव उपनिवेशवाद ब्राह्मणवादी विचारधारा को मजबूती ही प्रदान कर रहा है। वे दलित, स्त्री, आदिवासी जनविमर्शों को ब्राह्मणवादी विचारधारा से मुक्ति के लिये ही नहीं, बल्कि नव उपनिवेशवाद की जकड़बंदी से मुक्ति के लिये भी जरूरी मानते हैं। अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रिब्यूटर्स से प्रकाशित अपनी पुस्तक मनुष्यता के आइने में दलित साहित्य का समाजशास्त्र में निरंजन कुमार जी ने भारतीय भाषाओं में दलित लेखन की पड़ताल करते हुए हिंदी में दलित मुद्दों पर छाई दीर्घकालीन चुप्पी की वजहों को समझने का प्रयास किया है। मौजूदा दौर में दलित विमर्श के उभार के सामाजिक कारणों पर विस्तृत चर्चा इस पुस्तक में मिलती है। भारतीय साहित्य एवं दलित चेतना ज्ञान प्रकाशन कानपुर से प्रकाशित हुई है। इसका संपादन डाॅ. धनंजय चैहाण और डाॅ. धीरज भाई वणकर ने किया है। पुस्तक के इकतालिस लेखों में विभिन्न भारतीय भाषाओं और राज्यों में दलित साहित्य की स्थिति की पड़ताल की गई है।
के.एस. तूफान के वैचारिक लेखों का संकलन सफाई का नरक लता साहित्य सदन, गाजियाबाद से प्रकाशित हुआ है। भारतीय राज्य और राजनीति के क्रूर व्यवहार के चलते स्वतंत्र भारत में भी सफाई कर्मी के तौर पर वाल्मीकि समुदाय के लोगों को जो नारकीय जीवन जीना पड़ा है उसकी मार्मिक पड़ताल करते हुए पुस्तक में इस समुदाय की बेहतरी के लिये विशेष प्रावधानों की मांग की गई है। दुसाध प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित पुस्तिका ब्राह्मण, बहुजन और आरक्षण में लेखक डाॅ. विजय कुमार त्रिशरण ने आरक्षण को लेकर चल रही बहस में मौलिक हस्तक्षेप किया है। वर्ण व्यवस्था को ब्राह्मणों की आरक्षण व्यवस्था बताते हुए लेखक ने याद दिलाया है कि हिंदू धर्म के इतिहास में मंत्री और पुरोहित के पद ब्राह्मणों के लिये ही आरक्षित रहे हैं। मेरिट के मिथक को तोड़ते हुए लेखक ने एक तरफ दलितों के शैक्षिक पिछड़ेपन के सामाजिक कारणों का संकेत किया है तो दूसरी तरफ सवर्णों को अपनी तुलना हार्वर्ड के विद्यार्थियों से करने का सुझाव देकर उन्हें आईना दिखाया है। जनहित अभियान और मानक पब्लिकेशंस, दिल्ली से प्रकाशित जातिवार जनगणनाः संसद, समाज और मीडिया शीर्षक पुस्तक में डाॅ. दिलीप मंडल ने जातिवार जनगणना के विरोधियों की धूर्ततापूर्ण नीयत को उजागर करते हुए, जाति आधारित जनगणना की जरूरत को रेखांकित किया है।
हिंदी में इस वर्ष कुछ अच्छी पुस्तकें अनुवाद के माध्यम से भी सामने आईं हैं। मराठी दलित लेखिका उर्मिला पवार की आत्मकथा का हिंदी अनुवाद आयदान वाणी, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है, अनुवादक हैं माधवी प्र. देशपांडे। दलित स्त्री के रूप में झेले गए अनुभवों की कथा तो इसमें है ही साथ ही एक पुत्री, पत्नी और मां के रूप में परिवार के भीतर की जटिल दुनिया का प्रामाणिक चित्र भी इसमें उकेरा गया है। उर्मिला पवार के लिये जितनी बड़ी सच्चाई पितृसत्ता है, उतनी ही बड़ी सच्चाई पारिवारिक संबंधों के प्रति उपजने वाली आत्मीयता भी है। इस आत्मकथा में पुत्र और पति की मृत्यु का विचलित कर देने वाला विवरण लेखिका ने दिया है।
आधुनिक भारत में दलितः दृष्टि और मूल्य दलितों के जीवन का समाजशास्त्रीय अध्ययन है, इसका प्रकाशन हुआ है रावत पब्लिकेशन से और अनुवादक हैं विजय कुमार पंत। एस. एम. माइकल द्वारा संपादित इस पुस्तक में समाजशास्त्र और नृतत्वशास्त्र से जुड़े पन्द्रह विद्वानों के गंभीर आलेख संकलित हैं। चार भागों में विभाजित इस पुस्तक में अस्पृश्यता की उत्पत्ति और विकास, दलित और अश्वेतों के जीवन संघर्ष और सामाजिक आंदोलनांे का तुलनात्मक अध्ययन तथा दलितों के भीतर पितृसत्ता के विकास में संस्कृतीकरण की भूमिका, जैसे मुद्दे शामिल हैं। अनुवाद और भाषा संबंधी अत्यधिक गलतियां इस गंभीर पुस्तक के महत्व को कम करती हैं। अमरीश हरदेनिया द्वारा अनूदित और उद्भावना, गाजियाबाद से प्रकाशित राम पुनियानी की पुस्तक दलित और हिंदुत्व दलितों की वर्तमान स्थिति का जायजा लेते हुए उनके ऊपर हिंदुत्ववादी राजनीति और विचारधारा के प्रभावों का विश्लेषण करती है।
दलित लेखकों की सक्रियता ने बहुत से हिंदीतर विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया है। इस वर्ष दलित प्रश्न से संबंधित कई गंभीर पुस्तकें अंग्रेजी में भी प्रकाशित हुई हैं। एस. क्लार्क तथा सहयोगियों द्वारा संपादित दलित थियोलाॅजी का प्रकाशन आॅक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस से हुआ है। इस पुस्तक में दलित जीवन से संबंधित धर्मशास्त्रीय समस्याओं का अध्ययन किया गया है। ईसाई विश्वासों की सापेक्षिकता में दलितों की समस्याओं को समझने के कई रोचक प्रयास इस पुस्तक में हैं। शोधपरक समाजशास्त्रीय लेखन के क्षेत्र में इम्तियाज अहमद तथा शशि भूषण उपाध्याय द्वारा संपादित दलित एसर्सन इन सोसाइटी, लिटरेचर एण्ड हिस्ट्री विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ओरियंट ब्लैकस्वान से प्रकाशित इस पुस्तक में चार खंड हैं, पहले तीन खंडों में क्रमशः समाज, साहित्य, इतिहास में दलितों की स्थिति और भूमिका तथा चैथे खंड में अल्पसंख्यक भारतीय समुदायों में जाति जैसी संस्थाओं की उपस्थिति को पहचानने का प्रयास किया गया है। पुस्तक के सभी लेख पठनीय हैं, लेकिन पद्मा वेलासकर का लेख ऐट द इंटरसेक्शन आॅफ कास्ट, क्लास एण्ड पैट्रियार्की तथा संजय कुमार का लेख लाॅज एण्ड होमस्टेड लैंड फाॅर रूरल लैंडलेस लेबरर्स एण्ड मार्जिनल कम्युनिटीज इन बिहार विशेष ध्यान दिये जाने योग्य हैं।
आत्मकथाएं दलित साहित्यिक आंदोलन की रीढ़ की तरह रही हैं। सभी भारतीय भाषाओं में पर्याप्त मात्रा में दलित आत्मकथाएं सामने भी आ चुकी हैं, लेकिन अभी तक उनका कोई स्तरीय आलोचनात्मक अध्ययन नहीं हुआ था। इस अभाव को भरने का प्रयास राज कुमार जी ने ओरियंट ब्लैकस्वान से प्रकाशित अपनी पुस्तक दलित पर्सनल नरेटिव्सः रीडिंग कास्ट, नेशन एण्ड आइडेंटिटी में किया है। इस पुस्तक में यूरोपीय आत्मकथाओं, उच्च जातीय पुरुषों एवं महिलाओं तथा दलित पुरुषों और महिलाओं की आत्मकथाओं का विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। लेखक का निष्कर्ष है कि जहां उच्च जातीय पुरुष अपनी उपलब्धियों का वर्णन एक ंसंतुष्टि के साथ करते हैं, वहीं यह संतुष्टि दलित लेखकों की आत्मकथाओं में नहीं मिलती है। आत्मकथा के अंत में भी दलित आत्मकथाकार अपनी सामाजिक हैसियत को लेकर असुरक्षित होता है। पद की प्राप्ति उसकी सामाजिक हैसियत को बदल नहीं पाती। राज कुमार यह भी पाते हैं कि पितृसत्ता और घरेलू हिंसा जैसे मामलों में सवर्ण और दलित के बीच उतना भेद नहीं है, जितना स्त्री और पुरुष के बीच। पुरुष आमतौर पर इन मुद्दों पर बात नहीं करते, जबकि स्त्रियों के वृत्तांत का यह अनिवार्य हिस्सा होता है। अत्यंत महत्वपूर्ण यह पुस्तक केवल एक मामले में कुछ निराश करती है, वह यह कि इसमें हिंदी से केवल एक दलित आत्मकथा जूठन को ही अध्ययन के लिये शामिल किया गया है।
डाॅ. तुलसीराम की आत्मकथा मुर्दहिया का प्रकाशन राजकमल, नई दिल्ली से हुआ है। इसे इस वर्ष के दलित साहित्य की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि कहा जा सकता है। दलित आत्मकथा लेखन के क्षेत्र में इस पुस्तक ने एक नया प्रतिमान खड़ा किया है। अन्य आत्मकथाओं की तरह यह अपने व्यक्तिगत संघर्षों और उपलब्धियों का ब्यौरा भर नहीं है, इसके केंद्र में दलितों का सामाजिक परिवेश और उनकी संस्कृति है। दलितों के जीवन से संबंधित पच्चीसों ऐसे अछूते अनुभव इस आत्मकथा में आए हैं जिनकी अभी तक चर्चा नहीं हुई थी। जाति को लेकर लेखक के मन में कोई कंुठा नहीं है और आत्मदया की भावना तो पूरी आत्मकथा में कहीं ढूंढ़े से भी नहीं मिलती। अपने ही जीवन के अनुभवों के प्रति लेखक ने ऐसी तटस्थ दृष्टि अपनाई है जो आत्मकथा तो दूर जीवनी लेखन में भी दुर्लभ होती है। भाषा के लिहाज से भी इस कृति को मानक कहा जा सकता है।
इस वर्ष प्रकाशित पुस्तकों पर नजर डालने से यह साफ दिखाई देता है कि दलित प्रश्न से संबंधित गंभीर अध्ययन और शोध का काम शुरू हो गया है। शुरुआती सवालों से निबट चुकने के बाद अब दलित लेखकों ने गंभीर महत्व के जटिल प्रश्नों पर ध्यान देना शुरू किया है। अन्य उत्पीड़ित अस्मिताओं के सवाल को भी सहानुभूति के नजरिये से देखा जाने लगा है, इससे परिवर्तन की प्रक्रिया को सही दिशा और गति मिलेगी। सर्जनात्मक कृतियों की मात्रा में कमी का आना एक चिंताजनक चीज है, क्योंकि किसी भी साहित्यिक आंदोलन की बुनियाद सर्जनात्मक कृतियां ही होती हैं, फिर भी मुर्दहिया का प्रकाशन दलित साहित्य के उज्ज्वल भविष्य की ओर एक आश्वस्ति भरा संकेत है।
(कथादेश, जनवरी 2011 में प्रकाशित)
दलित साहित्य 2010: वैचारिक पुस्तकों का वर्ष
-जयसिंह मीणा Assistant Professor Rajdhani College D.U. New delhi Jai singh Meena
Email- jaijnu@gmail.com
दलित प्रश्न के संदर्भ में वर्ष 2010 में यह एक नई बात देखने को मिली है कि विमर्शपरक लेखन की ओर लेखकों का झुकाव बढ़ा है, जबकि सर्जनात्मक कृतियों की संख्या कम हुई है। हर बार की तरह उपन्यास विधा उपेक्षित ही रही है, लेकिन कहानियांे का अभाव नहीं रहा है। रजतरानी मीनू द्वारा संपादित कहानी संग्रह हाशिये से बाहर अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली से प्रकाशित हुआ। 22 कहानियों के इस संग्रह में एक तरफ जयप्रकाश कर्दम की नो बार, ओमप्रकाश वाल्मीकि की प्रमोशन तथा सुशीला टाकभौरे की कड़वा सच और साक्षात्कार जैसी अंतर्दृष्टिपूर्ण कहानियां शामिल हैं, तो दूसरी तरफ भीमसेन संतोष की समता और ममता तथा चन्द्रभान प्रसाद की चमरिया मइया का शाप जैसी विवादास्पद कहानियां भी शामिल हैं जिनमें स्त्री की छवि को बहुत गलत नजरिये के साथ पेश किया गया है। कुछ महत्वपूर्ण काव्य संग्रह इस वर्ष प्रकाशित हुए हैं। प्रगतिशील दलित कवि अर्जुन के दोहों का दूसरा संग्रह दो अक्षर सौ ज्ञान शिल्पायन दिल्ली से छपा है। इसका संकलन, पाठ निर्धारण, कठिन शब्दों की व्याख्या शंभुगुप्त ने की है। अर्जुन कवि के दोहे दलित आलोचना के समक्ष चुनौती हैं। इस पर आलोचकों को अपनी चुप्पी तोड़नी चाहिए। डाॅ. सुधीर सागर का कविता संग्रह बस! एक बार सोचो शिल्पायन बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसमें दलितों के साथ-साथ स्त्रियों और आदिवासियों की पीड़ा को भी व्यक्त करने का प्रयास किया गया है। विभिन्न उत्पीड़ित अस्मिताओं को साथ लेकर चलने की यह कोशिश निश्चित रूप से सराहनीय है।
वैचारिक पुस्तकों के लिहाज से वर्ष 2010 बेहद समृद्ध रहा है। दलित लेखकों ने अपनी ऊर्जा को केवल आक्रोश के रूप में व्यक्त करने की बजाय संतुलित दृष्टिकोण के साथ जटिल सवालों से जूझने में लगाया है। कुछ शोधपरक पुस्तकों का प्रकाशन भी इस वर्ष हुआ है। रजतरानी मीनू का पी एच डी शोध प्रबंध परिष्कृत रूप में अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रिब्यूटर्स से हिंदी दलित कथा साहित्यः अवधारणाएं और विधाएं नाम से छपा है। दलित साहित्य से जुड़े विभिन्न सवालों पर लेखिका ने संतुलित दृष्टिकोण और सटीक भाषा में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। सूरज बड़त्या ने अपने शोध प्रबंध को परिष्कृत और परिवर्धित रूप में सत्ता-संस्कृति और दलित सौंदर्यशास्त्र शीर्षक से प्रकाशित कराया है। दलित सौंदर्यशास्त्र की भिन्नता को दर्शाते हुए उन्होंने श्रम, संघर्ष, पक्षधरता और परिवर्तन को दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों के तौर पर देखने का प्रस्ताव किया है। अतिशय वर्ग केंद्रिकता और जाति के प्रश्न की उपेक्षा के लिये भारतीय माक्र्सवादियों की आलोचना करने के बावजूद उनका निष्कर्ष है कि दलित और वामपंथी वैचारिकी के साझे अभियान से ही सामाजिक परिवर्तन की आधारभूमि खड़ी की जा सकती है। कांतिमोहन ने अपनी अनुपलब्ध पुस्तक प्रेमचंद और अछूत समस्या (1982) को प्रेमचंद और दलित विमर्श शीर्षक से स्वराज प्रकाशन दिल्ली से पुनप्र्रकाशित कराया है। प्रेमचंद पर अंबेडकर के नेतृत्व मंय चल रहे आंदोलन के प्रभाव तथा क्रमशः गांधीवाद की वैचारिक जकड़बंदी से मुक्त होने की प्रक्रिया को प्रदर्शित करना लेखक का मुख्य ध्येय है। सामंतवाद, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के गठबंधन को दलित मुक्ति की राह में सबसे बड़ी बाधा बताते हुए लेखक ने इस समस्या का निदान ‘कृषि क्रांति’ में देखा है।
डाॅ. सेवा सिंह ने अपनी पुस्तक ब्राह्मणवाद और जनविमर्श आधार प्रकाशन हरियाणा में ब्राह्मणवादी विचारधारा के स्रोतों और षडयंत्रों को व्याख्यायित करते हुए प्रगतिशील शक्तियों (बौद्ध, जैन, चार्वाक, षडदर्शन तथा निर्गुण संतों) के साथ उसके टकरावों के इतिहास को सामने रखा है। डाॅ. सेवा सिंह का मानना है कि पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के रूप में उभरा नव उपनिवेशवाद ब्राह्मणवादी विचारधारा को मजबूती ही प्रदान कर रहा है। वे दलित, स्त्री, आदिवासी जनविमर्शों को ब्राह्मणवादी विचारधारा से मुक्ति के लिये ही नहीं, बल्कि नव उपनिवेशवाद की जकड़बंदी से मुक्ति के लिये भी जरूरी मानते हैं। अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रिब्यूटर्स से प्रकाशित अपनी पुस्तक मनुष्यता के आइने में दलित साहित्य का समाजशास्त्र में निरंजन कुमार जी ने भारतीय भाषाओं में दलित लेखन की पड़ताल करते हुए हिंदी में दलित मुद्दों पर छाई दीर्घकालीन चुप्पी की वजहों को समझने का प्रयास किया है। मौजूदा दौर में दलित विमर्श के उभार के सामाजिक कारणों पर विस्तृत चर्चा इस पुस्तक में मिलती है। भारतीय साहित्य एवं दलित चेतना ज्ञान प्रकाशन कानपुर से प्रकाशित हुई है। इसका संपादन डाॅ. धनंजय चैहाण और डाॅ. धीरज भाई वणकर ने किया है। पुस्तक के इकतालिस लेखों में विभिन्न भारतीय भाषाओं और राज्यों में दलित साहित्य की स्थिति की पड़ताल की गई है।
के.एस. तूफान के वैचारिक लेखों का संकलन सफाई का नरक लता साहित्य सदन, गाजियाबाद से प्रकाशित हुआ है। भारतीय राज्य और राजनीति के क्रूर व्यवहार के चलते स्वतंत्र भारत में भी सफाई कर्मी के तौर पर वाल्मीकि समुदाय के लोगों को जो नारकीय जीवन जीना पड़ा है उसकी मार्मिक पड़ताल करते हुए पुस्तक में इस समुदाय की बेहतरी के लिये विशेष प्रावधानों की मांग की गई है। दुसाध प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित पुस्तिका ब्राह्मण, बहुजन और आरक्षण में लेखक डाॅ. विजय कुमार त्रिशरण ने आरक्षण को लेकर चल रही बहस में मौलिक हस्तक्षेप किया है। वर्ण व्यवस्था को ब्राह्मणों की आरक्षण व्यवस्था बताते हुए लेखक ने याद दिलाया है कि हिंदू धर्म के इतिहास में मंत्री और पुरोहित के पद ब्राह्मणों के लिये ही आरक्षित रहे हैं। मेरिट के मिथक को तोड़ते हुए लेखक ने एक तरफ दलितों के शैक्षिक पिछड़ेपन के सामाजिक कारणों का संकेत किया है तो दूसरी तरफ सवर्णों को अपनी तुलना हार्वर्ड के विद्यार्थियों से करने का सुझाव देकर उन्हें आईना दिखाया है। जनहित अभियान और मानक पब्लिकेशंस, दिल्ली से प्रकाशित जातिवार जनगणनाः संसद, समाज और मीडिया शीर्षक पुस्तक में डाॅ. दिलीप मंडल ने जातिवार जनगणना के विरोधियों की धूर्ततापूर्ण नीयत को उजागर करते हुए, जाति आधारित जनगणना की जरूरत को रेखांकित किया है।
हिंदी में इस वर्ष कुछ अच्छी पुस्तकें अनुवाद के माध्यम से भी सामने आईं हैं। मराठी दलित लेखिका उर्मिला पवार की आत्मकथा का हिंदी अनुवाद आयदान वाणी, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है, अनुवादक हैं माधवी प्र. देशपांडे। दलित स्त्री के रूप में झेले गए अनुभवों की कथा तो इसमें है ही साथ ही एक पुत्री, पत्नी और मां के रूप में परिवार के भीतर की जटिल दुनिया का प्रामाणिक चित्र भी इसमें उकेरा गया है। उर्मिला पवार के लिये जितनी बड़ी सच्चाई पितृसत्ता है, उतनी ही बड़ी सच्चाई पारिवारिक संबंधों के प्रति उपजने वाली आत्मीयता भी है। इस आत्मकथा में पुत्र और पति की मृत्यु का विचलित कर देने वाला विवरण लेखिका ने दिया है।
आधुनिक भारत में दलितः दृष्टि और मूल्य दलितों के जीवन का समाजशास्त्रीय अध्ययन है, इसका प्रकाशन हुआ है रावत पब्लिकेशन से और अनुवादक हैं विजय कुमार पंत। एस. एम. माइकल द्वारा संपादित इस पुस्तक में समाजशास्त्र और नृतत्वशास्त्र से जुड़े पन्द्रह विद्वानों के गंभीर आलेख संकलित हैं। चार भागों में विभाजित इस पुस्तक में अस्पृश्यता की उत्पत्ति और विकास, दलित और अश्वेतों के जीवन संघर्ष और सामाजिक आंदोलनांे का तुलनात्मक अध्ययन तथा दलितों के भीतर पितृसत्ता के विकास में संस्कृतीकरण की भूमिका, जैसे मुद्दे शामिल हैं। अनुवाद और भाषा संबंधी अत्यधिक गलतियां इस गंभीर पुस्तक के महत्व को कम करती हैं। अमरीश हरदेनिया द्वारा अनूदित और उद्भावना, गाजियाबाद से प्रकाशित राम पुनियानी की पुस्तक दलित और हिंदुत्व दलितों की वर्तमान स्थिति का जायजा लेते हुए उनके ऊपर हिंदुत्ववादी राजनीति और विचारधारा के प्रभावों का विश्लेषण करती है।
दलित लेखकों की सक्रियता ने बहुत से हिंदीतर विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया है। इस वर्ष दलित प्रश्न से संबंधित कई गंभीर पुस्तकें अंग्रेजी में भी प्रकाशित हुई हैं। एस. क्लार्क तथा सहयोगियों द्वारा संपादित दलित थियोलाॅजी का प्रकाशन आॅक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस से हुआ है। इस पुस्तक में दलित जीवन से संबंधित धर्मशास्त्रीय समस्याओं का अध्ययन किया गया है। ईसाई विश्वासों की सापेक्षिकता में दलितों की समस्याओं को समझने के कई रोचक प्रयास इस पुस्तक में हैं। शोधपरक समाजशास्त्रीय लेखन के क्षेत्र में इम्तियाज अहमद तथा शशि भूषण उपाध्याय द्वारा संपादित दलित एसर्सन इन सोसाइटी, लिटरेचर एण्ड हिस्ट्री विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ओरियंट ब्लैकस्वान से प्रकाशित इस पुस्तक में चार खंड हैं, पहले तीन खंडों में क्रमशः समाज, साहित्य, इतिहास में दलितों की स्थिति और भूमिका तथा चैथे खंड में अल्पसंख्यक भारतीय समुदायों में जाति जैसी संस्थाओं की उपस्थिति को पहचानने का प्रयास किया गया है। पुस्तक के सभी लेख पठनीय हैं, लेकिन पद्मा वेलासकर का लेख ऐट द इंटरसेक्शन आॅफ कास्ट, क्लास एण्ड पैट्रियार्की तथा संजय कुमार का लेख लाॅज एण्ड होमस्टेड लैंड फाॅर रूरल लैंडलेस लेबरर्स एण्ड मार्जिनल कम्युनिटीज इन बिहार विशेष ध्यान दिये जाने योग्य हैं।
आत्मकथाएं दलित साहित्यिक आंदोलन की रीढ़ की तरह रही हैं। सभी भारतीय भाषाओं में पर्याप्त मात्रा में दलित आत्मकथाएं सामने भी आ चुकी हैं, लेकिन अभी तक उनका कोई स्तरीय आलोचनात्मक अध्ययन नहीं हुआ था। इस अभाव को भरने का प्रयास राज कुमार जी ने ओरियंट ब्लैकस्वान से प्रकाशित अपनी पुस्तक दलित पर्सनल नरेटिव्सः रीडिंग कास्ट, नेशन एण्ड आइडेंटिटी में किया है। इस पुस्तक में यूरोपीय आत्मकथाओं, उच्च जातीय पुरुषों एवं महिलाओं तथा दलित पुरुषों और महिलाओं की आत्मकथाओं का विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। लेखक का निष्कर्ष है कि जहां उच्च जातीय पुरुष अपनी उपलब्धियों का वर्णन एक ंसंतुष्टि के साथ करते हैं, वहीं यह संतुष्टि दलित लेखकों की आत्मकथाओं में नहीं मिलती है। आत्मकथा के अंत में भी दलित आत्मकथाकार अपनी सामाजिक हैसियत को लेकर असुरक्षित होता है। पद की प्राप्ति उसकी सामाजिक हैसियत को बदल नहीं पाती। राज कुमार यह भी पाते हैं कि पितृसत्ता और घरेलू हिंसा जैसे मामलों में सवर्ण और दलित के बीच उतना भेद नहीं है, जितना स्त्री और पुरुष के बीच। पुरुष आमतौर पर इन मुद्दों पर बात नहीं करते, जबकि स्त्रियों के वृत्तांत का यह अनिवार्य हिस्सा होता है। अत्यंत महत्वपूर्ण यह पुस्तक केवल एक मामले में कुछ निराश करती है, वह यह कि इसमें हिंदी से केवल एक दलित आत्मकथा जूठन को ही अध्ययन के लिये शामिल किया गया है।
डाॅ. तुलसीराम की आत्मकथा मुर्दहिया का प्रकाशन राजकमल, नई दिल्ली से हुआ है। इसे इस वर्ष के दलित साहित्य की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि कहा जा सकता है। दलित आत्मकथा लेखन के क्षेत्र में इस पुस्तक ने एक नया प्रतिमान खड़ा किया है। अन्य आत्मकथाओं की तरह यह अपने व्यक्तिगत संघर्षों और उपलब्धियों का ब्यौरा भर नहीं है, इसके केंद्र में दलितों का सामाजिक परिवेश और उनकी संस्कृति है। दलितों के जीवन से संबंधित पच्चीसों ऐसे अछूते अनुभव इस आत्मकथा में आए हैं जिनकी अभी तक चर्चा नहीं हुई थी। जाति को लेकर लेखक के मन में कोई कंुठा नहीं है और आत्मदया की भावना तो पूरी आत्मकथा में कहीं ढूंढ़े से भी नहीं मिलती। अपने ही जीवन के अनुभवों के प्रति लेखक ने ऐसी तटस्थ दृष्टि अपनाई है जो आत्मकथा तो दूर जीवनी लेखन में भी दुर्लभ होती है। भाषा के लिहाज से भी इस कृति को मानक कहा जा सकता है।
इस वर्ष प्रकाशित पुस्तकों पर नजर डालने से यह साफ दिखाई देता है कि दलित प्रश्न से संबंधित गंभीर अध्ययन और शोध का काम शुरू हो गया है। शुरुआती सवालों से निबट चुकने के बाद अब दलित लेखकों ने गंभीर महत्व के जटिल प्रश्नों पर ध्यान देना शुरू किया है। अन्य उत्पीड़ित अस्मिताओं के सवाल को भी सहानुभूति के नजरिये से देखा जाने लगा है, इससे परिवर्तन की प्रक्रिया को सही दिशा और गति मिलेगी। सर्जनात्मक कृतियों की मात्रा में कमी का आना एक चिंताजनक चीज है, क्योंकि किसी भी साहित्यिक आंदोलन की बुनियाद सर्जनात्मक कृतियां ही होती हैं, फिर भी मुर्दहिया का प्रकाशन दलित साहित्य के उज्ज्वल भविष्य की ओर एक आश्वस्ति भरा संकेत है।
(कथादेश, जनवरी 2011 में प्रकाशित)
दलित साहित्य 2010: वैचारिक पुस्तकों का वर्ष
-जयसिंह मीणा Assistant Professor Rajdhani College D.U. New delhi Jai singh Meena
Email- jaijnu@gmail.com
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