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रेणु के बाल, कंधे पर फैले हुए जिसे अपने यहाँ झोंटा बोलते हैं, झोंटा बढाए हुए । और इस रूप में मैंने पहली बार और अन्तिम बार कहिए वहीं रेणु को देखा था, घर पर । सेवक था मैं, अपने बड़े भाई का । चाय लाओ, नमकीन लाओ, ये लाओ, वो लाओ, मैं लाया करता और इसी बहाने देख भी लिया करता था कि कौन आदमी कैसा है, क्या है । प्रोफ़ेसर रवि रंजन जी, मेरे अजीज़, ऊर्दू विभाग के जायदुल हक़ साबाह, आलोकजी, सर्राजु जी, अन्य प्राध्यापक बन्धुओं और छात्रों-मित्रों । रेणु न तो लोहे के चने हैं और न तो मैं घोड़ा हूँ…स्वाद तो क्या जानूँगा मैं। फिर भी मैं कुछ बातें आपके सामने कहूँगा…हो सकता है आपके काम की हो निकलें । मेरे लिए खुशी की बात है कि हमारे बीच रेणु के गाँव के पास के ख़त साबाह बैठे हैं, अररिया के । तो थोड़ा डर लगता है, रेणु के बारे में बोलते समय मुझे । क्योंकि इन्होंने ‘मैला आँचल’ के सौन्दर्य को ज्यादा अच्छी तरह समझा और उसकी भाषा को, बोली-बानी को, तीज-त्यौहारों, पर्वों-अंधविश्वा्सों की बातें करते हैं, उन्हें ।
…बहरहाल कुछ मोटी बातें आपको बताना चाहता हूँ कि जब बींसवी सदी ख़तम हो गई, तो हिन्दी उपन्यासों में कितने उपन्यास हैं जो क्लासिक के दर्जे तक पहुँचते हैं । इसका चुनाव प्रायः हर पत्रिका में आने लगा है, नन्दकिशोर नवल ने तो कसौटी का एक अंक ही निकाला…क्लासिक उपन्यास कौन-कौनसे हैं । और उनमें जब गणना शुरु हुई तो… ‘गोदान’, ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘शेखर : एक जीवनी’, ‘मैला आँचल’, ‘झूठा सच’, ‘राग दरबारी’…यहाँ तक निर्विवाद था । माना गया कि ये क्लासिक हैं । विवाद इसके बाद शुरु हुआ । 1967 या कहिए कि 70 के बाद के उपन्यासों को लेके कि उनमें कौनसे उपन्यास क्लासिक माने जा सकते हैं, कौन नहीं । …लेकिन जितने चुनाव किए गए, फणीश्वकरनाथ रेणु लगभग सबमें थे । हर आलोचक, लेखक, या जिसे ये जिम्मेदारी सौंपी गई हो पत्रिका की तरफ से… ‘मैला आँचल’ को सबने निर्विवाद रूप से कहा, ये क्लासिकल है । क्लासिक कैसे उपन्यास होते हैं? शायद आप जानते हों, एक तो वे उपन्यास या वे रचनाएँ जो चली आ रही परंपरा या लीक को तोड़ती हो, उससे इन्कार करती हों । फार्म के स्तर पर बात मैं कर रहा हूँ …और दूसरी बात जो रचनाएँ हर युग में किसी न किसी माने में प्रासंगिक बनी रह जाए …बहुत कुछ उनका निरर्थक हो सकता है लेकिन जो भविष्य के काम की हुआ करें । जिनमें भविष्य के अक्स दिखाई पड़े, गूँज सुनाई पड़े, जिन रचनाओं में ऐसी ।
‘मैला आँचल क्यों’ महत्त्वपूर्ण है ? मैं एक दो बातों की तरफ संकेत करुँगा । एक सुयोग है कि मैंने रेणु को देखा, 1960-61 में और इसका श्रेय कहा जाना चाहिए आलोचक को है । मेरे भाई नामवरजी । जिनसे मिलने के लिए रेणु 60-61 में आए थे, बनारस । छवि मुझे उनकी अब भी याद है । साँवले से..दुबले बदन के । और उस समय औरतें ही पहनती थी किनारे वाली धोती, पुरुष नहीं पहनते थे, बनारस के लिए अटपटी बात थी ये । साड़ी में जिस तरह से चौड़ी पट्टी होती है, वैसी धोती पहन के आए थे, ये मुझे खूब याद है । कलफ की हुई कड़ी धोती थी, बंगालियों जैसी फैली हुई…कडकड़ाता कुर्ता, जिसपर माणेस दी जाती है । और सबसे खास बात ये कि इत्र….एक छोटी-सी रुई के फाए में लिपटी हुई कान में लगाए हुए थे । इत्र के बेहद शौकिन थे । और जो आकृष्ठ करने वाली बात थी … सुमित्रानन्दन पंत के बारे में, हम सुनते हैं कि… बाल उनके कंधे तक झूलते रहते थे । देखा भी था । तो तो रेणु को मैंने देखा था लेकिन उनकी किताब मेरे घर में 1954 में आ गई थी, ये भी याद है मुझे ।
‘मैला आँचल’, 54 में वह किताब छपी थी और मुझे ध्यान आ रहा है, रवि रंजन जी ! उसपर पहला लेख लिखनेवाले नलिन विलोचन शर्मा थे । वह हिन्दी विभागों का स्वर्णिम दौर था, जो फिर नहीं आया । यानि पटना विश्वनविद्यालय में नलिन विलोचन शर्मा, काशी हिन्दू विश्वंविद्यालय में हजारीप्रसाद द्विवेदी, सागर विश्वाविद्यालय में आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, दिल्ली में डा. नगेन्द्र, इलाहाबाद में धीरेन्द्र वर्मा और दीनदयाल गुप्त थे लखनऊ के हिन्दी विभाग में । बरहाल, तो नलिन जी ने पहली बार मेरी जानकारी में, ‘मैला आँचल’ को ‘गोदान’ के बाद का सबसे बड़ा हिन्दी उपन्यास बताया था । जबकि ध्यान रखिए गोदान के बाद उपन्यासकार आए थे, उपन्यास लिखे जा रहे थे । यही वह दौर था जिसमें जैनेद्र आए, यशपाल आए, ‘शेखर : एक जीवनी’ के साथ सच्चिदानन्द अज्ञेय आए थे । ‘नदी के द्वीप’ 1952 या ‘53 में लिखा गया था, ‘मैला आँचल’ से पहले । लेकिन नलिन जी पहले आलोचक थे, जिन्होंने ‘गोदान’ के बाद के सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास के रूप में ‘मैला आँचल’ का उल्लेख किया, इसकी खासियत बताते हुए ।
यह महत्त्वपूर्ण क्यों है, किसी भी कृति का मूल्यांकन करते समय उसके इतिहास पर नज़र रखनी चाहिए, समय को ध्यान में रखिए आप । प्रेमचन्द की नज़र में किसान था-गाँव था । लेकिन जो गाँव था, उत्तर भारत का, बिहार का, यू.पी. का, मध्यप्रदेश का यानि हिन्दी भाषी इलाके का कोई भी गाँव हो सकता था, जहाँ जमींदार हो, रय्यत हो, खेतीबाड़ी होती है,
1936 में ‘गोदान’ आया था, प्रेमचन्द के बाद आए जैनेन्द्र । हिन्दी शिक्षण के केन्द्र में मध्यवर्ग आया । निम्न –मध्यवर्ग, मध्यवर्ग अज्ञेय का भी यही था, गाँव छूट गया था । प्रेमचन्द के बाद से, ‘मैला आँचल’ 1936 और 1954 के बीच में गाँव नहीं था, किसान नहीं थे । तो इसके महत्व को रेखांकित करते समय इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए । बीच के उस दौर को, जबकि गाँव या ग्रामीण संस्कृति या ग्रामीण शोषण या गँवई जीवन कथा साहित्य से गायब था, लगभग । प्रगतिशील कविताओं में कथनों के सौन्दर्य जरूर दिखाई पड़ते हैं, मजदूरों के शोषण दिखाई पड़ते हैं । लेकिन ये चीज़ गायब थी । नई कहानी तो कुछ बाद में यानि 1954 से जो ‘कहानी’ पत्रिका निकलनी शुरु हुई उसके साल भर बाद ‘नई कहानी’ की और ग्राम कहानी की चर्चा शुरु हुई । लेकिन ‘मैला आँचल’ में पहली बार अँचल आया, जिसके बारे में आपको बताने की जरुरत नहीं है । रेणु ने लिखा है, “मैला आँचल, आँचलिक उपन्यास है, पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला है, इसके एक और है नेपाल, दूसरी ओर है पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिबम बंगाल…” तो मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर इस उपन्यास का कथाक्षेत्र बनाया है । इसके पहले फिक्शन में अँचल या आँचलिकता की चर्चा नहीं होती थी । तो अपनी बोलीबानी, भाषा, तीज-त्यौहार, अंधविश्वागस, टोना-टोटका इन सबके साथ मेरीगंज नाम से एक अंचल फिक्शन में दिखाई पड़ा । अब इस चीज को, आप इसके महत्व को यूँ समझे, उपन्यास लिखा गया, छपा 1954 में, उपन्यास का जो समय लिया गया है ये 1946 से लेकर 1948 के बीच का है । उपन्यास का विषय है, महात्मा की हत्या से पूर्व आजादी के लिए कश्मकश करती हुई जनता का संघर्ष, उसकी मानसिक स्थिति । तो 46 से 48 के बीच की कथाभूमि । पूर्णिया के एक पिछडे हुए अँचल से लिया ।
अब, जैसे मैंने बताया कि ऐसे उपन्यास क्लासिक हुआ करते हैं जिनमें भविष्य की गूँज दिखाई पड़े । दो उदाहरण मेरे सामने हैं, उस समय काग्रेस पार्टी सत्ता में थी । दूसरी पार्टीयाँ, कम्युनिस्ट पार्टी थी जो उसय महत्त्वपूर्ण थी लेकिन, वह पार्टी या उसके बाद आनेवाली पार्टियों का क्या स्वभाव हुआ, कैसी हुई । इसलिए जो भ्रष्टाचार वगैरा आप देख रहे हैं इसकी शुरुआत, भारत की आजादी से कैसे हुई इसमें नमूने के रूप में जब महात्मा गाँधी मर गए है, श्राद्ध होना है उनका, पूरा देश श्राद्ध की तैयारी कर रहा है, मेरीगंज के तहसीलदार साहब विश्वानाथ एक पूरी बस्ती को न्यौता देनेवाले हैं, जिसमें हर तरह के, हर धरम के लोग खाएँगे, पूरे देश में हर गाँव में हो रहा है, मेरे गाँव में भी हुआ था-मुझे याद है । श्राद्ध गाँधीजी का । गाँधीजी के श्राद्ध के दिन, इसमें दो काग्रेसी हैं, एक बलदेवजी हैं और दूसरे हैं बावनदास, डेढ़ बित्ते के आदमी, दुबले पतले । जब पूरा देश श्राद्ध कर रहा है, नागर नदी विभाजक है पाकिस्तान, नेपाल और भारत में, ये नदी, नदी के एक तरफ पूर्वी बंगाल यानि पूर्वी पाकिस्तान, जो बांग्लादेश है, एक दूसरी तरफ नेपाल और नदी के इस तरफ हिन्दूस्तान । तस्करी वहाँ से होती है । उन्हें खबर दी जाती है, कि अमुक दिन, रात में, पचासों बैलगाड़ियाँ गुजरेंगी, जिनपर अवैध माल लदा होगा, सिमेंट, और क्या-क्या, दुनिया भर की चीजें । ये तस्करी कराता कौन है ? 1948 में जब काग्रेस की हुकूमत इस देश में थी, तस्करी कौन करवा रहा था ? दुलार चन्द्र काबरा, जो कटहा थाने के काग्रेस कमिटी का अध्यक्ष है । एक है चन्दमल मारवाड़ी का बेटा सागरमल । सागरमल अध्यक्ष है, नरपत नगर का । गुलामी के दिनों में काग्रेसी टिकेटिंग करते थे या धरना देते थे, तो चन्दमल मारवाड़ी ने सिपाहियों को, जो ब्रिटिशर्स थे, घूस दिया था, काग्रेसियों को पीटने के लिए । तो जिसने काग्रेसियों को पिटवाया था, उसी का बेटा काग्रेस का अध्यक्ष है । गुलाबचन्द दुलारचन्द्र कापरा । जुए का अड्डा चलाते हैं । नेपाली लड़कियों की तस्करी करते हैं, जिसे आज की भाषा में कबूतरबाज़ी कहा जाता है । वे कटहा काग्रेस कमिटी के सेक्रेटरी हैं ! और तस्करी उनकी बैलगाड़ियाँ करती हैं । दृश्य आता है –
बहुत बुरे वक्त में पहुँचे थे बावनदास, उस नागर नदी के पास जहाँ से पास हो रही थी वह गाड़ियाँ ।
“माघ की ठिठुरती हुई सर्दी !…पछिया हवा भी चलती है । लगताता है, आज की रात बदरीनाथ की तरह यहाँ भी बर्फ गिरेगी । रामडंडी सिर पर आ गया… !”
बीच में मैं कहता हूँ, एक थोड़ी, अब आप लोग इसे बता सकते हैं, कई साल पहले तमिलनाडु गया था, 78-79 के आस-पास की बात है । सवाल किया था लोगों ने कि मैला आँचल का अगर तमिल में अनुवाद करना चाहेंगे तो कैसे करेंगे । वह सौन्दर्य जो उस भाषा में पैदा किया गया है वह नहीं आ पाएगा, किसी भी दूसरी भाषा में अनुवाद किया जाए । उसे अपने ढंग से भले समझा दे हम । इस मुश्किल को मैं सह गया हूँ । काशी का अस्सी का अनुवाद बांग्ला में एक महिला कर रही थी और बेहद आफत में छूटी कि हम क्या करें इसका । तो अनुवाद किसी दूसरी भाषा में होना मुश्किल होता है ।
बरहाल, तो… यहाँ बावनदास पहुँचते हैं । और इन्तजार कर रहे हैं झाड़ी में छिपकर गाडियों के आने का । बैलगाड़ियाँ आती हैं । कलीमुद्दींपुर नाका था । बैलगाड़ियाँ आती है । कलिमुद्दींपुर भारत में था । जब पूर्वी पाकिस्तान था तो वहाँ के लोगों ने कहा नाम से ही साफ है कि कलिमुद्दीन, इसे पूर्वी पाकिस्तान में होना चाहिए । लेकिन विभाजन में कलिमुद्दींपुर रह गया भारत में ही । तो…इन्हें देखकर बैल भड़कते हैं, बावनदास को ।
“गाड़ियाँ आ गईं, एकदम करीब ।
‘अरे बा-आ-आ-प रे- भू-ऊ-त ।’ अगला गाडिवान डरा और अपने साथी से दबी आवाज में कहता है ‘भूत’ !
‘छिऊँ…’ बैल भड़कते हैं । कचकचाकर गाड़ियाँ रूक जाती हैं ।
‘सेत्ताराम… ! सेत्ताराम !’
कलिमुद्दींपुर नाका के आगे सिपाही जी आगे बढ़ आते हैं. खखारकर पूछते हैं, ‘कौन है ?’
बगल की झाड़ी से सामने आकर बावन ने कहा, ‘हम हैं । सेवक बावनदास !
‘बा व न दा स !’ सिपाही जी का मुँह खुला-का-खुला रह जाता है ।” वगैरा वगैरा… और उसके बाद वह सिपाही चला जाता है, दुलारचन्द कापरा जहाँ बैठे हुए हैं, एक बाँस की झोपड़ी जैसी है, वहाँ क्या हो रहा है इसे सुनिए आप । ये काग्रेस कमेटी के सेक्रेटरी हैं । “कलिमुद्दींपुर में एक होटिल-बँगला है । …हाकिम-हुक्कारम लोग बराबर आते रहते हैं । बाँस-फूल का एक बड़ा सा चौखड़ा है, गाँव से एकदम बाहर ।
होटिल-बँगला में सप्लाय इन्सपेक्टर, दुलारचन्द कापरा और कलिमुद्दींपुर के हवलदार साहब टेबल के चारों ओर बैठकर मोरंगिया माल पी रहे हैं । कलिमुद्दींपुर होटल-बँगला के वेरसपतिया बावर्ची के हाथों का मुर्ग-मुसल्लम सिने खाया, उसी ने जी खोलकर बक्कीरस दिया ।
सप्लाय इन्सपेक्टर साहब गिलास में चुस्की लगाते हुए मुस्कराते हैं, ‘अरे धत्त ! इस मुर्ग-मुसल्लम से गर्मी थोड़ी आएगी ! हवलदार साहब ! अरे, कोई दो टाँग वाली मुर्गी … !
‘क्या पूछते हैं, आज… महातमा जी के सराध की वजह से सभी भोज खाने चली गई हैं ।’
दुलारचन्द कापरा कहता है, ‘ऊँह ! ऐसा जानता तो कटहा से ही दो रेप्युजिनी को उठा लाते । सब मजा किरकिरा कर दिया ।’
कड़कड़-कड़क् ! सप्लाय इन्सपेक्टर चितुरानन्दसिंह जी मुर्गी की टाँग चबाते हैं ।”
ये रामबुझावन सिंह हैं, पहुँचते हैं और बताते हैं के “ ‘सब चौपट ! बावनदास…’
आँ यें ! बावनदास ? कहाँ ?
…सभी गुम हो गए । बेरसपतिया बावर्ची इशारे से कहता है हवलदार साहब को, ‘मिल सकती है मुर्गी…, मगर…’ रुककर दोनों हाथों की उँगलियाँ दिखलाता है ।
हवलदार साहब कहते हैं, ‘अच्छा अभी तुम ठहरो, बाहर जाओ ।’
‘क्या हो अब?’ अकेला है, सभी एक साथ लम्बी साँस लेते हैं ।
‘अकेला है या…?’
‘एकदम अकेला !’
‘मगर इसका मतलब जानते हैं ?’
‘दुलारचन्द जी ! कापरा जी !’
सबकी निगाहें मिलती हैं आपसे में । दुलारचन्द बोतल से शराब ढालकर गटागट पी जाता है । सभी उसकी ओर आशा-भरी दृष्टि से देखते हैं । ‘मैं पंजाबी हूँ जी !…” ये दुलारचन्द बोल रहा है । काग्रेस कमिटी का सेक्रेटरी । “मैं पंजाबी हूँ जी !… मगर आगे आप लोग जानो । मैं अपना फरज अदा करने जाता हूँ ।’
…सिटसिट कर पछिया हवा चल रही है । हवलदार साहब सायकल का पैडल चलाते हुए कहते हैं, ‘कापरा जी, के आसपास के गाँवों का डर जरा भी मत कीजिए ।…ऐलान किया हुआ है कि सरहद के आस-पास रात-बरात में जो निकलेगा, उसे गोली लग जा सकती है ।’”
मारा जा सकता है इसमें कोई डाउट नहीं । जो करना है कीजिए आप…निश्चित करता है कापरा को । उसी में ये अन्तिम दृश्य है जो ….दुखद है, बावनदास को मनाने की कोशिश करता है, कि “बावनदास…मान जाओ ।” बावनदास चुप । “गाड़ी में जुते हुए दोनों जानवर अचरज से चौक पड़ते हैं ।” जानवरों के बारे में, मनुष्यों के बारे में तुलनात्मक दृष्टि देखेंगे आप ।
“भड़कते हैं । छिऊँ, छिऊँ ! नाक से आवाज करके आगे बढ़ने से इन्कार करते हैं, बैल । काबरा एक बैल की पूँछ पकड़कर ऐठता है । हड्डी पट् से बोली, मगर बैलों ने लीक छोड़ दिया और गाड़ी को बगल में लेकर भागे ।” बैलों ने छोड़ दिया, आगे बढ़ना । बावनदास को आगे देखकर ।
“दूसरी गाड़ी…! एक बैल को हवलदार और दूसरे बैल को कापरा, खोस मरोड़कर आगे बढ़ाते हैं । गाडिवान अवाक् होकर हाथ में रास थामे हुए है । यह क्या हो रहा है ?
बैलगाड़ी पास हो गई । …पास हो रही है । बावनदास बीच लीक पर खड़ा है और गाड़ियाँ उपर से आर-पार कर रही हैं । बैल भड़के जरूर, मगर…।
तीन-चार ! चार गाड़ियाँ ?
अब बावनदास ठीक बैल के सामने आकर खड़ा होता है । बैल उसे हुँत्था मारकर गिरा देता है । वह लीक पर लुढ़क जाता है । … ठीक पहिए के नीचे ।
मड़-मड़-मड़ !
…बापू ! माँ…!” बावनदास चीखते हैं ।
“गाड़ी पास ! कट-कर्रर-कट !
गाड़ियाँ पास हो रही हैं । पचास गाड़ियाँ !
आखिरी गाड़ी जब गुज़र गई तो हवलदार और रामबुझावनसिंह मिलकर, बावन की चित्थी-चित्थी लाश,” – गाँधी के श्राध्द के दिन की घटना है ये । “बावन की चित्थी-चित्थी लाश, लहू के कीचड़ में लथ-पथ लाश को उठाकर चलते हैं। …नागर नदी के उस पार पाकिस्तान में फेंकना होगा । इधर नहीं…हरगिस नहीं ।
दुलारचन्द कापरा बावन की झोली लेकर उनके पीछे-पीछे जाता है ।
नागर पार करते समय बावन के गले की तुलसी-माला नागर की बहती हुई धारा में गिर पड़ती है-सेत्ताराम !” यानि उनकी माला नागर नदी में फेंकता है ।
“चार बजे भोर को पाकिस्तान पुलिस ने घाट-गश्त लगाने के समय देखा-लाश !
अरे यह तो उस पार के बौने की है ।” सरहद पर रहनेवाले पाकिस्तान के लोग जानते थे-बावनदास को । “यहाँ कैसे आई ? ओ, समझ गए ।…उठाओ जी, हनीफ और जुम्मन, ले चलो उस पार !
तो बावन की ठंड़ी लाश झोली-डंड़ा के साथ फिर उठी ।”
टिप्पणी है-लेखक की । “बावन ने दो आज़ाद देशों की, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की-ईमानदारी को, इंसानियत को, बस दो डेग में ही नाप लिया ! ”
ये गाँधी के श्राद्ध के दिन, एक काग्रेस पार्टी के सेक्रेटरी का काम है ! उसी का विकास हुआ है आज तक, होता आ रहा है । मैंने कहा भविष्य की गूँज जिस रचना में दिखाई पड़े… । आजादी को एक सामान्य आदमी कैसे देख रहा था और एक लेखक कैसे देख रहा था । उसकी नज़र में स्वाधीनता क्या है । स्वाधीनता लाने वाले मुख्य रूप से काग्रेसी थे । ये इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि जिसे हम नई कहानी कहते हैं, उस नई कहानी के कहानीकारों में आशाएँ, आकांक्षाएँ,उम्मीदें नज़र आती हैं । लेकिन उनके शुरु करने के पहले ही रेणु ने इस कंट्राडिक्शन को देख लिया था । समझ लिया था कि आगे क्या होना है, क्या होनेजाना है । दूसरी बात आज के कथाकारों का कथ्य । यानि, मैत्रेयी पुष्पा हो, संजीव हो, शिवमूर्ती हो या दूसरे कथाकार हो । ग्लोबलाईज़ेशन के बाद एक चीज़ आई है, इन सारे कहानीकारों की कहानियों में जो संवाद दिखाई पड़ते हैं, ज्यादातर पात्रों के, वे संवाद वहाँ की अपनी बोली में दिखाई पड़ते हैं, ज्यादातर, भोजपुरी में, बघेली में, मारवाड़ी में, छत्तीसगढ़ी में, मैथिल में – गौरीनाथ वगैरे के यहाँ या जो भी मैथिल लेखक हैं- यहाँ तक कि वजही में भी । तो इनके यहाँ जो यथार्थ को बताने के लिए, यथार्थ चित्रण के लिए, पात्रों के संवाद जो बोलियों में दिखाई पड़ते हैं – गोदान में नहीं था ये । ग्राम कथा लिखनेवाले जो कथाकार थे – मार्कण्डेय हों या शिवप्रसाद सिंह हों, शैलेष मटियानी हों – इनके यहाँ कुछ शब्दों के प्रयोग से उस क्षेत्र को लोकेट कर सकते हैं । भोजपुरी के शब्द आते थे । संवाद उनके यहाँ नहीं दिखाई पड़ते थे । लेकिन अब जो लेखक लिख रहे हैं और खासकर युवा लेखक, विभिन्नँ क्षेत्रों से आए हुए, वे इस्तेमाल कर रहे हैं वहाँ की बोली जानेवाली लोक बोलियों का । अगर इसके सूत्र ढूँढ़े जाए हिन्दी में कि किसने, कहाँ शुरु हुई है, तभी आपकी नज़र जाएगी रेणु की तरफ, उनकी उन कहानियों की तरफ जिन्हें ठुमरीधर्मा कहा गया है । चाहे ‘पंचलाईट’ हो या ‘तीसरी कसम’ हो या और कहानियाँ हैं । वहाँ भी, जो वाक्यों की बनावट है वो खड़ी बोली की ही है, शब्द आ जाते हैं ; लेकिन अब सीधे-सीधे उस बोली या भाषा में, इस्तेमाल हो रहा है । इनके सूत्र, मैंने कहा कि ढूँढ़े जा सकते हैं ।
एक और चीज़ के सूत्र ढूँढ़े जा सकते हैं रेणु के यहाँ, और ये ग्लोबलाईज़ेशन की देन है । बचपन में गाना गाते थे हमलोग, बच्चेे थे तो और इसे बनारस के किसी आदमी ने लिखा था –
ये दुनिया इतनी बड़ी मगर, संसार हमारा छोटा-सा । ये दुनिया इतनी बड़ी मगर, संसार हमारा छोटा-सा । सब चढ़े जहाजों पर रेलों पर, इक्केत-टाँगों-ठेलों पर, चाबी से चलनेवाला मोटरकार हमारा छोटा-सा ।
बच्चे के लिए तो वही है, चाबी से चलनेवाला मोटरकार, वही है जिसे वह अपना कहता है । अस्मिता की पहचान । पूरा देश, अपना ही देश नहीं, कहले कि दुनिया के जितने मुल्क हैं हर मुल्क में यह समस्या होगी, अपनी अस्मिता की पहचान । इसे कायम रखना है । हम गुम न हो जाएँ, इस ग्लोबलाईज़ेशन में खोने का डर बहुत है । क्योंकि हमारा जो आक़ा है, वह चाहता है कि सारी दुनिया एक ही हो, सारी दुनिया जिन्स और टी-शर्ट पहने, सारी दुनिया एक सा खाना खाए, एक सी संस्कृति हो, सारा कुछ एक सा हो । ग्लोबलाईज़ेशन में और आर्थिक नीति के कारण या सांस्कृतिक परिवर्तनों के कारण जितने ख़तरे हम महसूस कर रहे हों, उन्हीं खतरों से पैदा हुआ है, लेकिन सबसे अच्छी बात हुई, वह अपनी अस्मिता की चिन्ता । चाहे वह भाषा की हो, बोली की हो पहनावे की हो, या खानपान की हो । यह रह जाए, यह कहीं गुम न होने पाए । यानि, यहाँ क्या-क्या हुआ हम नहीं जानते लेकिन काशी हिन्दू विश्व विद्यालय में, इतने वर्षों से लोग चिल्ला रहे थे, पहले नहीं था, लेकिन पिछले वर्ष भोजपुरी का विभाग अलग से खुला । छत्तीसगढ़ के स्कूलों में छत्तीसगढ़ी पढ़ाई जाने लगी । इसी तरह सबको लगने लगा है कि उनकी अपनी बोली खतरे में है, अपनी भाषा खतरे में है, अपने रीति-रिवाज़ ।
दिखावे के स्तर पर ही सही सन् 1950-55 के जमाने में काशी हिन्दू विश्वहविद्यालय में मूर्तियाँ उदास पड़ी, भगवान लोग उदास पड़े रहते थे, कोई देखनेवाला नहीं था, जितने भगवान हैं, बाबा विश्वपनाथ भी, वो ऐसे ही पड़े हुए थे कोई झाँकनेवाला नहीं था । और अब तो मैं काशी हिन्दू विश्वपविद्यालय में प्राध्यापकों को देखता हूँ बहुत से लोग सबेरे पानी की लुटिया लेकर चलते हैं, पीपल को पानी चढ़ाते हुए चलते हैं । अभिव्यक्तियाँ ढेर सारी हुई है, लेकिन जो खास बात हुई है अपनी अस्मिता की चिन्ता । उसे बचाके रखना चाहिए । उसी के अन्तर्गत चाहे तो आप ले सकते हैं, इसका बहुत ही भदेस रूप दिखाई पड़ता है अपने यहाँ कि जब हुआ कि अयोध्या में राममन्दिर बनेगा तो अरबों रूपये विदेशों से, जो कमाई कर रहे हैं लोग उन्होंने भेजना शुरु किया । अपनी अस्मिता की चिन्ता के विविध रूप होते हैं । हानिकर भी । जिन्हें हम कहते हैं कि ध्वंसक, भी दिखाई पड़ते हैं लेकिन रचनात्मक रूप भी दिखाई पड़ते हैं । ये अपने अँचल के अस्तित्व की स्थिति जैसे आज होने लगी है ग्लोबलाईज़ेशन के दौर में । स्वाधीनता के बाद दिखाई पड़ रही है आज़ादी को लेके । कि स्वाधीनता में मेरीगंज को क्या मिल रहा है ? मेरीगंज कहाँ है इस आजादी में ? वही अशिक्षा, वही पिछड़ापन, वही मलेरिया जिसके लिए डाक्टर जाता है वहाँ । जिस ग्लोबलाईज़ेशन में हम अपनी अस्मिता की तलाश कर रहे हैं, स्वाधीन देश में अपनी अस्मिता की चिन्ता इस आदमी ने की, रेणु ने । पूर्णिया के पूरे इलाके नहीं, एक हिस्से के एक ही गाँव में, उसे बानगी के रूप में आप ले सकते हैं कि उस पूरे अँचल में कहाँ था देश, कहाँ थी आज़ादी, स्वाधीनता कहाँ थी । लिखी तो जाती है रचनाएँ, लेकिन मैला आँचल के समानान्तर आज भी कोई पुस्तक नहीं आती है । मेरे लिए तो माडल रहे हैं-फणीश्वमरनाथ रेणु । अगर मैं साहस कर सका ‘काशी का अस्सी’ लिखने के लिए तो दीपस्तंभ की तरह मेरे लिए फणीश्वेरनाथ रेणु रहे हैं । बाकी तो आप पढ़ते लिखते रहते हैं ।
अन्त में मैं कहना चाहता हूँ कि इतने लम्बे समय बाद बहुत दिनों के लिए मैंने बनारस छोड़ा । वर्ना दो-तीन दिन से ज्यादा नहीं रहा, जहाँ रहा हूँ । पता नहीं मुझे भी क्या समय सवार हो गया । हैदराबाद देखा नहीं, देख आएँ । लेकिन यहाँ के प्राध्यापक मित्रों का, रवि रंजन जी का और अपने विद्यार्थियों का, छात्राओं का जो प्यार मिला वो मेरे लिए अमूल्य निधि है, इसे मैं नहीं भूला पाऊँगा ।लिप्यांकन : मोबिन जहोरोद्दीन
…बहरहाल कुछ मोटी बातें आपको बताना चाहता हूँ कि जब बींसवी सदी ख़तम हो गई, तो हिन्दी उपन्यासों में कितने उपन्यास हैं जो क्लासिक के दर्जे तक पहुँचते हैं । इसका चुनाव प्रायः हर पत्रिका में आने लगा है, नन्दकिशोर नवल ने तो कसौटी का एक अंक ही निकाला…क्लासिक उपन्यास कौन-कौनसे हैं । और उनमें जब गणना शुरु हुई तो… ‘गोदान’, ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘शेखर : एक जीवनी’, ‘मैला आँचल’, ‘झूठा सच’, ‘राग दरबारी’…यहाँ तक निर्विवाद था । माना गया कि ये क्लासिक हैं । विवाद इसके बाद शुरु हुआ । 1967 या कहिए कि 70 के बाद के उपन्यासों को लेके कि उनमें कौनसे उपन्यास क्लासिक माने जा सकते हैं, कौन नहीं । …लेकिन जितने चुनाव किए गए, फणीश्वकरनाथ रेणु लगभग सबमें थे । हर आलोचक, लेखक, या जिसे ये जिम्मेदारी सौंपी गई हो पत्रिका की तरफ से… ‘मैला आँचल’ को सबने निर्विवाद रूप से कहा, ये क्लासिकल है । क्लासिक कैसे उपन्यास होते हैं? शायद आप जानते हों, एक तो वे उपन्यास या वे रचनाएँ जो चली आ रही परंपरा या लीक को तोड़ती हो, उससे इन्कार करती हों । फार्म के स्तर पर बात मैं कर रहा हूँ …और दूसरी बात जो रचनाएँ हर युग में किसी न किसी माने में प्रासंगिक बनी रह जाए …बहुत कुछ उनका निरर्थक हो सकता है लेकिन जो भविष्य के काम की हुआ करें । जिनमें भविष्य के अक्स दिखाई पड़े, गूँज सुनाई पड़े, जिन रचनाओं में ऐसी ।
‘मैला आँचल क्यों’ महत्त्वपूर्ण है ? मैं एक दो बातों की तरफ संकेत करुँगा । एक सुयोग है कि मैंने रेणु को देखा, 1960-61 में और इसका श्रेय कहा जाना चाहिए आलोचक को है । मेरे भाई नामवरजी । जिनसे मिलने के लिए रेणु 60-61 में आए थे, बनारस । छवि मुझे उनकी अब भी याद है । साँवले से..दुबले बदन के । और उस समय औरतें ही पहनती थी किनारे वाली धोती, पुरुष नहीं पहनते थे, बनारस के लिए अटपटी बात थी ये । साड़ी में जिस तरह से चौड़ी पट्टी होती है, वैसी धोती पहन के आए थे, ये मुझे खूब याद है । कलफ की हुई कड़ी धोती थी, बंगालियों जैसी फैली हुई…कडकड़ाता कुर्ता, जिसपर माणेस दी जाती है । और सबसे खास बात ये कि इत्र….एक छोटी-सी रुई के फाए में लिपटी हुई कान में लगाए हुए थे । इत्र के बेहद शौकिन थे । और जो आकृष्ठ करने वाली बात थी … सुमित्रानन्दन पंत के बारे में, हम सुनते हैं कि… बाल उनके कंधे तक झूलते रहते थे । देखा भी था । तो तो रेणु को मैंने देखा था लेकिन उनकी किताब मेरे घर में 1954 में आ गई थी, ये भी याद है मुझे ।
‘मैला आँचल’, 54 में वह किताब छपी थी और मुझे ध्यान आ रहा है, रवि रंजन जी ! उसपर पहला लेख लिखनेवाले नलिन विलोचन शर्मा थे । वह हिन्दी विभागों का स्वर्णिम दौर था, जो फिर नहीं आया । यानि पटना विश्वनविद्यालय में नलिन विलोचन शर्मा, काशी हिन्दू विश्वंविद्यालय में हजारीप्रसाद द्विवेदी, सागर विश्वाविद्यालय में आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, दिल्ली में डा. नगेन्द्र, इलाहाबाद में धीरेन्द्र वर्मा और दीनदयाल गुप्त थे लखनऊ के हिन्दी विभाग में । बरहाल, तो नलिन जी ने पहली बार मेरी जानकारी में, ‘मैला आँचल’ को ‘गोदान’ के बाद का सबसे बड़ा हिन्दी उपन्यास बताया था । जबकि ध्यान रखिए गोदान के बाद उपन्यासकार आए थे, उपन्यास लिखे जा रहे थे । यही वह दौर था जिसमें जैनेद्र आए, यशपाल आए, ‘शेखर : एक जीवनी’ के साथ सच्चिदानन्द अज्ञेय आए थे । ‘नदी के द्वीप’ 1952 या ‘53 में लिखा गया था, ‘मैला आँचल’ से पहले । लेकिन नलिन जी पहले आलोचक थे, जिन्होंने ‘गोदान’ के बाद के सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास के रूप में ‘मैला आँचल’ का उल्लेख किया, इसकी खासियत बताते हुए ।
यह महत्त्वपूर्ण क्यों है, किसी भी कृति का मूल्यांकन करते समय उसके इतिहास पर नज़र रखनी चाहिए, समय को ध्यान में रखिए आप । प्रेमचन्द की नज़र में किसान था-गाँव था । लेकिन जो गाँव था, उत्तर भारत का, बिहार का, यू.पी. का, मध्यप्रदेश का यानि हिन्दी भाषी इलाके का कोई भी गाँव हो सकता था, जहाँ जमींदार हो, रय्यत हो, खेतीबाड़ी होती है,
1936 में ‘गोदान’ आया था, प्रेमचन्द के बाद आए जैनेन्द्र । हिन्दी शिक्षण के केन्द्र में मध्यवर्ग आया । निम्न –मध्यवर्ग, मध्यवर्ग अज्ञेय का भी यही था, गाँव छूट गया था । प्रेमचन्द के बाद से, ‘मैला आँचल’ 1936 और 1954 के बीच में गाँव नहीं था, किसान नहीं थे । तो इसके महत्व को रेखांकित करते समय इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए । बीच के उस दौर को, जबकि गाँव या ग्रामीण संस्कृति या ग्रामीण शोषण या गँवई जीवन कथा साहित्य से गायब था, लगभग । प्रगतिशील कविताओं में कथनों के सौन्दर्य जरूर दिखाई पड़ते हैं, मजदूरों के शोषण दिखाई पड़ते हैं । लेकिन ये चीज़ गायब थी । नई कहानी तो कुछ बाद में यानि 1954 से जो ‘कहानी’ पत्रिका निकलनी शुरु हुई उसके साल भर बाद ‘नई कहानी’ की और ग्राम कहानी की चर्चा शुरु हुई । लेकिन ‘मैला आँचल’ में पहली बार अँचल आया, जिसके बारे में आपको बताने की जरुरत नहीं है । रेणु ने लिखा है, “मैला आँचल, आँचलिक उपन्यास है, पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला है, इसके एक और है नेपाल, दूसरी ओर है पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिबम बंगाल…” तो मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर इस उपन्यास का कथाक्षेत्र बनाया है । इसके पहले फिक्शन में अँचल या आँचलिकता की चर्चा नहीं होती थी । तो अपनी बोलीबानी, भाषा, तीज-त्यौहार, अंधविश्वागस, टोना-टोटका इन सबके साथ मेरीगंज नाम से एक अंचल फिक्शन में दिखाई पड़ा । अब इस चीज को, आप इसके महत्व को यूँ समझे, उपन्यास लिखा गया, छपा 1954 में, उपन्यास का जो समय लिया गया है ये 1946 से लेकर 1948 के बीच का है । उपन्यास का विषय है, महात्मा की हत्या से पूर्व आजादी के लिए कश्मकश करती हुई जनता का संघर्ष, उसकी मानसिक स्थिति । तो 46 से 48 के बीच की कथाभूमि । पूर्णिया के एक पिछडे हुए अँचल से लिया ।
अब, जैसे मैंने बताया कि ऐसे उपन्यास क्लासिक हुआ करते हैं जिनमें भविष्य की गूँज दिखाई पड़े । दो उदाहरण मेरे सामने हैं, उस समय काग्रेस पार्टी सत्ता में थी । दूसरी पार्टीयाँ, कम्युनिस्ट पार्टी थी जो उसय महत्त्वपूर्ण थी लेकिन, वह पार्टी या उसके बाद आनेवाली पार्टियों का क्या स्वभाव हुआ, कैसी हुई । इसलिए जो भ्रष्टाचार वगैरा आप देख रहे हैं इसकी शुरुआत, भारत की आजादी से कैसे हुई इसमें नमूने के रूप में जब महात्मा गाँधी मर गए है, श्राद्ध होना है उनका, पूरा देश श्राद्ध की तैयारी कर रहा है, मेरीगंज के तहसीलदार साहब विश्वानाथ एक पूरी बस्ती को न्यौता देनेवाले हैं, जिसमें हर तरह के, हर धरम के लोग खाएँगे, पूरे देश में हर गाँव में हो रहा है, मेरे गाँव में भी हुआ था-मुझे याद है । श्राद्ध गाँधीजी का । गाँधीजी के श्राद्ध के दिन, इसमें दो काग्रेसी हैं, एक बलदेवजी हैं और दूसरे हैं बावनदास, डेढ़ बित्ते के आदमी, दुबले पतले । जब पूरा देश श्राद्ध कर रहा है, नागर नदी विभाजक है पाकिस्तान, नेपाल और भारत में, ये नदी, नदी के एक तरफ पूर्वी बंगाल यानि पूर्वी पाकिस्तान, जो बांग्लादेश है, एक दूसरी तरफ नेपाल और नदी के इस तरफ हिन्दूस्तान । तस्करी वहाँ से होती है । उन्हें खबर दी जाती है, कि अमुक दिन, रात में, पचासों बैलगाड़ियाँ गुजरेंगी, जिनपर अवैध माल लदा होगा, सिमेंट, और क्या-क्या, दुनिया भर की चीजें । ये तस्करी कराता कौन है ? 1948 में जब काग्रेस की हुकूमत इस देश में थी, तस्करी कौन करवा रहा था ? दुलार चन्द्र काबरा, जो कटहा थाने के काग्रेस कमिटी का अध्यक्ष है । एक है चन्दमल मारवाड़ी का बेटा सागरमल । सागरमल अध्यक्ष है, नरपत नगर का । गुलामी के दिनों में काग्रेसी टिकेटिंग करते थे या धरना देते थे, तो चन्दमल मारवाड़ी ने सिपाहियों को, जो ब्रिटिशर्स थे, घूस दिया था, काग्रेसियों को पीटने के लिए । तो जिसने काग्रेसियों को पिटवाया था, उसी का बेटा काग्रेस का अध्यक्ष है । गुलाबचन्द दुलारचन्द्र कापरा । जुए का अड्डा चलाते हैं । नेपाली लड़कियों की तस्करी करते हैं, जिसे आज की भाषा में कबूतरबाज़ी कहा जाता है । वे कटहा काग्रेस कमिटी के सेक्रेटरी हैं ! और तस्करी उनकी बैलगाड़ियाँ करती हैं । दृश्य आता है –
बहुत बुरे वक्त में पहुँचे थे बावनदास, उस नागर नदी के पास जहाँ से पास हो रही थी वह गाड़ियाँ ।
“माघ की ठिठुरती हुई सर्दी !…पछिया हवा भी चलती है । लगताता है, आज की रात बदरीनाथ की तरह यहाँ भी बर्फ गिरेगी । रामडंडी सिर पर आ गया… !”
बीच में मैं कहता हूँ, एक थोड़ी, अब आप लोग इसे बता सकते हैं, कई साल पहले तमिलनाडु गया था, 78-79 के आस-पास की बात है । सवाल किया था लोगों ने कि मैला आँचल का अगर तमिल में अनुवाद करना चाहेंगे तो कैसे करेंगे । वह सौन्दर्य जो उस भाषा में पैदा किया गया है वह नहीं आ पाएगा, किसी भी दूसरी भाषा में अनुवाद किया जाए । उसे अपने ढंग से भले समझा दे हम । इस मुश्किल को मैं सह गया हूँ । काशी का अस्सी का अनुवाद बांग्ला में एक महिला कर रही थी और बेहद आफत में छूटी कि हम क्या करें इसका । तो अनुवाद किसी दूसरी भाषा में होना मुश्किल होता है ।
बरहाल, तो… यहाँ बावनदास पहुँचते हैं । और इन्तजार कर रहे हैं झाड़ी में छिपकर गाडियों के आने का । बैलगाड़ियाँ आती हैं । कलीमुद्दींपुर नाका था । बैलगाड़ियाँ आती है । कलिमुद्दींपुर भारत में था । जब पूर्वी पाकिस्तान था तो वहाँ के लोगों ने कहा नाम से ही साफ है कि कलिमुद्दीन, इसे पूर्वी पाकिस्तान में होना चाहिए । लेकिन विभाजन में कलिमुद्दींपुर रह गया भारत में ही । तो…इन्हें देखकर बैल भड़कते हैं, बावनदास को ।
“गाड़ियाँ आ गईं, एकदम करीब ।
‘अरे बा-आ-आ-प रे- भू-ऊ-त ।’ अगला गाडिवान डरा और अपने साथी से दबी आवाज में कहता है ‘भूत’ !
‘छिऊँ…’ बैल भड़कते हैं । कचकचाकर गाड़ियाँ रूक जाती हैं ।
‘सेत्ताराम… ! सेत्ताराम !’
कलिमुद्दींपुर नाका के आगे सिपाही जी आगे बढ़ आते हैं. खखारकर पूछते हैं, ‘कौन है ?’
बगल की झाड़ी से सामने आकर बावन ने कहा, ‘हम हैं । सेवक बावनदास !
‘बा व न दा स !’ सिपाही जी का मुँह खुला-का-खुला रह जाता है ।” वगैरा वगैरा… और उसके बाद वह सिपाही चला जाता है, दुलारचन्द कापरा जहाँ बैठे हुए हैं, एक बाँस की झोपड़ी जैसी है, वहाँ क्या हो रहा है इसे सुनिए आप । ये काग्रेस कमेटी के सेक्रेटरी हैं । “कलिमुद्दींपुर में एक होटिल-बँगला है । …हाकिम-हुक्कारम लोग बराबर आते रहते हैं । बाँस-फूल का एक बड़ा सा चौखड़ा है, गाँव से एकदम बाहर ।
होटिल-बँगला में सप्लाय इन्सपेक्टर, दुलारचन्द कापरा और कलिमुद्दींपुर के हवलदार साहब टेबल के चारों ओर बैठकर मोरंगिया माल पी रहे हैं । कलिमुद्दींपुर होटल-बँगला के वेरसपतिया बावर्ची के हाथों का मुर्ग-मुसल्लम सिने खाया, उसी ने जी खोलकर बक्कीरस दिया ।
सप्लाय इन्सपेक्टर साहब गिलास में चुस्की लगाते हुए मुस्कराते हैं, ‘अरे धत्त ! इस मुर्ग-मुसल्लम से गर्मी थोड़ी आएगी ! हवलदार साहब ! अरे, कोई दो टाँग वाली मुर्गी … !
‘क्या पूछते हैं, आज… महातमा जी के सराध की वजह से सभी भोज खाने चली गई हैं ।’
दुलारचन्द कापरा कहता है, ‘ऊँह ! ऐसा जानता तो कटहा से ही दो रेप्युजिनी को उठा लाते । सब मजा किरकिरा कर दिया ।’
कड़कड़-कड़क् ! सप्लाय इन्सपेक्टर चितुरानन्दसिंह जी मुर्गी की टाँग चबाते हैं ।”
ये रामबुझावन सिंह हैं, पहुँचते हैं और बताते हैं के “ ‘सब चौपट ! बावनदास…’
आँ यें ! बावनदास ? कहाँ ?
…सभी गुम हो गए । बेरसपतिया बावर्ची इशारे से कहता है हवलदार साहब को, ‘मिल सकती है मुर्गी…, मगर…’ रुककर दोनों हाथों की उँगलियाँ दिखलाता है ।
हवलदार साहब कहते हैं, ‘अच्छा अभी तुम ठहरो, बाहर जाओ ।’
‘क्या हो अब?’ अकेला है, सभी एक साथ लम्बी साँस लेते हैं ।
‘अकेला है या…?’
‘एकदम अकेला !’
‘मगर इसका मतलब जानते हैं ?’
‘दुलारचन्द जी ! कापरा जी !’
सबकी निगाहें मिलती हैं आपसे में । दुलारचन्द बोतल से शराब ढालकर गटागट पी जाता है । सभी उसकी ओर आशा-भरी दृष्टि से देखते हैं । ‘मैं पंजाबी हूँ जी !…” ये दुलारचन्द बोल रहा है । काग्रेस कमिटी का सेक्रेटरी । “मैं पंजाबी हूँ जी !… मगर आगे आप लोग जानो । मैं अपना फरज अदा करने जाता हूँ ।’
…सिटसिट कर पछिया हवा चल रही है । हवलदार साहब सायकल का पैडल चलाते हुए कहते हैं, ‘कापरा जी, के आसपास के गाँवों का डर जरा भी मत कीजिए ।…ऐलान किया हुआ है कि सरहद के आस-पास रात-बरात में जो निकलेगा, उसे गोली लग जा सकती है ।’”
मारा जा सकता है इसमें कोई डाउट नहीं । जो करना है कीजिए आप…निश्चित करता है कापरा को । उसी में ये अन्तिम दृश्य है जो ….दुखद है, बावनदास को मनाने की कोशिश करता है, कि “बावनदास…मान जाओ ।” बावनदास चुप । “गाड़ी में जुते हुए दोनों जानवर अचरज से चौक पड़ते हैं ।” जानवरों के बारे में, मनुष्यों के बारे में तुलनात्मक दृष्टि देखेंगे आप ।
“भड़कते हैं । छिऊँ, छिऊँ ! नाक से आवाज करके आगे बढ़ने से इन्कार करते हैं, बैल । काबरा एक बैल की पूँछ पकड़कर ऐठता है । हड्डी पट् से बोली, मगर बैलों ने लीक छोड़ दिया और गाड़ी को बगल में लेकर भागे ।” बैलों ने छोड़ दिया, आगे बढ़ना । बावनदास को आगे देखकर ।
“दूसरी गाड़ी…! एक बैल को हवलदार और दूसरे बैल को कापरा, खोस मरोड़कर आगे बढ़ाते हैं । गाडिवान अवाक् होकर हाथ में रास थामे हुए है । यह क्या हो रहा है ?
बैलगाड़ी पास हो गई । …पास हो रही है । बावनदास बीच लीक पर खड़ा है और गाड़ियाँ उपर से आर-पार कर रही हैं । बैल भड़के जरूर, मगर…।
तीन-चार ! चार गाड़ियाँ ?
अब बावनदास ठीक बैल के सामने आकर खड़ा होता है । बैल उसे हुँत्था मारकर गिरा देता है । वह लीक पर लुढ़क जाता है । … ठीक पहिए के नीचे ।
मड़-मड़-मड़ !
…बापू ! माँ…!” बावनदास चीखते हैं ।
“गाड़ी पास ! कट-कर्रर-कट !
गाड़ियाँ पास हो रही हैं । पचास गाड़ियाँ !
आखिरी गाड़ी जब गुज़र गई तो हवलदार और रामबुझावनसिंह मिलकर, बावन की चित्थी-चित्थी लाश,” – गाँधी के श्राध्द के दिन की घटना है ये । “बावन की चित्थी-चित्थी लाश, लहू के कीचड़ में लथ-पथ लाश को उठाकर चलते हैं। …नागर नदी के उस पार पाकिस्तान में फेंकना होगा । इधर नहीं…हरगिस नहीं ।
दुलारचन्द कापरा बावन की झोली लेकर उनके पीछे-पीछे जाता है ।
नागर पार करते समय बावन के गले की तुलसी-माला नागर की बहती हुई धारा में गिर पड़ती है-सेत्ताराम !” यानि उनकी माला नागर नदी में फेंकता है ।
“चार बजे भोर को पाकिस्तान पुलिस ने घाट-गश्त लगाने के समय देखा-लाश !
अरे यह तो उस पार के बौने की है ।” सरहद पर रहनेवाले पाकिस्तान के लोग जानते थे-बावनदास को । “यहाँ कैसे आई ? ओ, समझ गए ।…उठाओ जी, हनीफ और जुम्मन, ले चलो उस पार !
तो बावन की ठंड़ी लाश झोली-डंड़ा के साथ फिर उठी ।”
टिप्पणी है-लेखक की । “बावन ने दो आज़ाद देशों की, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की-ईमानदारी को, इंसानियत को, बस दो डेग में ही नाप लिया ! ”
ये गाँधी के श्राद्ध के दिन, एक काग्रेस पार्टी के सेक्रेटरी का काम है ! उसी का विकास हुआ है आज तक, होता आ रहा है । मैंने कहा भविष्य की गूँज जिस रचना में दिखाई पड़े… । आजादी को एक सामान्य आदमी कैसे देख रहा था और एक लेखक कैसे देख रहा था । उसकी नज़र में स्वाधीनता क्या है । स्वाधीनता लाने वाले मुख्य रूप से काग्रेसी थे । ये इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि जिसे हम नई कहानी कहते हैं, उस नई कहानी के कहानीकारों में आशाएँ, आकांक्षाएँ,उम्मीदें नज़र आती हैं । लेकिन उनके शुरु करने के पहले ही रेणु ने इस कंट्राडिक्शन को देख लिया था । समझ लिया था कि आगे क्या होना है, क्या होनेजाना है । दूसरी बात आज के कथाकारों का कथ्य । यानि, मैत्रेयी पुष्पा हो, संजीव हो, शिवमूर्ती हो या दूसरे कथाकार हो । ग्लोबलाईज़ेशन के बाद एक चीज़ आई है, इन सारे कहानीकारों की कहानियों में जो संवाद दिखाई पड़ते हैं, ज्यादातर पात्रों के, वे संवाद वहाँ की अपनी बोली में दिखाई पड़ते हैं, ज्यादातर, भोजपुरी में, बघेली में, मारवाड़ी में, छत्तीसगढ़ी में, मैथिल में – गौरीनाथ वगैरे के यहाँ या जो भी मैथिल लेखक हैं- यहाँ तक कि वजही में भी । तो इनके यहाँ जो यथार्थ को बताने के लिए, यथार्थ चित्रण के लिए, पात्रों के संवाद जो बोलियों में दिखाई पड़ते हैं – गोदान में नहीं था ये । ग्राम कथा लिखनेवाले जो कथाकार थे – मार्कण्डेय हों या शिवप्रसाद सिंह हों, शैलेष मटियानी हों – इनके यहाँ कुछ शब्दों के प्रयोग से उस क्षेत्र को लोकेट कर सकते हैं । भोजपुरी के शब्द आते थे । संवाद उनके यहाँ नहीं दिखाई पड़ते थे । लेकिन अब जो लेखक लिख रहे हैं और खासकर युवा लेखक, विभिन्नँ क्षेत्रों से आए हुए, वे इस्तेमाल कर रहे हैं वहाँ की बोली जानेवाली लोक बोलियों का । अगर इसके सूत्र ढूँढ़े जाए हिन्दी में कि किसने, कहाँ शुरु हुई है, तभी आपकी नज़र जाएगी रेणु की तरफ, उनकी उन कहानियों की तरफ जिन्हें ठुमरीधर्मा कहा गया है । चाहे ‘पंचलाईट’ हो या ‘तीसरी कसम’ हो या और कहानियाँ हैं । वहाँ भी, जो वाक्यों की बनावट है वो खड़ी बोली की ही है, शब्द आ जाते हैं ; लेकिन अब सीधे-सीधे उस बोली या भाषा में, इस्तेमाल हो रहा है । इनके सूत्र, मैंने कहा कि ढूँढ़े जा सकते हैं ।
एक और चीज़ के सूत्र ढूँढ़े जा सकते हैं रेणु के यहाँ, और ये ग्लोबलाईज़ेशन की देन है । बचपन में गाना गाते थे हमलोग, बच्चेे थे तो और इसे बनारस के किसी आदमी ने लिखा था –
ये दुनिया इतनी बड़ी मगर, संसार हमारा छोटा-सा । ये दुनिया इतनी बड़ी मगर, संसार हमारा छोटा-सा । सब चढ़े जहाजों पर रेलों पर, इक्केत-टाँगों-ठेलों पर, चाबी से चलनेवाला मोटरकार हमारा छोटा-सा ।
बच्चे के लिए तो वही है, चाबी से चलनेवाला मोटरकार, वही है जिसे वह अपना कहता है । अस्मिता की पहचान । पूरा देश, अपना ही देश नहीं, कहले कि दुनिया के जितने मुल्क हैं हर मुल्क में यह समस्या होगी, अपनी अस्मिता की पहचान । इसे कायम रखना है । हम गुम न हो जाएँ, इस ग्लोबलाईज़ेशन में खोने का डर बहुत है । क्योंकि हमारा जो आक़ा है, वह चाहता है कि सारी दुनिया एक ही हो, सारी दुनिया जिन्स और टी-शर्ट पहने, सारी दुनिया एक सा खाना खाए, एक सी संस्कृति हो, सारा कुछ एक सा हो । ग्लोबलाईज़ेशन में और आर्थिक नीति के कारण या सांस्कृतिक परिवर्तनों के कारण जितने ख़तरे हम महसूस कर रहे हों, उन्हीं खतरों से पैदा हुआ है, लेकिन सबसे अच्छी बात हुई, वह अपनी अस्मिता की चिन्ता । चाहे वह भाषा की हो, बोली की हो पहनावे की हो, या खानपान की हो । यह रह जाए, यह कहीं गुम न होने पाए । यानि, यहाँ क्या-क्या हुआ हम नहीं जानते लेकिन काशी हिन्दू विश्व विद्यालय में, इतने वर्षों से लोग चिल्ला रहे थे, पहले नहीं था, लेकिन पिछले वर्ष भोजपुरी का विभाग अलग से खुला । छत्तीसगढ़ के स्कूलों में छत्तीसगढ़ी पढ़ाई जाने लगी । इसी तरह सबको लगने लगा है कि उनकी अपनी बोली खतरे में है, अपनी भाषा खतरे में है, अपने रीति-रिवाज़ ।
दिखावे के स्तर पर ही सही सन् 1950-55 के जमाने में काशी हिन्दू विश्वहविद्यालय में मूर्तियाँ उदास पड़ी, भगवान लोग उदास पड़े रहते थे, कोई देखनेवाला नहीं था, जितने भगवान हैं, बाबा विश्वपनाथ भी, वो ऐसे ही पड़े हुए थे कोई झाँकनेवाला नहीं था । और अब तो मैं काशी हिन्दू विश्वपविद्यालय में प्राध्यापकों को देखता हूँ बहुत से लोग सबेरे पानी की लुटिया लेकर चलते हैं, पीपल को पानी चढ़ाते हुए चलते हैं । अभिव्यक्तियाँ ढेर सारी हुई है, लेकिन जो खास बात हुई है अपनी अस्मिता की चिन्ता । उसे बचाके रखना चाहिए । उसी के अन्तर्गत चाहे तो आप ले सकते हैं, इसका बहुत ही भदेस रूप दिखाई पड़ता है अपने यहाँ कि जब हुआ कि अयोध्या में राममन्दिर बनेगा तो अरबों रूपये विदेशों से, जो कमाई कर रहे हैं लोग उन्होंने भेजना शुरु किया । अपनी अस्मिता की चिन्ता के विविध रूप होते हैं । हानिकर भी । जिन्हें हम कहते हैं कि ध्वंसक, भी दिखाई पड़ते हैं लेकिन रचनात्मक रूप भी दिखाई पड़ते हैं । ये अपने अँचल के अस्तित्व की स्थिति जैसे आज होने लगी है ग्लोबलाईज़ेशन के दौर में । स्वाधीनता के बाद दिखाई पड़ रही है आज़ादी को लेके । कि स्वाधीनता में मेरीगंज को क्या मिल रहा है ? मेरीगंज कहाँ है इस आजादी में ? वही अशिक्षा, वही पिछड़ापन, वही मलेरिया जिसके लिए डाक्टर जाता है वहाँ । जिस ग्लोबलाईज़ेशन में हम अपनी अस्मिता की तलाश कर रहे हैं, स्वाधीन देश में अपनी अस्मिता की चिन्ता इस आदमी ने की, रेणु ने । पूर्णिया के पूरे इलाके नहीं, एक हिस्से के एक ही गाँव में, उसे बानगी के रूप में आप ले सकते हैं कि उस पूरे अँचल में कहाँ था देश, कहाँ थी आज़ादी, स्वाधीनता कहाँ थी । लिखी तो जाती है रचनाएँ, लेकिन मैला आँचल के समानान्तर आज भी कोई पुस्तक नहीं आती है । मेरे लिए तो माडल रहे हैं-फणीश्वमरनाथ रेणु । अगर मैं साहस कर सका ‘काशी का अस्सी’ लिखने के लिए तो दीपस्तंभ की तरह मेरे लिए फणीश्वेरनाथ रेणु रहे हैं । बाकी तो आप पढ़ते लिखते रहते हैं ।
अन्त में मैं कहना चाहता हूँ कि इतने लम्बे समय बाद बहुत दिनों के लिए मैंने बनारस छोड़ा । वर्ना दो-तीन दिन से ज्यादा नहीं रहा, जहाँ रहा हूँ । पता नहीं मुझे भी क्या समय सवार हो गया । हैदराबाद देखा नहीं, देख आएँ । लेकिन यहाँ के प्राध्यापक मित्रों का, रवि रंजन जी का और अपने विद्यार्थियों का, छात्राओं का जो प्यार मिला वो मेरे लिए अमूल्य निधि है, इसे मैं नहीं भूला पाऊँगा ।लिप्यांकन : मोबिन जहोरोद्दीन
देखें प्रो. नित्यानंद तिवारी का संवेदनशील और अंतर्दृष्टिपूर्ण लेख मैला आँचल