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‘अर्द्ध मात्रलाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः’ व्याकरण-जगत में प्रसिद्ध इस सूत्र के पीछे पूरी सामाजिक मानसिकता झलकती है। इसका तात्पर्य है कि भाषा के व्याकरण को सूत्रबद्ध करते समय यदि वैयाकरण आधी मात्रा की भी बचत कर लेता हे तो उसे पुत्र जनमने का सा आनन्द होता है। व्याकरण-निर्माण के ज्ञान-जन्म-सुख की उपमा के रूप में यदि बेटे का जन्म आह्लाद विद्वद्-वर्ग को सूझता है, तो यह कोई संयोग नहीं, बल्कि उसके मन में बैठा वह गहरा लिंग-भेद है जो समाज से होते हुए भाषा में, फिर भाषा से उसके विवेचन (व्याकरण) तक में प्रविष्ट हुआ है।
भाषा-व्याकरण में ‘लिंग’ नामक अवधारणा सदियों से चल रहे स्त्री-पुरुष मूलक विभेद-भावना का ही प्रतिनिधित्व नहीं करती, बल्कि (जैसा समाज में हो रहा है, वैसा ही) पुलिंग का वर्चस्व भी स्त्रीलिंग पर दिखलाती है। यानी, पुलिंग के सामने स्त्रीलिंग को दोयम दर्जे का सिद्ध मानकर ‘लिंग’ नामक अवधारणा खड़ी हुई है।
भाषा के अधिकत प्रभावषाली, निर्णायक, शक्तिसूचक शब्द पुरुषवाची हैं। इसके साथ, भाषा में स्त्रीलिंग शब्दों की व्युत्पत्ति पुलिंग शब्दों से करने की सहज प्रक्रिया रही है। यह प्रवृत्ति पुलिंग शब्दों को मौलिक और स्त्रीलिंग शब्दों को उनसे व्युत्पन्न (यानी अमौलिक) ठहराती है। यह ‘बाइबिल’ की विख्यात दन्तकथा के अनुरूप है, जिसमें पुरुष के शरीर से स्त्री उत्पन्न हुई है। यह तो जीवविज्ञान के सिद्ध तथ्य को एकदम उलट के रख देना हुआ। स्त्री से जन्म लेने के बावजूद सन्तान पर पुरुष का हक मानना तो जारी है ही, बल्कि उससे भी बढ़कर प्रजनन-क्रिया में स्त्री की मुख्य भूमिका को भी नकार कर पुरूष को मुख्य (बीजदाता किसान) तथा स्त्री को गौण (खेत भर) कहा गया है; आज तक एक आम सामाजिक सोच में यही मूर्खता काम कर रही है। इसी सामाजिक विडम्बना के परिप्रेक्ष्य में व्याकरण में ‘लिंग’ नाम का अध्याय बन कर खड़ा हुआ है।
भाषा की इस प्रकार की लिंगभेदी प्रवृत्ति अधिक सभ्यजातियों की भाषाओं में अधिक स्पष्ट होती है तथा कम सभ्य या असभ्यप्राय जातियों की भाषाओं में कम स्पष्ट या अस्पष्ट। इसका सीधा सा कारण है कि स्त्री-पुरुष के बीच समता के सूत्र कथित असभ्य जातियों में ज्यादा हैं, क्योंकि स्त्री को दोयम दर्जे में डालने वाली विचारधारा (पितृसत्ता) सभ्यताकृत/सांस्कृतिक है और वे जातियां प्रकृति के अधिक निकट हैं। इसी से स्त्री-पुरुष के बीच विभेद करने वाली मानसिकता से जनजातीय भाषाएं कम ग्रस्त या मुक्तप्राय हैं। सभ्यता में बढ़ी-चढ़ी जातियों की भाषाओं में वाक्य-प्रयोग के घटकों में भी लिंग-भेद की छाया अधिक दिखती है; साथ ही पुलिंग प्रयोग में ही स्त्रीलिंग को समाहित मानने की जबरदस्ती भी खूब दिखाई देती है। फिर यदि सभ्यता का विकास अधिक (वैज्ञानिक-लोकतांत्रिक मूल्यों पर) हो जाने के कारण स्त्री-पुरुष के बीच का विभेद कम होते गया, तो तत्-तत् भाषा में लिंग-भेद की सूचनाएं भी धीरे-धीरे खोती जाती हैं। यह बात हम ‘हिंदी’ और ‘अंगरेजी’ भाषाआंे के संदर्भ में समझ सकते/सकती हैं। ‘हिन्दी’ में जहां लिंगभेद बहुत मजबूत अवस्था में है, वहीं ‘अंगरेजी’ में अब इसकी धुंधली छाया भर रह गयी है। यह बात थोड़ी देर में स्पष्ट की जाएगी।
‘व्याकरण’ भाषा का विवेचन करके नियम निर्धारित करता है। इसलिए, जब तक भाषा में लिंग-भेद का भाव बना रहेगा, व्याकरण के नियमों में भी झलकता रहेगा। अर्थात्, कहा जा सकता है कि व्याकरण का लिंगभेदी होना भाषिक समाज के लिंग-भेदी होने का परिणाम है। फिर भी, वैयाकरण पूरी तरह निर्दोष नहीं कहला सकता। कारण है, उसकी ‘पुत्रोत्सव’वादी मानसिकता।
लिंग को लेकर व्याकरण-संसार में एक विचार व्याप्त रहा है कि बड़ा, स्वतंत्र या कठोर के वाचक शब्द पुलिंग श्रेणी में आते हैं तथा छोटा, पराधीन या नाजुक के वाचक शब्द स्त्रीलिंग श्रेणी में होते हैं। यद्यपि यह बात सदैव घटित न हो सकी है, क्योंकि लिंग-धारणा के विकास का एक अपना जटिल इतिहास है। परन्तु, भाषा-विकास में उक्त तरह के कोटीकरण को मोटे तौर पर स्वीकृत प्राप्त है। वैयाकरण उसमें कुछ अपनी तरफ से मजबूती ला देते हैं, जब वे भाषा का व्याकरण लिखने बैठते हैं। इस विसंगति का एक प्रमुख आधार वैयाकरणों की पांत में स्त्री की नगण्यता भी है, वैसे इक्की-दुक्की स्त्री वैयाकरण हो कर भी क्या कर सकती हैं जबकि पितृसत्तात्मक सोच सर्वाच्छादी है? जब पण्डित किशोरीदास वाजपेयी ‘आत्मा’ के स्त्रीलिंग और ‘परमात्मा’ के पुलिंग होने का यह तर्क पेश करते हैं तो बात खुलकर सामने आ जाती है। उनका कथन है – ‘आत्मा तो ईश्वर के अधीन है, स्वतंत्र नहीं है। परमात्मा स्वाधीन है, स्वतंत्र है। स्वतंत्रता की व्यंजना के लिए परमात्मा पुलिंग में तथा पराधीन के प्रदर्शन के लिए आत्मा स्त्रीलिंग में है।’ स्पष्ट होता है कि स्त्री और पुरुष को लेकर गुणों या सामाजिक व्यवहार के कोटीकरण की लिंगभेदी-अलोकतांत्रिक मानसिकता ‘व्याकरण’ जैसे तटस्थ विवेचन के दावेदार शास्त्र में किस प्रकार प्रविष्ट हुई है! सदियों पहले से निर्मित किए गए इस झूठ से वैयाकरण भी बुरी तरह ग्रस्त दिखता है कि स्त्री पुरुष के सामने हीन, नाजुक और गुलाम होती है। यानी, वैयाकरण अपने विवेचनात्मक दायित्व का लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुसार निर्वाह न कर पाने की स्थिति में, स्त्री को अबला बनानेवाली अन्तरराष्ट्रीय सांस्कृतिक परियोजना का (अनजाने में ?) एक हिस्सा बन जाता है।
‘लिंग’ की अवधारणा का मजबूती से बने रहना (हिन्दी) व्याकरण पर पुरुषवादी होने का आरोप लगने की पृष्ठभूमि बनाता है। इसका सबसे पहला और बड़ा प्रमाण तो यही है कि इस अर्थ में पाणिनी और ‘साहित्यदर्पण’कार विश्वनाथ द्वारा प्रयुक्त ‘व्यक्ति’ शब्द को हटा कर (हिन्दी) व्याकरण ने ‘लिंग’ शब्द को अपनाया। यदि भाषा में भी पुरुष और स्त्री की भेदकता दिखलाना जरूरी ही था, तो उस के लिए पारिभाषिक शब्द के रूप में पुरुष-यौनांग ‘लिंग’ को ही क्यों चुना गया? यह चुनाव क्या उसी प्रकार नहीं है जिस प्रकार ‘नारी’ के व्यक्तित्व की पहचान ‘नर’ से उसके सम्बंध की मोहताज हो, जबकि जीववैज्ञानिक आधार पर ‘नर’ की पहचान ही ‘नारी’ (उसके जननी होने के कारण) की मोहताज होनी चाहिए। नारी-यौनांग ‘योनि’ को पारिभाषिक शब्द क्या नहीं बनाया जा सकता था, जो व्यापकतर अर्थ रखता है; न सिर्फ जीवविज्ञान की दृष्टि से, अपितु भाषा के सांस्कृतिक अर्थविज्ञान की दृष्टि से भी? ‘पुलिंग’ व ‘स्त्रीलिंग’ की जगह ‘पुंयोनि’ व ‘स्त्रीयोनि’ शब्द निश्चित रूप से सटीक होते। ‘योनि’ का अर्थ जाति-प्रजाति तक चला जाता है, जबकि ‘लिंग’ का अर्थ ‘चिह्न’ तक ही सिमट कर रह जाता है। पण्डित किशोरीदास वाजपेयी ने अपने ‘हिन्दी-शब्दानुशासन’ में लिंग की जगह पारिभाषिक शब्द के रूप में ‘व्यक्ति’ और ‘जाति’ शब्द का प्रयोग कर अवश्य तर्क बुद्धि का परिचय दिया है; भले वे सदा इस बात पर कायम नहीं रह सके हैं। ‘योनि’ से भी आपत्ति थी तो व्याकरण कोई तीसरा शब्द भी चुन सकता था, जैसे अंग्रेजी का ‘जेंडर’ शब्द है। हिन्दी-संस्कृत भाषाओं की दिक्कत यह भी है कि उनमें प्राकृतिक लिंग (ैमग) और सांस्कृतिक/व्याकरणिक लिंग (ळमदकमत) के वाचन के लिए गिनचुन कर एक ही शब्द है और वह है अभागा लिंग।
भाषा और उसके व्याकरण में लिंग-भेद या ‘लिंग’ अवधारणा के उपस्थित रहने का क्या अर्थ है? यानी, किस आधार पर कहा जा सकता है कि किसी भाषा में ‘लिंग’ की सत्ता है? लोक में स्त्री-पुरुष जातियों के वाचक शब्द भाषा में तो रहते ही हैं – जैसे लड़का (ठव्ल्), लड़की (ळपतस) या पिता (थ्ंजीमत), माता (डवजीमत)। परन्तु इनके रहने मात्र से भाषा में लिंग का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो जाता। कारण कि इन दो प्रकार के अर्थों (पदार्थों) के वाचक शब्द उसी प्रकार माने जा सकते हैं, जिस प्रकार आदमी-घोड़ा, लड़की-शेरनी दो अलग-अलग स्वतंत्र अर्थों के वाचक शब्द हैं। लड़का-लड़की जैसे शब्दों का अर्थ-भेद प्राकृतिक लिंग (ैमग)-गत अर्थ-भेद है और आदमी-घोड़ा जैसे शब्दों का अर्थ-भेद प्राकृतिक जाति (प्राणि-वर्ग) गत अर्थ भेद है। बस इतना सा अन्तर है। परन्तु, यह तो है लौकिक अर्थ का क्षेत्र ही। जब तक व्याकरणिक अर्थ (व्याकरणिक कोटि) के रूप में ‘लिंग’ (ळमदकमत) की भूमिका न दिखाई दे, तब तक भाषा (व्याकरण) में ‘लिंग’ (ळमदकमत) की सत्ता अमान्य है। यानी लड़का-लड़की जैसे शब्दों का लिंग-गत अर्थ-भेद भाषा में इनके प्रयोग-भेद के रूप में ढलता दिखलाई पड़े, तभी माना जाएगा कि भाषा में ‘लिंग’ (ळमदकमत) की सत्ता है। उदाहरण से बात स्पष्ट करें। अंगरेजी में ठवल और ळपतस को लेकर प्रयोग-संबंधी (क्रिया, विशेषण या किसी संबंध सूचक) तत्व में कोई भेद नहीं दिखता — ‘ठवल हवमे’ है तो ‘ळपतस हवमे’ ही है। क्रिया समान ही है दोनों के लिए। पर, हिन्दी में ‘लड़का’ के लिए ‘जाता है’ प्रयुक्त होता है, तो ‘लड़की’ के लिए ‘जाती है’। हिन्दी में ‘लड़का’ व ‘लड़की’ को लेकर प्रयोग भेद है, क्योंकि हिन्दी भाषी समाज में ‘लड़का’ व ‘लड़की’ को लेकर व्यवहार-भेद गहरा है। संस्कृत के क्रिया रूपों तिगन्तों में कोई लिंग-भेद नहीं है – ‘रामः गच्छति’ तो ‘सीता गच्छति’। पर इतना ही देखकर यह न समझ लेना चाहिए कि संस्कृत भाषा लिंगभेदी नहीं है। कृदन्त क्रिया रूपों या विशेषणीभूत कृदंतों का भी विशाल संसार है जो गहन लिंगभेद का शिकार है – ‘रामः गतवान्’ तो ‘सीता गतवती’। इसके अलावा विशेषण और अन्य पुरुष के सारे सर्वनाम लिंग-भेद पर खड़े हैं। पितृसत्तात्मक-मनुवादी संस्कृत में ढली भाषा से लिंग-भेदहीन होने की उम्मीद भी कैसे की जाएगी? अंगरेजी भाषा की मूल भाव-प्रकृति लिंगभेद को नहीं मानती, क्योंकि अंगरेजी भाषी समाज में स्त्री-पुरुष भेद अपेक्षाकृत हल्का हो चुका है कहने के लिए तो अंगरेजी भाषा में पुलिंग (डंेबनसपदम ळमदकमत), स्त्रीलिंग (थ्मउपदपदम ळमदकमत), नपुंसक (क्लीब लिंग) (छमनजमत ळमदकमत) और उभयलिंग (ब्वउउवद ळमदकमत) हैं, पर भाषिक प्रयोग में इनकी सत्ता प्रायः नहीं दिखती। अन्य पुरुष (ज्ीपतक च्मतेवद) के तीन सर्वनाम (च्तवदवनद) हैं – भ्म, ैीम, प्ज – बस, इन्हीं से पता चलता है कि अंगरेजी में पुलिंग, स्त्रीलिंग व नपुंसक लिंग नामक कोई चीज भी है। फिर इन सर्वनामों से बने सार्वनामिक विशेषण (भ्पे, भ्मत, प्जे) आदि हैं, जिनसे भी ‘जेण्डर’ नामक तत्व की सूचना मिलती है। शेष कोई प्रमुख क्षेत्र है ही नहीं, जिनसे पता चले कि अंगरेजी भाषा पुरुष व स्त्री में भेद करती है। फिर चैथा बहुकथित ब्वउउवद ळमदकमत तो सिर्फ कहने की बात है। उसका सूचक तो कोई सर्वनाम या सार्वनामिक विशेषण भी नहीं है, जिससे संकेत मिले कि अमुक शग्द ब्वउउवद ळमदकमत में है। परन्तु, हिन्दी में जब हम यह कहते हैं कि ‘वह जाती है’, फिर ‘वह जाता है’ तो स्पष्ट होता है कि प्रथम वाक्य का कर्ता ‘वह’ स्त्रीलिंग है, दूसरे वाक्य कर्ता ‘वह’ पुलिंग है। यानी, रूप एक होने के बावजूद ये दोनों ‘वह’ अलग-अलग अर्थों (स्त्री व पुरुष) के वाचक हैं। व्याकरण रूप को महत्व देता है इसलिए कहा जा सकता है कि हिन्दी के सारे सर्वनाम उभयलिंगी (ब्वउउवद ळमदकमत) हैं – वह-वे, यह-ये, कौन, जो… सो (जिन… तिन) कोई, क्या, तम-तुम, मैं-हम। सभी एक ही रूप में दोनों लिंगों में प्रयुक्त होने की क्षमता रखते हैं अथवा स्त्रीलिंग और पुलिंग दोनों अर्थों का वाचन हिन्दी सर्वनाम करते हैं। अंगरेजी में उभयलिंग तो सिर्फ कहने भर को है। फिर, बाकी तीन लिंग भी अंगरेजी में क्षीण अस्तित्व ही प्रायः रखते हैं, वह भी कुछ संस्कार (भ्म, ैीम, प्ज) रूप में, जो पुराने युग का अवशेष मात्र है। परन्तु, हिन्दी भाषा (व्याकरण) में तो लिंग-भेद बड़ी दृढ़ता से बैठा हुआ है।
भाषा में ‘लिंग’ का अस्तित्व मानने का एक और क्षेत्र है – ‘व्युत्पत्ति’ या ‘शब्द-निर्माण’। यद्यपि यह क्षेत्र ‘व्याकरण’ बाह्य है। शब्द तो लोक के खेत में स्वतः आवश्यकतानुसार पैदा होते रहते हैं अथवा जरूरत के हिसाब से लोक के कारखाने में बनकर प्रयोग में चलते दिखते हैं। वैयाकरण का कार्य प्रयोग/व्यवहार में दिख रहे शब्दों की निर्माण-प्रक्रिया का विवेचन भर देना है; शब्द बनाना नहीं। व्याकरण शब्दों की व्युत्पत्ति का विवेचन भी अब जाकर करने लगा है। प्राचीन काल में तो उस के लिए अलग सम्प्रदाय (स्कूल) था, जिस का नाम ‘निरुक्त’ था। खैर! आज तो ‘व्युत्पत्ति’ सम्प्रदाय व्याकरण का अनिवार्य अंग सा बना हुआ है।
‘व्युत्पत्ति’ में देखा जाता है कि ‘लिंग’ की स्पष्ट भूमिका है। हिन्दी-संस्कृत में तो है ही, अंगरेजी में भी है। कुछ खास प्रत्यय (‘स्त्री-प्रत्यय’) कई भाषाओं में हैं, जो पुलिंग शब्दों में लग कर स्त्रीलिंग शब्द व्युत्पन्न करते हैं – ऐसी व्यवस्था है, जिसका उल्लेख उन-उन भाषाओं के व्याकरणों में होता है। जैसे – लड़का$ई त्र लड़की। बाला$आ त्र बाला। ळवक$मेे त्र ळवकमेेण् भ्मतव$पदम त्र भ्मतवपदमण् भाषा की यह व्यवस्था जिसका सन्धान व्याकरण ने किया है, स्त्रीलिंग को पुलिंग के सामने कमतर आंकने की मानसिकता की देन है। क्या व्याकरण का यह दोष है अथवा लोक/भाषा में चल रही शब्द-निर्माण की प्रक्रिया की निर्दोष व्याख्या मात्र है? चाहे शब्द-निर्माण में लोक कितना भी स्वतंत्र हो, पर उसकी प्रक्रिया को ‘पुलिंग शब्द $ (स्त्री) प्रत्यय’ के रूप में विवेचित करने और इस प्रकार पुलिंग शब्दों को मूल और स्त्रीलिंग को व्युत्पन्न (गौण) बताने का दोष तो व्याकरण ने ही अपने सिर पर लिया है। व्याकरण चाहे अपनी कितनी भी सीमा की सफाई दे, पर ‘प्रकृति $ प्रत्यय’ कल्पना का ढंग तो थोड़ा-बहुत बदल ही सकता है जिससे स्त्रीलिंग शब्दों को द्वितीयक (व्युत्पन्न) ही मानने की रुढ़ि टूटे। पर, नहीं। संस्कृत-व्याकरण में तो स्त्री-प्रत्यय मात्र हैं, पुलिंग-प्रत्यय हैं ही नहीं। यानी, संस्कृत व्याकरण में पुलिंग की प्राथमिकता का कोई विकल्प न सोचा गया है। हिन्दी व अंगरेजी में भी कमोबेश यही स्थिति है, पर थोड़ा सा फर्क है। इसकी चर्चा आगे करेंगे। डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह की पुस्तक ‘भाषा का समाजशास्त्र’ में कहा गया है कि मुण्डा भाषाओं के मूल शब्दों में पुरुषवाचक व स्त्रीवाचक अंशों/शब्दों को जोड़कर पुलिंग व स्त्रीलिंग अर्थों की सूचना दी जाती है। यदि ऐसा है तो निश्चय ही हिन्दी-अंगरेजी-संस्कृत आदि से मुण्डा भाषाओं की लिंगगत व्युत्पत्ति अधिक तर्कपूर्ण है; क्योंकि व्युत्पत्ति ऐसी है ही नहीं कि स्त्रीलिंग-पुलिंग में से किसी की किसी पर सत्ता सिद्ध हो। इसका कारण यह बतलाया जा सकता है कि वे भाषाएं अधिक प्राचीन हैं, इसलिए लिंग-भेद की अवधारणा उनमें धुंधली सी है, प्रारंभिक अवस्था में है। भाषा वैज्ञानिकों की मान्यता है कि पुंसत्व व स्त्रीत्व का लिंग-भेद बाद की घटना है।
‘व्युत्पत्ति’ पर विचार करते हुए यह भी ध्यातव्य है कि बहुत से पुलिंग व स्त्रीलिंग शब्द-युग्म एकदम स्वतंत्र शब्द होते हैं। जैसे – पिता-माता, थ्ंजीमत.डवजीमत, पति-पत्नी, ठवल.ळपतस आदि। यहां ध्वनि-परिवर्तन के किसी ऐसे नियम का सन्धान नहीं किया जा सकता जो ‘पिता’ शब्द से ‘माता’ को सिद्ध कर सके और इस प्रकार किसी ऐसे प्रत्यय की कल्पना नहीं की जा सकती जो ‘पिता’ में लग कर ‘माता’ शब्द की व्युत्पत्ति करता दिखे। (‘माता’ से ‘पिता’ की व्युत्पत्ति दिखलाने की कोशिश तो खैर वैयाकरण का पितृसत्तात्मक मन करेगा ही नहीं) फिर भी वैयाकरण बाज कब आया है। हर शब्द की व्युत्पत्ति दिखलाने का प्रयत्न करता ही है। क्या इसलिए कि स्त्रीलिंग शब्द को स्वतंत्र देखना वैयाकरण के पितृसत्तात्मक मष्तिष्क को अग्राह्य है, जो वह लिंगगत ऐसे शब्द युग्मों में भी स्त्री-प्रत्यय जन्म व्युत्पत्ति कथा गढ़ता है? पाणिनी ने ‘पति’ से ‘पत्नी’ की व्युत्पत्ति सिद्ध करने की जो व्याख्या दी, वह उनकी विवशता हो सकती है, वास्तविकता नहीं। ‘पत्युनों यज्ञ सम्भोगे’ (अष्टाध्यायी 4.1.33) – पति के यज्ञ-कार्य में सहयोग प्रदान करने से (पति $ङीप्/नुक) पत्नी की व्युत्पत्ति, स्त्री निम्नतर सामाजिक स्थिति की आख्यात्री है। स्त्री का पत्नीत्व उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व की समाप्ति और ‘पति’ नामक मर्द-विशेष के सुख/कल्याण-साधन में उसके विलीनीकरण का पर्याय बना रहा है – यह त्रासद सच ही पाणिनी को ‘पति’ से ‘पत्नी’ शब्द की उक्त प्रकार से सिद्धि करने को विवश कर सका। इस पाणिनीय व्युत्पत्ति की छाया में महाभाष्यकार द्वारा यह वितर्क उठाया गया कि जब शूद्र को वेदपाठ या यज्ञादिक का अधिकार ही नहीं है तो शूद्र पुरुष की ब्याहता को उसकी ‘पत्नी’ कैसे कहा जा सकता है? तब खुद उन्होंने समाधान दिया कि उपमान या लक्षणा से ऐसा कहा जा सकता है। यानी ‘यज्ञ कार्य में सहयोग’ का लक्ष्यार्थ ‘सहयोग’ लेकर शूद्र पुरुष को उसकी पत्नी कहा जा सकता है। इन सब पचड़ों में पड़ने की जगह यदि ‘पति’ व ‘पत्नी’ जैसे शब्द-युग्म को ‘आदमी’ व ‘घोड़ा’ जैसे अलग-अलग स्वतंत्र शब्द मानकर चला जाता तो क्या गड़बड़ी होती? पुलिंग की सत्ता कमजोर होती, यही न? (औरत स्वतंत्र रह जाए, तो मर्दानगी किस काम की?) समग्रतः वैयाकरण भी समाज में व्याप्त लिंगगत, जातिगत पूर्वग्रहों से स्वयं को बचा नहीं पाता।
प्रत्यय जोड़ने की जगह, लिंगगत व्युत्पत्ति का एक गौण क्षेत्र है – समास-प्रक्रिया द्वारा व्युत्पत्ति। जैसे – खिलाड़ी (पु.)झ महिला खिलाड़ी (स्त्री); कोकिल (स्त्री) झ पुंस्कोकिल (पु.)। च्मं.बवबा (पु.) झ च्मं.ीमद (स्त्री)
यहां स्पष्ट है कि इस प्रकार की व्युत्पत्ति पुलिंग से स्त्रीलिंग की ओर ही नहीं, बल्कि स्त्रीलिंग से पुलिंग की ओर भी होती है। परन्तु, यह व्युत्पत्ति का गौण क्षेत्र है। मुख्य क्षेत्र है प्रत्यय द्वारा व्युत्पत्ति, जहां पुलिंगवाद का ही राज्य है — ‘पुलिंग (मूल शब्द) $ स्त्री प्रत्यय – स्त्रीलिंग शब्द के रूप में।
इतने विवेचन से स्पष्ट है कि यदि ‘व्युत्पत्ति’ को व्याकरण का अनिवार्य अंग माना जाए, तब तो अंगरेजी भाषा में भी लिंग की सत्ता है क्योंकि उसमें लिंग की भूमिका व्युत्पत्ति में है। परन्तु, यदि केवल भाषा-प्रयोग (पदत्व और वाक्य रचना) को व्याकरण का विवेच्य मानें, तो अंगरेजी भाषा में लिंग की सत्ता नहीं है क्योंकि वहां भाषा-प्रयोग में लिंग की कोई भूमिका नहीं है। हिन्दी भाषा तो दोनों दृष्टियों से ‘लिंग’ की सत्ता को स्वीकार किए बैठी है।
(हिन्दी) भाषा और उसके व्याकरण के पुरुषवादी होने के ढेर सारे संकेत मौजूद हैं। हम बिन्दुवार विचार करते हैं।
(1) उपर्युक्त ‘व्युत्पत्ति’ नामक प्रकरण में स्त्रीलिंग की पुलिंग के सामने हीनता प्रकट की गयी है। इसी संदर्भ में, जब जातिवाचक संज्ञाओं से भाववाचक संज्ञाएं बनाजे हैं तो किसी जातिवाची पु. शब्द को ही मूलवत् मानकर आचरण करते हैॅं, भले उसका स्त्रीलिंग भी परम्परा में प्रतिष्ठित रहा हो। जैसे – ‘आचार्य’ और ‘आचार्या’ दोनों शब्द मौजूद हैं, परन्तु हम (आचार्य-कर्म/गुण हो आचार्या-कर्म/गुण, दोनों के लिए) ‘आचार्य $ त्व त्र आचार्यत्व’ शब्द ही बनाते हैं। इसी प्रकार ‘अध्यक्ष’ व ‘अध्यक्षा’ दोनों के कर्म को ‘अध्यक्षता’ ही कहते हैं। जैसे – पण्डित नेहरू ने सभा की अध्यक्षता की। इन्दिरा गांधी ने सभा की अध्यक्षता की।
ऐसा हम भूलकर भी नहीं कहते कि ‘इन्दिरा गांधी ने सभा की अध्यक्षाता की।’
(2) व्याकरण में ‘एकशेष’ की प्रक्रिया भी व्याख्यायित हुई है। लिंग के क्षेत्र में भी ‘एकशेष’ अपना काम करते रहा है। भाषा-प्रयोग में स्त्रीलिंग, पुलिंग दोनों श्रेणियों के शब्द मौजूद रहने पर यदि ‘एकशेष’ करना चाहें तो हम प्रायः ‘पुलिंग’ शब्द को रख लेते/लेती हैं। संस्कृत में ‘माता च पिता च’ की जगह ‘पितरौ’ शब्द रख दिया गया और ‘मातृ-पितरौ’ (माता-पिता) का अर्थ इसी से निकलने लगा। ‘मातरौ’ भी कहकर उसमें ‘पिता’ को समेटा जा सकता था, परन्तु वैसा नहीं किया जा सका। कारण यही हो सकता है कि भले ‘मनुस्मृति’ ने कहने के लिए ‘‘सौ आचार्यों के बराबर पिता का महत्व (है) तथा पिता से सौगुना माता का महत्व (है)’’ कहा है, पर मनुवादी परम्परा में यथार्थ तो यही है कि पुरुष के आगे स्त्री का मूल्य ही क्या है? ‘एकशेष’ की उक्त प्रक्रिया ने ‘पिता’ के बराबर ‘मां’ को न रहने दिया और ‘पिता’ में ही ‘मां’ को विलीन कर छोड़ा। कालिदास ने ‘रघुवंशम’ में कहा – ‘जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ’ अर्थात संसार के मां-बाप पार्वती और परमेश्वर (शिव) की मैं वन्दना करता हूं। तो उसकी परम्परा में उनकी मानसिकता फिट हुए लगती है। ठीक है कि भाषा की संरचना सदियों की समाज-गति का परिणाम है परन्तु असाधारण व्यक्ति उसमें अपनी तर्क बुद्धि से (लोकतांत्रिक सुधारार्थ) कुछ विचलन तो ला ही सकते है। कुछ नहीं तो ‘पितरौ’ की जगह कालिदास ‘मातृ-पितरौ’ लिख सकते थे। उनका पक्षपात तो इसी से साफ हो जाता है कि पत्नी (पार्वती) का निर्विशेषण नाम भर लिखते हैं, पर पति (शिव) को सीधे परमेश्वर बना डालते हैं।
‘एकशेष’ के ढेर सारे प्रयोग हम पाते हैं। समाज का मानसिक झुकाव जिधर होता है – दो लिंगों में से उसी एक का ग्रहण कर शेष को उसी में समाहित मान लेता है। संकेत स्पष्ट है कि पुरुष वर्चस्व के इस समाज में प्रायः पुलिंग रह जाता है और स्त्रीलिंग छूट जाता है। जैस – ‘‘बच्चे और बच्चियां खेल रहे हैं।’’ हम ऐसा वाक्य प्रयोग करने में परेशानी का अनुभव करते/करती हैं (क्योंकि स्त्री को अलग से जगह देने में समाज ही नहीं सरकार भी परेशानी का अनुभव करती है और उसे पुरुष/पति के घर में ही ठूंस देती है, भले उसकी अलग से नौकरी हो।) हम ‘एकशेष’ बोलते/बोलती हैं – ‘बच्चे खेल रहे हैं।’ इसी प्रकार, ‘पचास आदमी बैठ सकते हैं।’ का प्रयोग कर हम मानकर चलते/चलती हैं कि इसमें ‘औरतें’ भी आ गयीं। पर, ‘औरतें बैठ सकती हैं’ – इस प्रयोग में हम मानकर चलते/चलती हैं कि इसमें ‘आदमी’ नहीं आ पाते। (बेचारा पुरुष! औरत की जगह में बैठकर अपनी मर्दानगी को बट्टा लगाने से डरता है। औरत की कमाई खाना उसके पौरुष को कब रास आएगा? वह तो औरत को नौकरी से हटवा कर ही मूंछे टाइट रख सकता है, भले ही अपनी बेरोजगारी में उसे भी भूखा मार डाले) अंगरेजी में भी ‘डंद’ का प्रयोग कर ‘ॅवउंद’ को उसमें स्वतः समाहित मान लेते/लेती हैं; परन्तु इसका उल्टा कभी नहीं होता।
भाषा में कार्यरत यह पूरी प्रवृत्ति पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना के उस विराट दोष की छाया है, जिसमें स्त्री को कहीं भी जगह न देने पर मौन सहमति है। हर जगह ‘पुत्र’ शब्द चला है, ‘भाई’ शब्द चला है, ‘भाईचारा’ शब्द चला है। लगता है ‘बहन’ रहती ही नहीं इस दुनिया में। ‘हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई/ सब आपस में भाई-भाई’ का नारा कितना हिंसक रूप से अधूरा है। क्या यह उसी खण्डित चेतना से नहीं निकला है, जिससे गर्भ में या जन्म के बाद कन्यायों को साफ कर देने की खुराफाती सोच निकली। इसी तरह अंग्रेजी में नियमावली के लिए ‘डंदनंस’, प्रबंध करने के लिए ‘डंदंहम’, अधिदेश के लिए ‘डंदकंजम’, श्रम घंटे के लिए ‘डंदीवनत’, साहसपूर्वक के लिए ‘डंदनिससल’, कृत्रिम के लिए ‘डंदउंकम’, ढंग के लिए ‘डंददमत’, चाल-चलन के लिए ‘डंदवमनअतम’, हवेली के लिए ‘डंदवत’, श्रमशक्ति के लिए ‘डंदचवूमत’, निर्माण करने के लिए ‘डंदनंिबजनतम’ पाण्डुलिपि के लिए ‘डंदनेबतपचज’, मानवता के लिए ‘डंदापदक’ तथा बुरी तरह पीटने के लिए ‘डंदहसम’, जैसे शब्दों का चलन क्या उसी सामाजिकता की प्रतिच्छाया नहीं है, जिसमें किसी महत्वपूर्ण कार्य में ‘ूवउंद’, को स्थान नहीं दिया गया है, चाहे वह निर्माण हो, व्यवस्था हो, ताकत हो, या ताकत-प्रदर्शन कर पीटना (घरेलू हिंसा?)।
हिन्दी भाषा में कहीं-कहीं – ‘एकशेष’ की प्रक्रिया में पुलिंग भी स्त्रीलिंग में विलीन होते दिखा है, पर गहराई से देखें तो वहां भी पितृसत्ता का स्वार्थ नजर आता है। ‘गायेें/बकरियां चर रही हैं’ – इस प्रयोग में पुलिंग ‘बैल/बकरे’ भी आ जाते हैं; तो कारण यही है कि चूंकि समाज की स्वार्थ बु़िद्ध ‘गाय/बकरी’ की तरफ ज्यादा ढरी रहती है, इसलिए उन्हें प्रमुखता मिलती है। कहावत भी है – ‘हे भगवान! इंसान को बेटा देना और जानवर को बेटी’। ‘औरत के हक में’ पुस्तक में तसलीमा नसरीन ने एक बंगला कहावत दी है कि ‘अभागे की गाय मरती है और भाग्यवान की बीबी’ मानव में स्त्री को पुरुष से हीन मानने की प्रवृत्ति पशु-जगत में स्वार्थवश उलटी हो जा रही है। इस स्वार्थबुद्धि के अलावा, क्षुद्रचेतन की बात आने पर भी कभी स्त्री-लिंग में पुलिंग का विलीनीकरण दिखता है। जैसे – ‘जुएं रेंगती हैं’ या ‘कोकलें कूक रही हैं।’ चूकि इन क्षुद्रचेतनों में लिंग-भेद से हमारे स्वार्थ में कोई अंतर नहीं आता, इसलिए हमने यहां ‘स्त्रीलिंग’ को महत्व दे दिया, तो हमें कोई घाटा तो नहीं है।
(3) पुलिंग विशेषण से स्त्रीलिंग संज्ञा/सर्वनाम को भी विशेषित करने की प्रवृत्ति हिन्दी भाषा में दिखती है, परन्तु इस का विपरीत एकदम नहीं होता। जैसे – ‘सुन्दर’ (पु.) विशेषण लड़की के लिए भी चल जाता है, पर ‘सुन्दरी’ (स्त्री) विशेषण ‘लड़का’ के लिए एकदम नहीं चलता। वैसे इस घटना को हिन्दी में कम हो रहे लिंग-भेद के रूप में भी विश्लेषित किया जा सकता है। संस्कृत भाषा विशेषणों में अनिवार्यतः लिंग-भेद रखती है, जिससे हिन्दी बहुत हद तक मुक्त हो चुकी है। हिन्दी में अकारांत (पु.?) विशेषणों के स्त्रीलिंग रूप की जरूरत नहीं पड़ती, पर संस्कृताभिमानी जन वहां भी हस्तक्षेप किए बिना नहीं मानते। ‘बुद्धिमान लड़की’ को ‘बुद्धिमती’ बना कर ही छोड़ते हैं। वैसे लिंग-भेद मिटना अच्छा ही है, पर उसके मिटने का रूप पुलिंग को ही स्वीकार करके हो, यह प्रवृत्ति निश्चय ही स्त्री-विरोधी मानसिकता की देन है। यदि एक क्रिया रूप रखना ही है तो ‘जाती है’ जैसा रख कर भी हिन्दी काम चला सकती है, पर लिंग-भेद मिटाने का रास्ता ‘जाता है’ से ही हो कर जाए – यह मर्दानापन ही कहा जा सकता है। यहां तर्क वह नहीं है कि स्त्री व पुरुष की पोशाक का लिंग-भेद मिट रहा है – पुरुष-पोशाकों की स्वीकृति में। कारण – पोशाक न पुरुष होती है, न स्त्री। वह सुविधाजनक या असुविधाजनक तो हो सकती है, परन्तु स्त्री व पुरुष में कैसे बंट सकती है? यह कोई मूढ़ ही कह सकता है कि ओढ़नी-सलवार या ब्लाउज-साडी की जगह पैंट-शर्ट अपनाकर लिंग-भेद मिटाने की स्त्रियों की प्रवृत्ति में उनका मर्दानापन का शिकार बनना है। लिंग-भेद मिटाने का रास्ता स्त्री व पुरुष दोंनों को साड़ी जैसी असुविधाजनक पोशाक में अंटा कर नहीं खुल सकता। यही ठीक है। परन्तु पोशाक का यह तर्क भाषा में नहीं चल सकता। ‘जाता’ वह ‘जाती’ दोनों में से कोई भी न विशेष सुविधाजनक है, न असुविधाजनक। किसी एक को अपनाकर लिंग-भेद मिटे तो आपत्ति की क्या बात है। परन्तु, असली बात मिटाने के तरीके के पीछे काम कर रही मानसिकता की है। बेटी को बेटी रूप में ही स्वीकार करते हुुए उस पर दुलार लुटाना या गर्व करना ही सही रास्ता है। एक अखबार में एक रोचक खबर पढ़ी कि लड़कियां अपने भीतर की हीन भावना को मिटा कर भाषा-प्रयोग के स्तर पर ही स्मार्ट बन रही हैं। अखबार ने दिल्ली की कुछ ऐसी होनहार नौकरीशुदा बालाओं की बदल रही भाषिक प्रवृत्ति पर निगाह करते हुए सूचना दी कि वे ‘मैं जाता हूं’ जैसे प्रयोग ही अब धड़ल्ले कर रही हैं। इस प्रवृत्ति को उनके द्वारा (सुविधाजनक) ‘जीन्स’ को अपना लेने की प्रवृत्ति से नहीं मिलाना चाहिए। यह बेटी के ऊपर बेटे को तरजीह देने की सामाजिकता में ढलने का उदाहरण अधिक लगता है। वैसे लिंग-भेद चाहे जिस रास्ते से मिटे, सुखद ही है। घी, दाल में गिरे या भात में, बात तो एक ही है!
(4) हिन्दी भाषा में जहां कहीं लिंग की अनिश्चितता होती है, वहां सिर्फ पुलिंग का प्रयोग किया जाता है। जैसे – ‘कौन आ रहा है?’/ ‘कौन था’ कहा जाता है, तो अर्थ ही बदल जाता हैं। तब, लिंग का अनिश्चय नहीं है। यह तो निश्चय हो चुका कि आने वाले का लिंग स्त्री है, परन्तु सवाल इसलिए पूछा जा रहा है ताकि पता चले कि वह स्त्री आखिर है कौन? उसकी पहचान क्या है?
(5) जहां कहीं लिंग-विशेष जानकर भी उसे प्रकट करना विवक्षित न हो, वहां पुलिंग का प्रयोग होता है। जैसे – किसी पुरुष को ही नहीं, किसी स्त्री को भी आते देखकर कहा सकता है – ‘कोई आ रहा है।’ उस की जगह ‘कोई आ रही है’ नहीं चल सकता।
(6) वाच्य-प्रकरण में जब क्रिया कर्ता या कर्म के प्रभाव से मुक्त हो जाती है (यानी भाववाच्य हो) तब हिन्दी में वह पुलिंग – एक वचन में होती है। जैसे – राम ने खाया। सीता ने खाया। राम ने साथियांे को बुलाया। सीता ने सखियांे को बुलाया यहां अब बैठा जाएगा।
संस्कृत-व्याकरण का नियम है कि जहां लिंग-विशेष की विवक्षा न हो, वहां नपुंसक लिंग – एकवचन सहज रूप से होता है। यह स्थिति कहलाती है – ‘लिंग सर्वनाम’। यही बात संस्कृत भाववाच्य में रखती है। जैसे – रामेण गन्तव्यम्। (राम को जाना है।) सीतया गन्तव्यम्। (सीता को जाना है।) कुछ लोग यह वितर्क रख सकते/सकती हैं कि चूंकि हिन्दी में ‘नपुंसक लिंग’ नहीं है, इसलिए अलिंगता या ‘लिंग सामान्यता’ या ‘लिंग की अविवक्षा’ अथवा भाववाच्य में हिन्दी ‘पुलिंग’ का प्रयोग करती है। अतः हिन्दी का पुलिंग प्रयोग पुरुषवादी नहीं, विवशताजन्य है। परन्तु, यह कहने वाले यह क्यों नहीं सोच पाते कि ‘लिंग-सामान्यता’ या ‘लिंग-निरपेक्षता’ का कार्य क्या स्त्रीलिंग नहीं कर सकता? फिर, संस्कृत में भी पुलिंग व स्त्रीलिंग से इतर, जो लिंग कल्पित किया गया, वह ‘न ़ पुंस’ (यानी जो पुरुष न हो) के रूप में क्यों कल्पित हुआ? पुरुष लिंग का अभाव बतलाते, उसे नकारते जो लिंग कल्पित किया गया (‘नपुंसक लिंग’), वह एक प्रकार से पुरुष लिंग को महत्व प्रदान कर ही रहा है। तभी तो उसके अभाव को ‘लिंग सामान्यता’ के लिए उपयुक्त मान ले रहा है। समाज में सेक्स (प्राकृतिक लिंग) से निरपेक्ष जनों को ‘नपुंसक’ (यानी, जिनमें पुंसत्व या मर्दानगी का अभाव हो) कहा जाता है। उनकी जनगणना अलग से नहीं की जाती, बल्कि पुरुष-वर्ग में ही उन्हें गिना जाता है। पुलिंग का वर्चस्व यहां भी सिद्ध है। नालायकी के लिए हम ‘नपुंसक’ शब्द का इस्तेमाल करते/करती हैं। ‘यह सरकार नपुंसक हो गयी है’। यानी, सरकार अब मर्द न रह गयी। व्याकरण ने ऐसा पारिभाषिक शब्द क्यों नहीं बनाया जो पुंसत्व या स्त्रीत्व के प्रति निरपेक्षता का संकेत करे? ‘नपुंसक’ की जगह ‘नपुंस्सत्री’ या ‘अलिंग’ क्यों नहीं? या ‘स्त्रीतर’ (जो स्त्रीलिंग न हो) ही क्यों न बन सका पारिभाषिक शब्द? स्पष्टतः व्याकरण की सोच पुरुषवादी है।
(7) ‘अव्यय’ शब्दों के लिंगहीन होने की व्यवस्था व्याकरण देता है अतः उक्त तर्क पर पर हिन्दी-व्याकरण उन्हें पुलिंग मानकर चलता है। संस्कृत व्याकरण उन्हें नपुंसक लिंग मानता है। क्रिया कि विशेषण (किया-विशेषण) भी स्थानीय आधार (यानी, वचनहीन अलिंग रहने वाली क्रिया का विशेषण होने से) पर अव्यय बन जाते हैं, अतः उनमें भी अलिंगता आ जाती है। इससे हिन्दी-व्याकरण उन्हें पुलिंग मानकर चलता है। जैसे – राम अच्छा करता है। सीता अच्छा करती है। दोनों स्थितियों में रूप ‘अच्छा’ ही है, ‘अच्छी’ नहीं। यही तो पुलिंगवाद है।
(8) सभी क्रियार्थक भाववाचक संज्ञाएं हिन्दी में पुलिंग होती हैं (संस्कृत में नपुंसक लिंग)। जैसे – ‘पढ़ना अच्छा होता है।’ इसे ‘पढ़ना अच्छी होती है’ नहीं लिख सकते। सबसे मूल बात तो यह है कि क्रियार्थक संज्ञाओं का निर्माण ही धातु $ ‘ना’ पुंप्रत्यय से होता है, ‘नी’ स्त्रीप्रत्यय से नहीं। ‘ग्रंथ पढ़ना चाहिए।’ और ‘पुस्तक पढ़नी चाहिए।’ उदाहरणों में ‘पढ़ना’ और ‘पढ़नी’ (क्रियार्थक) संज्ञा नहीं हैं, बल्कि विशेषणात्मक स्थिति रखते हैं, जो यहां क्रिया के घटक बने हैं। जब भी क्रियार्थक संज्ञा बनेगी तो रूप ‘पढ़ना’ आदि (पुलिंग-सिद्ध) ही होंगे, यह तय है।
(9) समास के क्षत्र में भी हिन्दी ने पुलिंग की विजययात्रा ही जारी रखी है। द्वन्द्व समास से बने समस्त पद हिन्दी में पुलिंग होते हैं। जैसे – राजा-रानी आये। स्त्री-लिंग होने की नौबत तभी आती है, जब ‘द्वन्द्व समास’ के सारे पद पहले से ही स्त्री हों। जैसे – सीता-गीता-रीता गयीं। ‘समाहार द्वंद्व’ तो प्रायः पुलिंग एकवचन ही होता है। (संस्कृत में नपुंसक लिंग एकवचन होता है।) जैसे – कंकर-पत्थर, तन-बदन। ‘दाल-रोटी’ आदि स्त्रीलिंग है तो तभी जब इसके सभी पद पहले से ही स्त्रीलिंग हों। तत्पुरुष समास में तो उत्तर पद प्रधान होता है, अतः वहां यदि उत्तर पद स्त्रीलिंग हो जाता है, जो समस्तपद के स्त्रीलिंग होने की मजबूरी है ही। अन्यथा समस्त पद पुलिंग ही होता है। जैसे – ‘राजपुत्री’ स्त्रीलिंग है, परन्तु ‘यशोदानन्दन’ पुलिंग। समास की यह व्याख्या उसी सामाजिक विसंगति का प्रतिनिधित्व करती है, जिसके तहत किसी समूह में एक भी मर्द मौजूद हो तो वह पूरे समूह को अपने वशीभूत कर लेता है।
(10) स्त्रीलिंग शब्द को पुलिंग की तुलना में हीनतर समझाा जाता है – इसका एक और संकेत व्याकरण में है। ऊनवाचक अर्थ में स्त्रीप्रत्यय का प्रयोग स्वीकृत है। डिब्बा $ इया त्र डिबिया। ‘डिब्बा’ (पु.) से ‘डिबिया’ (स्त्री) की हीनता प्रसिद्ध है। इस व्यवस्था में अपवाद बहुत कम हैं – ‘अरण्य’ का स्त्री. ‘अरण्यानी’ अथवा ‘डोरा’ का स्त्री ‘डोरी’ अपेक्षाकृत बृहत् अर्थ में है।
इन रूपों में (हिन्दी) व्याकरण में ‘लिंग’ नामक अवधारणा प्रतिष्ठित है, जो ‘व्याकरण’ जैसे शास्त्र (जो देश, सम्प्रदाय, नस्ल आदि के आधार पर शब्दों के बीच भेदभाव नहीं करता) में भी स्त्री व पुरुष के बीच भेदभाव खड़ा करती है। इतना ही नहीं, स्त्री को पुरुष के सामने तुच्छ भी ठहराती है। परन्तु, बात है कि व्याकरण का इस तरह से पुरुषवादी होना मूलतः भाषा के पुरुषवादी होने का कुपरिणाम है और वह भाषा स्पष्टतः पितृसत्तात्मक मानसिकता वाले समाज की उपज है; परन्तु गौणतः वैयाकरणों के भी पुरुषवादी होने का कुफल है। पण्डित कामता प्रसाद गुरु ने ‘हिन्दी व्याकरण’ के ‘शब्दसंधान’ नामक खण्ड में ‘लिंग’ का विवेचन करते हुए कहा कि कुछ अर्थ जो केवल स्त्रियों में संभव हैं, उनके सूचक स्त्रीलिंग शब्दों के पुलिंग जोड़े संभव नहीं हो सकते। उदाहरण-रूप में उन्होंने जो शब्द पेश किए (सती, गाभिन, सौत, धाय आदि) वे विवेच्य हैं। गुरुजी यहां पर स्त्री के प्राकृतिक धर्म (जैसे गर्भ-धारण) की ही पांत में पितृसत्तात्मक संरचना द्वारा थोपे गए बोझों (धाय, सौत, सती आदि) को भी बैठा लेते हैं। अब सोचा जाए कि क्या ‘धाय’ की भूमिका सिर्फ स्त्री निभा सकती है? इस शब्द का पुलिंग न होना भीषण अन्याय है, जिस पर गुरुजी जैसे मौलिक चिंतक ने भी मुहर लगा दी है। इससे भी भीषण अन्याय तो स्त्री के धर्म के रूप में सतीत्व को उपस्थित करना है। (अक्सर समाज द्वारा थोपे गए) पति की गुलामी करने और उसकी चिता पर जल मरने (और अक्सर स्त्री को जबरन जला डालने) की क्रूरता को भी स्त्री का सहज धर्म (सतीत्व) मान लेना वैयाकरण् की किस असंवेदनशीलता का प्रमाण है। ऐसे उदाहरण पेश कर वह क्या समाज के लिंग-अन्याय को मजबूती प्रदान नहीं करता? स्त्री को कमजोर, घरेलू, विद्या/प्रतिभा से दूर, देह-बोध/सौंदर्य से ही ग्रस्त आदि हीन रूपों में उदाहरण बनाना आम है। गुरुजी ने विशेषण-चर्चा के दौरान ‘पतिव्रता सीता’ का भी उदाहरण दिया है। क्या आवश्यकता है ऐसे उदाहरणों की, जो विवाह में स्त्री-पुरुष समता के लक्ष्य को करारा झटका देते रहें और स्त्री के व्यक्तित्व का गला घोंटते रहें। ऐसे उदाहरण तो स्त्री को पुनः ‘करवा चैथ’ की गुलाम, अंधी गली में धकेलने की फिल्मी-बाजारी परियोजना का हिस्सा बनाने को तैयार दिखते हैं। ‘हिन्दी व्याकरण का इतिहास’ के लेखक अनन्त चैधरी ने ‘नागरी लिपि और हिन्दी वर्तनी’ पुस्तक में किसी प्रसंग में एक उदाहरण दिया है – ‘लड़की शराब पिए जा रही थी’। क्या इसकी जगह लड़की भाषण दिए/ किताब पढ़े/ कुश्ती लड़़ के जा रही थी’ जैसे उदाहरण लेखक को नहीं सूझ सके? इसी तरह पण्डित किशोरीदास वाजपेयी ने ‘वाक्य-विचार’ में उदाहरण दिया है – ‘‘बेटी पराए घर का धन होती है।’’ ऐसे उदाहरण स्त्रीलिंग में जन्म लेने के प्राकृतिक संयोग का दण्ड लड़की को देने का औचित्य ठहरा देते हैं – एक ही साथ उसे वस्तु (धन) भी बना देते हैं और पराया भी ठहरा देते हैं। भाषा और उसके व्याकरण में लिंग-भेद का अवसान किए बिना लिंग-भेद रहित समाज स्थापित करने की, जेंडर-जस्टिस (लिंगाधारित न्याय) को सफल बनाने की लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता का लक्ष्य कैसे पूरा हो सकता है?
लिंग व्यवस्था के पैरोकार चाहे लाख कहें कि अर्थ-अभिव्यंजना संबंधी सुन्दरता-सूक्ष्मता आदि भेदों के लिए लिंग जरूरी हैं, उपयोगी हैं; परन्तु सत्य यही है कि लिंग नामक कोटि भाषिक संस्कृति में स्त्री व पुरुष भावों के बीच जितने सौंदर्य या माधुर्य की रचना नहीं करती, उससे ज्यादा वह लिंग-भेद पैदा करती है। समाज ही केवल भाषा नहीं बनाता, बल्कि भाषा भी समाज को बनाती है। भाषा ही वह स्पेस है जहां जेंडरगत मिथ्या अस्मिताएं गढ़ी जा सकती हैं। समाज के भेदभावों को (खासकर जेंडरजनित भेदों को) स्वाभाविकता प्रदान करने में भाषा अहम भूमिका निभाती दिखती है। जब तक व्याकरण में लिंग-व्यवस्था रहेगी तब तक सामाजिक लिंग-भेद को भी वह विचारधारात्मक सहयोग देती रहेगी। एक रोचक विसंगति द्रष्टव्य है। ‘महाभारत-अनुशासन पर्व’ के उमा-महेश्वर संवाद में व्याकरणिक लिंग को मूढ़ सामाजिकता तक में घसीटा गया है। वहां पतिव्रता स्त्री को सीख दी गयी है कि पुलिंग शब्दों के वाच्य पदार्थों (सूर्य, चन्द्र, वृक्ष आदि) तक से वह अपने आप को बचाए। सिर्फ एक ही पुलिंग उसके मन में – जीवन में रहे – उस का पति। वाह! यह तो ‘मानस’ क्षरा निर्धारित नारी की उत्तम कोटि (जो स्वप्न में भी दूसरे पुरुषों को नहीं देखती) से भी एक बांस आगे की बात है। स्त्री को (थोपे गए) पुरुष-विशेष के प्रति यौन-प्रतिबद्ध यानी ‘पतिव्रता’ बनाने की गुलामी-शिक्षा के इन मास्टरों से पूछा जाना चाहिए था कि जहां एक ही वस्तु के वाचक कई शब्द अलग-अलग लिंगों में वहां स्त्री क्या करेगी? जैसे – संस्कृत में ‘पुस्तक’ नपुंसक लिंग है, ‘ग्रंथ’ पुलिंग है तो वहां स्त्री को क्या करना चाहिए ताकि उसके पातिव्रत्य पर आंच न आए? चलिए, यह समस्या भी दूर हुई, क्योंकि पातिव्रत्य के कल्पकों की दृष्टि में स्त्री विद्या की अधिकारिणी ही नहीं है। परन्तु, स्त्री खुद अपनी वैवाहिक स्थिति के वाचक संस्कृत शब्दों ‘दार’ (पु.), ‘पत्नी’ (स्त्री), ‘कलव’ (नपुं.) के प्रसंग में क्या करेगी? किसके साथ रहेगी, किससे दूर? तीनों तो एक ही चीज हैं। क्या स्त्री तीनों के प्रति तटस्थ रहेगी? क्या खुद से तटस्थ रह सकती है वह? फिर, उसी की देह में ‘योनि’ स्त्री है, पर ‘भग’ पुलिंग। स्त्री क्या करेगी उसका? दोनों एक ही अर्थ को कहते हैं। स्त्री अपने पुलिंग ‘केश’ व ‘स्तन’ रखेगी या…? ‘पतिव्रता’ होना कितना कठिन हो गया! मूढ़ता की पराकाष्ठा हो गयी। व्याकरणिक लिंग-व्यवस्था ने यहां तक करामात दिखा दी है। इसी से ‘व्याकरण’ से लिंग-भेद का अंत करना ही होगा।
व्याकरण से लिंग-भेद तो पूरी तरह तभी मिटेगा, जब भाषा से उसका अंत हो जाएगा। परन्तु, वैसा होने में काफी देर है, क्योंकि भाषा ठीक तभी होगी, जब समाज ठीक हो जाए – स्त्री-पुरुष भेदभाव की समाप्ति हो जाए। फिर यह भी तो हो सकता है कि भाषा से लिंग-भेद मिट जाए, पर अवधारणा के स्तर पर ‘व्याकरण’ में लिंग (जेंडर) मौजूद ही हो (जैसा कि अंगरेजी में है) अथवा कुछ नहीं तो वैयाकरण के मन में कार्यरत पितृसत्तात्मक मूल्य, उदाहरण देते समय अपना काम करते रहें – स्त्री को हीन रूप में और पुरुष को दबंग रूप में पेश करते रहें। इसलिए कहना होगा कि समाज या भाषा में सुधार चाहे देर से ही हो, किन्तु व्याकरण व वैयाकरण को तो अपने स्तर से ऐसे प्रयास शुरू कर देने चाहिए, जिससे लिंग-भेद व पुरुष-वर्चस्व की स्थितियां हतोत्साह होती जाएं तथा स्त्री-सशक्तीकरण का संदेश अंगड़ाई लेने लगे। ऐसा संदेश भाषा से होते हुए देर-सबेर समाज तक भी पहुंचेगा। यद्यपि व्याकरण के पास ऐसे प्रयास करने का अवकाश (स्पेस) कम है, पर जो कुछ है, उसी में अपना कार्य करे।
स्त्रीलिंग को न्याय देने और व्याकरण को लिंग-निरपेक्ष बनाने के प्रयास का यही मतलब नहीं होगा कि व्याकरण प्रयुक्त ‘कारक’, ‘कर्ता’, ‘पुरुष’, ‘तत्पुरुष’ आदि पारिभाषिक शब्द चाहे जिस मानसिकता से बने हों (स्पष्टतः यहां पुरुषवादी मानसिकता तो है ही) पर आगे चलकर वे व्युत्पत्यर्थ-बंधन से मुक्त होकर संकेतक/प्रतीक मात्र रह जाते हैं। वैसे ही व्याकरण के कुछ स्त्रीवाची पारिभाषिक शब्द ‘वृत्ति’, ‘संधि’, ‘संज्ञा’, ‘क्रिया’, ‘व्युत्पत्ति’, ‘निरुक्ति’ आदि भी हैं जो अब व्युत्पत्यर्थ बंधन से मुक्त होकर तकनीकी शब्द मात्र बन चुके हैं। इस स्थिति में ‘रमेश’ ही नहीं ‘राधा’ को भी ‘कर्ता’ ही कहना हागा (जिस प्रकार प्रतिभा पाटील को ‘राष्ट्रपति’ या मायावती को ‘मुख्यमंत्री’ ही कहते हैं) ‘राधा’ को ‘कर्ती’ या ‘कारिका’ न कह सकेंगे। इसी तर्क पर ‘लिंग’ शब्द को भी पारिभाषिक शब्द के रूप में स्वीकारा जा सकता है। पीछे इन शब्दों पर जो भी आपत्तियां उठायी गयी हैं, वे लिंग-भेदी समाजशास्त्र को खंगालने के लिए।
लिंग-भेद को मिटाने के लिए ‘व्याकरण’ को सर्वप्रथम ‘व्युत्पत्ति’ क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप करना होगा। यानी, उसे ‘लड़का’ से ‘लड़की’ की व्युत्पत्ति करने से बचना होगा, ळवक से ळवकमेे की व्युत्पत्ति से बचना होगा और कहना होगा कि ये दोनों स्वतंत्र मूल शब्द (प्रतिपादिक) हैं; कोई किसी पर आश्रित या किसी से व्युत्पन्न नहीं। दोनों के अपने-आने कारकीय या वैभक्तिक रूप चलते हैं। तब, उनमें चिपके लिंगगत अर्थ की छाया ‘सुबन्त’ रूप बनते समय पड़ती है – जैसे आकारान्त होने पर भी ‘लड़का’ (पु.) और ‘लता’ (स्त्री) का रूपायन लिंगार्थ-भेद से अलग-अलग हो रहा है। इस प्रकार, ‘व्युत्पादन’ से लिंग को खारिज करने के बाद भी ‘रूपायन’ में वह बना रहता है। वाक्य में विशेषण, क्रिया, सम्बंधसूचक तत्वों में भी लिंग झलकता रहता है – ‘रूपायन’ का ही असर है यह। वह तो तबतक न हटेगा जबतक भाषा-संरचना न बदले। इसके लिए भाषिक समाज की मनोवृत्ति बदलनी चाहिए। (लड़की यदि ‘मैं जाता हूं’ बोल रही है तो यह मनोवृत्ति बदलने का ही संकेत है। इसमें असंगति भी क्या है? ‘हम जाते हैं’ से सर्वत्र पुरुष-स्त्री दोनों काम चला ही रहे हैं, चाहे उनकी संख्या एक हो या अनेक।)
यदि व्युत्पत्ति से लिंग को पूर्णतया खारिज करते हैं तो ‘लड़का’ या ‘लड़की’ आदि को रूपान्तरशील वर्ग का (विकारी) शब्द बतलाने हेतु परिभाषा में से यह बात हटानी होगी कि जिस शब्द में लिंग-वचन-कारक (विभक्ति)वश आकृति-परिवर्तन हो, वह विकारी शब्द है। तब, कहना होगा कि जिस शब्द में ‘वचन$कारक’ कृत रूपान्तर हो सके, वह रूपान्तरशील शब्द है, अन्यथ वह है ‘अव्यय’। तब ‘अव्यय’ की परिभाषा से सदृशं त्रिषु लिंगेषु’ (जो तीनों लिंगों में समान हो) अंश निकालना होगा। अव्यय की अरूपान्तरशीलता की व्याख्या उसके (प्रतिपादिक विभक्ति कृत) अरूपान्तर में होगी, न कि लिंगकृत अरूपान्तरशीलता में। इसी तरह क्रिया-पद की रूपांतरशीलता उसके लिंगगत परिवर्तन में नहीं, बल्कि ‘तिङ्’ विभक्ति से या उसके स्थानापन्न कृदन्तों में वचनकृत रूपान्तर में व्याख्यायित होगी। ‘व्युत्पादन’ से लिंग को पूर्णतः अपदस्थ करने की बात क्रांतिकारी होगी। क्या यह संभव है? ऐसा करने में कुछ उलझनें भी हैं। जैसे – कृदन्तों या तद्धितान्तों के पुलिंग-स्त्रीलिंग दोनों रूपों (जैसे – जाता-जाती, बुद्धिमान्-बुद्धिमती) को तब ‘लड़का’ व ‘लड़की’ की तरह हर दो स्वतंत्र शब्द (प्रतिपादिक) मानना होगा। तब व्याख्या करनी मुश्किल होगी कि ये विशेषणात्मक रूप दो तरह से क्यों हैं? जब ‘लड़का’ व ‘लड़की’ एक ही स्तर के दो स्वतंत्र शब्द हैं तो उनके ये विशेषणात्मक रूप अलग-अलग क्यों हैं? प्रतिपदिककारी व्युत्पादक प्रत्ययों (कृत, तद्धित) को यदि हम लिंग-निरपेक्ष मानकर चलें तो भी मानना होगा कि व्युत्पन्न प्रतिपादिकों में ढाल देते हैं। लिंग-प्रत्यय लिंग-सापेक्ष ही तो है – स्त्री प्रत्यय स्त्रीलिंगार्थ, पुंप्रत्यय पुलिंगार्थ। इसका समाधान यदि यह करें कि जिस तरह कई तद्धित प्रत्यय खास ‘अन्त’ वाले या खास शब्दों के साथ विहित हैं, उसी प्रकार ये लिंग-प्रत्यय खास लिंग के साथ विहित हैं। पर, यहां भी हमने ‘लिंग’ की व्युत्पादक भूमिका मान ही ली। समग्रतः, ‘अव्यय’ आदि की परिभाषाओं के लिए ‘लिंग’ की विकारी भूमिका दिखलाना आवश्यक न होकर भी उक्त संदर्भ में ‘लिंग’ की विकारी भूमिका दिखलाना आवश्यक है। तब, वैयाकरण को यह व्यवस्था देनी चाहिए कि ‘लड़का’ शब्द में ‘ई’ प्रत्यय लगने से ‘लड़की’ शब्द बना है, साथ ही ‘लड़की’ शब्द में ‘आ’ प्रत्यय लगने से ‘लड़का’ शब्द बना है। अगर ऐसा कहना ऐतिहासिक न लगे, तो भी पुलिंग की दादागिरी समाप्त करने के लिए यह व्ययवस्था वरणीय है। आखिर व्यावकरण की समग्र व्यवस्था पूर्णतः ऐतिहासिक सत्यों पर आधारित कहां होती है? वह व्याख्या की संगति या सुविधा के लिए बहुधा कल्पना पर भी आधारित होती है। फिर लिंग सम्बंधी व्युत्पत्ति की उक्त व्यवस्था पूरी तरह अनैतिहासिक भी कहां है? ‘आ’ पुंप्रत्यय का व्युत्पत्ति में प्रयोग पण्डित किशोरीदास वाजपेयी ने भी किया है, भले वे ‘द्विमुखी व्युत्पत्ति प्रक्रिया’ में आस्थावान् न रहे हों। हिन्दी में ‘पुंप्रत्यय’ का ऐतिहासिक साक्ष्य सर्वप्रथम पण्डित अम्बिका प्रसाद वाजपेयी ने (‘हिन्दी कौमुदी’ में) दिया – ‘बहन$ओई’ से ‘बहनोई’ बनता है आदि। यह पुंप्रत्यय हिन्दी की अनन्य विशेषता है। अंगरेजी में भी ‘ॅपकवू$मत’ जैसी एक-दो व्युत्पत्तियां पुंप्रत्य की हैं। संस्कृत भाषा ऐसे प्रत्यय से वंचित है। ‘व्याकरण’ द्वारा एकमात्र स्त्रीप्रत्यय की कल्पना किए रखना उसे पुरुषवादी बनाता है। हिन्दी व्याकरण को स्त्रीप्रत्यय के समानान्तर पुंप्रत्यय खोजने का काम जारी रखना चाहिए। इसी के साथ लिंगगत व्युत्पत्ति में और व्यावहारिकताएं भी देखनी होंगी। जैसा कि ‘प्रत्यय-प्रक्रिया’ में पीछे कहा गया कि जो रिश्ते पूर्व सिद्ध हैं (मौसी, फूफी, जीजी, बहन, ननद आदि) उनमें ही पुंप्रत्यय लगाकर पुलिंग शब्द (मौसा, फूफा, जीजा, बहनोई, ननदोई आदि) बनाना उचित होगा।; न कि इसका उलटा करना। ‘चाचा’ से ‘चाची’ की व्युत्पत्ति इसलिए वैज्ञानिक है क्योंकि ‘चाची’ उत्तर सिद्ध है। किन्तु ‘लड़का’ व ‘लड़की’ अथवा ‘पति’ व ‘पत्नी’ में से कोई पूर्व या उत्तर नहीं बल्कि दोनों सहसिद्ध हैं। फिर प्रथम से द्वितीय की व्युत्पत्ति बतलाना कैसा? दोनों को परस्पर व्युत्पन्न मानिये (द्विमुखी व्युत्पत्ति प्रक्रिया से)। इसके साथ, सामासिक व्युत्पत्ति के क्षेत्र में भी हमें ऐसी व्यवस्था रखनी होगी कि पुलिंग और स्त्रीलिंग की समता हो। जैसे – ‘खिलाड़ी’, ‘मजदूर’, ‘राष्ट्रपति’, ‘पुलिस’, ‘इंजीनियर’ आदि व्यावसायिक/पदमूलक या ‘भेड़िया’, ‘ह्वेल’ आदि प्राणिवाचक नामों का लिंग-निरपेक्ष मानकर स्त्री के लिए प्रयोग की स्थिति में उसमें ‘स्त्री’ लगा देेंगे, ‘पुरुष’ के लिए प्रयोग की स्थिति में ‘पुरुष’। जैसे – पुरुष खिलाड़ी, महिला खिलाड़ी; नर भेड़िया, मादा भेड़िया आदि। ‘वेश्या’ के लिंगान्तरण ‘पुरुष वेश्या’ को भी असंगत नहीं मानना चाहिए। जब पुलिंगवाची ‘खिलाड़ी’ आदि शब्दों में ‘स्त्री’ शब्द को समस्त करने से स्त्रीलिंग बन सकता है; तो स्त्रीवाची (वेश्या) शब्द से ‘पुरुष’ को समस्त करने से पुलिंग शब्द क्यों नहीं बनेगा? इस बारे में जो असंगति लग रही हो, उसे पितृसत्तात्मक सोच का नतीजा मानना होगा। व्याकरण की ढेर सारी पुस्तकों में विलोम या विपरीतार्थक शब्द समझाते हुए अक्सर पुलिंग व स्त्रीलिंग शब्दों को परस्पर विलोम बता दिया जाता है। यह कितनी खतरनाक बात है। ‘पुरुष’ का विलोम ‘स्त्री’ – ऐसा पढ़ाने वाले बच्चों के मन में कैसा लिंगभेदी जहर भर रहे हैं। अपनी अज्ञानता में वे घरेलू कलह व हिंसा का बीजारोपण कर रहे हैं। ‘पुरुष’ व ‘स्त्री’ को प्रकृति ने विलोम नहीं पूरक बनाया है। पूरकता सहयोगी होती है, विलोमता संघर्षी। वस्तुतः विलोम का क्षेत्र लिंगगत द्वैत नहीं, शेष गुणगत द्वैत है। ‘स्त्री’ व ‘पुरुष’ समान हैं – सृष्टि के लिए समान रूप से आवश्यक। उनमें विरोध भाव सांस्कृतिक गढ़न है, न कि नैसर्गिक। ‘रात’ और ‘दिन’ परस्पर विलोम हैं, ‘अच्छाई’ व ‘बुराई’ परस्पर विलोम हैं; पर ‘स्त्री’ व ‘पुरुष’ नहीं। इसी तरह ‘ब्राह्मण’ व ‘शूद्र’ तथा ‘आर्य’ व ‘म्लेच्छ’ को परस्पर विलोम बताना भी गलत है। व्याकरण की जो पुस्तक ऐसा लिखती है, वह नस्लवादी है। ‘स्त्री’ व ‘पुरुष’ का तो प्राकृतिक अस्तित्व भी है; किन्तु ‘ब्राह्मण-शूद्र’ या ‘आर्य-म्लेच्छ’ तो पूर्णतया कल्पनाश्रित अवधारणाएं हैं। इन सबकी सावधानी बरतना वैयाकरण के लिए बहुत जरूरी है।
‘लड़का’ व ‘लड़की’ जैसे शब्द तो भाषा में रहेंगे ही, क्योंकि प्राकृतिक लिंग (ैमग) के भेद की सूचना देने वाले ये दो शब्द उसी प्रकार आवश्यक हैं, जिस प्रकार ‘इंसान’ और ‘चिड़िया’ दो अलग-अलग शब्द जरूरी हैं, जो प्राकृतिक जाति की सूचना देते हैं। यहां सिर्फ ‘प्राणी’ कहकर काम नहीं चलाया जा सकता था। इसी तरह केवल ‘लड़का’ या केवल ‘लड़की’ कह कर दोनों का वाचन नहीं कराया जा सकता। परन्तु ‘लड़का’ व ‘लड़की’ को लेकर भाषा में लिंग (जेंडर) का भेद नहीं खड़ा होना चाहिए। हो गया है, तो उसका यथाशीघ्र अंत करना ही मूल ध्येय होना चाहिए। इस जेंडरवाद ने व्याकरण के अंतर्गत सारे शब्दों को (चाहे वे चेतन के वाचक हों या अचेतन के; सत्व के वाचक हों या भाव के) ही ‘मर्द’ व ‘औरत’ की खेमेबन्दी में बांट रखा है। (वहीं संस्कृत में ‘मर्दानगी’ रहित वर्ग भी है ‘नपुंसक लिंग’ नाम से)। फिर, इस करेले को नीम पर चढ़ा दिया गया – मर्द (पुलिंग) को औरत (स्त्रीलिंग) पर वर्चस्व या ग्रासक व्यक्तित्व देकर। लिंग-व्यवस्था के इस अमानवीय चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी के बिना समाज तक, परिवार तक लोकतंत्र कैसे उतर सकता है? भाषा को सही किए बिना इंसान को सही नहीं किया जा सकता। विनोबा का यह विचार बिल्कुल जायज है कि भाषा में पुंवाची व स्त्रीवाची सारे शब्दों के लिए एक ही क्रियारूप, विशेषणरूप आदि होने चाहिए। हर व्याकरणिक व्यवहार उनके प्रति समान होना चाहिए। परन्तु यह होगा कैसे? इसके लिए भाषा सुधारनी होगी, भाषा सुधारने हेतु भाषिक समाज की मनोवृत्ति सुधारनी होगी। मनोववृत्ति बिना सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति के, समता के विचारों के प्रसार के बिना कैसे सुधरेगी? समाज में स्त्री-सशक्तीकरण से, वास्तविक स्तर पर लिंग-भेद मिटने से या भाषिक आन्दोलन से ही बदलेगी भाषा। यानी, जो कुछ होगा, भाषिक समाज की तरफ से ही। परन्तु, वैयाकरण भी तो भाषिक समाज का ही नागरिक है। अपनी जिम्मेदारी समझते हुए उसी को पहल करनी चाहिए। उसके साथ एक कार्य उसे और करना होगा – लक्षणों के साथ उदाहरण प्रस्तुत करते समय समाजशास्त्रीय सावधानी बरतना। वह लिंग-भेद (साथ ही जाति, मजहब, राष्ट्र, नस्ल आदि भेदों) की मानसिकता से मुक्त होकर उदाहरण दे। स्त्री पर थोपे गए पितृसत्तात्मक मूल्यों – पातिव्रत्य, सतीत्व, सामन्तवादी यौन नैतिकता, शर्म व हीनभावना तथा पैदा की गयीं मजबूरियों जैसे अशिक्षा, घरेलूकरण, परजीविता, यौन-दलन, प्रसव बाध्यता, वेश्यावृत्ति, विधवा समस्या आदि से उसे मुक्त करने की मानसिकता से उदाहरण पेश किए जाएं। स्त्री की वंचनाओं एवं पीड़ाओं के प्रति सहानुभूति दिखलाते और पुरुष के समक्ष उसकी बराबरी, प्रतिभा व ताकत को बतलाते उदाहरण बनने चाहिए। पढ़ती, खेलती, गाती, झूमती, नौकरी करती, विमान उड़ाती, कुश्ती करती या कम्पनी सम्हालती स्त्री उदाहरण बने, न कि खाना पकाती या पति की सेवा करती। मनमाफिक दोस्ती बनाने या मनोवांछित वस्त्र पहनने तक को छछनती स्त्री उदाहरण बने, झूठी, मातृत्व या देवी की गरिमा की चाशनी में लपेटी स्त्री नहीं। इसके साथ घरेलू काम-काज करते मर्द भी उदाहरण बनें, सिफ पैसा कमाते या आॅफिस सम्हालते मर्द नहीं। ऐसा होगा तभी भाषा की विसंगति दूर होगी तथा वह सुषमा से भरपूर होगी। हर शब्द को जेंडर के खांचे में बैठाना लिंगवादी राजनीति का हिस्सा है, जिसने शब्दब्रह्म की महिमा घटाने का अपराध किया है। यदि हम अपने को आध्यात्मिक कहते हैं तो उस पाप से तो हमें मुक्त रहना चाहिए।
रवीन्द्र कुमार पाठक
भाषा-व्याकरण में ‘लिंग’ नामक अवधारणा सदियों से चल रहे स्त्री-पुरुष मूलक विभेद-भावना का ही प्रतिनिधित्व नहीं करती, बल्कि (जैसा समाज में हो रहा है, वैसा ही) पुलिंग का वर्चस्व भी स्त्रीलिंग पर दिखलाती है। यानी, पुलिंग के सामने स्त्रीलिंग को दोयम दर्जे का सिद्ध मानकर ‘लिंग’ नामक अवधारणा खड़ी हुई है।
भाषा के अधिकत प्रभावषाली, निर्णायक, शक्तिसूचक शब्द पुरुषवाची हैं। इसके साथ, भाषा में स्त्रीलिंग शब्दों की व्युत्पत्ति पुलिंग शब्दों से करने की सहज प्रक्रिया रही है। यह प्रवृत्ति पुलिंग शब्दों को मौलिक और स्त्रीलिंग शब्दों को उनसे व्युत्पन्न (यानी अमौलिक) ठहराती है। यह ‘बाइबिल’ की विख्यात दन्तकथा के अनुरूप है, जिसमें पुरुष के शरीर से स्त्री उत्पन्न हुई है। यह तो जीवविज्ञान के सिद्ध तथ्य को एकदम उलट के रख देना हुआ। स्त्री से जन्म लेने के बावजूद सन्तान पर पुरुष का हक मानना तो जारी है ही, बल्कि उससे भी बढ़कर प्रजनन-क्रिया में स्त्री की मुख्य भूमिका को भी नकार कर पुरूष को मुख्य (बीजदाता किसान) तथा स्त्री को गौण (खेत भर) कहा गया है; आज तक एक आम सामाजिक सोच में यही मूर्खता काम कर रही है। इसी सामाजिक विडम्बना के परिप्रेक्ष्य में व्याकरण में ‘लिंग’ नाम का अध्याय बन कर खड़ा हुआ है।
भाषा की इस प्रकार की लिंगभेदी प्रवृत्ति अधिक सभ्यजातियों की भाषाओं में अधिक स्पष्ट होती है तथा कम सभ्य या असभ्यप्राय जातियों की भाषाओं में कम स्पष्ट या अस्पष्ट। इसका सीधा सा कारण है कि स्त्री-पुरुष के बीच समता के सूत्र कथित असभ्य जातियों में ज्यादा हैं, क्योंकि स्त्री को दोयम दर्जे में डालने वाली विचारधारा (पितृसत्ता) सभ्यताकृत/सांस्कृतिक है और वे जातियां प्रकृति के अधिक निकट हैं। इसी से स्त्री-पुरुष के बीच विभेद करने वाली मानसिकता से जनजातीय भाषाएं कम ग्रस्त या मुक्तप्राय हैं। सभ्यता में बढ़ी-चढ़ी जातियों की भाषाओं में वाक्य-प्रयोग के घटकों में भी लिंग-भेद की छाया अधिक दिखती है; साथ ही पुलिंग प्रयोग में ही स्त्रीलिंग को समाहित मानने की जबरदस्ती भी खूब दिखाई देती है। फिर यदि सभ्यता का विकास अधिक (वैज्ञानिक-लोकतांत्रिक मूल्यों पर) हो जाने के कारण स्त्री-पुरुष के बीच का विभेद कम होते गया, तो तत्-तत् भाषा में लिंग-भेद की सूचनाएं भी धीरे-धीरे खोती जाती हैं। यह बात हम ‘हिंदी’ और ‘अंगरेजी’ भाषाआंे के संदर्भ में समझ सकते/सकती हैं। ‘हिन्दी’ में जहां लिंगभेद बहुत मजबूत अवस्था में है, वहीं ‘अंगरेजी’ में अब इसकी धुंधली छाया भर रह गयी है। यह बात थोड़ी देर में स्पष्ट की जाएगी।
‘व्याकरण’ भाषा का विवेचन करके नियम निर्धारित करता है। इसलिए, जब तक भाषा में लिंग-भेद का भाव बना रहेगा, व्याकरण के नियमों में भी झलकता रहेगा। अर्थात्, कहा जा सकता है कि व्याकरण का लिंगभेदी होना भाषिक समाज के लिंग-भेदी होने का परिणाम है। फिर भी, वैयाकरण पूरी तरह निर्दोष नहीं कहला सकता। कारण है, उसकी ‘पुत्रोत्सव’वादी मानसिकता।
लिंग को लेकर व्याकरण-संसार में एक विचार व्याप्त रहा है कि बड़ा, स्वतंत्र या कठोर के वाचक शब्द पुलिंग श्रेणी में आते हैं तथा छोटा, पराधीन या नाजुक के वाचक शब्द स्त्रीलिंग श्रेणी में होते हैं। यद्यपि यह बात सदैव घटित न हो सकी है, क्योंकि लिंग-धारणा के विकास का एक अपना जटिल इतिहास है। परन्तु, भाषा-विकास में उक्त तरह के कोटीकरण को मोटे तौर पर स्वीकृत प्राप्त है। वैयाकरण उसमें कुछ अपनी तरफ से मजबूती ला देते हैं, जब वे भाषा का व्याकरण लिखने बैठते हैं। इस विसंगति का एक प्रमुख आधार वैयाकरणों की पांत में स्त्री की नगण्यता भी है, वैसे इक्की-दुक्की स्त्री वैयाकरण हो कर भी क्या कर सकती हैं जबकि पितृसत्तात्मक सोच सर्वाच्छादी है? जब पण्डित किशोरीदास वाजपेयी ‘आत्मा’ के स्त्रीलिंग और ‘परमात्मा’ के पुलिंग होने का यह तर्क पेश करते हैं तो बात खुलकर सामने आ जाती है। उनका कथन है – ‘आत्मा तो ईश्वर के अधीन है, स्वतंत्र नहीं है। परमात्मा स्वाधीन है, स्वतंत्र है। स्वतंत्रता की व्यंजना के लिए परमात्मा पुलिंग में तथा पराधीन के प्रदर्शन के लिए आत्मा स्त्रीलिंग में है।’ स्पष्ट होता है कि स्त्री और पुरुष को लेकर गुणों या सामाजिक व्यवहार के कोटीकरण की लिंगभेदी-अलोकतांत्रिक मानसिकता ‘व्याकरण’ जैसे तटस्थ विवेचन के दावेदार शास्त्र में किस प्रकार प्रविष्ट हुई है! सदियों पहले से निर्मित किए गए इस झूठ से वैयाकरण भी बुरी तरह ग्रस्त दिखता है कि स्त्री पुरुष के सामने हीन, नाजुक और गुलाम होती है। यानी, वैयाकरण अपने विवेचनात्मक दायित्व का लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुसार निर्वाह न कर पाने की स्थिति में, स्त्री को अबला बनानेवाली अन्तरराष्ट्रीय सांस्कृतिक परियोजना का (अनजाने में ?) एक हिस्सा बन जाता है।
‘लिंग’ की अवधारणा का मजबूती से बने रहना (हिन्दी) व्याकरण पर पुरुषवादी होने का आरोप लगने की पृष्ठभूमि बनाता है। इसका सबसे पहला और बड़ा प्रमाण तो यही है कि इस अर्थ में पाणिनी और ‘साहित्यदर्पण’कार विश्वनाथ द्वारा प्रयुक्त ‘व्यक्ति’ शब्द को हटा कर (हिन्दी) व्याकरण ने ‘लिंग’ शब्द को अपनाया। यदि भाषा में भी पुरुष और स्त्री की भेदकता दिखलाना जरूरी ही था, तो उस के लिए पारिभाषिक शब्द के रूप में पुरुष-यौनांग ‘लिंग’ को ही क्यों चुना गया? यह चुनाव क्या उसी प्रकार नहीं है जिस प्रकार ‘नारी’ के व्यक्तित्व की पहचान ‘नर’ से उसके सम्बंध की मोहताज हो, जबकि जीववैज्ञानिक आधार पर ‘नर’ की पहचान ही ‘नारी’ (उसके जननी होने के कारण) की मोहताज होनी चाहिए। नारी-यौनांग ‘योनि’ को पारिभाषिक शब्द क्या नहीं बनाया जा सकता था, जो व्यापकतर अर्थ रखता है; न सिर्फ जीवविज्ञान की दृष्टि से, अपितु भाषा के सांस्कृतिक अर्थविज्ञान की दृष्टि से भी? ‘पुलिंग’ व ‘स्त्रीलिंग’ की जगह ‘पुंयोनि’ व ‘स्त्रीयोनि’ शब्द निश्चित रूप से सटीक होते। ‘योनि’ का अर्थ जाति-प्रजाति तक चला जाता है, जबकि ‘लिंग’ का अर्थ ‘चिह्न’ तक ही सिमट कर रह जाता है। पण्डित किशोरीदास वाजपेयी ने अपने ‘हिन्दी-शब्दानुशासन’ में लिंग की जगह पारिभाषिक शब्द के रूप में ‘व्यक्ति’ और ‘जाति’ शब्द का प्रयोग कर अवश्य तर्क बुद्धि का परिचय दिया है; भले वे सदा इस बात पर कायम नहीं रह सके हैं। ‘योनि’ से भी आपत्ति थी तो व्याकरण कोई तीसरा शब्द भी चुन सकता था, जैसे अंग्रेजी का ‘जेंडर’ शब्द है। हिन्दी-संस्कृत भाषाओं की दिक्कत यह भी है कि उनमें प्राकृतिक लिंग (ैमग) और सांस्कृतिक/व्याकरणिक लिंग (ळमदकमत) के वाचन के लिए गिनचुन कर एक ही शब्द है और वह है अभागा लिंग।
भाषा और उसके व्याकरण में लिंग-भेद या ‘लिंग’ अवधारणा के उपस्थित रहने का क्या अर्थ है? यानी, किस आधार पर कहा जा सकता है कि किसी भाषा में ‘लिंग’ की सत्ता है? लोक में स्त्री-पुरुष जातियों के वाचक शब्द भाषा में तो रहते ही हैं – जैसे लड़का (ठव्ल्), लड़की (ळपतस) या पिता (थ्ंजीमत), माता (डवजीमत)। परन्तु इनके रहने मात्र से भाषा में लिंग का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो जाता। कारण कि इन दो प्रकार के अर्थों (पदार्थों) के वाचक शब्द उसी प्रकार माने जा सकते हैं, जिस प्रकार आदमी-घोड़ा, लड़की-शेरनी दो अलग-अलग स्वतंत्र अर्थों के वाचक शब्द हैं। लड़का-लड़की जैसे शब्दों का अर्थ-भेद प्राकृतिक लिंग (ैमग)-गत अर्थ-भेद है और आदमी-घोड़ा जैसे शब्दों का अर्थ-भेद प्राकृतिक जाति (प्राणि-वर्ग) गत अर्थ भेद है। बस इतना सा अन्तर है। परन्तु, यह तो है लौकिक अर्थ का क्षेत्र ही। जब तक व्याकरणिक अर्थ (व्याकरणिक कोटि) के रूप में ‘लिंग’ (ळमदकमत) की भूमिका न दिखाई दे, तब तक भाषा (व्याकरण) में ‘लिंग’ (ळमदकमत) की सत्ता अमान्य है। यानी लड़का-लड़की जैसे शब्दों का लिंग-गत अर्थ-भेद भाषा में इनके प्रयोग-भेद के रूप में ढलता दिखलाई पड़े, तभी माना जाएगा कि भाषा में ‘लिंग’ (ळमदकमत) की सत्ता है। उदाहरण से बात स्पष्ट करें। अंगरेजी में ठवल और ळपतस को लेकर प्रयोग-संबंधी (क्रिया, विशेषण या किसी संबंध सूचक) तत्व में कोई भेद नहीं दिखता — ‘ठवल हवमे’ है तो ‘ळपतस हवमे’ ही है। क्रिया समान ही है दोनों के लिए। पर, हिन्दी में ‘लड़का’ के लिए ‘जाता है’ प्रयुक्त होता है, तो ‘लड़की’ के लिए ‘जाती है’। हिन्दी में ‘लड़का’ व ‘लड़की’ को लेकर प्रयोग भेद है, क्योंकि हिन्दी भाषी समाज में ‘लड़का’ व ‘लड़की’ को लेकर व्यवहार-भेद गहरा है। संस्कृत के क्रिया रूपों तिगन्तों में कोई लिंग-भेद नहीं है – ‘रामः गच्छति’ तो ‘सीता गच्छति’। पर इतना ही देखकर यह न समझ लेना चाहिए कि संस्कृत भाषा लिंगभेदी नहीं है। कृदन्त क्रिया रूपों या विशेषणीभूत कृदंतों का भी विशाल संसार है जो गहन लिंगभेद का शिकार है – ‘रामः गतवान्’ तो ‘सीता गतवती’। इसके अलावा विशेषण और अन्य पुरुष के सारे सर्वनाम लिंग-भेद पर खड़े हैं। पितृसत्तात्मक-मनुवादी संस्कृत में ढली भाषा से लिंग-भेदहीन होने की उम्मीद भी कैसे की जाएगी? अंगरेजी भाषा की मूल भाव-प्रकृति लिंगभेद को नहीं मानती, क्योंकि अंगरेजी भाषी समाज में स्त्री-पुरुष भेद अपेक्षाकृत हल्का हो चुका है कहने के लिए तो अंगरेजी भाषा में पुलिंग (डंेबनसपदम ळमदकमत), स्त्रीलिंग (थ्मउपदपदम ळमदकमत), नपुंसक (क्लीब लिंग) (छमनजमत ळमदकमत) और उभयलिंग (ब्वउउवद ळमदकमत) हैं, पर भाषिक प्रयोग में इनकी सत्ता प्रायः नहीं दिखती। अन्य पुरुष (ज्ीपतक च्मतेवद) के तीन सर्वनाम (च्तवदवनद) हैं – भ्म, ैीम, प्ज – बस, इन्हीं से पता चलता है कि अंगरेजी में पुलिंग, स्त्रीलिंग व नपुंसक लिंग नामक कोई चीज भी है। फिर इन सर्वनामों से बने सार्वनामिक विशेषण (भ्पे, भ्मत, प्जे) आदि हैं, जिनसे भी ‘जेण्डर’ नामक तत्व की सूचना मिलती है। शेष कोई प्रमुख क्षेत्र है ही नहीं, जिनसे पता चले कि अंगरेजी भाषा पुरुष व स्त्री में भेद करती है। फिर चैथा बहुकथित ब्वउउवद ळमदकमत तो सिर्फ कहने की बात है। उसका सूचक तो कोई सर्वनाम या सार्वनामिक विशेषण भी नहीं है, जिससे संकेत मिले कि अमुक शग्द ब्वउउवद ळमदकमत में है। परन्तु, हिन्दी में जब हम यह कहते हैं कि ‘वह जाती है’, फिर ‘वह जाता है’ तो स्पष्ट होता है कि प्रथम वाक्य का कर्ता ‘वह’ स्त्रीलिंग है, दूसरे वाक्य कर्ता ‘वह’ पुलिंग है। यानी, रूप एक होने के बावजूद ये दोनों ‘वह’ अलग-अलग अर्थों (स्त्री व पुरुष) के वाचक हैं। व्याकरण रूप को महत्व देता है इसलिए कहा जा सकता है कि हिन्दी के सारे सर्वनाम उभयलिंगी (ब्वउउवद ळमदकमत) हैं – वह-वे, यह-ये, कौन, जो… सो (जिन… तिन) कोई, क्या, तम-तुम, मैं-हम। सभी एक ही रूप में दोनों लिंगों में प्रयुक्त होने की क्षमता रखते हैं अथवा स्त्रीलिंग और पुलिंग दोनों अर्थों का वाचन हिन्दी सर्वनाम करते हैं। अंगरेजी में उभयलिंग तो सिर्फ कहने भर को है। फिर, बाकी तीन लिंग भी अंगरेजी में क्षीण अस्तित्व ही प्रायः रखते हैं, वह भी कुछ संस्कार (भ्म, ैीम, प्ज) रूप में, जो पुराने युग का अवशेष मात्र है। परन्तु, हिन्दी भाषा (व्याकरण) में तो लिंग-भेद बड़ी दृढ़ता से बैठा हुआ है।
भाषा में ‘लिंग’ का अस्तित्व मानने का एक और क्षेत्र है – ‘व्युत्पत्ति’ या ‘शब्द-निर्माण’। यद्यपि यह क्षेत्र ‘व्याकरण’ बाह्य है। शब्द तो लोक के खेत में स्वतः आवश्यकतानुसार पैदा होते रहते हैं अथवा जरूरत के हिसाब से लोक के कारखाने में बनकर प्रयोग में चलते दिखते हैं। वैयाकरण का कार्य प्रयोग/व्यवहार में दिख रहे शब्दों की निर्माण-प्रक्रिया का विवेचन भर देना है; शब्द बनाना नहीं। व्याकरण शब्दों की व्युत्पत्ति का विवेचन भी अब जाकर करने लगा है। प्राचीन काल में तो उस के लिए अलग सम्प्रदाय (स्कूल) था, जिस का नाम ‘निरुक्त’ था। खैर! आज तो ‘व्युत्पत्ति’ सम्प्रदाय व्याकरण का अनिवार्य अंग सा बना हुआ है।
‘व्युत्पत्ति’ में देखा जाता है कि ‘लिंग’ की स्पष्ट भूमिका है। हिन्दी-संस्कृत में तो है ही, अंगरेजी में भी है। कुछ खास प्रत्यय (‘स्त्री-प्रत्यय’) कई भाषाओं में हैं, जो पुलिंग शब्दों में लग कर स्त्रीलिंग शब्द व्युत्पन्न करते हैं – ऐसी व्यवस्था है, जिसका उल्लेख उन-उन भाषाओं के व्याकरणों में होता है। जैसे – लड़का$ई त्र लड़की। बाला$आ त्र बाला। ळवक$मेे त्र ळवकमेेण् भ्मतव$पदम त्र भ्मतवपदमण् भाषा की यह व्यवस्था जिसका सन्धान व्याकरण ने किया है, स्त्रीलिंग को पुलिंग के सामने कमतर आंकने की मानसिकता की देन है। क्या व्याकरण का यह दोष है अथवा लोक/भाषा में चल रही शब्द-निर्माण की प्रक्रिया की निर्दोष व्याख्या मात्र है? चाहे शब्द-निर्माण में लोक कितना भी स्वतंत्र हो, पर उसकी प्रक्रिया को ‘पुलिंग शब्द $ (स्त्री) प्रत्यय’ के रूप में विवेचित करने और इस प्रकार पुलिंग शब्दों को मूल और स्त्रीलिंग को व्युत्पन्न (गौण) बताने का दोष तो व्याकरण ने ही अपने सिर पर लिया है। व्याकरण चाहे अपनी कितनी भी सीमा की सफाई दे, पर ‘प्रकृति $ प्रत्यय’ कल्पना का ढंग तो थोड़ा-बहुत बदल ही सकता है जिससे स्त्रीलिंग शब्दों को द्वितीयक (व्युत्पन्न) ही मानने की रुढ़ि टूटे। पर, नहीं। संस्कृत-व्याकरण में तो स्त्री-प्रत्यय मात्र हैं, पुलिंग-प्रत्यय हैं ही नहीं। यानी, संस्कृत व्याकरण में पुलिंग की प्राथमिकता का कोई विकल्प न सोचा गया है। हिन्दी व अंगरेजी में भी कमोबेश यही स्थिति है, पर थोड़ा सा फर्क है। इसकी चर्चा आगे करेंगे। डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह की पुस्तक ‘भाषा का समाजशास्त्र’ में कहा गया है कि मुण्डा भाषाओं के मूल शब्दों में पुरुषवाचक व स्त्रीवाचक अंशों/शब्दों को जोड़कर पुलिंग व स्त्रीलिंग अर्थों की सूचना दी जाती है। यदि ऐसा है तो निश्चय ही हिन्दी-अंगरेजी-संस्कृत आदि से मुण्डा भाषाओं की लिंगगत व्युत्पत्ति अधिक तर्कपूर्ण है; क्योंकि व्युत्पत्ति ऐसी है ही नहीं कि स्त्रीलिंग-पुलिंग में से किसी की किसी पर सत्ता सिद्ध हो। इसका कारण यह बतलाया जा सकता है कि वे भाषाएं अधिक प्राचीन हैं, इसलिए लिंग-भेद की अवधारणा उनमें धुंधली सी है, प्रारंभिक अवस्था में है। भाषा वैज्ञानिकों की मान्यता है कि पुंसत्व व स्त्रीत्व का लिंग-भेद बाद की घटना है।
‘व्युत्पत्ति’ पर विचार करते हुए यह भी ध्यातव्य है कि बहुत से पुलिंग व स्त्रीलिंग शब्द-युग्म एकदम स्वतंत्र शब्द होते हैं। जैसे – पिता-माता, थ्ंजीमत.डवजीमत, पति-पत्नी, ठवल.ळपतस आदि। यहां ध्वनि-परिवर्तन के किसी ऐसे नियम का सन्धान नहीं किया जा सकता जो ‘पिता’ शब्द से ‘माता’ को सिद्ध कर सके और इस प्रकार किसी ऐसे प्रत्यय की कल्पना नहीं की जा सकती जो ‘पिता’ में लग कर ‘माता’ शब्द की व्युत्पत्ति करता दिखे। (‘माता’ से ‘पिता’ की व्युत्पत्ति दिखलाने की कोशिश तो खैर वैयाकरण का पितृसत्तात्मक मन करेगा ही नहीं) फिर भी वैयाकरण बाज कब आया है। हर शब्द की व्युत्पत्ति दिखलाने का प्रयत्न करता ही है। क्या इसलिए कि स्त्रीलिंग शब्द को स्वतंत्र देखना वैयाकरण के पितृसत्तात्मक मष्तिष्क को अग्राह्य है, जो वह लिंगगत ऐसे शब्द युग्मों में भी स्त्री-प्रत्यय जन्म व्युत्पत्ति कथा गढ़ता है? पाणिनी ने ‘पति’ से ‘पत्नी’ की व्युत्पत्ति सिद्ध करने की जो व्याख्या दी, वह उनकी विवशता हो सकती है, वास्तविकता नहीं। ‘पत्युनों यज्ञ सम्भोगे’ (अष्टाध्यायी 4.1.33) – पति के यज्ञ-कार्य में सहयोग प्रदान करने से (पति $ङीप्/नुक) पत्नी की व्युत्पत्ति, स्त्री निम्नतर सामाजिक स्थिति की आख्यात्री है। स्त्री का पत्नीत्व उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व की समाप्ति और ‘पति’ नामक मर्द-विशेष के सुख/कल्याण-साधन में उसके विलीनीकरण का पर्याय बना रहा है – यह त्रासद सच ही पाणिनी को ‘पति’ से ‘पत्नी’ शब्द की उक्त प्रकार से सिद्धि करने को विवश कर सका। इस पाणिनीय व्युत्पत्ति की छाया में महाभाष्यकार द्वारा यह वितर्क उठाया गया कि जब शूद्र को वेदपाठ या यज्ञादिक का अधिकार ही नहीं है तो शूद्र पुरुष की ब्याहता को उसकी ‘पत्नी’ कैसे कहा जा सकता है? तब खुद उन्होंने समाधान दिया कि उपमान या लक्षणा से ऐसा कहा जा सकता है। यानी ‘यज्ञ कार्य में सहयोग’ का लक्ष्यार्थ ‘सहयोग’ लेकर शूद्र पुरुष को उसकी पत्नी कहा जा सकता है। इन सब पचड़ों में पड़ने की जगह यदि ‘पति’ व ‘पत्नी’ जैसे शब्द-युग्म को ‘आदमी’ व ‘घोड़ा’ जैसे अलग-अलग स्वतंत्र शब्द मानकर चला जाता तो क्या गड़बड़ी होती? पुलिंग की सत्ता कमजोर होती, यही न? (औरत स्वतंत्र रह जाए, तो मर्दानगी किस काम की?) समग्रतः वैयाकरण भी समाज में व्याप्त लिंगगत, जातिगत पूर्वग्रहों से स्वयं को बचा नहीं पाता।
प्रत्यय जोड़ने की जगह, लिंगगत व्युत्पत्ति का एक गौण क्षेत्र है – समास-प्रक्रिया द्वारा व्युत्पत्ति। जैसे – खिलाड़ी (पु.)झ महिला खिलाड़ी (स्त्री); कोकिल (स्त्री) झ पुंस्कोकिल (पु.)। च्मं.बवबा (पु.) झ च्मं.ीमद (स्त्री)
यहां स्पष्ट है कि इस प्रकार की व्युत्पत्ति पुलिंग से स्त्रीलिंग की ओर ही नहीं, बल्कि स्त्रीलिंग से पुलिंग की ओर भी होती है। परन्तु, यह व्युत्पत्ति का गौण क्षेत्र है। मुख्य क्षेत्र है प्रत्यय द्वारा व्युत्पत्ति, जहां पुलिंगवाद का ही राज्य है — ‘पुलिंग (मूल शब्द) $ स्त्री प्रत्यय – स्त्रीलिंग शब्द के रूप में।
इतने विवेचन से स्पष्ट है कि यदि ‘व्युत्पत्ति’ को व्याकरण का अनिवार्य अंग माना जाए, तब तो अंगरेजी भाषा में भी लिंग की सत्ता है क्योंकि उसमें लिंग की भूमिका व्युत्पत्ति में है। परन्तु, यदि केवल भाषा-प्रयोग (पदत्व और वाक्य रचना) को व्याकरण का विवेच्य मानें, तो अंगरेजी भाषा में लिंग की सत्ता नहीं है क्योंकि वहां भाषा-प्रयोग में लिंग की कोई भूमिका नहीं है। हिन्दी भाषा तो दोनों दृष्टियों से ‘लिंग’ की सत्ता को स्वीकार किए बैठी है।
(हिन्दी) भाषा और उसके व्याकरण के पुरुषवादी होने के ढेर सारे संकेत मौजूद हैं। हम बिन्दुवार विचार करते हैं।
(1) उपर्युक्त ‘व्युत्पत्ति’ नामक प्रकरण में स्त्रीलिंग की पुलिंग के सामने हीनता प्रकट की गयी है। इसी संदर्भ में, जब जातिवाचक संज्ञाओं से भाववाचक संज्ञाएं बनाजे हैं तो किसी जातिवाची पु. शब्द को ही मूलवत् मानकर आचरण करते हैॅं, भले उसका स्त्रीलिंग भी परम्परा में प्रतिष्ठित रहा हो। जैसे – ‘आचार्य’ और ‘आचार्या’ दोनों शब्द मौजूद हैं, परन्तु हम (आचार्य-कर्म/गुण हो आचार्या-कर्म/गुण, दोनों के लिए) ‘आचार्य $ त्व त्र आचार्यत्व’ शब्द ही बनाते हैं। इसी प्रकार ‘अध्यक्ष’ व ‘अध्यक्षा’ दोनों के कर्म को ‘अध्यक्षता’ ही कहते हैं। जैसे – पण्डित नेहरू ने सभा की अध्यक्षता की। इन्दिरा गांधी ने सभा की अध्यक्षता की।
ऐसा हम भूलकर भी नहीं कहते कि ‘इन्दिरा गांधी ने सभा की अध्यक्षाता की।’
(2) व्याकरण में ‘एकशेष’ की प्रक्रिया भी व्याख्यायित हुई है। लिंग के क्षेत्र में भी ‘एकशेष’ अपना काम करते रहा है। भाषा-प्रयोग में स्त्रीलिंग, पुलिंग दोनों श्रेणियों के शब्द मौजूद रहने पर यदि ‘एकशेष’ करना चाहें तो हम प्रायः ‘पुलिंग’ शब्द को रख लेते/लेती हैं। संस्कृत में ‘माता च पिता च’ की जगह ‘पितरौ’ शब्द रख दिया गया और ‘मातृ-पितरौ’ (माता-पिता) का अर्थ इसी से निकलने लगा। ‘मातरौ’ भी कहकर उसमें ‘पिता’ को समेटा जा सकता था, परन्तु वैसा नहीं किया जा सका। कारण यही हो सकता है कि भले ‘मनुस्मृति’ ने कहने के लिए ‘‘सौ आचार्यों के बराबर पिता का महत्व (है) तथा पिता से सौगुना माता का महत्व (है)’’ कहा है, पर मनुवादी परम्परा में यथार्थ तो यही है कि पुरुष के आगे स्त्री का मूल्य ही क्या है? ‘एकशेष’ की उक्त प्रक्रिया ने ‘पिता’ के बराबर ‘मां’ को न रहने दिया और ‘पिता’ में ही ‘मां’ को विलीन कर छोड़ा। कालिदास ने ‘रघुवंशम’ में कहा – ‘जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ’ अर्थात संसार के मां-बाप पार्वती और परमेश्वर (शिव) की मैं वन्दना करता हूं। तो उसकी परम्परा में उनकी मानसिकता फिट हुए लगती है। ठीक है कि भाषा की संरचना सदियों की समाज-गति का परिणाम है परन्तु असाधारण व्यक्ति उसमें अपनी तर्क बुद्धि से (लोकतांत्रिक सुधारार्थ) कुछ विचलन तो ला ही सकते है। कुछ नहीं तो ‘पितरौ’ की जगह कालिदास ‘मातृ-पितरौ’ लिख सकते थे। उनका पक्षपात तो इसी से साफ हो जाता है कि पत्नी (पार्वती) का निर्विशेषण नाम भर लिखते हैं, पर पति (शिव) को सीधे परमेश्वर बना डालते हैं।
‘एकशेष’ के ढेर सारे प्रयोग हम पाते हैं। समाज का मानसिक झुकाव जिधर होता है – दो लिंगों में से उसी एक का ग्रहण कर शेष को उसी में समाहित मान लेता है। संकेत स्पष्ट है कि पुरुष वर्चस्व के इस समाज में प्रायः पुलिंग रह जाता है और स्त्रीलिंग छूट जाता है। जैस – ‘‘बच्चे और बच्चियां खेल रहे हैं।’’ हम ऐसा वाक्य प्रयोग करने में परेशानी का अनुभव करते/करती हैं (क्योंकि स्त्री को अलग से जगह देने में समाज ही नहीं सरकार भी परेशानी का अनुभव करती है और उसे पुरुष/पति के घर में ही ठूंस देती है, भले उसकी अलग से नौकरी हो।) हम ‘एकशेष’ बोलते/बोलती हैं – ‘बच्चे खेल रहे हैं।’ इसी प्रकार, ‘पचास आदमी बैठ सकते हैं।’ का प्रयोग कर हम मानकर चलते/चलती हैं कि इसमें ‘औरतें’ भी आ गयीं। पर, ‘औरतें बैठ सकती हैं’ – इस प्रयोग में हम मानकर चलते/चलती हैं कि इसमें ‘आदमी’ नहीं आ पाते। (बेचारा पुरुष! औरत की जगह में बैठकर अपनी मर्दानगी को बट्टा लगाने से डरता है। औरत की कमाई खाना उसके पौरुष को कब रास आएगा? वह तो औरत को नौकरी से हटवा कर ही मूंछे टाइट रख सकता है, भले ही अपनी बेरोजगारी में उसे भी भूखा मार डाले) अंगरेजी में भी ‘डंद’ का प्रयोग कर ‘ॅवउंद’ को उसमें स्वतः समाहित मान लेते/लेती हैं; परन्तु इसका उल्टा कभी नहीं होता।
भाषा में कार्यरत यह पूरी प्रवृत्ति पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना के उस विराट दोष की छाया है, जिसमें स्त्री को कहीं भी जगह न देने पर मौन सहमति है। हर जगह ‘पुत्र’ शब्द चला है, ‘भाई’ शब्द चला है, ‘भाईचारा’ शब्द चला है। लगता है ‘बहन’ रहती ही नहीं इस दुनिया में। ‘हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई/ सब आपस में भाई-भाई’ का नारा कितना हिंसक रूप से अधूरा है। क्या यह उसी खण्डित चेतना से नहीं निकला है, जिससे गर्भ में या जन्म के बाद कन्यायों को साफ कर देने की खुराफाती सोच निकली। इसी तरह अंग्रेजी में नियमावली के लिए ‘डंदनंस’, प्रबंध करने के लिए ‘डंदंहम’, अधिदेश के लिए ‘डंदकंजम’, श्रम घंटे के लिए ‘डंदीवनत’, साहसपूर्वक के लिए ‘डंदनिससल’, कृत्रिम के लिए ‘डंदउंकम’, ढंग के लिए ‘डंददमत’, चाल-चलन के लिए ‘डंदवमनअतम’, हवेली के लिए ‘डंदवत’, श्रमशक्ति के लिए ‘डंदचवूमत’, निर्माण करने के लिए ‘डंदनंिबजनतम’ पाण्डुलिपि के लिए ‘डंदनेबतपचज’, मानवता के लिए ‘डंदापदक’ तथा बुरी तरह पीटने के लिए ‘डंदहसम’, जैसे शब्दों का चलन क्या उसी सामाजिकता की प्रतिच्छाया नहीं है, जिसमें किसी महत्वपूर्ण कार्य में ‘ूवउंद’, को स्थान नहीं दिया गया है, चाहे वह निर्माण हो, व्यवस्था हो, ताकत हो, या ताकत-प्रदर्शन कर पीटना (घरेलू हिंसा?)।
हिन्दी भाषा में कहीं-कहीं – ‘एकशेष’ की प्रक्रिया में पुलिंग भी स्त्रीलिंग में विलीन होते दिखा है, पर गहराई से देखें तो वहां भी पितृसत्ता का स्वार्थ नजर आता है। ‘गायेें/बकरियां चर रही हैं’ – इस प्रयोग में पुलिंग ‘बैल/बकरे’ भी आ जाते हैं; तो कारण यही है कि चूंकि समाज की स्वार्थ बु़िद्ध ‘गाय/बकरी’ की तरफ ज्यादा ढरी रहती है, इसलिए उन्हें प्रमुखता मिलती है। कहावत भी है – ‘हे भगवान! इंसान को बेटा देना और जानवर को बेटी’। ‘औरत के हक में’ पुस्तक में तसलीमा नसरीन ने एक बंगला कहावत दी है कि ‘अभागे की गाय मरती है और भाग्यवान की बीबी’ मानव में स्त्री को पुरुष से हीन मानने की प्रवृत्ति पशु-जगत में स्वार्थवश उलटी हो जा रही है। इस स्वार्थबुद्धि के अलावा, क्षुद्रचेतन की बात आने पर भी कभी स्त्री-लिंग में पुलिंग का विलीनीकरण दिखता है। जैसे – ‘जुएं रेंगती हैं’ या ‘कोकलें कूक रही हैं।’ चूकि इन क्षुद्रचेतनों में लिंग-भेद से हमारे स्वार्थ में कोई अंतर नहीं आता, इसलिए हमने यहां ‘स्त्रीलिंग’ को महत्व दे दिया, तो हमें कोई घाटा तो नहीं है।
(3) पुलिंग विशेषण से स्त्रीलिंग संज्ञा/सर्वनाम को भी विशेषित करने की प्रवृत्ति हिन्दी भाषा में दिखती है, परन्तु इस का विपरीत एकदम नहीं होता। जैसे – ‘सुन्दर’ (पु.) विशेषण लड़की के लिए भी चल जाता है, पर ‘सुन्दरी’ (स्त्री) विशेषण ‘लड़का’ के लिए एकदम नहीं चलता। वैसे इस घटना को हिन्दी में कम हो रहे लिंग-भेद के रूप में भी विश्लेषित किया जा सकता है। संस्कृत भाषा विशेषणों में अनिवार्यतः लिंग-भेद रखती है, जिससे हिन्दी बहुत हद तक मुक्त हो चुकी है। हिन्दी में अकारांत (पु.?) विशेषणों के स्त्रीलिंग रूप की जरूरत नहीं पड़ती, पर संस्कृताभिमानी जन वहां भी हस्तक्षेप किए बिना नहीं मानते। ‘बुद्धिमान लड़की’ को ‘बुद्धिमती’ बना कर ही छोड़ते हैं। वैसे लिंग-भेद मिटना अच्छा ही है, पर उसके मिटने का रूप पुलिंग को ही स्वीकार करके हो, यह प्रवृत्ति निश्चय ही स्त्री-विरोधी मानसिकता की देन है। यदि एक क्रिया रूप रखना ही है तो ‘जाती है’ जैसा रख कर भी हिन्दी काम चला सकती है, पर लिंग-भेद मिटाने का रास्ता ‘जाता है’ से ही हो कर जाए – यह मर्दानापन ही कहा जा सकता है। यहां तर्क वह नहीं है कि स्त्री व पुरुष की पोशाक का लिंग-भेद मिट रहा है – पुरुष-पोशाकों की स्वीकृति में। कारण – पोशाक न पुरुष होती है, न स्त्री। वह सुविधाजनक या असुविधाजनक तो हो सकती है, परन्तु स्त्री व पुरुष में कैसे बंट सकती है? यह कोई मूढ़ ही कह सकता है कि ओढ़नी-सलवार या ब्लाउज-साडी की जगह पैंट-शर्ट अपनाकर लिंग-भेद मिटाने की स्त्रियों की प्रवृत्ति में उनका मर्दानापन का शिकार बनना है। लिंग-भेद मिटाने का रास्ता स्त्री व पुरुष दोंनों को साड़ी जैसी असुविधाजनक पोशाक में अंटा कर नहीं खुल सकता। यही ठीक है। परन्तु पोशाक का यह तर्क भाषा में नहीं चल सकता। ‘जाता’ वह ‘जाती’ दोनों में से कोई भी न विशेष सुविधाजनक है, न असुविधाजनक। किसी एक को अपनाकर लिंग-भेद मिटे तो आपत्ति की क्या बात है। परन्तु, असली बात मिटाने के तरीके के पीछे काम कर रही मानसिकता की है। बेटी को बेटी रूप में ही स्वीकार करते हुुए उस पर दुलार लुटाना या गर्व करना ही सही रास्ता है। एक अखबार में एक रोचक खबर पढ़ी कि लड़कियां अपने भीतर की हीन भावना को मिटा कर भाषा-प्रयोग के स्तर पर ही स्मार्ट बन रही हैं। अखबार ने दिल्ली की कुछ ऐसी होनहार नौकरीशुदा बालाओं की बदल रही भाषिक प्रवृत्ति पर निगाह करते हुए सूचना दी कि वे ‘मैं जाता हूं’ जैसे प्रयोग ही अब धड़ल्ले कर रही हैं। इस प्रवृत्ति को उनके द्वारा (सुविधाजनक) ‘जीन्स’ को अपना लेने की प्रवृत्ति से नहीं मिलाना चाहिए। यह बेटी के ऊपर बेटे को तरजीह देने की सामाजिकता में ढलने का उदाहरण अधिक लगता है। वैसे लिंग-भेद चाहे जिस रास्ते से मिटे, सुखद ही है। घी, दाल में गिरे या भात में, बात तो एक ही है!
(4) हिन्दी भाषा में जहां कहीं लिंग की अनिश्चितता होती है, वहां सिर्फ पुलिंग का प्रयोग किया जाता है। जैसे – ‘कौन आ रहा है?’/ ‘कौन था’ कहा जाता है, तो अर्थ ही बदल जाता हैं। तब, लिंग का अनिश्चय नहीं है। यह तो निश्चय हो चुका कि आने वाले का लिंग स्त्री है, परन्तु सवाल इसलिए पूछा जा रहा है ताकि पता चले कि वह स्त्री आखिर है कौन? उसकी पहचान क्या है?
(5) जहां कहीं लिंग-विशेष जानकर भी उसे प्रकट करना विवक्षित न हो, वहां पुलिंग का प्रयोग होता है। जैसे – किसी पुरुष को ही नहीं, किसी स्त्री को भी आते देखकर कहा सकता है – ‘कोई आ रहा है।’ उस की जगह ‘कोई आ रही है’ नहीं चल सकता।
(6) वाच्य-प्रकरण में जब क्रिया कर्ता या कर्म के प्रभाव से मुक्त हो जाती है (यानी भाववाच्य हो) तब हिन्दी में वह पुलिंग – एक वचन में होती है। जैसे – राम ने खाया। सीता ने खाया। राम ने साथियांे को बुलाया। सीता ने सखियांे को बुलाया यहां अब बैठा जाएगा।
संस्कृत-व्याकरण का नियम है कि जहां लिंग-विशेष की विवक्षा न हो, वहां नपुंसक लिंग – एकवचन सहज रूप से होता है। यह स्थिति कहलाती है – ‘लिंग सर्वनाम’। यही बात संस्कृत भाववाच्य में रखती है। जैसे – रामेण गन्तव्यम्। (राम को जाना है।) सीतया गन्तव्यम्। (सीता को जाना है।) कुछ लोग यह वितर्क रख सकते/सकती हैं कि चूंकि हिन्दी में ‘नपुंसक लिंग’ नहीं है, इसलिए अलिंगता या ‘लिंग सामान्यता’ या ‘लिंग की अविवक्षा’ अथवा भाववाच्य में हिन्दी ‘पुलिंग’ का प्रयोग करती है। अतः हिन्दी का पुलिंग प्रयोग पुरुषवादी नहीं, विवशताजन्य है। परन्तु, यह कहने वाले यह क्यों नहीं सोच पाते कि ‘लिंग-सामान्यता’ या ‘लिंग-निरपेक्षता’ का कार्य क्या स्त्रीलिंग नहीं कर सकता? फिर, संस्कृत में भी पुलिंग व स्त्रीलिंग से इतर, जो लिंग कल्पित किया गया, वह ‘न ़ पुंस’ (यानी जो पुरुष न हो) के रूप में क्यों कल्पित हुआ? पुरुष लिंग का अभाव बतलाते, उसे नकारते जो लिंग कल्पित किया गया (‘नपुंसक लिंग’), वह एक प्रकार से पुरुष लिंग को महत्व प्रदान कर ही रहा है। तभी तो उसके अभाव को ‘लिंग सामान्यता’ के लिए उपयुक्त मान ले रहा है। समाज में सेक्स (प्राकृतिक लिंग) से निरपेक्ष जनों को ‘नपुंसक’ (यानी, जिनमें पुंसत्व या मर्दानगी का अभाव हो) कहा जाता है। उनकी जनगणना अलग से नहीं की जाती, बल्कि पुरुष-वर्ग में ही उन्हें गिना जाता है। पुलिंग का वर्चस्व यहां भी सिद्ध है। नालायकी के लिए हम ‘नपुंसक’ शब्द का इस्तेमाल करते/करती हैं। ‘यह सरकार नपुंसक हो गयी है’। यानी, सरकार अब मर्द न रह गयी। व्याकरण ने ऐसा पारिभाषिक शब्द क्यों नहीं बनाया जो पुंसत्व या स्त्रीत्व के प्रति निरपेक्षता का संकेत करे? ‘नपुंसक’ की जगह ‘नपुंस्सत्री’ या ‘अलिंग’ क्यों नहीं? या ‘स्त्रीतर’ (जो स्त्रीलिंग न हो) ही क्यों न बन सका पारिभाषिक शब्द? स्पष्टतः व्याकरण की सोच पुरुषवादी है।
(7) ‘अव्यय’ शब्दों के लिंगहीन होने की व्यवस्था व्याकरण देता है अतः उक्त तर्क पर पर हिन्दी-व्याकरण उन्हें पुलिंग मानकर चलता है। संस्कृत व्याकरण उन्हें नपुंसक लिंग मानता है। क्रिया कि विशेषण (किया-विशेषण) भी स्थानीय आधार (यानी, वचनहीन अलिंग रहने वाली क्रिया का विशेषण होने से) पर अव्यय बन जाते हैं, अतः उनमें भी अलिंगता आ जाती है। इससे हिन्दी-व्याकरण उन्हें पुलिंग मानकर चलता है। जैसे – राम अच्छा करता है। सीता अच्छा करती है। दोनों स्थितियों में रूप ‘अच्छा’ ही है, ‘अच्छी’ नहीं। यही तो पुलिंगवाद है।
(8) सभी क्रियार्थक भाववाचक संज्ञाएं हिन्दी में पुलिंग होती हैं (संस्कृत में नपुंसक लिंग)। जैसे – ‘पढ़ना अच्छा होता है।’ इसे ‘पढ़ना अच्छी होती है’ नहीं लिख सकते। सबसे मूल बात तो यह है कि क्रियार्थक संज्ञाओं का निर्माण ही धातु $ ‘ना’ पुंप्रत्यय से होता है, ‘नी’ स्त्रीप्रत्यय से नहीं। ‘ग्रंथ पढ़ना चाहिए।’ और ‘पुस्तक पढ़नी चाहिए।’ उदाहरणों में ‘पढ़ना’ और ‘पढ़नी’ (क्रियार्थक) संज्ञा नहीं हैं, बल्कि विशेषणात्मक स्थिति रखते हैं, जो यहां क्रिया के घटक बने हैं। जब भी क्रियार्थक संज्ञा बनेगी तो रूप ‘पढ़ना’ आदि (पुलिंग-सिद्ध) ही होंगे, यह तय है।
(9) समास के क्षत्र में भी हिन्दी ने पुलिंग की विजययात्रा ही जारी रखी है। द्वन्द्व समास से बने समस्त पद हिन्दी में पुलिंग होते हैं। जैसे – राजा-रानी आये। स्त्री-लिंग होने की नौबत तभी आती है, जब ‘द्वन्द्व समास’ के सारे पद पहले से ही स्त्री हों। जैसे – सीता-गीता-रीता गयीं। ‘समाहार द्वंद्व’ तो प्रायः पुलिंग एकवचन ही होता है। (संस्कृत में नपुंसक लिंग एकवचन होता है।) जैसे – कंकर-पत्थर, तन-बदन। ‘दाल-रोटी’ आदि स्त्रीलिंग है तो तभी जब इसके सभी पद पहले से ही स्त्रीलिंग हों। तत्पुरुष समास में तो उत्तर पद प्रधान होता है, अतः वहां यदि उत्तर पद स्त्रीलिंग हो जाता है, जो समस्तपद के स्त्रीलिंग होने की मजबूरी है ही। अन्यथा समस्त पद पुलिंग ही होता है। जैसे – ‘राजपुत्री’ स्त्रीलिंग है, परन्तु ‘यशोदानन्दन’ पुलिंग। समास की यह व्याख्या उसी सामाजिक विसंगति का प्रतिनिधित्व करती है, जिसके तहत किसी समूह में एक भी मर्द मौजूद हो तो वह पूरे समूह को अपने वशीभूत कर लेता है।
(10) स्त्रीलिंग शब्द को पुलिंग की तुलना में हीनतर समझाा जाता है – इसका एक और संकेत व्याकरण में है। ऊनवाचक अर्थ में स्त्रीप्रत्यय का प्रयोग स्वीकृत है। डिब्बा $ इया त्र डिबिया। ‘डिब्बा’ (पु.) से ‘डिबिया’ (स्त्री) की हीनता प्रसिद्ध है। इस व्यवस्था में अपवाद बहुत कम हैं – ‘अरण्य’ का स्त्री. ‘अरण्यानी’ अथवा ‘डोरा’ का स्त्री ‘डोरी’ अपेक्षाकृत बृहत् अर्थ में है।
इन रूपों में (हिन्दी) व्याकरण में ‘लिंग’ नामक अवधारणा प्रतिष्ठित है, जो ‘व्याकरण’ जैसे शास्त्र (जो देश, सम्प्रदाय, नस्ल आदि के आधार पर शब्दों के बीच भेदभाव नहीं करता) में भी स्त्री व पुरुष के बीच भेदभाव खड़ा करती है। इतना ही नहीं, स्त्री को पुरुष के सामने तुच्छ भी ठहराती है। परन्तु, बात है कि व्याकरण का इस तरह से पुरुषवादी होना मूलतः भाषा के पुरुषवादी होने का कुपरिणाम है और वह भाषा स्पष्टतः पितृसत्तात्मक मानसिकता वाले समाज की उपज है; परन्तु गौणतः वैयाकरणों के भी पुरुषवादी होने का कुफल है। पण्डित कामता प्रसाद गुरु ने ‘हिन्दी व्याकरण’ के ‘शब्दसंधान’ नामक खण्ड में ‘लिंग’ का विवेचन करते हुए कहा कि कुछ अर्थ जो केवल स्त्रियों में संभव हैं, उनके सूचक स्त्रीलिंग शब्दों के पुलिंग जोड़े संभव नहीं हो सकते। उदाहरण-रूप में उन्होंने जो शब्द पेश किए (सती, गाभिन, सौत, धाय आदि) वे विवेच्य हैं। गुरुजी यहां पर स्त्री के प्राकृतिक धर्म (जैसे गर्भ-धारण) की ही पांत में पितृसत्तात्मक संरचना द्वारा थोपे गए बोझों (धाय, सौत, सती आदि) को भी बैठा लेते हैं। अब सोचा जाए कि क्या ‘धाय’ की भूमिका सिर्फ स्त्री निभा सकती है? इस शब्द का पुलिंग न होना भीषण अन्याय है, जिस पर गुरुजी जैसे मौलिक चिंतक ने भी मुहर लगा दी है। इससे भी भीषण अन्याय तो स्त्री के धर्म के रूप में सतीत्व को उपस्थित करना है। (अक्सर समाज द्वारा थोपे गए) पति की गुलामी करने और उसकी चिता पर जल मरने (और अक्सर स्त्री को जबरन जला डालने) की क्रूरता को भी स्त्री का सहज धर्म (सतीत्व) मान लेना वैयाकरण् की किस असंवेदनशीलता का प्रमाण है। ऐसे उदाहरण पेश कर वह क्या समाज के लिंग-अन्याय को मजबूती प्रदान नहीं करता? स्त्री को कमजोर, घरेलू, विद्या/प्रतिभा से दूर, देह-बोध/सौंदर्य से ही ग्रस्त आदि हीन रूपों में उदाहरण बनाना आम है। गुरुजी ने विशेषण-चर्चा के दौरान ‘पतिव्रता सीता’ का भी उदाहरण दिया है। क्या आवश्यकता है ऐसे उदाहरणों की, जो विवाह में स्त्री-पुरुष समता के लक्ष्य को करारा झटका देते रहें और स्त्री के व्यक्तित्व का गला घोंटते रहें। ऐसे उदाहरण तो स्त्री को पुनः ‘करवा चैथ’ की गुलाम, अंधी गली में धकेलने की फिल्मी-बाजारी परियोजना का हिस्सा बनाने को तैयार दिखते हैं। ‘हिन्दी व्याकरण का इतिहास’ के लेखक अनन्त चैधरी ने ‘नागरी लिपि और हिन्दी वर्तनी’ पुस्तक में किसी प्रसंग में एक उदाहरण दिया है – ‘लड़की शराब पिए जा रही थी’। क्या इसकी जगह लड़की भाषण दिए/ किताब पढ़े/ कुश्ती लड़़ के जा रही थी’ जैसे उदाहरण लेखक को नहीं सूझ सके? इसी तरह पण्डित किशोरीदास वाजपेयी ने ‘वाक्य-विचार’ में उदाहरण दिया है – ‘‘बेटी पराए घर का धन होती है।’’ ऐसे उदाहरण स्त्रीलिंग में जन्म लेने के प्राकृतिक संयोग का दण्ड लड़की को देने का औचित्य ठहरा देते हैं – एक ही साथ उसे वस्तु (धन) भी बना देते हैं और पराया भी ठहरा देते हैं। भाषा और उसके व्याकरण में लिंग-भेद का अवसान किए बिना लिंग-भेद रहित समाज स्थापित करने की, जेंडर-जस्टिस (लिंगाधारित न्याय) को सफल बनाने की लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता का लक्ष्य कैसे पूरा हो सकता है?
लिंग व्यवस्था के पैरोकार चाहे लाख कहें कि अर्थ-अभिव्यंजना संबंधी सुन्दरता-सूक्ष्मता आदि भेदों के लिए लिंग जरूरी हैं, उपयोगी हैं; परन्तु सत्य यही है कि लिंग नामक कोटि भाषिक संस्कृति में स्त्री व पुरुष भावों के बीच जितने सौंदर्य या माधुर्य की रचना नहीं करती, उससे ज्यादा वह लिंग-भेद पैदा करती है। समाज ही केवल भाषा नहीं बनाता, बल्कि भाषा भी समाज को बनाती है। भाषा ही वह स्पेस है जहां जेंडरगत मिथ्या अस्मिताएं गढ़ी जा सकती हैं। समाज के भेदभावों को (खासकर जेंडरजनित भेदों को) स्वाभाविकता प्रदान करने में भाषा अहम भूमिका निभाती दिखती है। जब तक व्याकरण में लिंग-व्यवस्था रहेगी तब तक सामाजिक लिंग-भेद को भी वह विचारधारात्मक सहयोग देती रहेगी। एक रोचक विसंगति द्रष्टव्य है। ‘महाभारत-अनुशासन पर्व’ के उमा-महेश्वर संवाद में व्याकरणिक लिंग को मूढ़ सामाजिकता तक में घसीटा गया है। वहां पतिव्रता स्त्री को सीख दी गयी है कि पुलिंग शब्दों के वाच्य पदार्थों (सूर्य, चन्द्र, वृक्ष आदि) तक से वह अपने आप को बचाए। सिर्फ एक ही पुलिंग उसके मन में – जीवन में रहे – उस का पति। वाह! यह तो ‘मानस’ क्षरा निर्धारित नारी की उत्तम कोटि (जो स्वप्न में भी दूसरे पुरुषों को नहीं देखती) से भी एक बांस आगे की बात है। स्त्री को (थोपे गए) पुरुष-विशेष के प्रति यौन-प्रतिबद्ध यानी ‘पतिव्रता’ बनाने की गुलामी-शिक्षा के इन मास्टरों से पूछा जाना चाहिए था कि जहां एक ही वस्तु के वाचक कई शब्द अलग-अलग लिंगों में वहां स्त्री क्या करेगी? जैसे – संस्कृत में ‘पुस्तक’ नपुंसक लिंग है, ‘ग्रंथ’ पुलिंग है तो वहां स्त्री को क्या करना चाहिए ताकि उसके पातिव्रत्य पर आंच न आए? चलिए, यह समस्या भी दूर हुई, क्योंकि पातिव्रत्य के कल्पकों की दृष्टि में स्त्री विद्या की अधिकारिणी ही नहीं है। परन्तु, स्त्री खुद अपनी वैवाहिक स्थिति के वाचक संस्कृत शब्दों ‘दार’ (पु.), ‘पत्नी’ (स्त्री), ‘कलव’ (नपुं.) के प्रसंग में क्या करेगी? किसके साथ रहेगी, किससे दूर? तीनों तो एक ही चीज हैं। क्या स्त्री तीनों के प्रति तटस्थ रहेगी? क्या खुद से तटस्थ रह सकती है वह? फिर, उसी की देह में ‘योनि’ स्त्री है, पर ‘भग’ पुलिंग। स्त्री क्या करेगी उसका? दोनों एक ही अर्थ को कहते हैं। स्त्री अपने पुलिंग ‘केश’ व ‘स्तन’ रखेगी या…? ‘पतिव्रता’ होना कितना कठिन हो गया! मूढ़ता की पराकाष्ठा हो गयी। व्याकरणिक लिंग-व्यवस्था ने यहां तक करामात दिखा दी है। इसी से ‘व्याकरण’ से लिंग-भेद का अंत करना ही होगा।
व्याकरण से लिंग-भेद तो पूरी तरह तभी मिटेगा, जब भाषा से उसका अंत हो जाएगा। परन्तु, वैसा होने में काफी देर है, क्योंकि भाषा ठीक तभी होगी, जब समाज ठीक हो जाए – स्त्री-पुरुष भेदभाव की समाप्ति हो जाए। फिर यह भी तो हो सकता है कि भाषा से लिंग-भेद मिट जाए, पर अवधारणा के स्तर पर ‘व्याकरण’ में लिंग (जेंडर) मौजूद ही हो (जैसा कि अंगरेजी में है) अथवा कुछ नहीं तो वैयाकरण के मन में कार्यरत पितृसत्तात्मक मूल्य, उदाहरण देते समय अपना काम करते रहें – स्त्री को हीन रूप में और पुरुष को दबंग रूप में पेश करते रहें। इसलिए कहना होगा कि समाज या भाषा में सुधार चाहे देर से ही हो, किन्तु व्याकरण व वैयाकरण को तो अपने स्तर से ऐसे प्रयास शुरू कर देने चाहिए, जिससे लिंग-भेद व पुरुष-वर्चस्व की स्थितियां हतोत्साह होती जाएं तथा स्त्री-सशक्तीकरण का संदेश अंगड़ाई लेने लगे। ऐसा संदेश भाषा से होते हुए देर-सबेर समाज तक भी पहुंचेगा। यद्यपि व्याकरण के पास ऐसे प्रयास करने का अवकाश (स्पेस) कम है, पर जो कुछ है, उसी में अपना कार्य करे।
स्त्रीलिंग को न्याय देने और व्याकरण को लिंग-निरपेक्ष बनाने के प्रयास का यही मतलब नहीं होगा कि व्याकरण प्रयुक्त ‘कारक’, ‘कर्ता’, ‘पुरुष’, ‘तत्पुरुष’ आदि पारिभाषिक शब्द चाहे जिस मानसिकता से बने हों (स्पष्टतः यहां पुरुषवादी मानसिकता तो है ही) पर आगे चलकर वे व्युत्पत्यर्थ-बंधन से मुक्त होकर संकेतक/प्रतीक मात्र रह जाते हैं। वैसे ही व्याकरण के कुछ स्त्रीवाची पारिभाषिक शब्द ‘वृत्ति’, ‘संधि’, ‘संज्ञा’, ‘क्रिया’, ‘व्युत्पत्ति’, ‘निरुक्ति’ आदि भी हैं जो अब व्युत्पत्यर्थ बंधन से मुक्त होकर तकनीकी शब्द मात्र बन चुके हैं। इस स्थिति में ‘रमेश’ ही नहीं ‘राधा’ को भी ‘कर्ता’ ही कहना हागा (जिस प्रकार प्रतिभा पाटील को ‘राष्ट्रपति’ या मायावती को ‘मुख्यमंत्री’ ही कहते हैं) ‘राधा’ को ‘कर्ती’ या ‘कारिका’ न कह सकेंगे। इसी तर्क पर ‘लिंग’ शब्द को भी पारिभाषिक शब्द के रूप में स्वीकारा जा सकता है। पीछे इन शब्दों पर जो भी आपत्तियां उठायी गयी हैं, वे लिंग-भेदी समाजशास्त्र को खंगालने के लिए।
लिंग-भेद को मिटाने के लिए ‘व्याकरण’ को सर्वप्रथम ‘व्युत्पत्ति’ क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप करना होगा। यानी, उसे ‘लड़का’ से ‘लड़की’ की व्युत्पत्ति करने से बचना होगा, ळवक से ळवकमेे की व्युत्पत्ति से बचना होगा और कहना होगा कि ये दोनों स्वतंत्र मूल शब्द (प्रतिपादिक) हैं; कोई किसी पर आश्रित या किसी से व्युत्पन्न नहीं। दोनों के अपने-आने कारकीय या वैभक्तिक रूप चलते हैं। तब, उनमें चिपके लिंगगत अर्थ की छाया ‘सुबन्त’ रूप बनते समय पड़ती है – जैसे आकारान्त होने पर भी ‘लड़का’ (पु.) और ‘लता’ (स्त्री) का रूपायन लिंगार्थ-भेद से अलग-अलग हो रहा है। इस प्रकार, ‘व्युत्पादन’ से लिंग को खारिज करने के बाद भी ‘रूपायन’ में वह बना रहता है। वाक्य में विशेषण, क्रिया, सम्बंधसूचक तत्वों में भी लिंग झलकता रहता है – ‘रूपायन’ का ही असर है यह। वह तो तबतक न हटेगा जबतक भाषा-संरचना न बदले। इसके लिए भाषिक समाज की मनोवृत्ति बदलनी चाहिए। (लड़की यदि ‘मैं जाता हूं’ बोल रही है तो यह मनोवृत्ति बदलने का ही संकेत है। इसमें असंगति भी क्या है? ‘हम जाते हैं’ से सर्वत्र पुरुष-स्त्री दोनों काम चला ही रहे हैं, चाहे उनकी संख्या एक हो या अनेक।)
यदि व्युत्पत्ति से लिंग को पूर्णतया खारिज करते हैं तो ‘लड़का’ या ‘लड़की’ आदि को रूपान्तरशील वर्ग का (विकारी) शब्द बतलाने हेतु परिभाषा में से यह बात हटानी होगी कि जिस शब्द में लिंग-वचन-कारक (विभक्ति)वश आकृति-परिवर्तन हो, वह विकारी शब्द है। तब, कहना होगा कि जिस शब्द में ‘वचन$कारक’ कृत रूपान्तर हो सके, वह रूपान्तरशील शब्द है, अन्यथ वह है ‘अव्यय’। तब ‘अव्यय’ की परिभाषा से सदृशं त्रिषु लिंगेषु’ (जो तीनों लिंगों में समान हो) अंश निकालना होगा। अव्यय की अरूपान्तरशीलता की व्याख्या उसके (प्रतिपादिक विभक्ति कृत) अरूपान्तर में होगी, न कि लिंगकृत अरूपान्तरशीलता में। इसी तरह क्रिया-पद की रूपांतरशीलता उसके लिंगगत परिवर्तन में नहीं, बल्कि ‘तिङ्’ विभक्ति से या उसके स्थानापन्न कृदन्तों में वचनकृत रूपान्तर में व्याख्यायित होगी। ‘व्युत्पादन’ से लिंग को पूर्णतः अपदस्थ करने की बात क्रांतिकारी होगी। क्या यह संभव है? ऐसा करने में कुछ उलझनें भी हैं। जैसे – कृदन्तों या तद्धितान्तों के पुलिंग-स्त्रीलिंग दोनों रूपों (जैसे – जाता-जाती, बुद्धिमान्-बुद्धिमती) को तब ‘लड़का’ व ‘लड़की’ की तरह हर दो स्वतंत्र शब्द (प्रतिपादिक) मानना होगा। तब व्याख्या करनी मुश्किल होगी कि ये विशेषणात्मक रूप दो तरह से क्यों हैं? जब ‘लड़का’ व ‘लड़की’ एक ही स्तर के दो स्वतंत्र शब्द हैं तो उनके ये विशेषणात्मक रूप अलग-अलग क्यों हैं? प्रतिपदिककारी व्युत्पादक प्रत्ययों (कृत, तद्धित) को यदि हम लिंग-निरपेक्ष मानकर चलें तो भी मानना होगा कि व्युत्पन्न प्रतिपादिकों में ढाल देते हैं। लिंग-प्रत्यय लिंग-सापेक्ष ही तो है – स्त्री प्रत्यय स्त्रीलिंगार्थ, पुंप्रत्यय पुलिंगार्थ। इसका समाधान यदि यह करें कि जिस तरह कई तद्धित प्रत्यय खास ‘अन्त’ वाले या खास शब्दों के साथ विहित हैं, उसी प्रकार ये लिंग-प्रत्यय खास लिंग के साथ विहित हैं। पर, यहां भी हमने ‘लिंग’ की व्युत्पादक भूमिका मान ही ली। समग्रतः, ‘अव्यय’ आदि की परिभाषाओं के लिए ‘लिंग’ की विकारी भूमिका दिखलाना आवश्यक न होकर भी उक्त संदर्भ में ‘लिंग’ की विकारी भूमिका दिखलाना आवश्यक है। तब, वैयाकरण को यह व्यवस्था देनी चाहिए कि ‘लड़का’ शब्द में ‘ई’ प्रत्यय लगने से ‘लड़की’ शब्द बना है, साथ ही ‘लड़की’ शब्द में ‘आ’ प्रत्यय लगने से ‘लड़का’ शब्द बना है। अगर ऐसा कहना ऐतिहासिक न लगे, तो भी पुलिंग की दादागिरी समाप्त करने के लिए यह व्ययवस्था वरणीय है। आखिर व्यावकरण की समग्र व्यवस्था पूर्णतः ऐतिहासिक सत्यों पर आधारित कहां होती है? वह व्याख्या की संगति या सुविधा के लिए बहुधा कल्पना पर भी आधारित होती है। फिर लिंग सम्बंधी व्युत्पत्ति की उक्त व्यवस्था पूरी तरह अनैतिहासिक भी कहां है? ‘आ’ पुंप्रत्यय का व्युत्पत्ति में प्रयोग पण्डित किशोरीदास वाजपेयी ने भी किया है, भले वे ‘द्विमुखी व्युत्पत्ति प्रक्रिया’ में आस्थावान् न रहे हों। हिन्दी में ‘पुंप्रत्यय’ का ऐतिहासिक साक्ष्य सर्वप्रथम पण्डित अम्बिका प्रसाद वाजपेयी ने (‘हिन्दी कौमुदी’ में) दिया – ‘बहन$ओई’ से ‘बहनोई’ बनता है आदि। यह पुंप्रत्यय हिन्दी की अनन्य विशेषता है। अंगरेजी में भी ‘ॅपकवू$मत’ जैसी एक-दो व्युत्पत्तियां पुंप्रत्य की हैं। संस्कृत भाषा ऐसे प्रत्यय से वंचित है। ‘व्याकरण’ द्वारा एकमात्र स्त्रीप्रत्यय की कल्पना किए रखना उसे पुरुषवादी बनाता है। हिन्दी व्याकरण को स्त्रीप्रत्यय के समानान्तर पुंप्रत्यय खोजने का काम जारी रखना चाहिए। इसी के साथ लिंगगत व्युत्पत्ति में और व्यावहारिकताएं भी देखनी होंगी। जैसा कि ‘प्रत्यय-प्रक्रिया’ में पीछे कहा गया कि जो रिश्ते पूर्व सिद्ध हैं (मौसी, फूफी, जीजी, बहन, ननद आदि) उनमें ही पुंप्रत्यय लगाकर पुलिंग शब्द (मौसा, फूफा, जीजा, बहनोई, ननदोई आदि) बनाना उचित होगा।; न कि इसका उलटा करना। ‘चाचा’ से ‘चाची’ की व्युत्पत्ति इसलिए वैज्ञानिक है क्योंकि ‘चाची’ उत्तर सिद्ध है। किन्तु ‘लड़का’ व ‘लड़की’ अथवा ‘पति’ व ‘पत्नी’ में से कोई पूर्व या उत्तर नहीं बल्कि दोनों सहसिद्ध हैं। फिर प्रथम से द्वितीय की व्युत्पत्ति बतलाना कैसा? दोनों को परस्पर व्युत्पन्न मानिये (द्विमुखी व्युत्पत्ति प्रक्रिया से)। इसके साथ, सामासिक व्युत्पत्ति के क्षेत्र में भी हमें ऐसी व्यवस्था रखनी होगी कि पुलिंग और स्त्रीलिंग की समता हो। जैसे – ‘खिलाड़ी’, ‘मजदूर’, ‘राष्ट्रपति’, ‘पुलिस’, ‘इंजीनियर’ आदि व्यावसायिक/पदमूलक या ‘भेड़िया’, ‘ह्वेल’ आदि प्राणिवाचक नामों का लिंग-निरपेक्ष मानकर स्त्री के लिए प्रयोग की स्थिति में उसमें ‘स्त्री’ लगा देेंगे, ‘पुरुष’ के लिए प्रयोग की स्थिति में ‘पुरुष’। जैसे – पुरुष खिलाड़ी, महिला खिलाड़ी; नर भेड़िया, मादा भेड़िया आदि। ‘वेश्या’ के लिंगान्तरण ‘पुरुष वेश्या’ को भी असंगत नहीं मानना चाहिए। जब पुलिंगवाची ‘खिलाड़ी’ आदि शब्दों में ‘स्त्री’ शब्द को समस्त करने से स्त्रीलिंग बन सकता है; तो स्त्रीवाची (वेश्या) शब्द से ‘पुरुष’ को समस्त करने से पुलिंग शब्द क्यों नहीं बनेगा? इस बारे में जो असंगति लग रही हो, उसे पितृसत्तात्मक सोच का नतीजा मानना होगा। व्याकरण की ढेर सारी पुस्तकों में विलोम या विपरीतार्थक शब्द समझाते हुए अक्सर पुलिंग व स्त्रीलिंग शब्दों को परस्पर विलोम बता दिया जाता है। यह कितनी खतरनाक बात है। ‘पुरुष’ का विलोम ‘स्त्री’ – ऐसा पढ़ाने वाले बच्चों के मन में कैसा लिंगभेदी जहर भर रहे हैं। अपनी अज्ञानता में वे घरेलू कलह व हिंसा का बीजारोपण कर रहे हैं। ‘पुरुष’ व ‘स्त्री’ को प्रकृति ने विलोम नहीं पूरक बनाया है। पूरकता सहयोगी होती है, विलोमता संघर्षी। वस्तुतः विलोम का क्षेत्र लिंगगत द्वैत नहीं, शेष गुणगत द्वैत है। ‘स्त्री’ व ‘पुरुष’ समान हैं – सृष्टि के लिए समान रूप से आवश्यक। उनमें विरोध भाव सांस्कृतिक गढ़न है, न कि नैसर्गिक। ‘रात’ और ‘दिन’ परस्पर विलोम हैं, ‘अच्छाई’ व ‘बुराई’ परस्पर विलोम हैं; पर ‘स्त्री’ व ‘पुरुष’ नहीं। इसी तरह ‘ब्राह्मण’ व ‘शूद्र’ तथा ‘आर्य’ व ‘म्लेच्छ’ को परस्पर विलोम बताना भी गलत है। व्याकरण की जो पुस्तक ऐसा लिखती है, वह नस्लवादी है। ‘स्त्री’ व ‘पुरुष’ का तो प्राकृतिक अस्तित्व भी है; किन्तु ‘ब्राह्मण-शूद्र’ या ‘आर्य-म्लेच्छ’ तो पूर्णतया कल्पनाश्रित अवधारणाएं हैं। इन सबकी सावधानी बरतना वैयाकरण के लिए बहुत जरूरी है।
‘लड़का’ व ‘लड़की’ जैसे शब्द तो भाषा में रहेंगे ही, क्योंकि प्राकृतिक लिंग (ैमग) के भेद की सूचना देने वाले ये दो शब्द उसी प्रकार आवश्यक हैं, जिस प्रकार ‘इंसान’ और ‘चिड़िया’ दो अलग-अलग शब्द जरूरी हैं, जो प्राकृतिक जाति की सूचना देते हैं। यहां सिर्फ ‘प्राणी’ कहकर काम नहीं चलाया जा सकता था। इसी तरह केवल ‘लड़का’ या केवल ‘लड़की’ कह कर दोनों का वाचन नहीं कराया जा सकता। परन्तु ‘लड़का’ व ‘लड़की’ को लेकर भाषा में लिंग (जेंडर) का भेद नहीं खड़ा होना चाहिए। हो गया है, तो उसका यथाशीघ्र अंत करना ही मूल ध्येय होना चाहिए। इस जेंडरवाद ने व्याकरण के अंतर्गत सारे शब्दों को (चाहे वे चेतन के वाचक हों या अचेतन के; सत्व के वाचक हों या भाव के) ही ‘मर्द’ व ‘औरत’ की खेमेबन्दी में बांट रखा है। (वहीं संस्कृत में ‘मर्दानगी’ रहित वर्ग भी है ‘नपुंसक लिंग’ नाम से)। फिर, इस करेले को नीम पर चढ़ा दिया गया – मर्द (पुलिंग) को औरत (स्त्रीलिंग) पर वर्चस्व या ग्रासक व्यक्तित्व देकर। लिंग-व्यवस्था के इस अमानवीय चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी के बिना समाज तक, परिवार तक लोकतंत्र कैसे उतर सकता है? भाषा को सही किए बिना इंसान को सही नहीं किया जा सकता। विनोबा का यह विचार बिल्कुल जायज है कि भाषा में पुंवाची व स्त्रीवाची सारे शब्दों के लिए एक ही क्रियारूप, विशेषणरूप आदि होने चाहिए। हर व्याकरणिक व्यवहार उनके प्रति समान होना चाहिए। परन्तु यह होगा कैसे? इसके लिए भाषा सुधारनी होगी, भाषा सुधारने हेतु भाषिक समाज की मनोवृत्ति सुधारनी होगी। मनोववृत्ति बिना सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति के, समता के विचारों के प्रसार के बिना कैसे सुधरेगी? समाज में स्त्री-सशक्तीकरण से, वास्तविक स्तर पर लिंग-भेद मिटने से या भाषिक आन्दोलन से ही बदलेगी भाषा। यानी, जो कुछ होगा, भाषिक समाज की तरफ से ही। परन्तु, वैयाकरण भी तो भाषिक समाज का ही नागरिक है। अपनी जिम्मेदारी समझते हुए उसी को पहल करनी चाहिए। उसके साथ एक कार्य उसे और करना होगा – लक्षणों के साथ उदाहरण प्रस्तुत करते समय समाजशास्त्रीय सावधानी बरतना। वह लिंग-भेद (साथ ही जाति, मजहब, राष्ट्र, नस्ल आदि भेदों) की मानसिकता से मुक्त होकर उदाहरण दे। स्त्री पर थोपे गए पितृसत्तात्मक मूल्यों – पातिव्रत्य, सतीत्व, सामन्तवादी यौन नैतिकता, शर्म व हीनभावना तथा पैदा की गयीं मजबूरियों जैसे अशिक्षा, घरेलूकरण, परजीविता, यौन-दलन, प्रसव बाध्यता, वेश्यावृत्ति, विधवा समस्या आदि से उसे मुक्त करने की मानसिकता से उदाहरण पेश किए जाएं। स्त्री की वंचनाओं एवं पीड़ाओं के प्रति सहानुभूति दिखलाते और पुरुष के समक्ष उसकी बराबरी, प्रतिभा व ताकत को बतलाते उदाहरण बनने चाहिए। पढ़ती, खेलती, गाती, झूमती, नौकरी करती, विमान उड़ाती, कुश्ती करती या कम्पनी सम्हालती स्त्री उदाहरण बने, न कि खाना पकाती या पति की सेवा करती। मनमाफिक दोस्ती बनाने या मनोवांछित वस्त्र पहनने तक को छछनती स्त्री उदाहरण बने, झूठी, मातृत्व या देवी की गरिमा की चाशनी में लपेटी स्त्री नहीं। इसके साथ घरेलू काम-काज करते मर्द भी उदाहरण बनें, सिफ पैसा कमाते या आॅफिस सम्हालते मर्द नहीं। ऐसा होगा तभी भाषा की विसंगति दूर होगी तथा वह सुषमा से भरपूर होगी। हर शब्द को जेंडर के खांचे में बैठाना लिंगवादी राजनीति का हिस्सा है, जिसने शब्दब्रह्म की महिमा घटाने का अपराध किया है। यदि हम अपने को आध्यात्मिक कहते हैं तो उस पाप से तो हमें मुक्त रहना चाहिए।
रवीन्द्र कुमार पाठक
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