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हिंदी में मुख्यधारा का मिथक टूट चुका है, अब इसमें स्त्री विमर्श और दलित विमर्श जैसी मुख्य धाराएं हैं। दलित साहित्य ने इसमें पिछले वर्षो में अपनी इतनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराई है कि अब तथाकथित मुख्यधारा भी दलित विमर्श के संदर्भ में परिभाषित होने लगी है, अब उसे गैर-दलित साहित्य कहा जाने लगा है। वर्ष 2009 में भी दलित विमर्श से संबंधित कई महत्वपूर्ण कृतियां प्रकाशित हुई हैं, जिन्होंने दलित साहित्य की केंद्रीय प्रवृत्तियों के विस्तार करने के साथ-साथ उनमें कुछ नया भी जोड़ा है।
दलित साहित्य के कथ्य से उपन्यास विधा का कोई विरोध नहीं दिखता, लेकिन अभी तक उन कारणों की पहचान नहीं हो सकी है, जिनके चलते हिंदी के दलित साहित्य में उपन्यासों का अभाव सा है। हर बार की तरह इस वर्ष भी उपन्यास विधा उपेक्षित रही है, लेकिन कहानियां पर्याप्त मात्रा में लिखी गई हैं। सूरजपाल चैहान का कहानी संग्रह नया ब्राह्मण वाणी प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। अपने लेखन की विशिष्टता को बनाए रखते हुए लेखक ने इस संग्रह की कहानियों में भी सवर्ण जातिवाद के अलावा दलितों में व्याप्त जातिवाद तथा अन्य अंतर्विरोधों को ‘बहुरुपिया’ और ‘नया ब्राह्मण’ जैसी कहानियों में आलोचनात्मक ढंग से उजागर किया है। प्रेमचंद के बाद जातिगत उत्पीड़न को केंद्र बनाकर लिखी गई कहानियों का संकलन सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा जातिदंश की कहानियां नाम से प्रकाशित हुआ है, इसका संपादन सुभाष चंद कुशवाहा ने किया है। यह संकलन इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि इसमें कहानियों का चयन विषय के आधार पर किया गया है, लेखक की जाति के आधार पर नहीं। इस संकलन की कहानियों के जरिये दलित चेतना के विकास के विविध स्तरों और स्वरों को पहचाना जा सकता है। गिरीश रोहित ने गुजराती दलित लेखक प्रवीण गढ़वी के कहानी संग्रह अंतरव्यथा का हिंदी अनुवाद इसी शीर्षक से प्रस्तुत किया है, यह साहित्य संस्थान गाजियाबाद से प्रकाशित हुआ है। ‘अंतरव्यथा’ गुजराती का पहला दलित कहानी संग्रह था, इस संग्रह की कहानियों में जातिवाद के सवर्ण तथा दलित प्रारूपों और दलित स्त्री के उत्पीड़न की त्रासदी को पहचाना गया है।
दलित अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम कविता भी रही है। इस वर्ष राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित ओमप्रकाश वाल्मीकि का कविता संग्रह अब और नहीं काफी महत्वपूर्ण माना गया है। इसमें दलित उत्पीड़न पर आधारित व्यवस्था को हर कोण से प्रश्नबिद्ध किया गया है। कथादेश दिसम्बर 2009 में प्रकाशित एक लेख के अनुसार कविता की स्वायत्तता को अनपेक्षित नुकसान पहुंचाए बगैर इस संग्रह की कविताओं में जहां मौजूदा व्यवस्था की आलोचना दिखाई पड़ती है, वहीं ‘नई भविष्य दृष्टि’ के निर्माण की प्रबल संभावना भी इसमें मौजूद है।
दलित साहित्य को स्थापित करने में सबसे अहम भूमिका आत्मकथाओं ने निभाई है। दलित जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज माने जाने के कारण अब भी दलित साहित्य में उन्हें केंद्रीय दर्जा मिला हुआ है। इस वर्ष श्यौराज सिंह बेचैन की बहुप्रतीक्षित आत्मकथा मेरा बचपन मेरे कंधों पर के वाणी प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित होने के साथ ही दलित आत्मकथा लेखन में एक नया अध्याय जुड़ गया है। लेखक ने दलित जीवन की वास्तविकता को इसमें निष्पक्ष भाव से तो व्यक्त किया ही है, साथ ही दलितों में व्याप्त जातिवाद, दलित पुरुषों द्वारा दलित स्त्रियों के उत्पीड़न के हृदयविदारक दृश्य भी हमें इस आत्मकथा में दिखाई पड़ते हैं। बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि विपुल मात्रा में दलित आत्मकथाओं के लिखे जाने के बाद भी यह अपनी अलग पहचान बनाए रखेगी।
वर्ष 2009 में कई महत्वपूर्ण आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। श्यौराज सिंह बेचैन ने अपनी पुस्तक स्त्री विमर्श और पहली दलित शिक्षिका (साहित्य संस्थान गाजियाबाद) में गैर-दलित कथा साहित्य में स्त्री की छवि पर विस्तार से लिखा है। इसमें गैर-दलित लेखकों तथा लेखिकाओं के साथ दलित स्त्री के लेखन की तुलना करते हुए उसे श्रेष्ठ कहा गया है। दलित विमर्श में अब तक हाशिये पर रही दलित स्त्री पर ध्यान केंद्रित करने एवं उसे साथ लेकर चलने के अपने प्रस्ताव के लिहाज से यह पुस्तक महत्वपूर्ण है, लेकिन इस पुस्तक में बेचैन के वैचारिक पूर्वग्रह भी बहुत स्पष्ट दिखाई देते हैं। स्त्री को दलित एवं सवर्ण में बांट कर देखने की राजनीति तथा दलित पुरुष की आलोचना करने वाली दलित स्त्री को सवर्णाें की पिछलग्गू या चरित्रहीन सिद्ध करने के मामले में बेचैन ने डाॅ. धर्मवीर के एजेंडे एवं पद्धति दोनों को अपना लिया है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी पुस्तक मुख्यधारा और दलित साहित्य (सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली) में इन दोनों धाराओं के संघर्ष तथा कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नों- जैसे प्रामाणिकता, दलित साहित्य में प्रेम, दलित प्रश्न और प्रेमचंद- को नए संदर्भों में व्याख्यायित किया है। कई मुद्दों पर प्रेमचंद से अपनी असहमति के बावजूद उन्होंने किसान, मजदूर, दलित और स्त्री के प्रसंग में प्रेमचंद की ऐतिहासिक भूमिका को स्वीकार किया है। दलित साहित्य पर लगाए जा रहे अलगाववाद, कच्चेपन या मोनोटोनस हो जाने के आरोपों का यह पुस्तक तार्किक खंडन करती है।
ओरियंटल ब्लैकस्वाॅन से प्रकाशित आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श दलित साहित्य एवं विमर्श से संबंधित देवेन्द्र चैबे के लेखों का संकलन है। इस पुस्तक में जहां उत्तर आधुनिक विमर्शों के आलोक में दलित साहित्य को व्याख्यायित करने का प्रयास किया गया है, वहीं अस्पृश्यता के संदर्भ में जापानी आत्मकथा ‘हाकाई’ और हिंदी के ‘जूठन’ का तुलनात्मक अध्ययन भी इसमें मौजूद है। मराठी और हिंदी में लंबे समय से अनुवाद और मौलिक लेखन का कार्य कर रहे दलित आलोचक सूर्यनारायण रणसुभे की अमित प्रकाशन गाजियाबाद से प्रकाशित पुस्तक दलित साहित्यः स्वरूप और संवेदना हिंदी दलित विमर्श में मौजूद कुछ सैद्धांतिक उलझनों का समाधान प्रस्तुत करती है। इस पुस्तक में रणसुभे जी ने अपनी प्रखर और संतुलित आलोचना दृष्टि से पे्रमचंद और दलित प्रश्न, भारतीय दलित साहित्य की अवधारणा तथा दलित साहित्य की दशा-दिशा के साथ-साथ उसके भविष्य पर भी विचार किया है। ईश कुमार गंगानिया की अकादमिक प्रतिभा दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक अस्मिताओं के संघर्ष में दलित समाज (आजीवक इतिहास के झरोखे से) अतीत की आजीवक संस्कृति की खोज करने के साथ-साथ उसकी पुनप्र्रतिष्ठा का प्रयास करती है। भूमंडलीकरण के साथ आजीवक संस्कृति के मूल्यांे को संयुक्त कर उसे दलितोपयोगी बनाने का अव्यवहारिक प्रस्ताव इसमें पेश किया गया है, तथा कुछ व्यक्तियों के बहाने से सिख और बौद्ध धर्म की निंदा भी की गई है।
इस वर्ष दलित प्रश्नों से संबंधित संपादित पुस्तकों की अधिकता दिखाई दी है। ओरियंटल ब्लैकस्वाॅन से अर्जुन डांगले द्वारा संपादित प्वायजंड ब्रेड नामक बहुचर्चित पुस्तक का नया संस्करण भी इस वर्ष आया है। मूलतः 1992 में प्रकाशित यह पुस्तक दलित साहित्य की प्रथम चयनिका थी, जिसमें मराठी दलित साहित्य की विभिन्न विधाओं से संबंधित लगभग अस्सी रचनाओं या उनके अंशों का अंग्रेजी अनुवाद संकलित किया गया था। नए संस्करण में गेल ओमवेट का एक निबंध ‘लिटरेचर आॅफ रिवोल्ट’ भूमिका के तौर पर शामिल किया गया है। एस. विक्रम ने दलित स्त्री से संबंधित विभिन्न लेखकों के यत्र-तत्र प्रकाशित चालीस से भी अधिक महत्वपूर्ण लेखों को इकट्ठा कर किताब की शक्ल में प्रकाशित करने का सराहनीय कार्य किया है। श्री नटराज प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित दलित महिलाएंः इतिहास, वर्तमान और भविष्य नाम की इस पुस्तक का बड़ा हिस्सा दलित स्त्री विमर्श और लेखन पर केंद्रित है, एक खण्ड अम्बेडकर और स्त्री प्रश्न पर तथा एक छोटा खण्ड अन्य दलित समाज सुधारकों पर केंद्रित है, एक अन्य खण्ड में दलित स्त्री से संबंधित कुछ कविताएं भी हैं। कुछ कमियां भी हैं, एक तो यह कि स्वयं संपादक महोदय की बेठिकाने की हिंदी उनकी गहरी भावनाओं और महत्वपूर्ण विचारों को स्पष्टता से अभिव्यक्त करने में लाचार नजर आती है, दूसरी यह कि साढ़े चार सौ पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 895 रुपये रखा गया है। नवचेतन प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक स्त्री नैतिकता का तालिबानीकरण रमणिका गुप्ता, विमल थोराट, अनीता भारती और प्रोमिला द्वारा संपादित की गई है। यह पुस्तक त्रैमासिक पत्रिका ‘युद्धरत आम आदमी’ के डाॅ. धर्मवीर के स्त्री निंदक विचारों के विरोध पर केंद्रित विशेषांक 2007 का ही पुस्तकाकार रूप है। जिस तरह स्त्री का विरोध करते हुए कुछ दलित लेखकों ने धर्मवीर की लाइन अपना ली है, उसमें इसका पुनप्र्रकाशन एक प्रासंगिकता रखता है। विजय कुमार ‘संदेश’ और डाॅ. नामदेव के संपादन में क्लासिकल पब्लिशिंग कंपनी नई दिल्ली से प्रकाशित दलित चेतना और स्त्री नामक पुस्तक में इन दोनों विमर्शों से संबंधित 55 लेखों को एक साथ रखा गया है। पुस्तक को इस अर्थ में अलग कहा जा सकता है कि इसमें ढेर सारे नए लेखकों को जगह दी गई है, जिनमें कुछ दक्षिण तथा पूर्वोत्तर भारत के भी हैं, लेकिन इसके स्त्री विमर्श वाले खण्ड में हजारीबाग जिले (झारखण्ड) के लेखकों की भरमार बुरी तरह खटकती है।
दलितों की वस्तुस्थिति का मूल्यांकन आज हर क्षेत्र में किया जा रहा है। डाॅ. श्यौराज सिंह बेचैन और एस.एस.गौतम द्वारा संपादित और से प्रकाशित पुस्तक मीडिया और दलित मंे विभिन्न लेखकों ने मीडिया में दलितों की नगण्य स्थिति के कारणों की आलोचनात्मक पड़ताल की है। यह पुस्तक मीडिया में दलितों की स्थिति का तथ्यपरक विश्लेषण करने के साथ-साथ बहुजन के अपने वैकल्पिक मीडिया की जरूरत को भी रेखांकित करती है। एस.एस. गौतम द्वारा संपादित दो पुस्तिकाएं भारतीय संस्कृति को बौद्ध धर्म की देन तथा बुद्धयुगीन भारत विभिन्न प्रसिद्ध लेखकों के महत्वपूर्ण लेखों का संकलन है। प्रो.रामनाथ ने अपनी पुस्तिका योग्यता, मेरी जूती में आरक्षण के खिलाफ दिये जाने वाले तर्कों का खण्डन प्रस्तुत किया है। उपरोक्त चारों पुस्तकंे गौतम बुक सेंटर दिल्ली से प्रकाशित हुई हैं। सिद्धार्थ बुक्स दिल्ली द्वारा प्रकाशित ब्राह्मणवाद अथवा मनुवाद पुस्तिका में विजय कुमार त्रिशरण ने दोनोें को पर्याय बताते हुए इसके विविध पहलुओं की आलोचना की है।
इस विवेचन को समाप्त करने से पहले यह बता देना जरूरी है कि दलित साहित्य एवं विमर्श से संबंधित कुछ और पुस्तकें भी इस वर्ष प्रकाशित हुई हैं, कुछ किताबों (जैसे दलित दर्शन- संपादक रमणिका गुप्ता तथा अन्य, दलित साहित्य के यक्ष प्रश्न- रामगोपाल भरतिया, भारत में दलित विकास- मीनाक्षी सिंह, परंपरागत वर्णव्यवस्था और दलित साहित्य- सक्सांत मस्क, दलित लेखन के अंतर्विरोध- संपादक रामकली सर्राफ) के वर्ष 2009 में प्रकाशित होने की सूचना तो मिली है, लेकिन अनुपलब्धता के कारण उनका उल्लेख यहां नहीं हो सका है। यहां मैंने केवल उन्हीं पुस्तकों का जिक्र किया है जो मेरी नजर से गुजरी हैं। बहरहाल, इस वर्ष की पुस्तकों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि दलित साहित्य और विमर्श न केवल स्वीकृत और स्थापित हो चुका है, बल्कि गैर जरूरी आक्रोशमय सवालों से उसने बहुत हद तक पीछा छुड़ा लिया है। दलित स्त्री को लेकर अभी विमर्श में एक बेचैनी तो है, लेकिन उसकी स्वीकृति में बहुत समय नहीं लगने वाला है। नए प्रासंगिक सवालों पर संतुलित ढंग से विचार-विमर्श आरंभ हो गया है, यह दलित साहित्य के एक नए चरण में प्रवेश का संकेत है।
(कथादेश, जनवरी 2010 में प्रकाशित)
दलित साहित्य 2009: नए चरण में प्रवेश की आहट
-जयसिंह मीणा Assistant Professor Rajdhani College D.U. New delhi Jai singh Meena
Email- jaijnu@gmail.com
दलित साहित्य के कथ्य से उपन्यास विधा का कोई विरोध नहीं दिखता, लेकिन अभी तक उन कारणों की पहचान नहीं हो सकी है, जिनके चलते हिंदी के दलित साहित्य में उपन्यासों का अभाव सा है। हर बार की तरह इस वर्ष भी उपन्यास विधा उपेक्षित रही है, लेकिन कहानियां पर्याप्त मात्रा में लिखी गई हैं। सूरजपाल चैहान का कहानी संग्रह नया ब्राह्मण वाणी प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। अपने लेखन की विशिष्टता को बनाए रखते हुए लेखक ने इस संग्रह की कहानियों में भी सवर्ण जातिवाद के अलावा दलितों में व्याप्त जातिवाद तथा अन्य अंतर्विरोधों को ‘बहुरुपिया’ और ‘नया ब्राह्मण’ जैसी कहानियों में आलोचनात्मक ढंग से उजागर किया है। प्रेमचंद के बाद जातिगत उत्पीड़न को केंद्र बनाकर लिखी गई कहानियों का संकलन सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा जातिदंश की कहानियां नाम से प्रकाशित हुआ है, इसका संपादन सुभाष चंद कुशवाहा ने किया है। यह संकलन इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि इसमें कहानियों का चयन विषय के आधार पर किया गया है, लेखक की जाति के आधार पर नहीं। इस संकलन की कहानियों के जरिये दलित चेतना के विकास के विविध स्तरों और स्वरों को पहचाना जा सकता है। गिरीश रोहित ने गुजराती दलित लेखक प्रवीण गढ़वी के कहानी संग्रह अंतरव्यथा का हिंदी अनुवाद इसी शीर्षक से प्रस्तुत किया है, यह साहित्य संस्थान गाजियाबाद से प्रकाशित हुआ है। ‘अंतरव्यथा’ गुजराती का पहला दलित कहानी संग्रह था, इस संग्रह की कहानियों में जातिवाद के सवर्ण तथा दलित प्रारूपों और दलित स्त्री के उत्पीड़न की त्रासदी को पहचाना गया है।
दलित अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम कविता भी रही है। इस वर्ष राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित ओमप्रकाश वाल्मीकि का कविता संग्रह अब और नहीं काफी महत्वपूर्ण माना गया है। इसमें दलित उत्पीड़न पर आधारित व्यवस्था को हर कोण से प्रश्नबिद्ध किया गया है। कथादेश दिसम्बर 2009 में प्रकाशित एक लेख के अनुसार कविता की स्वायत्तता को अनपेक्षित नुकसान पहुंचाए बगैर इस संग्रह की कविताओं में जहां मौजूदा व्यवस्था की आलोचना दिखाई पड़ती है, वहीं ‘नई भविष्य दृष्टि’ के निर्माण की प्रबल संभावना भी इसमें मौजूद है।
दलित साहित्य को स्थापित करने में सबसे अहम भूमिका आत्मकथाओं ने निभाई है। दलित जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज माने जाने के कारण अब भी दलित साहित्य में उन्हें केंद्रीय दर्जा मिला हुआ है। इस वर्ष श्यौराज सिंह बेचैन की बहुप्रतीक्षित आत्मकथा मेरा बचपन मेरे कंधों पर के वाणी प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित होने के साथ ही दलित आत्मकथा लेखन में एक नया अध्याय जुड़ गया है। लेखक ने दलित जीवन की वास्तविकता को इसमें निष्पक्ष भाव से तो व्यक्त किया ही है, साथ ही दलितों में व्याप्त जातिवाद, दलित पुरुषों द्वारा दलित स्त्रियों के उत्पीड़न के हृदयविदारक दृश्य भी हमें इस आत्मकथा में दिखाई पड़ते हैं। बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि विपुल मात्रा में दलित आत्मकथाओं के लिखे जाने के बाद भी यह अपनी अलग पहचान बनाए रखेगी।
वर्ष 2009 में कई महत्वपूर्ण आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। श्यौराज सिंह बेचैन ने अपनी पुस्तक स्त्री विमर्श और पहली दलित शिक्षिका (साहित्य संस्थान गाजियाबाद) में गैर-दलित कथा साहित्य में स्त्री की छवि पर विस्तार से लिखा है। इसमें गैर-दलित लेखकों तथा लेखिकाओं के साथ दलित स्त्री के लेखन की तुलना करते हुए उसे श्रेष्ठ कहा गया है। दलित विमर्श में अब तक हाशिये पर रही दलित स्त्री पर ध्यान केंद्रित करने एवं उसे साथ लेकर चलने के अपने प्रस्ताव के लिहाज से यह पुस्तक महत्वपूर्ण है, लेकिन इस पुस्तक में बेचैन के वैचारिक पूर्वग्रह भी बहुत स्पष्ट दिखाई देते हैं। स्त्री को दलित एवं सवर्ण में बांट कर देखने की राजनीति तथा दलित पुरुष की आलोचना करने वाली दलित स्त्री को सवर्णाें की पिछलग्गू या चरित्रहीन सिद्ध करने के मामले में बेचैन ने डाॅ. धर्मवीर के एजेंडे एवं पद्धति दोनों को अपना लिया है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी पुस्तक मुख्यधारा और दलित साहित्य (सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली) में इन दोनों धाराओं के संघर्ष तथा कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नों- जैसे प्रामाणिकता, दलित साहित्य में प्रेम, दलित प्रश्न और प्रेमचंद- को नए संदर्भों में व्याख्यायित किया है। कई मुद्दों पर प्रेमचंद से अपनी असहमति के बावजूद उन्होंने किसान, मजदूर, दलित और स्त्री के प्रसंग में प्रेमचंद की ऐतिहासिक भूमिका को स्वीकार किया है। दलित साहित्य पर लगाए जा रहे अलगाववाद, कच्चेपन या मोनोटोनस हो जाने के आरोपों का यह पुस्तक तार्किक खंडन करती है।
ओरियंटल ब्लैकस्वाॅन से प्रकाशित आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श दलित साहित्य एवं विमर्श से संबंधित देवेन्द्र चैबे के लेखों का संकलन है। इस पुस्तक में जहां उत्तर आधुनिक विमर्शों के आलोक में दलित साहित्य को व्याख्यायित करने का प्रयास किया गया है, वहीं अस्पृश्यता के संदर्भ में जापानी आत्मकथा ‘हाकाई’ और हिंदी के ‘जूठन’ का तुलनात्मक अध्ययन भी इसमें मौजूद है। मराठी और हिंदी में लंबे समय से अनुवाद और मौलिक लेखन का कार्य कर रहे दलित आलोचक सूर्यनारायण रणसुभे की अमित प्रकाशन गाजियाबाद से प्रकाशित पुस्तक दलित साहित्यः स्वरूप और संवेदना हिंदी दलित विमर्श में मौजूद कुछ सैद्धांतिक उलझनों का समाधान प्रस्तुत करती है। इस पुस्तक में रणसुभे जी ने अपनी प्रखर और संतुलित आलोचना दृष्टि से पे्रमचंद और दलित प्रश्न, भारतीय दलित साहित्य की अवधारणा तथा दलित साहित्य की दशा-दिशा के साथ-साथ उसके भविष्य पर भी विचार किया है। ईश कुमार गंगानिया की अकादमिक प्रतिभा दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक अस्मिताओं के संघर्ष में दलित समाज (आजीवक इतिहास के झरोखे से) अतीत की आजीवक संस्कृति की खोज करने के साथ-साथ उसकी पुनप्र्रतिष्ठा का प्रयास करती है। भूमंडलीकरण के साथ आजीवक संस्कृति के मूल्यांे को संयुक्त कर उसे दलितोपयोगी बनाने का अव्यवहारिक प्रस्ताव इसमें पेश किया गया है, तथा कुछ व्यक्तियों के बहाने से सिख और बौद्ध धर्म की निंदा भी की गई है।
इस वर्ष दलित प्रश्नों से संबंधित संपादित पुस्तकों की अधिकता दिखाई दी है। ओरियंटल ब्लैकस्वाॅन से अर्जुन डांगले द्वारा संपादित प्वायजंड ब्रेड नामक बहुचर्चित पुस्तक का नया संस्करण भी इस वर्ष आया है। मूलतः 1992 में प्रकाशित यह पुस्तक दलित साहित्य की प्रथम चयनिका थी, जिसमें मराठी दलित साहित्य की विभिन्न विधाओं से संबंधित लगभग अस्सी रचनाओं या उनके अंशों का अंग्रेजी अनुवाद संकलित किया गया था। नए संस्करण में गेल ओमवेट का एक निबंध ‘लिटरेचर आॅफ रिवोल्ट’ भूमिका के तौर पर शामिल किया गया है। एस. विक्रम ने दलित स्त्री से संबंधित विभिन्न लेखकों के यत्र-तत्र प्रकाशित चालीस से भी अधिक महत्वपूर्ण लेखों को इकट्ठा कर किताब की शक्ल में प्रकाशित करने का सराहनीय कार्य किया है। श्री नटराज प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित दलित महिलाएंः इतिहास, वर्तमान और भविष्य नाम की इस पुस्तक का बड़ा हिस्सा दलित स्त्री विमर्श और लेखन पर केंद्रित है, एक खण्ड अम्बेडकर और स्त्री प्रश्न पर तथा एक छोटा खण्ड अन्य दलित समाज सुधारकों पर केंद्रित है, एक अन्य खण्ड में दलित स्त्री से संबंधित कुछ कविताएं भी हैं। कुछ कमियां भी हैं, एक तो यह कि स्वयं संपादक महोदय की बेठिकाने की हिंदी उनकी गहरी भावनाओं और महत्वपूर्ण विचारों को स्पष्टता से अभिव्यक्त करने में लाचार नजर आती है, दूसरी यह कि साढ़े चार सौ पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 895 रुपये रखा गया है। नवचेतन प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक स्त्री नैतिकता का तालिबानीकरण रमणिका गुप्ता, विमल थोराट, अनीता भारती और प्रोमिला द्वारा संपादित की गई है। यह पुस्तक त्रैमासिक पत्रिका ‘युद्धरत आम आदमी’ के डाॅ. धर्मवीर के स्त्री निंदक विचारों के विरोध पर केंद्रित विशेषांक 2007 का ही पुस्तकाकार रूप है। जिस तरह स्त्री का विरोध करते हुए कुछ दलित लेखकों ने धर्मवीर की लाइन अपना ली है, उसमें इसका पुनप्र्रकाशन एक प्रासंगिकता रखता है। विजय कुमार ‘संदेश’ और डाॅ. नामदेव के संपादन में क्लासिकल पब्लिशिंग कंपनी नई दिल्ली से प्रकाशित दलित चेतना और स्त्री नामक पुस्तक में इन दोनों विमर्शों से संबंधित 55 लेखों को एक साथ रखा गया है। पुस्तक को इस अर्थ में अलग कहा जा सकता है कि इसमें ढेर सारे नए लेखकों को जगह दी गई है, जिनमें कुछ दक्षिण तथा पूर्वोत्तर भारत के भी हैं, लेकिन इसके स्त्री विमर्श वाले खण्ड में हजारीबाग जिले (झारखण्ड) के लेखकों की भरमार बुरी तरह खटकती है।
दलितों की वस्तुस्थिति का मूल्यांकन आज हर क्षेत्र में किया जा रहा है। डाॅ. श्यौराज सिंह बेचैन और एस.एस.गौतम द्वारा संपादित और से प्रकाशित पुस्तक मीडिया और दलित मंे विभिन्न लेखकों ने मीडिया में दलितों की नगण्य स्थिति के कारणों की आलोचनात्मक पड़ताल की है। यह पुस्तक मीडिया में दलितों की स्थिति का तथ्यपरक विश्लेषण करने के साथ-साथ बहुजन के अपने वैकल्पिक मीडिया की जरूरत को भी रेखांकित करती है। एस.एस. गौतम द्वारा संपादित दो पुस्तिकाएं भारतीय संस्कृति को बौद्ध धर्म की देन तथा बुद्धयुगीन भारत विभिन्न प्रसिद्ध लेखकों के महत्वपूर्ण लेखों का संकलन है। प्रो.रामनाथ ने अपनी पुस्तिका योग्यता, मेरी जूती में आरक्षण के खिलाफ दिये जाने वाले तर्कों का खण्डन प्रस्तुत किया है। उपरोक्त चारों पुस्तकंे गौतम बुक सेंटर दिल्ली से प्रकाशित हुई हैं। सिद्धार्थ बुक्स दिल्ली द्वारा प्रकाशित ब्राह्मणवाद अथवा मनुवाद पुस्तिका में विजय कुमार त्रिशरण ने दोनोें को पर्याय बताते हुए इसके विविध पहलुओं की आलोचना की है।
इस विवेचन को समाप्त करने से पहले यह बता देना जरूरी है कि दलित साहित्य एवं विमर्श से संबंधित कुछ और पुस्तकें भी इस वर्ष प्रकाशित हुई हैं, कुछ किताबों (जैसे दलित दर्शन- संपादक रमणिका गुप्ता तथा अन्य, दलित साहित्य के यक्ष प्रश्न- रामगोपाल भरतिया, भारत में दलित विकास- मीनाक्षी सिंह, परंपरागत वर्णव्यवस्था और दलित साहित्य- सक्सांत मस्क, दलित लेखन के अंतर्विरोध- संपादक रामकली सर्राफ) के वर्ष 2009 में प्रकाशित होने की सूचना तो मिली है, लेकिन अनुपलब्धता के कारण उनका उल्लेख यहां नहीं हो सका है। यहां मैंने केवल उन्हीं पुस्तकों का जिक्र किया है जो मेरी नजर से गुजरी हैं। बहरहाल, इस वर्ष की पुस्तकों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि दलित साहित्य और विमर्श न केवल स्वीकृत और स्थापित हो चुका है, बल्कि गैर जरूरी आक्रोशमय सवालों से उसने बहुत हद तक पीछा छुड़ा लिया है। दलित स्त्री को लेकर अभी विमर्श में एक बेचैनी तो है, लेकिन उसकी स्वीकृति में बहुत समय नहीं लगने वाला है। नए प्रासंगिक सवालों पर संतुलित ढंग से विचार-विमर्श आरंभ हो गया है, यह दलित साहित्य के एक नए चरण में प्रवेश का संकेत है।
(कथादेश, जनवरी 2010 में प्रकाशित)
दलित साहित्य 2009: नए चरण में प्रवेश की आहट
-जयसिंह मीणा Assistant Professor Rajdhani College D.U. New delhi Jai singh Meena
Email- jaijnu@gmail.com