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वरिष्ठ लेखक सूरजपाल चौहान ने साहित्य अकादमी के सभागार में पिछले तेईस अप्रैल को घटी घटना के संदर्भ में ‘आजादी बनाम अंकुश’ Aajadi Banam Ankush (जनसत्ता 1 मई) में अपना पक्ष रखा है। सूरजपाल जी के इस लेख से वस्तुस्थिति स्पष्ट होने की बजाय और धुंधली हो गई है। लगता है, सोची-समझी योजना के तहत कुछ चीजें ‘सार्वजनिक’ की जा रही हैं और बहुत-सी बातों को गोपनीय खाते में डाला जा रहा है।
मराठी दलित साहित्य के सम्मानित रचनाकार लक्ष्मण गायकवाड़ ( Laxman GayakVad ) को सूरजपाल जी ( Surajpal Chauhan ) ने जिस तरह कटघरे में खड़ा किया है उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। चूंकि यह ‘विवाद’ मेरे व्याख्यान से जुड़ा हुआ है, इसलिये इसकी पृष्ठभूमि का खुलासा जरूरी लग रहा है।
‘समकालीन भारतीय दलित साहित्य’ विषय पर साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित संगोष्ठी कुल आठ सत्रों में संपन्न हुई। अकादेमी द्वारा जारी निमंत्रण-पत्र में हिन्दी भाषी वक्ताओं की संख्या सत्रह है और मराठी भाषी वक्ताओं की नौ। मराठी दलित लेखकों के बहुसंख्यक होने का जो मुद्दा सूरजपाल जी ने उठाया है वह तथ्यपरक नहीं है। क्षेत्रवादी रवैया हिन्दी वालों का है या मराठी वालों का? लेख की भाषा और वक्ताओं की भाषावार संख्या इसका उत्तर दे देते हैं। हिन्दी-मराठी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं के वक्ताओं की संख्या अलबत्ता चिंता का विषय होनी चाहिए थी। विमल थोराट ( Vimal Thorat ) को मराठी लेखिका मानना पूर्वग्रहपूर्ण है। उनकी सभी किताबें हिन्दी में हैं। वे हिन्दी की प्राध्यापिका हैं। हां, उन्होंने मराठी से हिन्दी में अनुवाद किये हैं, जिसके लिये उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। दलित-लेखन में किसका कितना योगदान है इसका विश्लेषण अवश्य होना चाहिए, लेकिन साथ ही दलित लेखन (Dalit Lekhan ) की परिभाषा भी निर्धारित कर लेनी चाहिए। बुद्ध-आम्बेडकर ( Buddha Ambedkar ) विरोधी, स्त्री-विरोधी, ईश्वरवादी, मनुवादी… लेखन को क्या दलित-लेखन माना जाएगा? क्या हिन्दी दलित-लेखन अपने को आम्बेडकर से जोड़ने के बजाय, हीराडोम, स्वामी अछूतानन्द और ललई सिंह यादव से जोड़कर संतुष्ट हो जाएगा?
‘हिन्दीवादी’ उत्साह के अतिरेक में सूरजपाल जी ( Suraj pal Chauhan ) ने जिस ‘विचार-विद्रूप’ का समर्थन किया है उसपर उन्हें पुनर्विचार की जरूरत महसूस होनी चाहिए। उन्होंने जिस तरीके से लक्ष्मण गायकवाड़ ( Laxman GayakVad ) की प्रतिक्रिया दर्ज की है, वह भी चिंतनीय है। उन्होंने लिखा है, ‘वे (गायकवाड़) ( Laxman GayakVad ) एक लठैत की तरह बिना किसी की अनुमति के मंच पर चढ़ बैठे और माइक पर बलात् अधिकार जमा कर धर्मवीर ( Dr. Dharmvir ) को लेकर प्रलाप करने लगे।’ सच तो यह है कि लक्ष्मण गायकवाड़ ( Laxman GayakVad ) ने सत्र के अध्यक्ष दलपत चैहान ( Dalpat Chauhan ) से अनुमति लेकर ही अपनी बात रखी थी। क्योंकि मेरे परचे में उनका नाम आया था, इसलिये उनकी तरफ से स्पष्टीकरण जरूरी हो गया था। मोहनदास नैमिशराय के हवाले से यह प्रसंग छिड़ा था। वे भी सामने ही बैठे थे। उन्होंने गायकवाड़ का कोई प्रतिवाद नहीं किया। नैमिशराय ( Mohandas Naimisharai ) अगले सत्र के आमंत्रित वक्ता थे। अपने व्याख्यान में भी वे इस मसले पर कुछ नहीं बोले।
नैमिशराय जी (Mohandas Naimisharay) ‘बयान’ ( Bayan Hindi Monthly Magzine) (हिन्दी मासिक) पत्रिका के संपादक हैं। पत्रिका के प्रादेशिक प्रतिनिधियों में लक्ष्मण गायकवाड़ (मुंबई) का नाम है। इसमें कुछ दूसरे चर्चित लोगों के नाम भी हैं – द्वारका भारती (पंजाब), हरीश मंगलम (अहमदाबाद)… पत्रिका ने मार्च अंक में धर्मवीर का साक्षात्कार प्रकाशित किया है। इसमें धर्मवीर ने कई ‘ज्वलंत’ मुद्दों पर अपना पक्ष रखा है। इनका पक्ष उनके ही शब्दों में देखें:
‘द्विज लेखिकाएं अपने लिये बे-रोक-टोक सैक्स चाहती हैं। वे पितृसत्ता का विरोध करती हैं।’
‘जारिणी भी अपने पति से किसी अन्य के बच्चे को पलवाना चाहती है।… ‘कफन’ के घीसू-माधव इसीलिये तो बुधिया को मरने को छोड़ देते हैं क्योंकि उसके गर्भ में जमींदार का पोता या पोती थी।’
‘इन दोनों (ब्राह्मण स्त्री-पुरुष) को चैबीसों घंटे सैक्स के सिवाय कुछ नहीं सूझता। इन्हीं के देखा-देखी हमारी भी कुछ स्त्रियां जारिणी हो गई हैं।… ये निठल्ली बुरी स्त्रियां पूरी तरह नंग और बेशर्म हो गई हैं।’
‘कई बार नालायक लड़का या लड़की प्रेम-विवाह में गिरते हैं।’
‘जहां तक दलित लड़के-लड़कियों की बात है, मेरा सुझाव है कि वे प्रेम-विवाह के चक्कर में न पड़ें।’
‘आपने कैसे मान लिया कि मैं जाति तोड़ने की बात कर रहा हूं।’
‘मेरा दलित बालकों से अनुरोध है कि वे अपने माता-पिता की मेहनत को समझें।… प्रेम-विवाह के नाम पर उनकी सारी मेहनत मिट्टी में मिल जाती है। वे प्रेम-विवाह करें तो अपनी जातियों में ही करें।’
इस साक्षात्कार में धर्मवीर यह भी बताते है कि वे दलितों के लिये ‘पर्सनल कानून’ ‘संहिताबद्ध’ कर चुके हैं। यह भी कि ‘पर्सनल कानूनों’ में प्रेम-विवाह का कोई अस्तित्व नहीं है।
धर्मवीर के विचारों को किसी पत्रिका में जगह देना एक सीमा तक दिक्कततलब नहीं है दिक्कत तब आती है, जब पत्रिका उनके ‘मनुष्य विरोधी’ विचारों का समर्थन करने लगे। ‘बयान’ पत्रिका में धर्मवीर ( Dr. Dharmveer ) के साक्षात्कार की जो प्रस्तावना दी गई है उसमें (उस पत्रिका द्वारा) धर्मवीर के विचारों का पूर्ण समर्थन किया गया है। इस प्रस्तावना के तीन वाक्य द्रष्टव्य हैंः
‘अपनी लेखनी से उन्होंने (धर्मवीर ने) दलितों की समस्याओं को जड़ से मिटा दिया है।’
‘दलितों के पास डाॅ. (धर्मवीर) साहब की दिखाई बातों पर चलने के सिवाय कोई विकल्प है ही नहीं।’
‘ढाई हजार साल में पहली बार दलित कहे जा रहे लोगों के चेहरे पर मुस्कान दिखाई दे रही है।’
मरे परचे में ये तीनों वाक्य उद्धृत थे उन्हें पढ़ने के बाद मैंने ‘बयान’ के संपादक मंडल से जानना चाहा कि पत्रिका की वैचारिकी मंे यह बदलाव क्योंकर हुआ है? संपादक मंडल को दलितों की समस्याएं अगर जड़ से मिटी दिखाई दे रही हैं तो गोहाना से लेकर खैरलांजी होते हुए मिर्चपुर तक फैली घटनाएं किस समाज से संबंधित हैं? दलितों के समक्ष अगर एकमात्र विकल्प धर्मवीर का विचार-दर्शन है तो आम्बेडकर के चिंतन पर अब उसकी क्या राय है? संपादक-मंडल दलितों के चेहरे पर ढाई हजार साल में पहली बार मुस्कराहट देख रहा है। इस चमत्कार को जारवादी नशे का परिणाम माना जाए या कुछ और?
मेरे देखते ‘बयान’ संपादक-मंडल के तीन सदस्य उस सभागार में उस समय उपस्थित थे – नैमिशराय, गायकवाड़ और शेखर। मेरा सवाल तीनों से था। नैमिशराय और शेखर तो दिल्लीवासी हैं। उन्होंने सलाह-मशविरे के बाद ही ऐसी प्रस्तावना दी होगी, लेकिन लक्ष्मण गायकवाड़ की फौरी प्रतिक्रिया से जाहिर हो गया कि उन्हें पत्रिका के इस नीतिगत विचलन की जानकारी नहीं थी। उनका रोष स्वाभाविक था। जिस मनुवाद के विरुद्ध वे लिखते-बोलते और आंदोलन करते रहे हैं उन्हें उसी का समर्थक बना दिया गया था। वे अपने को ठगा-सा महसूस कर रहे थे। उनके नाम का, उनकी आम्बेडकरवादी पहचान का दुरुपयोग हुआ था। उनकी उग्रतर प्रतिक्रिया भी वाजिब मानी जाती, लेकिन उन्होंने अपने को भरसक संयत किया और मंच से नैमिशराय से कहा कि पत्रिका से उनका नाम हटा दिया जाए। सूरजपाल जी की नेक सलाह है कि इस बात को मंच से कहने की बजाय ‘सत्र समाप्त होने पर अलग से नैमिशराय से’ कहा जाता। उन्हें लक्ष्मण गायकवाड़ का यह व्यवहार ‘अभद्र’ लगा। धर्मवीर के समर्थन में उतरने की यह स्वाभाविक परिणति है। धर्मवीर के विचारों में उन्हें किसी अभद्रता के दर्शन नहीं हुए। हिन्दी साहित्य का एक हिस्सा साफ तौर पर स्त्री-विरोधी है। फुसफुसाहट उसकी पहचान है। लक्ष्मण गायकवाड़ ने अगर एकांत में जाकर अपनी बात कही होती तो कोई दिक्कत नहीं थी। यह समझ लेना चाहिए कि फुसफुसाहटों से साजिशें रची जाती हैं। समता के संघर्ष तो डंके की चोट पर हुआ करते हैं।
फुसफुसाहट में साजिश – बजरंग बिहारी तिवारी Bajrang Bihari Tiwariजनसत्ता, 8 मई 2011 में प्रकाशित
दलित चिंतक स्त्री-विरोधी भी हो सकता है कई लोगों के लिये तो यह बात भी कल्पना से परे होगी। जातिगत उत्पीड़न का विरोधी भला उत्पीड़न के किसी अन्य रूप (जेंडरगत उत्पीड़न) का समर्थक कैसे हो सकता है? लेकिन यह सच है। दलित लेखकों का एक हिस्सा स्त्रियों की अधीनता का समर्थक है और वह नारीवाद को ‘व्याभिचार’ का पर्याय मानता है। समता की बजाय उसके लेखन में वर्चस्व की झलक दिखाई पड़ती है। बजरंग बिहारी तिवारी का प्रस्तुत लेख इस चिंताजनक समस्या की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है। ‘जनसत्ता’ में चली बहस के अंतर्गत प्रकाशित यह लेख एक और वजह से भी बेहद प्रासंगिक है- फुसफुसाहट की भूमिका से आगाह करने के कारण। सच्चाई को उजागर करने का दावा करने वाले विमर्शकार जब अपने भीतर मौजूद अंतर्विरोधों की चर्चा करने से बचना चाहते हैं, तब उनका सबसे कारगर तर्क होता है कि यह हमारी ‘आपसी समस्या’ है, इसपर चर्चा करने से ‘विरोधियों’ को फायदा होगा। ‘पर्सनल इज पोलिटिकल’ के जरिये हम समझ सकते हैं कि समस्याओं को पर्सनल बताने की प्रवृत्ति असल में दमन को जारी रखने का तरीका है। ऐसे में मुक्ति और समानता की घोषणाएं केवल एक दिखावा बन जाती हैं और फुसफुसाहटें ही निर्णायक भूमिका निभाने लगती हैं। ऐसी फुसफुसाहटें किसी भी मुक्तिकामी आंदोलन को भ्रष्ट कर सकती हैं। Jansatta 8 may 2011
मराठी दलित साहित्य के सम्मानित रचनाकार लक्ष्मण गायकवाड़ ( Laxman GayakVad ) को सूरजपाल जी ( Surajpal Chauhan ) ने जिस तरह कटघरे में खड़ा किया है उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। चूंकि यह ‘विवाद’ मेरे व्याख्यान से जुड़ा हुआ है, इसलिये इसकी पृष्ठभूमि का खुलासा जरूरी लग रहा है।
‘समकालीन भारतीय दलित साहित्य’ विषय पर साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित संगोष्ठी कुल आठ सत्रों में संपन्न हुई। अकादेमी द्वारा जारी निमंत्रण-पत्र में हिन्दी भाषी वक्ताओं की संख्या सत्रह है और मराठी भाषी वक्ताओं की नौ। मराठी दलित लेखकों के बहुसंख्यक होने का जो मुद्दा सूरजपाल जी ने उठाया है वह तथ्यपरक नहीं है। क्षेत्रवादी रवैया हिन्दी वालों का है या मराठी वालों का? लेख की भाषा और वक्ताओं की भाषावार संख्या इसका उत्तर दे देते हैं। हिन्दी-मराठी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं के वक्ताओं की संख्या अलबत्ता चिंता का विषय होनी चाहिए थी। विमल थोराट ( Vimal Thorat ) को मराठी लेखिका मानना पूर्वग्रहपूर्ण है। उनकी सभी किताबें हिन्दी में हैं। वे हिन्दी की प्राध्यापिका हैं। हां, उन्होंने मराठी से हिन्दी में अनुवाद किये हैं, जिसके लिये उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। दलित-लेखन में किसका कितना योगदान है इसका विश्लेषण अवश्य होना चाहिए, लेकिन साथ ही दलित लेखन (Dalit Lekhan ) की परिभाषा भी निर्धारित कर लेनी चाहिए। बुद्ध-आम्बेडकर ( Buddha Ambedkar ) विरोधी, स्त्री-विरोधी, ईश्वरवादी, मनुवादी… लेखन को क्या दलित-लेखन माना जाएगा? क्या हिन्दी दलित-लेखन अपने को आम्बेडकर से जोड़ने के बजाय, हीराडोम, स्वामी अछूतानन्द और ललई सिंह यादव से जोड़कर संतुष्ट हो जाएगा?
‘हिन्दीवादी’ उत्साह के अतिरेक में सूरजपाल जी ( Suraj pal Chauhan ) ने जिस ‘विचार-विद्रूप’ का समर्थन किया है उसपर उन्हें पुनर्विचार की जरूरत महसूस होनी चाहिए। उन्होंने जिस तरीके से लक्ष्मण गायकवाड़ ( Laxman GayakVad ) की प्रतिक्रिया दर्ज की है, वह भी चिंतनीय है। उन्होंने लिखा है, ‘वे (गायकवाड़) ( Laxman GayakVad ) एक लठैत की तरह बिना किसी की अनुमति के मंच पर चढ़ बैठे और माइक पर बलात् अधिकार जमा कर धर्मवीर ( Dr. Dharmvir ) को लेकर प्रलाप करने लगे।’ सच तो यह है कि लक्ष्मण गायकवाड़ ( Laxman GayakVad ) ने सत्र के अध्यक्ष दलपत चैहान ( Dalpat Chauhan ) से अनुमति लेकर ही अपनी बात रखी थी। क्योंकि मेरे परचे में उनका नाम आया था, इसलिये उनकी तरफ से स्पष्टीकरण जरूरी हो गया था। मोहनदास नैमिशराय के हवाले से यह प्रसंग छिड़ा था। वे भी सामने ही बैठे थे। उन्होंने गायकवाड़ का कोई प्रतिवाद नहीं किया। नैमिशराय ( Mohandas Naimisharai ) अगले सत्र के आमंत्रित वक्ता थे। अपने व्याख्यान में भी वे इस मसले पर कुछ नहीं बोले।
नैमिशराय जी (Mohandas Naimisharay) ‘बयान’ ( Bayan Hindi Monthly Magzine) (हिन्दी मासिक) पत्रिका के संपादक हैं। पत्रिका के प्रादेशिक प्रतिनिधियों में लक्ष्मण गायकवाड़ (मुंबई) का नाम है। इसमें कुछ दूसरे चर्चित लोगों के नाम भी हैं – द्वारका भारती (पंजाब), हरीश मंगलम (अहमदाबाद)… पत्रिका ने मार्च अंक में धर्मवीर का साक्षात्कार प्रकाशित किया है। इसमें धर्मवीर ने कई ‘ज्वलंत’ मुद्दों पर अपना पक्ष रखा है। इनका पक्ष उनके ही शब्दों में देखें:
‘द्विज लेखिकाएं अपने लिये बे-रोक-टोक सैक्स चाहती हैं। वे पितृसत्ता का विरोध करती हैं।’
‘जारिणी भी अपने पति से किसी अन्य के बच्चे को पलवाना चाहती है।… ‘कफन’ के घीसू-माधव इसीलिये तो बुधिया को मरने को छोड़ देते हैं क्योंकि उसके गर्भ में जमींदार का पोता या पोती थी।’
‘इन दोनों (ब्राह्मण स्त्री-पुरुष) को चैबीसों घंटे सैक्स के सिवाय कुछ नहीं सूझता। इन्हीं के देखा-देखी हमारी भी कुछ स्त्रियां जारिणी हो गई हैं।… ये निठल्ली बुरी स्त्रियां पूरी तरह नंग और बेशर्म हो गई हैं।’
‘कई बार नालायक लड़का या लड़की प्रेम-विवाह में गिरते हैं।’
‘जहां तक दलित लड़के-लड़कियों की बात है, मेरा सुझाव है कि वे प्रेम-विवाह के चक्कर में न पड़ें।’
‘आपने कैसे मान लिया कि मैं जाति तोड़ने की बात कर रहा हूं।’
‘मेरा दलित बालकों से अनुरोध है कि वे अपने माता-पिता की मेहनत को समझें।… प्रेम-विवाह के नाम पर उनकी सारी मेहनत मिट्टी में मिल जाती है। वे प्रेम-विवाह करें तो अपनी जातियों में ही करें।’
इस साक्षात्कार में धर्मवीर यह भी बताते है कि वे दलितों के लिये ‘पर्सनल कानून’ ‘संहिताबद्ध’ कर चुके हैं। यह भी कि ‘पर्सनल कानूनों’ में प्रेम-विवाह का कोई अस्तित्व नहीं है।
धर्मवीर के विचारों को किसी पत्रिका में जगह देना एक सीमा तक दिक्कततलब नहीं है दिक्कत तब आती है, जब पत्रिका उनके ‘मनुष्य विरोधी’ विचारों का समर्थन करने लगे। ‘बयान’ पत्रिका में धर्मवीर ( Dr. Dharmveer ) के साक्षात्कार की जो प्रस्तावना दी गई है उसमें (उस पत्रिका द्वारा) धर्मवीर के विचारों का पूर्ण समर्थन किया गया है। इस प्रस्तावना के तीन वाक्य द्रष्टव्य हैंः
‘अपनी लेखनी से उन्होंने (धर्मवीर ने) दलितों की समस्याओं को जड़ से मिटा दिया है।’
‘दलितों के पास डाॅ. (धर्मवीर) साहब की दिखाई बातों पर चलने के सिवाय कोई विकल्प है ही नहीं।’
‘ढाई हजार साल में पहली बार दलित कहे जा रहे लोगों के चेहरे पर मुस्कान दिखाई दे रही है।’
मरे परचे में ये तीनों वाक्य उद्धृत थे उन्हें पढ़ने के बाद मैंने ‘बयान’ के संपादक मंडल से जानना चाहा कि पत्रिका की वैचारिकी मंे यह बदलाव क्योंकर हुआ है? संपादक मंडल को दलितों की समस्याएं अगर जड़ से मिटी दिखाई दे रही हैं तो गोहाना से लेकर खैरलांजी होते हुए मिर्चपुर तक फैली घटनाएं किस समाज से संबंधित हैं? दलितों के समक्ष अगर एकमात्र विकल्प धर्मवीर का विचार-दर्शन है तो आम्बेडकर के चिंतन पर अब उसकी क्या राय है? संपादक-मंडल दलितों के चेहरे पर ढाई हजार साल में पहली बार मुस्कराहट देख रहा है। इस चमत्कार को जारवादी नशे का परिणाम माना जाए या कुछ और?
मेरे देखते ‘बयान’ संपादक-मंडल के तीन सदस्य उस सभागार में उस समय उपस्थित थे – नैमिशराय, गायकवाड़ और शेखर। मेरा सवाल तीनों से था। नैमिशराय और शेखर तो दिल्लीवासी हैं। उन्होंने सलाह-मशविरे के बाद ही ऐसी प्रस्तावना दी होगी, लेकिन लक्ष्मण गायकवाड़ की फौरी प्रतिक्रिया से जाहिर हो गया कि उन्हें पत्रिका के इस नीतिगत विचलन की जानकारी नहीं थी। उनका रोष स्वाभाविक था। जिस मनुवाद के विरुद्ध वे लिखते-बोलते और आंदोलन करते रहे हैं उन्हें उसी का समर्थक बना दिया गया था। वे अपने को ठगा-सा महसूस कर रहे थे। उनके नाम का, उनकी आम्बेडकरवादी पहचान का दुरुपयोग हुआ था। उनकी उग्रतर प्रतिक्रिया भी वाजिब मानी जाती, लेकिन उन्होंने अपने को भरसक संयत किया और मंच से नैमिशराय से कहा कि पत्रिका से उनका नाम हटा दिया जाए। सूरजपाल जी की नेक सलाह है कि इस बात को मंच से कहने की बजाय ‘सत्र समाप्त होने पर अलग से नैमिशराय से’ कहा जाता। उन्हें लक्ष्मण गायकवाड़ का यह व्यवहार ‘अभद्र’ लगा। धर्मवीर के समर्थन में उतरने की यह स्वाभाविक परिणति है। धर्मवीर के विचारों में उन्हें किसी अभद्रता के दर्शन नहीं हुए। हिन्दी साहित्य का एक हिस्सा साफ तौर पर स्त्री-विरोधी है। फुसफुसाहट उसकी पहचान है। लक्ष्मण गायकवाड़ ने अगर एकांत में जाकर अपनी बात कही होती तो कोई दिक्कत नहीं थी। यह समझ लेना चाहिए कि फुसफुसाहटों से साजिशें रची जाती हैं। समता के संघर्ष तो डंके की चोट पर हुआ करते हैं।
फुसफुसाहट में साजिश – बजरंग बिहारी तिवारी Bajrang Bihari Tiwariजनसत्ता, 8 मई 2011 में प्रकाशित
दलित चिंतक स्त्री-विरोधी भी हो सकता है कई लोगों के लिये तो यह बात भी कल्पना से परे होगी। जातिगत उत्पीड़न का विरोधी भला उत्पीड़न के किसी अन्य रूप (जेंडरगत उत्पीड़न) का समर्थक कैसे हो सकता है? लेकिन यह सच है। दलित लेखकों का एक हिस्सा स्त्रियों की अधीनता का समर्थक है और वह नारीवाद को ‘व्याभिचार’ का पर्याय मानता है। समता की बजाय उसके लेखन में वर्चस्व की झलक दिखाई पड़ती है। बजरंग बिहारी तिवारी का प्रस्तुत लेख इस चिंताजनक समस्या की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है। ‘जनसत्ता’ में चली बहस के अंतर्गत प्रकाशित यह लेख एक और वजह से भी बेहद प्रासंगिक है- फुसफुसाहट की भूमिका से आगाह करने के कारण। सच्चाई को उजागर करने का दावा करने वाले विमर्शकार जब अपने भीतर मौजूद अंतर्विरोधों की चर्चा करने से बचना चाहते हैं, तब उनका सबसे कारगर तर्क होता है कि यह हमारी ‘आपसी समस्या’ है, इसपर चर्चा करने से ‘विरोधियों’ को फायदा होगा। ‘पर्सनल इज पोलिटिकल’ के जरिये हम समझ सकते हैं कि समस्याओं को पर्सनल बताने की प्रवृत्ति असल में दमन को जारी रखने का तरीका है। ऐसे में मुक्ति और समानता की घोषणाएं केवल एक दिखावा बन जाती हैं और फुसफुसाहटें ही निर्णायक भूमिका निभाने लगती हैं। ऐसी फुसफुसाहटें किसी भी मुक्तिकामी आंदोलन को भ्रष्ट कर सकती हैं। Jansatta 8 may 2011