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आज से पचहत्तर वर्ष पूर्व (1936) प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन में लखनऊ में प्रेमचंद ने लेखकों से यह आह्वान किया था ‘जो दलित है, पीड़ित है, वंचित है – चाहे वह व्यक्ति हो या समूह, उसकी हिमायत और वकालत करना हमारा फर्ज है।’ शायद ही तब उन्होंने सोचा होगा कि कभी इसी मंच से दलित-विमर्श के बहाने दलित ही सवालों के घेरे में खड़े होंगे। ऐसा ही कुछ विगत 8 अक्तूबर को तब हुआ, जब लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के हीरक जयंती समारोह का उद्घाटन करते हुए शीर्षस्थ समालोचक और प्रलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा. नामवर सिंह ने दलित विमर्श को ही खारिज नहीं किया बल्कि यह तक कह डाला है कि ‘आरक्षण के चलते दलित तो हैसियतदार हो गए हैं, लेकिन बामन-ठाकुर के लड़कों की भीख मांगने तक की नौबत आ गई है।’ डाॅ. तुलसीराम के आत्मवृत्तांत ‘मुर्दहिया’ की डा. धर्मवीर द्वारा की गई आलोचना को संदर्भित करते हुए उन्होंने यह खिन्नता भी प्रकट की कि ‘आप (सवर्ण) चाहे जितना इनका (दलित) समर्थन करें, ये कभी आपके होने वाले नहीं हैं।’
निर्विवाद रूप से यह डाॅ. नामवर सिंह की व्यक्तिगत राय थी, संभवतः तात्कालिक भी रही होगी क्योंकि इसके पीछे कोई सैद्धांतिक स्थापना नहीं थी। प्रगतिशील लेखक संघ की सांगठनिक नीति से भी इसको कोई लेना-देना नहीं था, लेकिन जिस अवसर और मंच पर ये बातें कही गई थीं, वह सचमुच स्तब्धकारी था। समारोह में उपस्थित अधिकांश श्रोताओं में इसे लेकर असहज सुन-गुन थी। उद्घाटन के दूसरे दिन कुछ लेखकों ने नामवर जी के इस वक्तव्य को प्रश्नांकित किया लेकिन अफसोस यह है कि ऐसा करने वालों में दलित लेखक ही शामिल थे। वाराणसी से आए एक दलित लेखक ने जब अपनी बात कहते हुए यह वेदना व्यक्त की कि ‘ठीक है कि आरक्षण की सुविधा प्राप्त कर हममें से कई लोग अफसर भी बन गए हैं, लेकिन क्या मेरी पत्नी को ‘चमाइन’ कहना बंद कर दिया गया है?’ प्रत्युत्तर में वाराणसी के ही एक क्षत्रिय लेखक ने कहा कि ‘जब ठकुराइन कह सकते हैं तो चमाइन न कहें तो क्या कहें?’
ध्यान देने वाली बात है कि यह सबकुछ चैपाल की गप-शप न होकर समारोह के मंच पर दिये जाने वाले वक्तव्य थे। अच्छा होता कि संगठन द्वारा इसका आधिकारिक प्रतिवाद किया गया होता, लेकिन खेद है कि ऐसा न हो सका। तो क्या अब यह माना जाना चाहिए कि प्रेमचंद ने वर्ण और जाति से मुक्त होकर साहित्य की जिस प्रगतिशील परम्परा की शुरुआत की थी, अब यह उसकी वापसी का दौर है? अपनी सवर्ण स्थिति का अतिक्रमण कर दलितों के साथ एकजुटता व्यक्त करने के लिये जहां प्रेमचंद को ‘घृणा का प्रचारक’ और ‘ब्राह्मणद्रोही’ कहा गया था, वहीं निराला को ‘ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत’ की नियति झेलनी पड़ी थी।
प्रेमचंद का तो स्पष्ट कहना था कि ‘राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्ण-व्यवस्था, ऊंच-नीच के भेद और धार्मिक पाखंड की जड़ खोदना है’ और यह भी कि ‘हमारा स्वराज्य केवल विदेशी जुए से अपने को मुक्त करना नहीं है, बल्कि उस सामाजिक जुए से भी, उस पाखंडी जुए से भी जो विदेशी शासन से कहीं अधिक घातक है।’ यह कहते हुए प्रेमचंद उसी वैचारिक धरातल पर खड़े थे, जहां डाॅ. अम्बेडकर, क्योंकि वे ‘ब्राह्मणवाद’ को ब्रिटिश साम्राज्यवाद से कमतर नहीं आंकते थे। यही कारण था कि प्रेमचंद अपने समूचे साहित्यिक व वैचारिक चिंतन में दुहरी गुलामी – अंग्रेजी साम्राज्य और वर्णाश्रमी देशी सत्ता का विमर्श रचते हैं, लेकिन आज स्वाधीन भारत में मुख्य धारा के कितने लेखकों के सरोकार उस सामाजिक गुलामी को लेकर हैं, जो दलित विमर्श का मूलाधार है?
प्रगतिशील आंदोलन और लेखन में सामाजिक गुलामी के प्रश्न की केन्द्रीयता का ही परिणाम था, तुलसीदास और रामचरित मानस को लेकर प्र्रगतिशील लेखकों के बीच पचास के दशक की वह ‘बड़ी बहस’ जिसने वर्ण बनाम वर्ग की बहस को निर्णायक मोड़ दिया था। इस वैचारिक बहस में राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, शिवदानसिंह चैहान, अमृतराय व प्रकाशचंद्र गुप्त आदि सभी ने ‘रामचरितमानस’ को ब्राह्मणवादी ग्रंथ सिद्ध करते हुए उसकी वैचारिकता को प्रगतिशीलता की कसौटी पर खारिज किया था। अकेले डाॅ. रामविलास शर्मा ही ऐसे थे जिन्होंने योद्धा की मुद्रा अपनाते हुए यह मत व्यक्त किया था कि ‘तुलसीदास का स्वप्न श्रमिक जनता के लिये धरोहर है जिससे प्रेरित होकर वह समाजवाद के लिये मंजिल-दर-मंजिल बढ़ती जाएगी।’ निष्चित रूप से डाॅ. रामविलास शर्मा की माक्र्सवादी वर्गीय दृष्टि और तुलसी के रास्ते समाजवाद की मंजिल का यह बेमेल आदर्ष प्रगतिषील आन्दोलन की उस विरासत को समस्याग्रस्त करने वाला था जो सामाजिक गुलामी को विदेषी गुलामी से कमतर नहीं मानती थी। आगे चलकर डाॅ. रामविलास शर्मा ने ‘सामाजिक न्याय’ की अवधारणा को नकारते हुए यह सैद्धांतिक स्थापना दे डाली कि ‘भारत में कोई मानव समुदाय ऐसा नहीं है, जो सामाजिक अन्याय से पीड़ित न हो’ और यह भी कि ‘किसी का शोषण इस वजह से नहीं होता कि वह पंडित है या चमार।’ यह कहते हुए उन्होंने प्रेमचंद, निराला, उग्र, राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव, नागार्जुन व रेणु सरीखे लेखकों के उस साहित्य की अनदेखी कर दी जिसमें वर्ण व जाति आधारित शोषण की त्रासदी उद्घाटित होती थी। यह अनायाय नहीं है कि पे्रमचंद पर एक संपूर्ण पुस्तक लिखते हुए भी वे ‘सद्गति’, ‘ठाकुर का कुंआ’, ‘सवा सेर गेहूं’, ‘बाबाजी का भोग’ सरीखी कहानियों और ‘गोदान’ के सिलिया-मातादीन के उस दलित प्रसंग की चर्चा नहीं करते जिनमें जाति आधारित शोषण और वर्णाश्रमी व्यवस्था की संरचना उजागर होती है। रेणु के उपन्यास ‘मैला आंचल’ के डाॅ. रामविलास शर्मा द्वारा नकार के पीछे भी कमोबेश यही कारण थे। यह वास्तव में विचारणीय है कि पे्रमचंद, निराला और रेणु अपने कथा-साहित्य के माध्यम से जहां वर्ग में रूपांतरण की प्रक्रिया उद्घाटित करते हैं, वहीं डाॅ. रामविलास शर्मा वर्ग-दृष्टि का इस्तेमाल जाति एवं वर्ण आधारित शोषण को नकारने के लिये क्यों करते हैं?
भारतीय समाज में जाति आधारित शोषण व सामाजिक अन्याय की डाॅ. रामविलास शर्मा द्वारा की गई अनदेखी के बावजूद हिन्दी कथा साहित्य में प्रेमचंद की वह परंपरा आजादी के बाद भी बरकरार रही जो सामाजिक असमानता को केन्द्रीयता प्रदान करती थी। एक लंबे समय तक प्रगतिशील साहित्य ने यथार्थ चित्रण की वह समग्र दृष्टि अपनाई जिसमें किसान, दलित और स्त्री प्रश्नों के साथ भारतीय समाज की व्यापक चिंताएं मौजूद थीं। इसी प्रगतिशील जीवनदृष्टि के चलते दलित यथार्थ पर केन्द्रित ‘धरती धन न अपना’ (जगदीश चंद्र), ‘महाभोज’ (मन्नू भंडारी), ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ (अमृत लाल नागर), ‘परिशिष्ट’ (गिरिराज किशोर), ‘एक टुकड़ा इतिहास’ (गोपाल उपाध्याय), ‘मोरी र्की इंट’ (मदन दीक्षित) सरीखे उपन्यास लिखे गए। इन सभी लेखकों ने अपने वर्ण और वर्ग से मुक्त होकर हाशिये के समाज को अपनी रचनात्मकता का विषय बनाया।
इन सबके बावजूद हाल के वर्षों के लेखकों द्वारा वर्ण और वर्ग से मुक्त होकर हाशिये के समाज को केन्द्रीयता प्रदान करने की परम्परा क्षीण से क्षीणतर होती गई है, लेकिन यही वह दौर है जब दलित और स्त्री-विमर्श ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है। यह वास्तव में विडम्बनात्मक है कि ज्यों-ज्यों दलितों और स्त्रियों ने साहित्य में हस्तक्षेप की मुद्रा अपनाई, त्यों-त्यों मुख्यधारा के लेखकों ने अपवादों को छोड़कर, प्रायः इन मुद्दों से किनाराकशी कर ली। इन्हीं मुद्दों से नहीं बल्कि जनतंत्र की विकलांगता, अवरुद्ध विकास, जल-जंगल-जमीन के सवाल भी इनमें से अधिकांश की चिंता से प्रायः बेदखल ही रहे।
ध्यान देने की बात यह है कि विगत दो दशकों में हिन्दी की मुख्यधारा के लेखकों में साम्प्रदायिकता को लेकर जितनी चिंता रही, उतनी किसी अन्य विषय को लेकर नहीं रही। लगभग बीस से अधिक उपन्यास और सैकड़ों कहानियां इस विषय पर बड़ी लिखी गई हैं। सचमुच साम्प्रदायिकता है भी इस दौर की बड़ी परिघटना। बाबरी मस्जिद का ध्वंस और गुजरात में अल्पसंख्यकों का नरसंहार भारत के धर्मनिरपेक्ष ढांचे में बड़ी दरार है लेकिन इस समूची परिघटना को रचनात्मक बनाते हुए हिंदी लेखक उस जोखिम के इलाके में नहीं जाते जहां इसी विषय पर लिखते हुए ‘झूठा सच’ और ‘आधा गांव’ के लेखक जाते हैं। इस दौर में दूधनाथ सिंह संभवतः अपवाद ही हैं जो अपने उपन्यास ‘आखिरी कलाम’ में साम्प्रदायिकता के प्रश्न को हिन्दू धर्म की ब्राह्मणवादी संरचना में उद्घाटित करते हैं। दरअसल साम्प्रदायिकता, उपभोक्तावाद और वैश्वीकरण के रसायन ने हिन्दी के मध्यवर्गीय लेखक को एक ऐसा सुविधा क्षेत्र मुहैया करवा दिया है जहां उसे अपने धर्म, वर्ण और जातिगत संस्कारों से मुक्त होने की जरूरत नहीं है। इन विषयों पर लिखते हुए उसे अपनी वर्गीय स्थिति का भी अतिक्रमण करने की जरूरत नहीं है। ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ का भला-भला सर्वस्वीकृत, धर्मनिरपेक्ष आदर्श उसे इसकी पर्याप्त छूट देता है। परिणामस्वरूप लेखक की मध्यवर्गीय स्थिति उसे जाने-अनजाने मध्यवर्गीय सरोकारों का भी लेखक बनाती है।
यह कहने के मूल में आशय यह है कि प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखन आंदोलन का सूत्रपात करते हुए भारतीय समाज के जिस वृहत्तर यथार्थ को केन्द्रीयता प्रदान की थी यह उसकी वापसी का दौर है। स्वाधीन भारत में जितने लोग साम्प्रदायिक हिंसा में मारे गए उससे कई गुना अधिक दलित विरोधी हिंसा के शिकार हुए। इतना ही नहीं, आज भी ग्रामीण भारत में दलितों के प्रति भेदभाव और छुआछूत की घटनाएं रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा हैं। गांव में दलित बस्ती अभी भी अलग बसाई जाती है। स्कूल, पंचायत और गांव के बाजारों तक में आज भी दलितों के साथ भेद-भाव जारी है। लेकिन ग्रामीण यथार्थ का यह पहलू गैर-दलित लेखकों की रचनाओं में विरल ही है।
दरअसल गैर-दलित लेखकों द्वारा दलितों और हाशिये के समाज के प्रति इस उदासीनता के मूल में मंडल-मंदिर की वह परिघटना है, जिसने आरक्षण की बहस के साथ उच्च सवर्ण लेखकों की बड़ी जमात को अपनी जाति और वर्ण की जमीन पर वापस भेज दिया। डाॅ. रामविलास शर्मा ने जहां आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान का यह कहकर विरोध किया था कि ‘वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखने का प्रभावशाली उपाय है आरक्षण’, वहीं सामाजिक न्याय की अवधारणा को यह कहकर खारिज किया था कि ‘सामाजिक न्याय की लड़ाई में न वर्गों के लिये स्थान है न वर्ग संगठनों और वर्ग संघर्ष के लिये।’ यहां यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि डाॅ. रामविलास शर्मा की उपरोक्त स्थापनाओं को वाम-प्रगतिशील लेखकों की बड़ी जमात द्वारा प्रश्नांकित करने की बजाय मौन सहमति ही प्रदान की गई जबकि उनकी ‘हिन्दी नवजागरण’ की स्थापना को ‘हिन्दू नवजागरण’ करार देते हुए स्वयं डाॅ. नामवर सिंह ने यह प्रश्न उठाया कि ‘हिन्दी जाति की इस अवधारणा में उर्दू कहां है या मुसलमान कहां है?’
संभवतः इसी आधी-अधूरी प्रगतिशीलता का ही परिणाम है कि दलित विमर्श ने आक्रामक तेवर अपनाते हुए प्रेमचंद समेत संपूर्ण प्रगतिशील परम्परा का ही उच्छेदन शुरू कर दिया। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ‘स्वानुभूति बनाम सहानुभूति’ की बहस ‘दलितों द्वारा, दलितों का, दलितों के लिये’ की अति तक पहंची तो मुख्यधारा के लेखकों ने ‘दलित विमर्श’ को ही खारिज करने की मुद्रा अपना ली। Dalit VImarsh Marxvad Hindi Article Alochana
यह वास्तव में विडम्बनात्मक है कि जब तक सामाजिक असमानता के प्रश्न स्वाधीनता आन्दोलन से बेदखल थे, तब प्रगतिशील लेखन आंदोलन ने इसे अपनी पूर्व-पीठिका बनाया था। आज पचहत्तर वर्ष बाद जब सामाजिक न्याय का प्रश्न राजनीति, इतिहास और समाजशास्त्र में केन्द्रीयता प्राप्त कर चुका हो तब यह प्रगतिशील साहित्य की मुख्यधारा से बेदखली की आशंका से ग्रस्त है। स्वीकार करना होगा कि समूचा प्रगतिशील और वाम सांस्कृतिक आन्दोलन आज गहरे वैचारिक संकट से गुजर रहा है। आजादी के पूर्व के वर्षों में रचना, विचार और संघर्ष की जो एकरूपता प्रगतिशील लेखन आन्दोलन ने अर्जित की थी, आज वह बिखर-सी गई है। जरूरत है अपनी उस विरासत की पुनप्र्राप्ति की।
आज कश्मीर से उत्तर-पूर्व तक, दंडकारण्य से सुदूर दक्षिण तक भारत के खेत, खदान, जंगल और पहाड़ियों तक जनाक्रोश का सैलाब उमड़ रहा है। जब अरुंधती राय सरीखी अंग्रेजीदां अभिजात लेखिका इन आवाजों को सुन पा रही हैं, तब प्रगतिशील और पक्षधर लेखक ‘सर्वसहमति’ के मुद्दों तक स्वयं को कैसे सीमित रख सकते हैं। जरूरत है वर्ण और वर्ग से मुक्त होकर जोखिम के क्षेत्र में जाने और अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की।
प्रगतिशील लेखक संघ के मंच से आरक्षण का विरोध ! – वीरेन्द्र यादव
‘शुक्रवार’ 28 अक्टूबर से 3 नवंबर, 2011 में पृष्ठ 64-65 पर प्रकाशित
निर्विवाद रूप से यह डाॅ. नामवर सिंह की व्यक्तिगत राय थी, संभवतः तात्कालिक भी रही होगी क्योंकि इसके पीछे कोई सैद्धांतिक स्थापना नहीं थी। प्रगतिशील लेखक संघ की सांगठनिक नीति से भी इसको कोई लेना-देना नहीं था, लेकिन जिस अवसर और मंच पर ये बातें कही गई थीं, वह सचमुच स्तब्धकारी था। समारोह में उपस्थित अधिकांश श्रोताओं में इसे लेकर असहज सुन-गुन थी। उद्घाटन के दूसरे दिन कुछ लेखकों ने नामवर जी के इस वक्तव्य को प्रश्नांकित किया लेकिन अफसोस यह है कि ऐसा करने वालों में दलित लेखक ही शामिल थे। वाराणसी से आए एक दलित लेखक ने जब अपनी बात कहते हुए यह वेदना व्यक्त की कि ‘ठीक है कि आरक्षण की सुविधा प्राप्त कर हममें से कई लोग अफसर भी बन गए हैं, लेकिन क्या मेरी पत्नी को ‘चमाइन’ कहना बंद कर दिया गया है?’ प्रत्युत्तर में वाराणसी के ही एक क्षत्रिय लेखक ने कहा कि ‘जब ठकुराइन कह सकते हैं तो चमाइन न कहें तो क्या कहें?’
ध्यान देने वाली बात है कि यह सबकुछ चैपाल की गप-शप न होकर समारोह के मंच पर दिये जाने वाले वक्तव्य थे। अच्छा होता कि संगठन द्वारा इसका आधिकारिक प्रतिवाद किया गया होता, लेकिन खेद है कि ऐसा न हो सका। तो क्या अब यह माना जाना चाहिए कि प्रेमचंद ने वर्ण और जाति से मुक्त होकर साहित्य की जिस प्रगतिशील परम्परा की शुरुआत की थी, अब यह उसकी वापसी का दौर है? अपनी सवर्ण स्थिति का अतिक्रमण कर दलितों के साथ एकजुटता व्यक्त करने के लिये जहां प्रेमचंद को ‘घृणा का प्रचारक’ और ‘ब्राह्मणद्रोही’ कहा गया था, वहीं निराला को ‘ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत’ की नियति झेलनी पड़ी थी।
प्रेमचंद का तो स्पष्ट कहना था कि ‘राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्ण-व्यवस्था, ऊंच-नीच के भेद और धार्मिक पाखंड की जड़ खोदना है’ और यह भी कि ‘हमारा स्वराज्य केवल विदेशी जुए से अपने को मुक्त करना नहीं है, बल्कि उस सामाजिक जुए से भी, उस पाखंडी जुए से भी जो विदेशी शासन से कहीं अधिक घातक है।’ यह कहते हुए प्रेमचंद उसी वैचारिक धरातल पर खड़े थे, जहां डाॅ. अम्बेडकर, क्योंकि वे ‘ब्राह्मणवाद’ को ब्रिटिश साम्राज्यवाद से कमतर नहीं आंकते थे। यही कारण था कि प्रेमचंद अपने समूचे साहित्यिक व वैचारिक चिंतन में दुहरी गुलामी – अंग्रेजी साम्राज्य और वर्णाश्रमी देशी सत्ता का विमर्श रचते हैं, लेकिन आज स्वाधीन भारत में मुख्य धारा के कितने लेखकों के सरोकार उस सामाजिक गुलामी को लेकर हैं, जो दलित विमर्श का मूलाधार है?
प्रगतिशील आंदोलन और लेखन में सामाजिक गुलामी के प्रश्न की केन्द्रीयता का ही परिणाम था, तुलसीदास और रामचरित मानस को लेकर प्र्रगतिशील लेखकों के बीच पचास के दशक की वह ‘बड़ी बहस’ जिसने वर्ण बनाम वर्ग की बहस को निर्णायक मोड़ दिया था। इस वैचारिक बहस में राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, शिवदानसिंह चैहान, अमृतराय व प्रकाशचंद्र गुप्त आदि सभी ने ‘रामचरितमानस’ को ब्राह्मणवादी ग्रंथ सिद्ध करते हुए उसकी वैचारिकता को प्रगतिशीलता की कसौटी पर खारिज किया था। अकेले डाॅ. रामविलास शर्मा ही ऐसे थे जिन्होंने योद्धा की मुद्रा अपनाते हुए यह मत व्यक्त किया था कि ‘तुलसीदास का स्वप्न श्रमिक जनता के लिये धरोहर है जिससे प्रेरित होकर वह समाजवाद के लिये मंजिल-दर-मंजिल बढ़ती जाएगी।’ निष्चित रूप से डाॅ. रामविलास शर्मा की माक्र्सवादी वर्गीय दृष्टि और तुलसी के रास्ते समाजवाद की मंजिल का यह बेमेल आदर्ष प्रगतिषील आन्दोलन की उस विरासत को समस्याग्रस्त करने वाला था जो सामाजिक गुलामी को विदेषी गुलामी से कमतर नहीं मानती थी। आगे चलकर डाॅ. रामविलास शर्मा ने ‘सामाजिक न्याय’ की अवधारणा को नकारते हुए यह सैद्धांतिक स्थापना दे डाली कि ‘भारत में कोई मानव समुदाय ऐसा नहीं है, जो सामाजिक अन्याय से पीड़ित न हो’ और यह भी कि ‘किसी का शोषण इस वजह से नहीं होता कि वह पंडित है या चमार।’ यह कहते हुए उन्होंने प्रेमचंद, निराला, उग्र, राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव, नागार्जुन व रेणु सरीखे लेखकों के उस साहित्य की अनदेखी कर दी जिसमें वर्ण व जाति आधारित शोषण की त्रासदी उद्घाटित होती थी। यह अनायाय नहीं है कि पे्रमचंद पर एक संपूर्ण पुस्तक लिखते हुए भी वे ‘सद्गति’, ‘ठाकुर का कुंआ’, ‘सवा सेर गेहूं’, ‘बाबाजी का भोग’ सरीखी कहानियों और ‘गोदान’ के सिलिया-मातादीन के उस दलित प्रसंग की चर्चा नहीं करते जिनमें जाति आधारित शोषण और वर्णाश्रमी व्यवस्था की संरचना उजागर होती है। रेणु के उपन्यास ‘मैला आंचल’ के डाॅ. रामविलास शर्मा द्वारा नकार के पीछे भी कमोबेश यही कारण थे। यह वास्तव में विचारणीय है कि पे्रमचंद, निराला और रेणु अपने कथा-साहित्य के माध्यम से जहां वर्ग में रूपांतरण की प्रक्रिया उद्घाटित करते हैं, वहीं डाॅ. रामविलास शर्मा वर्ग-दृष्टि का इस्तेमाल जाति एवं वर्ण आधारित शोषण को नकारने के लिये क्यों करते हैं?
भारतीय समाज में जाति आधारित शोषण व सामाजिक अन्याय की डाॅ. रामविलास शर्मा द्वारा की गई अनदेखी के बावजूद हिन्दी कथा साहित्य में प्रेमचंद की वह परंपरा आजादी के बाद भी बरकरार रही जो सामाजिक असमानता को केन्द्रीयता प्रदान करती थी। एक लंबे समय तक प्रगतिशील साहित्य ने यथार्थ चित्रण की वह समग्र दृष्टि अपनाई जिसमें किसान, दलित और स्त्री प्रश्नों के साथ भारतीय समाज की व्यापक चिंताएं मौजूद थीं। इसी प्रगतिशील जीवनदृष्टि के चलते दलित यथार्थ पर केन्द्रित ‘धरती धन न अपना’ (जगदीश चंद्र), ‘महाभोज’ (मन्नू भंडारी), ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ (अमृत लाल नागर), ‘परिशिष्ट’ (गिरिराज किशोर), ‘एक टुकड़ा इतिहास’ (गोपाल उपाध्याय), ‘मोरी र्की इंट’ (मदन दीक्षित) सरीखे उपन्यास लिखे गए। इन सभी लेखकों ने अपने वर्ण और वर्ग से मुक्त होकर हाशिये के समाज को अपनी रचनात्मकता का विषय बनाया।
इन सबके बावजूद हाल के वर्षों के लेखकों द्वारा वर्ण और वर्ग से मुक्त होकर हाशिये के समाज को केन्द्रीयता प्रदान करने की परम्परा क्षीण से क्षीणतर होती गई है, लेकिन यही वह दौर है जब दलित और स्त्री-विमर्श ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है। यह वास्तव में विडम्बनात्मक है कि ज्यों-ज्यों दलितों और स्त्रियों ने साहित्य में हस्तक्षेप की मुद्रा अपनाई, त्यों-त्यों मुख्यधारा के लेखकों ने अपवादों को छोड़कर, प्रायः इन मुद्दों से किनाराकशी कर ली। इन्हीं मुद्दों से नहीं बल्कि जनतंत्र की विकलांगता, अवरुद्ध विकास, जल-जंगल-जमीन के सवाल भी इनमें से अधिकांश की चिंता से प्रायः बेदखल ही रहे।
ध्यान देने की बात यह है कि विगत दो दशकों में हिन्दी की मुख्यधारा के लेखकों में साम्प्रदायिकता को लेकर जितनी चिंता रही, उतनी किसी अन्य विषय को लेकर नहीं रही। लगभग बीस से अधिक उपन्यास और सैकड़ों कहानियां इस विषय पर बड़ी लिखी गई हैं। सचमुच साम्प्रदायिकता है भी इस दौर की बड़ी परिघटना। बाबरी मस्जिद का ध्वंस और गुजरात में अल्पसंख्यकों का नरसंहार भारत के धर्मनिरपेक्ष ढांचे में बड़ी दरार है लेकिन इस समूची परिघटना को रचनात्मक बनाते हुए हिंदी लेखक उस जोखिम के इलाके में नहीं जाते जहां इसी विषय पर लिखते हुए ‘झूठा सच’ और ‘आधा गांव’ के लेखक जाते हैं। इस दौर में दूधनाथ सिंह संभवतः अपवाद ही हैं जो अपने उपन्यास ‘आखिरी कलाम’ में साम्प्रदायिकता के प्रश्न को हिन्दू धर्म की ब्राह्मणवादी संरचना में उद्घाटित करते हैं। दरअसल साम्प्रदायिकता, उपभोक्तावाद और वैश्वीकरण के रसायन ने हिन्दी के मध्यवर्गीय लेखक को एक ऐसा सुविधा क्षेत्र मुहैया करवा दिया है जहां उसे अपने धर्म, वर्ण और जातिगत संस्कारों से मुक्त होने की जरूरत नहीं है। इन विषयों पर लिखते हुए उसे अपनी वर्गीय स्थिति का भी अतिक्रमण करने की जरूरत नहीं है। ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ का भला-भला सर्वस्वीकृत, धर्मनिरपेक्ष आदर्श उसे इसकी पर्याप्त छूट देता है। परिणामस्वरूप लेखक की मध्यवर्गीय स्थिति उसे जाने-अनजाने मध्यवर्गीय सरोकारों का भी लेखक बनाती है।
यह कहने के मूल में आशय यह है कि प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखन आंदोलन का सूत्रपात करते हुए भारतीय समाज के जिस वृहत्तर यथार्थ को केन्द्रीयता प्रदान की थी यह उसकी वापसी का दौर है। स्वाधीन भारत में जितने लोग साम्प्रदायिक हिंसा में मारे गए उससे कई गुना अधिक दलित विरोधी हिंसा के शिकार हुए। इतना ही नहीं, आज भी ग्रामीण भारत में दलितों के प्रति भेदभाव और छुआछूत की घटनाएं रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा हैं। गांव में दलित बस्ती अभी भी अलग बसाई जाती है। स्कूल, पंचायत और गांव के बाजारों तक में आज भी दलितों के साथ भेद-भाव जारी है। लेकिन ग्रामीण यथार्थ का यह पहलू गैर-दलित लेखकों की रचनाओं में विरल ही है।
दरअसल गैर-दलित लेखकों द्वारा दलितों और हाशिये के समाज के प्रति इस उदासीनता के मूल में मंडल-मंदिर की वह परिघटना है, जिसने आरक्षण की बहस के साथ उच्च सवर्ण लेखकों की बड़ी जमात को अपनी जाति और वर्ण की जमीन पर वापस भेज दिया। डाॅ. रामविलास शर्मा ने जहां आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान का यह कहकर विरोध किया था कि ‘वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखने का प्रभावशाली उपाय है आरक्षण’, वहीं सामाजिक न्याय की अवधारणा को यह कहकर खारिज किया था कि ‘सामाजिक न्याय की लड़ाई में न वर्गों के लिये स्थान है न वर्ग संगठनों और वर्ग संघर्ष के लिये।’ यहां यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि डाॅ. रामविलास शर्मा की उपरोक्त स्थापनाओं को वाम-प्रगतिशील लेखकों की बड़ी जमात द्वारा प्रश्नांकित करने की बजाय मौन सहमति ही प्रदान की गई जबकि उनकी ‘हिन्दी नवजागरण’ की स्थापना को ‘हिन्दू नवजागरण’ करार देते हुए स्वयं डाॅ. नामवर सिंह ने यह प्रश्न उठाया कि ‘हिन्दी जाति की इस अवधारणा में उर्दू कहां है या मुसलमान कहां है?’
संभवतः इसी आधी-अधूरी प्रगतिशीलता का ही परिणाम है कि दलित विमर्श ने आक्रामक तेवर अपनाते हुए प्रेमचंद समेत संपूर्ण प्रगतिशील परम्परा का ही उच्छेदन शुरू कर दिया। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ‘स्वानुभूति बनाम सहानुभूति’ की बहस ‘दलितों द्वारा, दलितों का, दलितों के लिये’ की अति तक पहंची तो मुख्यधारा के लेखकों ने ‘दलित विमर्श’ को ही खारिज करने की मुद्रा अपना ली। Dalit VImarsh Marxvad Hindi Article Alochana
यह वास्तव में विडम्बनात्मक है कि जब तक सामाजिक असमानता के प्रश्न स्वाधीनता आन्दोलन से बेदखल थे, तब प्रगतिशील लेखन आंदोलन ने इसे अपनी पूर्व-पीठिका बनाया था। आज पचहत्तर वर्ष बाद जब सामाजिक न्याय का प्रश्न राजनीति, इतिहास और समाजशास्त्र में केन्द्रीयता प्राप्त कर चुका हो तब यह प्रगतिशील साहित्य की मुख्यधारा से बेदखली की आशंका से ग्रस्त है। स्वीकार करना होगा कि समूचा प्रगतिशील और वाम सांस्कृतिक आन्दोलन आज गहरे वैचारिक संकट से गुजर रहा है। आजादी के पूर्व के वर्षों में रचना, विचार और संघर्ष की जो एकरूपता प्रगतिशील लेखन आन्दोलन ने अर्जित की थी, आज वह बिखर-सी गई है। जरूरत है अपनी उस विरासत की पुनप्र्राप्ति की।
आज कश्मीर से उत्तर-पूर्व तक, दंडकारण्य से सुदूर दक्षिण तक भारत के खेत, खदान, जंगल और पहाड़ियों तक जनाक्रोश का सैलाब उमड़ रहा है। जब अरुंधती राय सरीखी अंग्रेजीदां अभिजात लेखिका इन आवाजों को सुन पा रही हैं, तब प्रगतिशील और पक्षधर लेखक ‘सर्वसहमति’ के मुद्दों तक स्वयं को कैसे सीमित रख सकते हैं। जरूरत है वर्ण और वर्ग से मुक्त होकर जोखिम के क्षेत्र में जाने और अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की।
प्रगतिशील लेखक संघ के मंच से आरक्षण का विरोध ! – वीरेन्द्र यादव
‘शुक्रवार’ 28 अक्टूबर से 3 नवंबर, 2011 में पृष्ठ 64-65 पर प्रकाशित
इस बहस से संबंधित एक अन्य लेख देखें किस प्रलेस की बात कर रहे हैं आप -कवितेन्द्र इन्दु
Is Manch pr kbhi caste k oppose kyu nhi hota hai….vese hmko to yhi lgta h is Manch pr upper caste k bol bola h or vh log apne fayde ki baat krege….smaj m har verg ki baat krne k liye hi ye manch hona chahiye ..nhi to yese mancho ki kya jrurt.