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राष्ट्रªीय आन्दोलन की ऐतिहासिक आवष्यकताओं नेे राष्ट्रªवादी इतिहास-लेखन को जन्म दिया। नए हिन्दीभाषी मध्यवर्ग ने एक ओर औपनिवेषिक शासन से और दूसरी ओर सरकारी नौकरियों में उर्दू-वर्चस्व की परिस्थिति से जूझते हुए हिन्दी को राजकाज की भाषा के रूप में स्थापित करने और नए हिन्दीभाषी समुदाय को एक जाति के रूप में संगठित करने का अभियान चलाया। जाति यानी एक ऐसा समरूप संास्कृतिक-राजनैतिक समुदाय जिसके पास साझे संास्कृतिक प्रतीक, साझी स्मृतियां, राजनैतिक संगठन और एक समान सामाजिक-आर्थिक उद्देष्य हों। इनमें से अन्तिम को छोड़कर शायद ही कोई चीज ऐतिहासिक रूप से पहले से मौजूद थी। देखना कठिन नहीं है कि इसी एक चीज ने – आर्थिक-सामाजिक उदेष्यों की एकता ने – राजनैतिक और संाकृतिक एकता की ऐतिहासिक जरूरत पैदा की थी, जिसके आधार पर एक नए संास्कृतिक इतिहास का गठन किया जा रहा था। इसे हम जातीय गठन की प्रक्रिया भी कह सकते हैं। रामविलास जी ने भी अगर ऐसा ही समझा तो वह अकारण नहीं था। हिन्दी जाति की उनकी धारणा का सम्बन्ध इसी प्रक्रिया से था। लेकिन वे इस प्रक्रिया के संकीर्ण साम्प्रदायिक आधार को न देख सके और उसे इतिहास के जनतंात्रिक होते जाने की स्वाभाविक परिणति समझ बैठे, जो कि एक हद तक वो थी।
नए हिन्दीभाषी मध्यवर्ग के जातीय संगठन के निमित्त साझे भाषिक-संाकृतिक इतिहास की जरूरत थी। इसी जरूरत से हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन की जद्दोजहद शुरू हुई। मगर यह भी सुनिष्चित हो गया है कि इस इतिहास से उर्दू की साहित्यिक परम्परा पूरी तरह बहिष्कृत रहेगी। भले ही वह एक ऐसी परम्परा थी जो हिन्दी के भाषिक और साहित्यिक विकास के साथ नाभिनालबद्ध थी।
आचार्य शुक्ल के इतिहास-लेखन को उपरोक्त सभी प्रेरणाएं प्रभावित कर रही थीं। आधुनिक वस्तुवादी वैज्ञानिक चेतना का विकास, औपनिवेषिक इतिहासलेखन बरक्स राष्ट्रªवादी इतिहासलेखन, पौर्वात्यवाद, राष्ट्रªीय आन्दोलन, नए हिन्दीभाषी मध्य वर्ग की संास्कृतिक राजनीतिक जरूरतें और उर्दूभाषी भद्रवर्ग के साथ उसकी राजनीतिक प्रतिस्पर्धा – इस समग्र ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में न रखने से आचार्य शुक्ल की इतिहासदृष्टि के मूल्यांकन में अन्याय होता आया है। मध्यकालीन इतिहास के सन्दर्भ में हिन्दू-मुस्लिम तनाव को सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कारक के रूप में देखना, प्राचीन भारत की शास्त्रीय परम्परा को चुनौती देने वाले कवियोें-लेखकों के प्रति उपेक्षा और असहिष्णुता का भाव और साहित्य में ऐसे सभी तत्वों को अभारतीय मानने की प्रवृत्ति – ये तमाम विषेषताएं इसी मिले-जुले ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की देन है। इसी तरह काव्य में चमत्कार, अलंकृत, रहस्य और व्यक्ति-केन्द्रिकता के प्रति उनका अस्वीकार भाव भी।
आचार्य शुक्ल का युगान्तकारी योगदान यह था कि उन्होंने साहित्य के साथ समाज और इतिहास के घनिष्ट सम्बन्ध को पहचाना और इस तरह उन्होंने पहली बार हिन्दी आलोचना को वैज्ञानिकता, प्रामाणिकता और शास्त्रीय गम्भीरता का स्पर्ष दिया। दूसरे उन्होंने हिन्दीभाषी समुदाय के लिए एक विवेकसम्मत, विषद और विष्वसनीय संास्कृतिक परम्परा यानि एक पूरा इतिहास ढंूढ निकाला। इस इतिहास के बिना एक जातीय भाषा के रूप में हिन्दी की पहचान बन नहीं सकती थी। उस युग के हिन्दीभाषी नए मध्यवर्ग की ऐतिहासिक-संास्कृतिक जरूरतें उनके ही हाथों पूरी हुई। उन्होंने अपने इतिहास में हिन्दी-उर्दू इलाके की तमाम बोलियों और भाषाओं को हिन्दी में समाहित कर लिया। एक उर्दू को छोड़कर। उनके साहित्येतिहास से हिन्दीभाषी समुदाय को केवल इतिहास ही नहीं, अस्मिता भी मिली। हां, इस प्रक्रिया मे समान संास्कृतिक परिवेष में सांस लेने वाला एक पूरा समुदाय – उर्दू तहजीब से जुड़ा हुआ समुदाय – धीरे-धीरे दूर होता हुआ सम्भवतः हमेषा-हमेषा के लिए उससे विच्छिन्न हो गया। यह हमारे राष्ट्रªीय इतिहास की एक अलग त्रासदी है। इस त्रासदी के निर्माताओं में आचार्य शुक्ल जी की क्या जगह थी, कहीं वह खुद इस त्रासदी के एक शिकार तो नहीं थे- इतिहास के ऐसे सवालों के सटीक जवाब सदा सम्भव नहीं होते।
आचार्य शुक्ल ने एक परम्परा खोजी तो पण्डित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने, बकौल डाॅं. नामवर सिंह, एक दूसरी परम्परा की खोज की। यह दूसरी परम्परा उनकी थी जिनके लिए पहली परम्परा सम्मानपूर्ण स्थान नहीं था। पहली षिकार तो परम्परा तुलसीदास की थी तो दूसरी परम्परा कबीर की। सन् 1941 के प्रारम्भ में आचार्य शुक्ल का निधन हुआ। द्विवेदी जी की महत्वपूर्ण रचना ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ तब तक प्रकाषित हो चुकी थी। यह राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रौढ़तम चरण था। आन्दोलन में ‘उच्च-भ्रू’ सवर्ण नेताओं का एकाधिकार प्रभुत्व संकटग्रस्त हो चला था। राष्ट्रीय आन्दोलन ने जिस राष्ट्रीय परम्परा की रचना की थी उसे और अधिक उदार बनाने की ऐतिहासिक जरूरत आन पड़ी थी। भारतीय समाज के उपेक्षित उत्पीड़ित दलित समूहों के राष्ट्रीय आन्दोलन से दूर छिटक जाने का खतरा सामने था। राजनीतिक स्तर पर गंाधी-अम्बेडकर विवाद के रूप में संकट प्रकट हुआ तो सामाजिक-संास्कृतिक स्तर पर महाराष्ट्र मेें और दक्षिण भारत में दलितों-अछूतों के जागरण में उसकी अभिव्यक्ति हुई। शास्त्रीय ब्राह्मणी परम्परा का प्रतिरोध करते इस वैकल्पिक राष्ट्रीय जागरण में ज्योतिबा फुले से लेकर पेरियार तक के आन्दोलन शामिल थे। उत्तर भारत के संास्कृतिक परिवेष में इस संकट की धमक तेज होती, इसके पहले ही पण्डित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस दूसरी परम्परा की खोज कर डाली और भावी इतिहास के विद्रोहियों को आदरपूर्वक अपनी ही पंात में बिठा लिया। शायद इसी ‘अपराध’ के कारण आज के कुछ दलित आलोचक पण्डित जी से खासे नाराज हैं। गौरतलब है कि द्विवेदी जी की दूसरी परम्परा का पहली परम्परा से कोई मूलभूत अलगाव नहीं है। विद्रोही कम, अधिक-से-अधिक वह एक वैकल्पिक परम्परा है, एक मतवैभिन्य है। दोनों परम्पराओं में भिन्नता जितनी है, उससे अधिक एकता और समानता है। यही कारण है कि यह कथित दूसरी परम्परा दरअसल ‘भारतीय चिन्ता का स्वाभाविक विकास’ ही है, कोई असहज-विरोधी-प्रतिरोधी परम्परा नहीं। धर्मषास्त्र लोकधर्म की ओर झुकता है, लोकधर्म शास्त्र का सहारा प्राप्त करता है और दोनों एकमेक होकर ‘भारतीय साहित्य की प्राणधारा’ बन जाते है। इस तरह आचार्य शुक्ल ने हिन्दी की जिस महान साहित्यिक परम्परा का निर्माण किया था, और जिसे नई उठती हुई राष्ट्रीयता की भावना की गरिमा से सम्बद्ध किया था, द्विवेदी जी ने उसे अधिक समावेषी, उदार और जनतान्त्रिक रूप देकर पुनर्परिभाषित किया। यह राष्ट्रीय आन्दोलन के अधिक व्यापक हो जाने के खास ऐतिहासिक क्षण की फलश्रुति थी। आचार्य शुक्ल और पण्डित द्विवेदी दोनों ने अपने-अपने ‘इतिहासों’ के जरिए अपने-अपने समय की ऐतिहासिक जरूरतों को पूरा किया।(दो)
माक्र्सवादी आलोचना के प्रसंग में ‘इतिहास’ और ‘परम्परा’ के सवाल पर आने से पहले हिन्दी आलोचना की विषद पृष्ठभूमि पर एक समीक्षात्मक निगाह डाल लेना जरूरी था, क्योंकि हिन्दी की आरम्भिक माक्र्सवादी आलोचना दृष्टि पर इसका गहरा असर है। जिस समय पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी की प्रतिभा हिन्दी में शुक्लोत्तर आलोचना का नया ‘क्रान्तिकारी’ अध्याय लिख रही थी, लगभग उसी समय हिन्दी आलोचना में क्रान्ति का एक दूसरा स्वर भी उभरने लगा था। सोवियत रूस की क्रान्ति, नई सोवियत सरकार द्वारा पुराने रूसी साम्राज्य के उपनिवेषों की मुक्ति, विष्वषान्ति की ठोस पहल और देष के भीतर पंचवर्षीय योजनाओं की जबर्दस्त सफलता के कारण दुनिया भर में माक्र्सवाद मजदूर वर्ग की क्रान्तिकारी विचारधारा के रूप में प्रतिष्ठित हो चला था। तीसरे-चैथे दषक के आते-आते भारत में भी इसकी रानीतिक और संास्कृतिक अनुगंूजें स्पष्ट सुनाई देने लगी थीं। किसानों-मजदूरों के वर्गीय संगठन बनने लगे थे। राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ-साथ उनके अपने आन्दोलन खड़े होने लगे थे। 1925 तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी वजूद में आ चुकी थी।
उपनिवेषवाद-विरोधी संघर्ष में राष्ट्रीय आन्दोलन के सामने यक्षप्रष्न यह था कि बाहरी शत्रु से लड़ते हुए आन्तरिक अन्तर्विरोधों का क्या किया जाए? उस समय देष के सम्भ्रान्त तबकों की सबसे बड़ी आकांक्षा थी – राजनीतिक स्वषासन। लेकिन, दलितों, वंचितों, किसानों मजदूरों के लिए आन्तरिक शोषकों से मुक्ति का सवाल सबसे बड़ा सवाल था। उनके लिए प्रत्यक्ष शोषक तो देसी कुलीन लोग ही थे। पंूजीपति, महाजन, साहूकार, जमींदार तथा भारत का सर्वण उच्च वर्ग। औपनिवेषिक शोषण के सूत्र उनके निजी अनुभव के संसार के बहुत दूर थे। ऐसे अवसरों की भी कमी नहीं थी जब औपनिवेषिक शासन द्वारा कायम की गई समानता के सिद्धान्त पर आधारित कानून व्यवस्था ने उन्हें देषी शासकों के शोषण और अत्याचार से बचाया था। ऐसे निजाम के खिलाफ अपने प्रत्यक्ष शोषक के साथ मिलकर लड़ाई में जुट जाना कठिन था। खासकर जब यह भी स्पष्ट नहीं था कि औपनिवेषिक शासन के खात्मे के बाद जब इन्हीं पंूजीपतियों जमींदारों के हाथों में देष की सत्ता आएगी तब बुनियादी मेहनती वर्गों के साथ उनका सलूक पहले से कुछ बेहतर होगा या नहीं!
भारत के शुरूआती कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के सामने यह बात स्पष्ट थी कि राष्ट्रीय आन्दोलन में उन्हें किसानों-मजदूरों की अनुपस्थित आवाज की नुमाइंदगी करनी है। राष्ट्रीय आन्दोलन के एजेण्डे में उत्पीड़ितों-वंचितों के अधिकारों का सवाल शामिल करना है। समूचे राष्ट्रीय आन्दोलन को वामपंथी मोड़ देने और उस पर जहां तक सम्भव हो श्रमिक वर्गों का नेतृत्व कायम करने की कोषिष करनी है। यह स्पष्ट था कि ऐसा ना होने पर आने वाली आजादी उत्पीड़ितों की नहीं, उत्पीड़कों की होगी। कम्युनिस्टों की आरम्भिक समझदारी थी कि यह कार्य कांग्रेस के भीतर रहते हुए उसके कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हुए ही करना है। कांग्रेस राष्ट्रीय आन्दोलन का जनमंच बन चुकी थी। इसलिए कांग्रेस से अलग जाने का अर्थ था सामान्य जनता की निगाह मेें अपनी राजनैतिक वैधता को संदिग्ध बना लेना। सहयोग करते हुए अपनी नीतियों के लिए अधिकाधिक समर्थन जुटाते चलने की रणनीति ही श्रेयस्कर थी। तत्कालीन कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर एक दूसरी प्रवृत्ति भी थी। उग्रवामपंथी सोच रखने वाला एक समूह कांग्रेस समेत समूचे संभ्रान्त नेतृत्व के प्रति सदैव संषयग्रस्त रहा करता था जब कभी अवसर मिला, उसने कम्युनिस्ट आन्दोलन को कांग्रेसी अभियान के साथ सहयोगी की जगह विरोधी की स्थिति में खड़ा करने की कोषिष की। लेकिन कम्युनिस्ट आन्दोलन के ‘वाम’ और ‘दक्षिण’ धड़ों में कब कौन प्रभावी होगा, यह हमेषा उनकी आपसी बहसों और अपनी स्थितियों पर ही निर्भर नहीं करता था। प्रायः अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की परिस्थितियों और फैसलों का प्रभाव निर्णायक होता था। कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर ‘संयुक्त मोर्चे’ के हिमायतियों और ‘षुद्धतावादियों’ के बीच की कषमकष का हिन्दी के माक्र्सवादी लेखकों, आलोचकों पर सीधा और गहरा असर पड़ा।
1935 में लन्दन में गठित ‘इडियन प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिषएन’ के घोषणापत्र का निम्नलिखित अंष अक्सर उद्धृत किया जाता है। आरम्भिक माक्र्सवादी आन्दोलन के संकीर्णतावादी शुद्धतावादी नजरिए को प्रभावित करने के लिए इतनी बार इसका उपयोग किया गया है कि इसका वास्तविक अभिप्राय हिन्दी साहित्येतिहास के विद्यार्थियों की आंखों से प्रायः ओझल रहा है।
‘‘भारतीय साहित्य पुरानी सभ्यता के नष्ट हो जाने के बाद से जीवन की यथार्थताओं से भागकर उपासना और भक्ति की शरण में जा छुपा है। नतीजा यह हुआ कि वह निस्तेज और निष्प्राण हो गया है, रूप में भी और अर्थ में भी। आज हमारे साहित्य में भक्ति और वैराग्य की भरमार हो गई है। भावुकता का ही प्रदर्षन हो रहा है, विचार और बुद्धि का एक प्रकार से बहिष्कार कर दिया गया है। पिछली दो सदियों में विषेषकर इसी तरह का साहित्य रचा गया, जो हमारे इतिहास का लज्जास्पद काल है।’’
पिछली दो सदियों के साहित्य को लज्जास्पद बताना इतना बड़ा कुफ्र था कि इससे जो चीख-पुकार मची, उसमें इस घोषणापत्र ने अपने समय के साहित्य से जो वास्तविक मांग की थी, उस पर समुचित ध्यान न दिया जा सका। वह मांग कुछ इस तरह थी।
‘‘हमारी धारणा यह है कि भारत के नए साहित्य को हमारे वर्तमान जीवन के मौलिक तथ्यों का समन्वय करना चाहिए और वे हैं, हमारी रोटी के, हमारी दरिद्रता के, हमारी सामाजिक अवनति के और हमारी राजनीतिक पराधीनता के प्रष्न।’’
घोषणापत्र का मंतव्य बिल्कुल स्पष्ट था। चोट मुख्यतः समसामयिक साहित्य पर की गई थी और कुछ रीतिकालीन साहित्य पर, न कि पूर्वमध्यकालीन भक्ति साहित्य पर। असली निषाने पर थी छायावाद की अतिभावुकता। और रहस्यवादी पलायनवादी अध्यात्म। आज हमें भक्ति-वैराग्य, श्रृंगार और वैयक्तिक भावुकता का साहित्य नहीं चाहिए, बल्कि ऐसा साहित्य चाहिए जो हमारे समय के आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ को समझने और उससे संघर्ष करने में हमारी सहायता करे। यानि वह विचारप्रवण हो। यथार्थ की ओर उन्मुख हो, न कि पराङमुख। यह साहित्य की वह नई समझ थी, प्रेमचन्द पहले से ही जिसकी अगुआई करते आ रहे थे। उन्हे 1936 में लखनऊ में भारतीय प्रगतिषील लेखक संघ के पहले सम्मेलन की अध्यक्षता करने में कोई उज्र न हुआ, बल्कि गहरी प्रसन्नता और सन्तोष का अनुभव हुआ।
संकट जिस बात से पैदा हुआ था वह था प्रगति और परम्परा के बीच का वह तीखा अन्तर्विरोध जिसे घोषणापत्र में बिना किसी हिचक के दो टूक शब्दों में उजागर कर दिया गया था। विरोधों के बावजूद प्रेमचन्द की बढ़ती हुई लोकप्रियता से स्पष्ट था कि नए प्रगतिषील साहित्य की जरूरत व्यापक रूप से महसूस की जा रही थी। तो भी उस युग के सम्भ्रान्त हिन्दी लेखकों-पाठकों को पिछली दो सदियों की समूची साहित्यिक परम्परा के प्रति आलोचनात्मक और निषेधात्मक रवैया नाकाबिलेबर्दाष्त था। इससे उपजने वाला हीनभाव राष्ट्रीय संघर्ष के सन्दर्भ में सांघातिक हो सकता था। अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा की खोज और उसके प्रति गर्व की भावना ‘असभ्यों’ को ‘सभ्य’ बनाने के औपनिवेषिक तर्क के प्रतिकार के लिए अपरिहार्य थी। तर्क ही नहीं संघर्ष के लिए जरूरी आत्मविष्वास और मानसिक संकल्प के लिए इस परम्परा का महत्व था। जहां तक हिन्दी लेखकों का सवाल था, उनका नवजात ऐतिहासिक सांस्कृतिक अस्तित्व उसी सांस्कृतिक परम्परा पर निर्भर था जिसकी इतनी कठोर निन्दा की जा रही थी। हिन्दीभाषी समुदाय के रूप में अपनी पहचान कायम करने के संघर्ष में उलझे इन महानुभावों के लिए साहित्येतिहास की इस गौरवमय परम्परा के अलावा और कोई पायेदार आधार सुलभ न था। परम्परा के प्रति आलोचनात्मक होना, परम्परा के अवधारणा के प्रति संदेहषील नजर आना, ‘परम्परा’ के नकार को ‘प्रगति’ की जरूरी शर्त समझना एक नया क्रान्तिकारी दृष्टिकोण था, जिसे हिन्दी में माक्र्सवादी लेखकों ने ही सबसे पहले प्रस्तावित किया था। महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में दलित चिन्तकों ने भी परम्परा के प्रति ही रूख लिया था। उत्पीड़ितों की निगाह में परम्परा उत्पीड़न की होती है। विद्रोह की शुरूआत परम्परा की आलोचना से होती है।
राष्ट्रवादी इतिहासदृष्टि के विपरीत माक्र्सवाद परम्परा के प्रति श्रद्धाभाव की जगह विवेकसम्मत आलोचनात्मक रवैये को प्रतिष्ठित करता है। इतिहास के द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी विष्लेषण का निचोड़ यह है कि परम्परा के सकारात्मक निषेध का ही दूसरा नाम प्रगति है। अतएव प्रगति के लिए परम्परा के प्रति आलोचनात्मक विवेक जरूरी है। दुहराना अनुचित न होगा कि यह आलोचनात्मक विवेक परम्परा के किन्हीं खास तत्वों के लिए नहीं, ‘परम्परा’ की अवधारणा मात्र के लिए, परम्परा की अवधारणा में निहित परम्परवाद को पहचानने के लिए जरूरी है। किसी भी चीज को महज इसलिए वैधता नहीं दी जा सकती कि वह परम्परा में शामिल है। परम्परा में शामिल समझी जाने वाली प्रत्येक चीज सामयिक विवेक की कसौटी पर कसी जाए, यह जरूरी है। सामाजिक मूल्यवत्ता की कसौटी विवेक ही हो सकता है परम्परा नहीं। यह परम्परा के प्रति नवजागरणकालीन राष्ट्रवादी रवैये से नितांत भिन्न दृष्टि है। अगर कोई चीज परम्परा से समर्थित है तो उस पर आंख मंूदकर भरोसा कर लेने से सन्देह करना अधिक विवेकपूर्ण है। घोषणा पत्र के लेखकों का मूल मंतव्य यही था। मगर उपनिवेषविरोधी संघर्ष के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में खुद माक्र्सवादी लेखकों के भीतर इस सवाल पर कुछ ऐसी मारामारी हुई कि आगे चलकर घोषणा पत्र से इस अंष को बाकायदा हटा लेना पड़ा।
घोषणापत्र का ऐतिहासिक महत्व स्थापित साहित्यिक परम्परा के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि विकसित करने के साहसिक प्रयत्न में निहित था। इस प्रयत्न में सरलीकरण और यान्त्रिकता रही हो, तो भी इसने हिन्दी आलोचना में परम्परा के विषय एक ऐसी गम्भीर बहस की शुरूआत कर दी जो आज सदी के बदल जाने के बाद भी जारी है। वैसे इस बहस के लपेटे में हिन्दी की समूची साहित्यिक परम्परा थी, लेकिन केन्द्र में भक्तिकाव्य था। बहस अब तुलसी कबीर जैसे भक्त कवियों के तुलनात्मक महत्व के विषय में न होकर भक्तिकाव्य में निहित ‘सामाजिक प्रतिक्रियावाद’ और ‘पलायनवाद’ जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियों के विष्लेषण पर केन्द्रित हो रही थी। भक्तिकाव्य जैसा शान्त और उदात्त भावनाओं का साहित्य लम्बे समय के लिए ‘इतिहास’ और ‘परम्परा’ के प्रसंग में विवादों की रणभूमि बन गया। हिन्दी में विचारधारात्मक संघर्ष के रूप में वर्ग संघर्ष की छाया भक्तिकाव्य सम्बन्धी विवाद में जितनी स्पष्ट है, उतनी और कहीं नहीं।
घोषणापत्र में परम्परा की आलोचना का जो सूत्र निहित था उसका पूर्ण तार्किक प्रस्फुटन षिवदान सिंह चैहान द्वारा लिखित ‘भारत में प्रगतिषील साहित्य की आवष्यकता’ शीर्षक लेख में हुआ जो कि मार्च 1937 ई. के ‘विषाल भारत’ में प्रकाषित हुआ। शीघ्र ही इसी ढंग का उनका एक दूसरा लेख ‘हिन्दी कविता में सौन्दर्य भावना’ उन्हीं के संपादन में कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा प्रकाषित पहली हिन्दी पत्रिका ‘प्रभा’ में प्रकाषित हुआ। स्थितियों के जिस दबाव मेें घोषणापत्र में संषोधन करना पड़ा था, कुछ वैसी ही स्थितियों के चलते षिवदान जी को जल्दी ही इन लेखों में निहित ‘भौड़े समाजषास्त्र’ का अहसास हो गया। उन्होंने अपने किसी संग्रह में इन लेखों को शामिल करना ठीक न समझा, बल्कि छायावादी कविता का पुनः अध्ययन कर ‘छायावादी कविता में असन्तोष भावना’ शीर्षक से सन् 1938 में एक लेख ही तैयार कर डाला।
इस उहापोह को उक्त लेख के बारे में उनकी अपनी ही इसी टिप्पणी से बेहतर समझा जा सकता है – ‘‘…उस लेख ने छायावादी कविता का प्रगतिवादी दृष्टि से मूल्यांकन करने की अधिक सूक्ष्म, साहनुभूतिपूर्ण और उदार कसौटी पेष की थी। मुझसे पूछिए तो यह लेख भी उस जमाने के माक्र्सवादी साहित्यालोचना की मतवादी संकीर्णताओं से पूरी तरह मुक्त नहीं था। हो भी नहीं सकता था, जबकि बर्नड शाॅ, इब्सन और थामस मान जैसे बूज्र्वा-समाज के तीखे आलोचकों का रचा साहित्य यूरोप तथा सोवियत यूनियन के प्रमुख आलोचकों की नजर में कब्रिस्तान का साहित्य था। लेकिन इतना तो है कि इस लेख और सुमित्रानन्दन पंत की ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ की समीक्षा वाले लेख से माक्र्सवादी आलोचना में वल्गर सोषियोलाॅजी की संकीर्णताओं के विरूद्ध उस प्रक्रिया की शुरूआत तो हो ही गई थी, जो इतिहास के परिप्रेक्ष्य में परम्परा की प्रगतिषील और जीवन्त उपलब्धियों को स्वीकारते हुए, उन्हें अपने अन्दर समोते हुए, युग के नए तकाजों और चुनौतियों का सामना करते हुए, मनुष्य के चिन्तन और आध्यात्मिक विकास के नए आयाम जोड़ती है।’’
इस टिप्पणी से उस संघर्ष का खुलासा होता है जो उस युग में परम्परा के सवाल पर हिन्दी आलोचना के माक्र्सवादी खेमे में था। टिप्पणी के अन्तिम हिस्से में परम्परा के विषय में जिस नए दृष्टिकोण का प्रस्ताव किया गया है उसे अपने धंुआधार सैद्धान्तिक और व्यावहारिक आलोचनात्मक अभियानों के जरिए हिन्दी में स्थापित करने का श्रेय रामविलास शर्मा को है। यों इस टिप्पणी से जाहिर है कि टिप्पणीकार कम-से-कम इसकी शुरुआत का श्रेय अपने लिए सुरक्षित कर लेना चाहता है। जो भी हो, साल-दो-साल के भीतर ही ऐतिहासिक महत्व के अपने पुराने क्रान्तिकारी लेख को अस्वीकार करते हुए परम्परा के सम्बन्ध में एक नए दृष्टिकोण की खोज में जुट जाने के इस साहस की तो दाद देनी ही होगी। इस घटना से अनुमान किया जा सकता है कि उस युग में परम्परा के सवाल पर नवजागरणप्रेरित राष्ट्रवादी दृष्टिकोण का दबाव कैसा था।(तीन)
आलोचना में इतिहास की भूमिका पर चार आलोचना दृष्टियों को किंचित सरलीकरण के साथ कुछ इस तरह सूत्रबद्ध किया जा सकता है – शुक्ल जी और द्विवेदी जी इतिहास में गए थे अपनी महान ‘परम्परा’ की खोज करने। द्विवेदी जी द्वारा खोजी गई परम्परा ‘दूसरी’ थी या पहली का विस्तार मात्र, इस पर मतवैभिन्य हो सकता है। पर ये दोनों इतिहासदृष्टा आलोचक मूलतः उस नवजागरण-प्रेरित राष्ट्रवादी विचारधारात्मक परियोजना के पुरोधा थे, ‘परम्परा की खोज’ जिसका एक केन्द्रीय थीम थी। द्विवेदी जी की परम्परा शुक्ल की तुलना में अधिक उदार और समावेशी है मगर वह ‘भारतीय’ भी अधिक हैं, जिसकी ताईद इस्लाम के न आने पर हिन्दी साहित्य के बारह आने के वैसे ही होने की बात पर उनके ‘जोर’ देने से भी होती है। दोनों के ही यहां परम्परा एक महत्वपूर्ण प्रतिमान है। यही शिवदान सिंह चैहान, प्रकाशचन्द्र गुप्त और रांगेय राघव प्रभृति आरम्भिक माक्र्सवादी आलोचकों की असहमति का मुख्य बिन्दु है। माक्र्सवादी लेखकों को ‘इतिहास’ गढ़ना नहीं था, इतिहास बदलना था। कला और साहित्य की ‘महान’ परम्पराओं ने उत्पीड़ितों का भाग्य बदलने में कोई भूमिका नहीं निभाई। अधिक सम्भावना है कि उसे बनाए रखने में ही मदद की। माक्र्सवाद के अनुसार साहित्य अन्ततः ऐतिहासिक सामाजिक चेतना का एक रूप है। शोषण के इतिहास का प्रतिरोध विकसित करने के लिए उससे जुड़ी हुई चेतना का खण्डन अपरिहार्य है। इसके लिए परम्परा को गौरवान्वित करने की नहीं, उसके प्रति आलोचनात्मक रवैया अपनाने की जरूरत है। प्रगतिशीलता का यही तकाजा है। लेकिन इस प्रक्रिया में इतिहास और साहित्य के बीच की द्वन्द्वात्मकता का ध्यान रखना भी आवश्यक है। चैहान और उनके साथियों के लेखन में इस द्वन्द्वात्मकता का सर्वत्र निर्वाह नहीं हो पाया। वे साहित्य को इतिहास के अनुुचर की तरह देखते प्रतीत होते हैं, रचयिता की तरह नहीं। इसी गलती के अहसास ने चैहान को अपने आरम्भिक लेखों को नामंजूर करने को विवश किया। साहित्य और इतिहास के रिश्ते को शुक्ल जी और द्विवेदी जी की आलोचना में जिस रूप में रेखांकित किया गया था, उसमें साहित्य का महत्व इतिहास का संक्रमण करने में है, उससे बंधे रहने में नहीं। आचार्यों की दृष्टि यह थी कि प्रत्येक सार्थक साहित्यिक कृति ऐसा ही करती है। इतिहास से जन्म लेकर भी वह अपना एक स्वायत्त जीवन प्राप्त कर लेती है। श्रेष्ठ रचना अपने युग की उच्चतम चेतना को प्रकट करती है। वह अपने युग के अन्तर्विरोधों को स्वतः अतिक्रमित कर जाती है। माक्र्सवादी आलोचकों को ही पहलेपहल इस विश्वास पर सन्देह करने की जरूरत महसूस हुई। माक्र्सवादी आलोचना की यह कोई साधारण उपलब्धि न थी कि महान से महान समझी जाने वाली रचना भी उस अलौकिक पवित्रता के आवरण से मुक्त होकर अपनी ऐतिहासिक पार्थिवता में देखी और सराही जा सकने के काबिल हुई, जिस की ओट में ‘महान’ रचनाओं में निहित ‘संकीर्ण’ मंतव्यों जैसे कि वर्णाश्रम की प्रतिष्ठा या नारीनिन्दा आदि को लोगों के गले उतारा जा सकता था।
यह तो हुआ रचना को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखना और यह माक्र्सवादी आलोचना के विकास की दिशा में पहला जरूरी कदम था। पर ठीक यहीं आलोचना में इतिहासदृष्टि के उपयोग के सवाल पर माक्र्सवादी आलोचना की क्लासिकी उलझन से हमारा सामना होता है। क्या कोई साहित्यिक कृति अपने समय की ऐतिहासिक चेतना के रूप में उस युग की प्रभुत्वशाली विचारधारा का प्रतिबिम्ब मात्र है? तब साहित्य और इतिहास में फर्क क्या है? वह कलात्मक सौन्दर्य किसी कृति में कहां से आता है जा उसे इतिहास या समाजशास्त्र से अलग करता है? क्या वह एक विशिष्ट शैली मात्र है? किसी साहित्यिक रचना में व्यक्त चेतना को यदि हम उसके ऐतिहासिक समय की प्रभुत्वशाली सामाजिक-राजनीतिक विचारधारा से तद्रूप कर देखेंगे तो इसी नतीजे पर आने को बाध्य होंगे। माक्र्सवादी आलोचना की शब्दावली में इसी को ‘कुत्सित समाजशास्त्र’ कहते हैं। आलोचकों ने इसे पहचानने में देर न की, न इससे पार पाने की कोशिशें शुरू करने में।
इस दृष्टि से माक्र्सवादी आलोचना को अगले चरण तक ले जाने का श्रेय निःसन्देह डाॅं. रामविलास शर्मा को है। आलोचना में इतिहास के परिप्रेक्ष्य को दुरूस्त करते हुए उन्होंने ध्यान दिलाया कि कोई बड़ी साहित्यिक कृति अपने समय की प्रभुत्वशाली विचारधारा को प्रतिबिम्बित मात्र नहीं करती, उससे संघर्ष भी करती है। इसी संघर्ष से उसे अपने समय की चेतना को गहराई से समझने और उसे प्रश्नांकित कर पाने की सम्भावना मिलती है। इसी को यूं भी कह सकते हैं कि जो रचनाएं ऐसा कर पाती हैं वही सच्चे अर्थों में ‘कालजयी’ होती हैं। रचना का इतिहास से यान्त्रिक सम्बन्ध नहीं होता । वह द्वन्द्वात्मक और जीवंत होता है। माक्र्सवादी आलोचना का काम रचना में निहित इस ऐतिहासिक संघर्ष को रेखांकित करना है। इसी सूत्र के सहारे रामविलास जी ने भक्तिकाल से लेकर छायावाद तक के कवियों की समीक्षा की है। तभी पता चला कि रचना के अन्तर्निहित सौन्दर्य और शक्ति को उजागर करने के लिहाज से ऐतिहासिक पद्धति का सचमुच कोई विकल्प नहीं है, बशर्ते उसका उपयोग द्वन्द्वात्मक अन्तर्दृष्टि के साथ किया जाए। पता चला कि तुलसी साहित्य वर्णाश्रम-समर्थक या नारी-निन्दक घोषणाओं के बावजूद महान है तो इसलिए नहीं कि उसने इस्लाम से हिन्दू धर्म की रक्षा की। इसलिए भी नहीं कि उसमें किसी सार्वकालिक लोकमंगल की साधनावस्धा का प्रदीर्घ चित्रण था या फिर समन्वय की कोई विराट चेष्टा। न वह निरे भाषाप्रयोग, काव्यकुशलता या प्रबन्धक्षमता के बल पर अपनी सर्वकालीन श्रेष्ठता कायम रखे हुए है। रामविलास जी ने दिखाया कि दरअसल वह अपने युग के सामन्ती जीवनयथार्थ और उससे उपजने वाली मानवीय त्रासदी को व्यंजित करने के कारण महान है। समय की वर्चस्वमान विचारधारा से ग्रस्त होकर नहीं बल्कि उससे संघर्ष करते हुए तुलसी अपने समय के पारिवारिक सामाजिक जीवन की विडम्बनाओं का इतनी सुक्ष्मता से चित्रण कर पाए। निःसन्देह वे अपने समय की चेतना की परिधि से परे न हो सकते थे। युगीन चेतना की सीमाएं उनकी रचनाओं प्रकट हों, यह स्वाभाविक है। किन्तु कवि के रूप में उनका वास्तविक महत्व उनकी रचनाओं में अन्तर्गुम्फित उन सामन्तविरोधी मूल्यों में है जो सामन्ती जीवन की विडम्बनाओं के चित्रण में प्रकट हुआ है, न कि उनके प्रस्तावित दास्य भक्ति की भावाकुलता में।
ऐतिहासिक दूरी का लाभ उठाकर उस युग की आलोचना पर विचार करते हुए आज सहज ही देखा जा सकता है कि शिवदान सिंह चैहान, प्रकाशचन्द्र गुप्त, रांगेय राघव औैर राहुल सांस्कृत्यायन जैसे माक्र्सवादी आलोचक और इनकी अनेक स्थापनाओं के कटु आलोचक डाॅ. रामविलास शर्मा आपस में सहमत थे कि भक्तिकाव्य में (विशेषकर तुलसीदास में जो कि हिन्दी आलोचना के उस शुक्ल-पक्ष में हिन्दी के सर्वकालिक महानतम कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे), और छायावादी कविता में भी, परस्पर विरोधी तत्व मौजूद हैं। दोनों ही प्रसंगों में स्थिति यह है कि यदि किसी कृति में कुछ तत्व प्रगतिशील मिलते हैं ता उसी कृति में कतिपय दूसरे तत्व प्रतिगामी। यहां तक कि प्रतिक्रियावादी भी। बहस यह थी कि जहां अन्य माक्र्सवादी आलोचक इस अन्तरविरोध को उजागर करते हुए आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक ‘इतिहास’ में इसके प्रतिक्रियावादी सामंती आधार को ढंूढ निकालने को अपना सबसे बड़ा आलोचकीय दायित्व समझते थे, वहीं रामविलास जी परम्परा में निहित प्रगतिशील तत्वों पर जोर देते हुए उसी इतिहास से परम्परा का एक नया चेहरा खोज लाते थे। उस युग में उनके इस कार्य का अतिरिक्त महत्व यह था कि इससे उपनिवेशविरोधी संघर्ष के राष्ट्रीय स्वाभिमान पर बल देने वाले परिप्रेक्ष्य से माक्र्सवाद का सहज ही जुड़ाव हो गया। रामविलास जी की आलोचना से राष्ट्रीय आन्दोलन के इस तर्क को शक्ति मिली कि भारत का अतीत असभ्यता के अन्धकार से ग्रस्त नहीं रहा है। मध्यकालीन यूरोप की तुलना में वह अधिक प्रगतिशील और उज्वल रहा है। इससे प्रगतिशील मूल्यों के रूप में साहित्य की परम्परा के मूल्यांकन की नई ऐतिहासिक कसौटियां भी हासिल हुईं। यह कह पाना सम्भव हुआ कि कबीर और तुलसी जैसे महाकवियों के महत्व का आधार उनके काव्य में व्यक्त सर्वकालिक मानवीय मूल्य जैसे लोकमंगल और समन्वयवाद इत्यादि ही नहीं हैं। उनके रचनात्मक संघर्ष को सामन्तविरोधी संघर्ष के परिपे्रक्ष्य में देख पाना सम्भव हुआ। इसी तरह रामविलास जी की निराला सम्बन्धी आलोचना से छायावादी कविता को उपनिवेशविरोधी राष्ट्रीय संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में देखना सम्भव हुआ।
आचार्य शुक्ल और पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी के आलोचनात्मक कार्य से ‘परम्परा’ आलोचना के एक मूल्य के रूप में स्थापित हो चुकी थी। आरम्भिक माक्र्सवादी आलोचना ने ‘परम्परा’ के प्रति आलोचनात्मक विवेक विकसित करने का आग्रह किया। रामविलास जी ने परम्परा को इतिहास के गतिशील द्वन्द्वात्मक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने और परम्परा के भीतर प्रगति के लिए चलने वाले सतत संघर्ष को रेखांकित करने पर जोर दिया। कुल मिलाकर माक्र्सवादी विश्लेषण की आंच के आगे परम्परा एक स्वतःसिद्ध आलोचनात्मक कसौटी न रही।
रामविलास जी के आलोचना-कर्म से ‘परम्परा’ का अर्थ ही बदल गया। यह सातत्य या दुहराव से अधिक बदलाव को व्यंजित करने लगी। यथास्थितिवादी रूढ़िवादी रक्षणवादी तत्वों और मूल्यों का संग्रहालय बने रहने की जगह न्याय, स्वतत्त्रता और प्रगति की प्रेरणा देने वाली जीवन्त ऐतिहासिक शक्ति के रूप में उसे एक नई परिभाषा मिली। इससे सामन्तविरोधी और साम्राज्यविरोधी संघर्ष को एक जुट करने की सम्भावना पैदा हुई। एक माक्र्सवादी चिन्तक के रूप में रामविलास जी के आलोचनात्मक संघर्ष के यही दो बुनियादी आयाम थे। दोनों को एक सामान्य सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्य में तर्कपूर्ण और विश्वसनीय ढंग से सूत्रबद्ध कर पाना हिन्दी आलोचना में रामविलास जी की विलक्षण उपलब्धि थी।
रामविलास जी के कार्य से इतिहास और साहित्य की द्वन्द्वात्मकता पर तो ध्यान गया, मगर परम्परा के सवाल पर माक्र्सवादी आलोचकों की आपसी बहस खत्म होने की जगह और तेज हो गई। भक्तिकाव्य इसका एक प्रमुख इलाका बना रहा। रामविलास जी की आलोचकीय रणनीति पर सवाल उठाए जाते रहे। जहां किसी कवि की रचनाओं में यथास्थिति की आलोचना मिले वहां प्रगतिशीलता और जहां पिष्टपेषण हो वहां ‘युग की सीमा’ मान लेने भर से बात खत्म नहीं हो जाती। आखिर प्रत्येक बड़े लेखक के पास एक निश्चित रचनात्मक उद्देश्य होना चाहिए। इस रचनात्मक उद्देश्य की खोज आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना न कृति की व्याख्या संभव है, न मूल्यांकन। तुलसीदास के रचनाओं में कबीरदास और गोरख के विचारों का स्पष्ट खण्डन है। अगर तुलसीदास को प्रगतिशील मान लें तो गोरख और कबीर का क्या करें? तुलसीदास में वर्णाश्रम की प्रतिष्ठा, ब्राहम्णश्रेष्ठता की स्थापना, स्त्री की दासीवत पतिपरायण का समर्थन इतनी प्रभूत मात्रा में और इतने बल के साथ है कि प्रगतिशाली के साथ कैसे भी उसकी संगति नहीं बिठाई जा सकती। इसी कठिनाई के चलते डाॅं. शर्मा के लिए भी तुलसी काव्य में मिलने वाली ऐसी पंक्तियों को प्रक्षिप्त माने बिना काम चलाना असम्भव था। तुलसी तो तुलसी, वर्णाश्रम-विद्रोही कबीर में भी नारी-निन्दा और रहस्यवाद की कमी नहीं थी।
किसी साहित्यिक रचना में प्रकट होने वाली विचारधारा को अपने समय की प्रभुत्वशाली विचारधारा के प्रतिबिम्ब मात्र के रूप में ही देखा नहीं जाना चाहिए, यह तो ठीक है। यह भी ठीक है कि हर बड़ी रचना अपने समय के सच का साक्षात ही नहीं करती, उससे जूझती भी है। पर आखिरकार इस जूझने का नतीजा क्या और कैसे निकला है, आलोचक के लिए इस ओर देखना भी जरूरी है। आलोचना का काम रचना में अतर्निहित द्वंद्वों और अन्तर्विरोधों की उपेक्षा करना या उन पर परदा डालना नहीं है, बल्कि उनकी व्याख्या करना है। माक्र्सवादी आलोचना के लिए तो यह और भी अधिक जरूरी है, क्योंकि उसका उदेश्य ही है विचारधारात्मक कलानिर्मितियों के ऐतिहासिक अर्थ-सौन्दर्य का तर्कपूर्ण उद्घाटन। ऐसा न करने वाली आलोचना कृति के सौन्दर्य को अलौकिक मानकर चलने वाली और भाषाई भंवरजाल का सहारा लेकर उसे और अधिक रहस्यमय बना देने वाली कलावादी-रूपवादी आलोचना से भिन्न न होगी। वह व्याख्या करने के जगह एक भ्रम रचेगी जिसमें सौन्दर्यशास्त्रीय या दार्शनिक शब्दावली की जगह ऐतिहासिक शब्दावली का सम्भवतः अधिक उपयोग किया गया होगा।
इस समस्या को पहचानने, उसकी व्याख्या करने और इससे जूझते हुए माक्र्सवादी आलोचना की नई राह निकालने का सबसे श्रमसाध्य बौद्धिक प्रयास किया गजानन माधव मुक्तिबोध ने।(चार)
मुक्तिबोध ने आलोचना में ऐतिहासिक अन्तदृष्टि के उपयोग की निम्नलिखित प्रक्रिया प्रस्तावित की-
‘‘किसी भी साहित्य को हमें तीन दृष्टियों से देखना चाहिए। एक तो यह कि वह किन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शक्तियों से उत्पन्न है, अर्थात् वह किन शक्तियों के कार्यों का परिणाम है, किन सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रियाओं का अंग है? दूसरे यह कि उसका अन्तःस्वरूप क्या है, किन प्रेरणाओं और भावनाओं ने उसके आन्तरिक तत्व रूपायित किए हैं? तीसरे उसका प्रभाव क्या है, किन सामाजिक शक्तियों ने उसका उपयोग या दुरूपयोग किया है और क्यों? साधारण जन के किन मानसिक तत्वों को उसने विकसित या नष्ट किया है?’’
यहां मुक्तिबोध की नजर साहित्य और इतिहास के बीच की द्वन्द्वात्मकता के साथ-साथ इतिहास और साहित्य के भीतरी द्वन्द्वों पर भी है। इतिहास की द्वन्द्वात्मकता कोई एक-आयामी सरलरेखीय द्वैतवाद नहीं है। इसे हम राजनीति में ‘सामन्तवाद’ और साहित्य में ‘सामन्तविरोधी चेतना’ जैसे सरल सूत्रीकरण के सहारे नहीं समझ सकते। प्रत्येक साहित्यिक प्रवृति इतिहास में सक्रिय परस्पर संघर्षशील सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाओं से जुड़ी होती है, लेकिन यह एक गतिशील द्वन्द्वात्मक जुड़ाव है, यान्त्रिक और इकहरा नहीं। कृति के ऐतिहासिक आशय को ग्रहण करने के लिए उस गतिशील संघर्षपूर्ण सामाजिक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को समझना होगा जिसने उसे जन्म दिया हो। देखना होगा कि उस प्रक्रिया से कृति के जुड़ाव की प्रकृति कैसी है और इस जुड़ाव से निःसृत किन प्रेरणाओं ने उसके आन्तरिक तत्व रूपायित किए हैं। कृति की ‘ऐतिहासिक उद्भव-प्रक्रिया’ को समझ लेने के बाद उतना ही जरूरी यह देखना भी है कि एक बार अस्तित्व में आ जाने के बाद उस कृति ने आने वाले इतिहास को कैसे प्रभावित किया है और क्यों ? परिणाम के अध्ययन के बिना इतिहास और साहित्य की द्वन्द्वात्मकता का तर्कचक्र पूरा नहीं हो सकता। मुक्तिबोध ने माक्र्सवादी आलोचना की ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मक दृष्टि को उसके यान्त्रिक सरलीकरण से मुक्त किया और उसे उसकी वास्तविक जटिलता, गूढ़ता और गतिशीलता में प्रतिष्ठित किया।
इस गतिशील ऐतिहासिक समाजशास्त्रीय पद्धति का अनुगमन करते हुए मुक्तिबोध ने भक्तिकाव्य का विश्लेषण किया। ‘‘भक्तिकाल की मूल भावना साधारण जनता के कष्ट और पीड़ा से उत्पन्न है।’’ यह कहकर मुक्तिबोध ने भक्तिकाव्य के आकर्षण के मूल रहस्य पर अंगुली रख दी। ‘… साधारण जनता ने राम को अपना त्राणकर्ता भी पाया, गुह और निषाद को अपनी छाती से लगाने वाला भी पाया’ ऐसा कहकर मुक्तिबोध ने प्रतिक्रियावाद के बावजूद साधारण जनता में तुलसी की लोकप्रियता का रहस्य खोला। ‘तुलसीदास जी की रामायण पढ़ते हुए हम एक अत्यन्त महान व्यक्तित्व की छाया में रहकर अपने मन और हृदय का आप-ही-आप विस्तार करने लगते हैं’ , मुक्तिबोध ने बेहिचक स्वीकार किया। आलोचना के नए उत्साह में आरम्भिक माक्र्सवादी आलोचक इस सत्य को नहीं देख सके थे। जनता के दुखों और कष्टों से पे्ररित (हालांकि इन दुःखों का कारण मुसलमान सेनापतियों के हाथों हिन्दुओं की हार नहीं थी, मुक्तिबोध ने पं. रामचन्द्र शुक्ल से असहमत होते हुए स्पष्ट किया।) भक्तिकाव्य निम्नजातीय सन्तों के भावनात्मक विद्रोह के रूप में शुरू हुआ और इसने वर्ण व्यवस्था के अन्याय और असमता पर आधारित सामाजिक-धार्मिक ढांचे को भक्ति, समानता और पे्रम के आधार पर पुनव्र्यवस्थित करने की क्रान्तिकारी कोशिश की। लेकिन निर्गुण भक्ति से चलकर सगुण भक्ति तक आते-आते बकौल मुक्तिबोध इस विद्रोह की आंच मन्द पड़ गई। भक्ति यथास्थिति के पोषण का माध्यम बन गई। तुलसी की मूल रचना समस्या यही थी कि कबीर जैसे विद्रोही संतों द्वारा प्रचारित भक्ति को किस तरह फिर से वर्णाश्रम की मर्यादा के भीतर स्थापित किया जाए। तुलसी साहित्य में गंुथे हुए प्रतिक्रिया आशयों का यही कारण है। इसे रामविलास जी द्वन्द्वमूलक सामाजिक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में न रखने के चलते न देख पाए। ठीक है कि तुलसी ने जनता के कष्टों को वाणी दी। उनके घावों पर प्रेम का मरहम लगाया। लेकिन मुक्तिबोध ने स्पष्ट किया है कि तुलसी इन कष्टों का समाधान किसी व्यवस्थाविरोधी सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया में नहीं, बल्कि सेवकों और प्रभुओं के ‘मर्यादित’ आचरण में देखते थे। इस तरह के शोषकों को हल्की-सी मर्यादापरक ताड़ना देकर उन्हें कबीर जैसों की सामाजिक क्रान्ति और विनाशकारी विद्रोह से बचा लेते थे। तुलसी और कबीर के मंतव्यों की इस विपरीतता का कारण उनका विपरीत सामाजिक वर्गों में उत्पन्न होना और विरोधी सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रियाओं से सम्बद्ध होना था। इसी कारण यथास्थिति के पोषक ब्राहम्णवादी तत्वों ने तुलसी को हाथों-हाथ लिया, कबीर दलितों-उत्पीड़ितों के सहचर बने। प्रभुवर्गों से प्रश्रय पाकर तुलसी जनसाधारण के सबसे प्रभावी कवि बने रहे। नतीजा यह निकला कि विवेक और विद्रोह की जगह भाग्यवाद, समर्पण और आज्ञापालन की संस्कृति छाई रही।
इस तरह मुक्तिबोध की आलोचनापद्धति एक कलाकार के रूप में तुलसी की महानता की व्याख्या करने में सक्षम थी और उनके प्रतिक्रियावादी निहितार्थों का उद्घाटन करने में भी। आलोचना में इतिहासदृष्टि का सतर्क उपयोग करने वाली उनकी इस पद्धति की सार्थकता एक बार फिर सिद्ध हुई जब कामायनी के पुनर्मूल्यांकन का अवसर आया। डाॅ. मैनेजर पाण्डेय की यह सम्मति इसके महत्व पर पर्याप्त रोशनी डालती है-
‘‘स्वाधीनता के बाद ही हिन्दी कविता के इतिहास में प्रयोवाद और नई कविता के आधुनिकतावादियों ने या तो इतिहास और परम्परा से मुक्ति की घोषणा की, क्योंकि इतिहास और परम्परा का बोध उन्हें बोझ प्रतीत होता था। या फिर अपनी कलावादी रचनादृष्टि और प्रतिक्रियावादी सामाजिक विचारधारा का औचित्य सिद्ध करने के लिए उन्होंने परम्परा और इतिहास का दुरुपयोग किया। …मुक्तिबाध ने कामायनी की आलोचना लिखकर… (इस) दुरुपयोग का विरोध किया। उन्होंने कामायनी में व्यक्त सामाजिक यथार्थ और सामाजिक अभिप्रायों का विश्लेषण करते हुए इस धारणा का भी खण्डन किया कि छायावाद का अपने समय के सामाजिक यथार्थ से कोई सम्बन्ध नहीं था। कामायनी की आलोचना का एक कारण यह भी था कि पुराने रसवादी और कलावादी आलोचक कामायनी का नई रचनाशीलता के खिलाफ एक हथियार के रूप में प्रयोग कर रहे थे।’’
स्वातन्त्र्योत्तर मोहभंग के दौर में कांग्रेसी अवसरवाद के विकल्प के रूप में व्यक्ति-स्वातंत्र्य, समाजवाद, राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के घालमेल से लोहिया ने गैरकांग्रेसवादी राजनीतिक संरचना खड़ी की। इसे जमींदारी-उन्मूलन और हरित क्रान्ति के उपरान्त विकसित हुए नवसमृद्ध मध्यम किसान जातियों का समर्थन प्राप्त हुआ। नई कविता की लघुमानवादी धारा ने अपनी इतिहासदृष्टि इसी राजनीतिक संरचना से पाई थी। यह परम्परा के अस्वीकार की विद्रोही मुद्रा और परम्परा के घोर रूढ़िवादी तत्वों के प्रति मोह का एक पूरी स्क्रीन पर पढ़ने के लिये पीडीएफ़ बॉक्स के कोने में बने चिन्ह का प्रयोग करें [pdf http://www.debateonline.in/wp-content/uploads/2012/06/On-Liberty-Anuvad.pdf 800 1250]
नए हिन्दीभाषी मध्यवर्ग के जातीय संगठन के निमित्त साझे भाषिक-संाकृतिक इतिहास की जरूरत थी। इसी जरूरत से हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन की जद्दोजहद शुरू हुई। मगर यह भी सुनिष्चित हो गया है कि इस इतिहास से उर्दू की साहित्यिक परम्परा पूरी तरह बहिष्कृत रहेगी। भले ही वह एक ऐसी परम्परा थी जो हिन्दी के भाषिक और साहित्यिक विकास के साथ नाभिनालबद्ध थी।
आचार्य शुक्ल के इतिहास-लेखन को उपरोक्त सभी प्रेरणाएं प्रभावित कर रही थीं। आधुनिक वस्तुवादी वैज्ञानिक चेतना का विकास, औपनिवेषिक इतिहासलेखन बरक्स राष्ट्रªवादी इतिहासलेखन, पौर्वात्यवाद, राष्ट्रªीय आन्दोलन, नए हिन्दीभाषी मध्य वर्ग की संास्कृतिक राजनीतिक जरूरतें और उर्दूभाषी भद्रवर्ग के साथ उसकी राजनीतिक प्रतिस्पर्धा – इस समग्र ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में न रखने से आचार्य शुक्ल की इतिहासदृष्टि के मूल्यांकन में अन्याय होता आया है। मध्यकालीन इतिहास के सन्दर्भ में हिन्दू-मुस्लिम तनाव को सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कारक के रूप में देखना, प्राचीन भारत की शास्त्रीय परम्परा को चुनौती देने वाले कवियोें-लेखकों के प्रति उपेक्षा और असहिष्णुता का भाव और साहित्य में ऐसे सभी तत्वों को अभारतीय मानने की प्रवृत्ति – ये तमाम विषेषताएं इसी मिले-जुले ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की देन है। इसी तरह काव्य में चमत्कार, अलंकृत, रहस्य और व्यक्ति-केन्द्रिकता के प्रति उनका अस्वीकार भाव भी।
आचार्य शुक्ल का युगान्तकारी योगदान यह था कि उन्होंने साहित्य के साथ समाज और इतिहास के घनिष्ट सम्बन्ध को पहचाना और इस तरह उन्होंने पहली बार हिन्दी आलोचना को वैज्ञानिकता, प्रामाणिकता और शास्त्रीय गम्भीरता का स्पर्ष दिया। दूसरे उन्होंने हिन्दीभाषी समुदाय के लिए एक विवेकसम्मत, विषद और विष्वसनीय संास्कृतिक परम्परा यानि एक पूरा इतिहास ढंूढ निकाला। इस इतिहास के बिना एक जातीय भाषा के रूप में हिन्दी की पहचान बन नहीं सकती थी। उस युग के हिन्दीभाषी नए मध्यवर्ग की ऐतिहासिक-संास्कृतिक जरूरतें उनके ही हाथों पूरी हुई। उन्होंने अपने इतिहास में हिन्दी-उर्दू इलाके की तमाम बोलियों और भाषाओं को हिन्दी में समाहित कर लिया। एक उर्दू को छोड़कर। उनके साहित्येतिहास से हिन्दीभाषी समुदाय को केवल इतिहास ही नहीं, अस्मिता भी मिली। हां, इस प्रक्रिया मे समान संास्कृतिक परिवेष में सांस लेने वाला एक पूरा समुदाय – उर्दू तहजीब से जुड़ा हुआ समुदाय – धीरे-धीरे दूर होता हुआ सम्भवतः हमेषा-हमेषा के लिए उससे विच्छिन्न हो गया। यह हमारे राष्ट्रªीय इतिहास की एक अलग त्रासदी है। इस त्रासदी के निर्माताओं में आचार्य शुक्ल जी की क्या जगह थी, कहीं वह खुद इस त्रासदी के एक शिकार तो नहीं थे- इतिहास के ऐसे सवालों के सटीक जवाब सदा सम्भव नहीं होते।
आचार्य शुक्ल ने एक परम्परा खोजी तो पण्डित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने, बकौल डाॅं. नामवर सिंह, एक दूसरी परम्परा की खोज की। यह दूसरी परम्परा उनकी थी जिनके लिए पहली परम्परा सम्मानपूर्ण स्थान नहीं था। पहली षिकार तो परम्परा तुलसीदास की थी तो दूसरी परम्परा कबीर की। सन् 1941 के प्रारम्भ में आचार्य शुक्ल का निधन हुआ। द्विवेदी जी की महत्वपूर्ण रचना ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ तब तक प्रकाषित हो चुकी थी। यह राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रौढ़तम चरण था। आन्दोलन में ‘उच्च-भ्रू’ सवर्ण नेताओं का एकाधिकार प्रभुत्व संकटग्रस्त हो चला था। राष्ट्रीय आन्दोलन ने जिस राष्ट्रीय परम्परा की रचना की थी उसे और अधिक उदार बनाने की ऐतिहासिक जरूरत आन पड़ी थी। भारतीय समाज के उपेक्षित उत्पीड़ित दलित समूहों के राष्ट्रीय आन्दोलन से दूर छिटक जाने का खतरा सामने था। राजनीतिक स्तर पर गंाधी-अम्बेडकर विवाद के रूप में संकट प्रकट हुआ तो सामाजिक-संास्कृतिक स्तर पर महाराष्ट्र मेें और दक्षिण भारत में दलितों-अछूतों के जागरण में उसकी अभिव्यक्ति हुई। शास्त्रीय ब्राह्मणी परम्परा का प्रतिरोध करते इस वैकल्पिक राष्ट्रीय जागरण में ज्योतिबा फुले से लेकर पेरियार तक के आन्दोलन शामिल थे। उत्तर भारत के संास्कृतिक परिवेष में इस संकट की धमक तेज होती, इसके पहले ही पण्डित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस दूसरी परम्परा की खोज कर डाली और भावी इतिहास के विद्रोहियों को आदरपूर्वक अपनी ही पंात में बिठा लिया। शायद इसी ‘अपराध’ के कारण आज के कुछ दलित आलोचक पण्डित जी से खासे नाराज हैं। गौरतलब है कि द्विवेदी जी की दूसरी परम्परा का पहली परम्परा से कोई मूलभूत अलगाव नहीं है। विद्रोही कम, अधिक-से-अधिक वह एक वैकल्पिक परम्परा है, एक मतवैभिन्य है। दोनों परम्पराओं में भिन्नता जितनी है, उससे अधिक एकता और समानता है। यही कारण है कि यह कथित दूसरी परम्परा दरअसल ‘भारतीय चिन्ता का स्वाभाविक विकास’ ही है, कोई असहज-विरोधी-प्रतिरोधी परम्परा नहीं। धर्मषास्त्र लोकधर्म की ओर झुकता है, लोकधर्म शास्त्र का सहारा प्राप्त करता है और दोनों एकमेक होकर ‘भारतीय साहित्य की प्राणधारा’ बन जाते है। इस तरह आचार्य शुक्ल ने हिन्दी की जिस महान साहित्यिक परम्परा का निर्माण किया था, और जिसे नई उठती हुई राष्ट्रीयता की भावना की गरिमा से सम्बद्ध किया था, द्विवेदी जी ने उसे अधिक समावेषी, उदार और जनतान्त्रिक रूप देकर पुनर्परिभाषित किया। यह राष्ट्रीय आन्दोलन के अधिक व्यापक हो जाने के खास ऐतिहासिक क्षण की फलश्रुति थी। आचार्य शुक्ल और पण्डित द्विवेदी दोनों ने अपने-अपने ‘इतिहासों’ के जरिए अपने-अपने समय की ऐतिहासिक जरूरतों को पूरा किया।(दो)
माक्र्सवादी आलोचना के प्रसंग में ‘इतिहास’ और ‘परम्परा’ के सवाल पर आने से पहले हिन्दी आलोचना की विषद पृष्ठभूमि पर एक समीक्षात्मक निगाह डाल लेना जरूरी था, क्योंकि हिन्दी की आरम्भिक माक्र्सवादी आलोचना दृष्टि पर इसका गहरा असर है। जिस समय पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी की प्रतिभा हिन्दी में शुक्लोत्तर आलोचना का नया ‘क्रान्तिकारी’ अध्याय लिख रही थी, लगभग उसी समय हिन्दी आलोचना में क्रान्ति का एक दूसरा स्वर भी उभरने लगा था। सोवियत रूस की क्रान्ति, नई सोवियत सरकार द्वारा पुराने रूसी साम्राज्य के उपनिवेषों की मुक्ति, विष्वषान्ति की ठोस पहल और देष के भीतर पंचवर्षीय योजनाओं की जबर्दस्त सफलता के कारण दुनिया भर में माक्र्सवाद मजदूर वर्ग की क्रान्तिकारी विचारधारा के रूप में प्रतिष्ठित हो चला था। तीसरे-चैथे दषक के आते-आते भारत में भी इसकी रानीतिक और संास्कृतिक अनुगंूजें स्पष्ट सुनाई देने लगी थीं। किसानों-मजदूरों के वर्गीय संगठन बनने लगे थे। राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ-साथ उनके अपने आन्दोलन खड़े होने लगे थे। 1925 तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी वजूद में आ चुकी थी।
उपनिवेषवाद-विरोधी संघर्ष में राष्ट्रीय आन्दोलन के सामने यक्षप्रष्न यह था कि बाहरी शत्रु से लड़ते हुए आन्तरिक अन्तर्विरोधों का क्या किया जाए? उस समय देष के सम्भ्रान्त तबकों की सबसे बड़ी आकांक्षा थी – राजनीतिक स्वषासन। लेकिन, दलितों, वंचितों, किसानों मजदूरों के लिए आन्तरिक शोषकों से मुक्ति का सवाल सबसे बड़ा सवाल था। उनके लिए प्रत्यक्ष शोषक तो देसी कुलीन लोग ही थे। पंूजीपति, महाजन, साहूकार, जमींदार तथा भारत का सर्वण उच्च वर्ग। औपनिवेषिक शोषण के सूत्र उनके निजी अनुभव के संसार के बहुत दूर थे। ऐसे अवसरों की भी कमी नहीं थी जब औपनिवेषिक शासन द्वारा कायम की गई समानता के सिद्धान्त पर आधारित कानून व्यवस्था ने उन्हें देषी शासकों के शोषण और अत्याचार से बचाया था। ऐसे निजाम के खिलाफ अपने प्रत्यक्ष शोषक के साथ मिलकर लड़ाई में जुट जाना कठिन था। खासकर जब यह भी स्पष्ट नहीं था कि औपनिवेषिक शासन के खात्मे के बाद जब इन्हीं पंूजीपतियों जमींदारों के हाथों में देष की सत्ता आएगी तब बुनियादी मेहनती वर्गों के साथ उनका सलूक पहले से कुछ बेहतर होगा या नहीं!
भारत के शुरूआती कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के सामने यह बात स्पष्ट थी कि राष्ट्रीय आन्दोलन में उन्हें किसानों-मजदूरों की अनुपस्थित आवाज की नुमाइंदगी करनी है। राष्ट्रीय आन्दोलन के एजेण्डे में उत्पीड़ितों-वंचितों के अधिकारों का सवाल शामिल करना है। समूचे राष्ट्रीय आन्दोलन को वामपंथी मोड़ देने और उस पर जहां तक सम्भव हो श्रमिक वर्गों का नेतृत्व कायम करने की कोषिष करनी है। यह स्पष्ट था कि ऐसा ना होने पर आने वाली आजादी उत्पीड़ितों की नहीं, उत्पीड़कों की होगी। कम्युनिस्टों की आरम्भिक समझदारी थी कि यह कार्य कांग्रेस के भीतर रहते हुए उसके कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हुए ही करना है। कांग्रेस राष्ट्रीय आन्दोलन का जनमंच बन चुकी थी। इसलिए कांग्रेस से अलग जाने का अर्थ था सामान्य जनता की निगाह मेें अपनी राजनैतिक वैधता को संदिग्ध बना लेना। सहयोग करते हुए अपनी नीतियों के लिए अधिकाधिक समर्थन जुटाते चलने की रणनीति ही श्रेयस्कर थी। तत्कालीन कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर एक दूसरी प्रवृत्ति भी थी। उग्रवामपंथी सोच रखने वाला एक समूह कांग्रेस समेत समूचे संभ्रान्त नेतृत्व के प्रति सदैव संषयग्रस्त रहा करता था जब कभी अवसर मिला, उसने कम्युनिस्ट आन्दोलन को कांग्रेसी अभियान के साथ सहयोगी की जगह विरोधी की स्थिति में खड़ा करने की कोषिष की। लेकिन कम्युनिस्ट आन्दोलन के ‘वाम’ और ‘दक्षिण’ धड़ों में कब कौन प्रभावी होगा, यह हमेषा उनकी आपसी बहसों और अपनी स्थितियों पर ही निर्भर नहीं करता था। प्रायः अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की परिस्थितियों और फैसलों का प्रभाव निर्णायक होता था। कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर ‘संयुक्त मोर्चे’ के हिमायतियों और ‘षुद्धतावादियों’ के बीच की कषमकष का हिन्दी के माक्र्सवादी लेखकों, आलोचकों पर सीधा और गहरा असर पड़ा।
1935 में लन्दन में गठित ‘इडियन प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिषएन’ के घोषणापत्र का निम्नलिखित अंष अक्सर उद्धृत किया जाता है। आरम्भिक माक्र्सवादी आन्दोलन के संकीर्णतावादी शुद्धतावादी नजरिए को प्रभावित करने के लिए इतनी बार इसका उपयोग किया गया है कि इसका वास्तविक अभिप्राय हिन्दी साहित्येतिहास के विद्यार्थियों की आंखों से प्रायः ओझल रहा है।
‘‘भारतीय साहित्य पुरानी सभ्यता के नष्ट हो जाने के बाद से जीवन की यथार्थताओं से भागकर उपासना और भक्ति की शरण में जा छुपा है। नतीजा यह हुआ कि वह निस्तेज और निष्प्राण हो गया है, रूप में भी और अर्थ में भी। आज हमारे साहित्य में भक्ति और वैराग्य की भरमार हो गई है। भावुकता का ही प्रदर्षन हो रहा है, विचार और बुद्धि का एक प्रकार से बहिष्कार कर दिया गया है। पिछली दो सदियों में विषेषकर इसी तरह का साहित्य रचा गया, जो हमारे इतिहास का लज्जास्पद काल है।’’
पिछली दो सदियों के साहित्य को लज्जास्पद बताना इतना बड़ा कुफ्र था कि इससे जो चीख-पुकार मची, उसमें इस घोषणापत्र ने अपने समय के साहित्य से जो वास्तविक मांग की थी, उस पर समुचित ध्यान न दिया जा सका। वह मांग कुछ इस तरह थी।
‘‘हमारी धारणा यह है कि भारत के नए साहित्य को हमारे वर्तमान जीवन के मौलिक तथ्यों का समन्वय करना चाहिए और वे हैं, हमारी रोटी के, हमारी दरिद्रता के, हमारी सामाजिक अवनति के और हमारी राजनीतिक पराधीनता के प्रष्न।’’
घोषणापत्र का मंतव्य बिल्कुल स्पष्ट था। चोट मुख्यतः समसामयिक साहित्य पर की गई थी और कुछ रीतिकालीन साहित्य पर, न कि पूर्वमध्यकालीन भक्ति साहित्य पर। असली निषाने पर थी छायावाद की अतिभावुकता। और रहस्यवादी पलायनवादी अध्यात्म। आज हमें भक्ति-वैराग्य, श्रृंगार और वैयक्तिक भावुकता का साहित्य नहीं चाहिए, बल्कि ऐसा साहित्य चाहिए जो हमारे समय के आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ को समझने और उससे संघर्ष करने में हमारी सहायता करे। यानि वह विचारप्रवण हो। यथार्थ की ओर उन्मुख हो, न कि पराङमुख। यह साहित्य की वह नई समझ थी, प्रेमचन्द पहले से ही जिसकी अगुआई करते आ रहे थे। उन्हे 1936 में लखनऊ में भारतीय प्रगतिषील लेखक संघ के पहले सम्मेलन की अध्यक्षता करने में कोई उज्र न हुआ, बल्कि गहरी प्रसन्नता और सन्तोष का अनुभव हुआ।
संकट जिस बात से पैदा हुआ था वह था प्रगति और परम्परा के बीच का वह तीखा अन्तर्विरोध जिसे घोषणापत्र में बिना किसी हिचक के दो टूक शब्दों में उजागर कर दिया गया था। विरोधों के बावजूद प्रेमचन्द की बढ़ती हुई लोकप्रियता से स्पष्ट था कि नए प्रगतिषील साहित्य की जरूरत व्यापक रूप से महसूस की जा रही थी। तो भी उस युग के सम्भ्रान्त हिन्दी लेखकों-पाठकों को पिछली दो सदियों की समूची साहित्यिक परम्परा के प्रति आलोचनात्मक और निषेधात्मक रवैया नाकाबिलेबर्दाष्त था। इससे उपजने वाला हीनभाव राष्ट्रीय संघर्ष के सन्दर्भ में सांघातिक हो सकता था। अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा की खोज और उसके प्रति गर्व की भावना ‘असभ्यों’ को ‘सभ्य’ बनाने के औपनिवेषिक तर्क के प्रतिकार के लिए अपरिहार्य थी। तर्क ही नहीं संघर्ष के लिए जरूरी आत्मविष्वास और मानसिक संकल्प के लिए इस परम्परा का महत्व था। जहां तक हिन्दी लेखकों का सवाल था, उनका नवजात ऐतिहासिक सांस्कृतिक अस्तित्व उसी सांस्कृतिक परम्परा पर निर्भर था जिसकी इतनी कठोर निन्दा की जा रही थी। हिन्दीभाषी समुदाय के रूप में अपनी पहचान कायम करने के संघर्ष में उलझे इन महानुभावों के लिए साहित्येतिहास की इस गौरवमय परम्परा के अलावा और कोई पायेदार आधार सुलभ न था। परम्परा के प्रति आलोचनात्मक होना, परम्परा के अवधारणा के प्रति संदेहषील नजर आना, ‘परम्परा’ के नकार को ‘प्रगति’ की जरूरी शर्त समझना एक नया क्रान्तिकारी दृष्टिकोण था, जिसे हिन्दी में माक्र्सवादी लेखकों ने ही सबसे पहले प्रस्तावित किया था। महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में दलित चिन्तकों ने भी परम्परा के प्रति ही रूख लिया था। उत्पीड़ितों की निगाह में परम्परा उत्पीड़न की होती है। विद्रोह की शुरूआत परम्परा की आलोचना से होती है।
राष्ट्रवादी इतिहासदृष्टि के विपरीत माक्र्सवाद परम्परा के प्रति श्रद्धाभाव की जगह विवेकसम्मत आलोचनात्मक रवैये को प्रतिष्ठित करता है। इतिहास के द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी विष्लेषण का निचोड़ यह है कि परम्परा के सकारात्मक निषेध का ही दूसरा नाम प्रगति है। अतएव प्रगति के लिए परम्परा के प्रति आलोचनात्मक विवेक जरूरी है। दुहराना अनुचित न होगा कि यह आलोचनात्मक विवेक परम्परा के किन्हीं खास तत्वों के लिए नहीं, ‘परम्परा’ की अवधारणा मात्र के लिए, परम्परा की अवधारणा में निहित परम्परवाद को पहचानने के लिए जरूरी है। किसी भी चीज को महज इसलिए वैधता नहीं दी जा सकती कि वह परम्परा में शामिल है। परम्परा में शामिल समझी जाने वाली प्रत्येक चीज सामयिक विवेक की कसौटी पर कसी जाए, यह जरूरी है। सामाजिक मूल्यवत्ता की कसौटी विवेक ही हो सकता है परम्परा नहीं। यह परम्परा के प्रति नवजागरणकालीन राष्ट्रवादी रवैये से नितांत भिन्न दृष्टि है। अगर कोई चीज परम्परा से समर्थित है तो उस पर आंख मंूदकर भरोसा कर लेने से सन्देह करना अधिक विवेकपूर्ण है। घोषणा पत्र के लेखकों का मूल मंतव्य यही था। मगर उपनिवेषविरोधी संघर्ष के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में खुद माक्र्सवादी लेखकों के भीतर इस सवाल पर कुछ ऐसी मारामारी हुई कि आगे चलकर घोषणा पत्र से इस अंष को बाकायदा हटा लेना पड़ा।
घोषणापत्र का ऐतिहासिक महत्व स्थापित साहित्यिक परम्परा के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि विकसित करने के साहसिक प्रयत्न में निहित था। इस प्रयत्न में सरलीकरण और यान्त्रिकता रही हो, तो भी इसने हिन्दी आलोचना में परम्परा के विषय एक ऐसी गम्भीर बहस की शुरूआत कर दी जो आज सदी के बदल जाने के बाद भी जारी है। वैसे इस बहस के लपेटे में हिन्दी की समूची साहित्यिक परम्परा थी, लेकिन केन्द्र में भक्तिकाव्य था। बहस अब तुलसी कबीर जैसे भक्त कवियों के तुलनात्मक महत्व के विषय में न होकर भक्तिकाव्य में निहित ‘सामाजिक प्रतिक्रियावाद’ और ‘पलायनवाद’ जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियों के विष्लेषण पर केन्द्रित हो रही थी। भक्तिकाव्य जैसा शान्त और उदात्त भावनाओं का साहित्य लम्बे समय के लिए ‘इतिहास’ और ‘परम्परा’ के प्रसंग में विवादों की रणभूमि बन गया। हिन्दी में विचारधारात्मक संघर्ष के रूप में वर्ग संघर्ष की छाया भक्तिकाव्य सम्बन्धी विवाद में जितनी स्पष्ट है, उतनी और कहीं नहीं।
घोषणापत्र में परम्परा की आलोचना का जो सूत्र निहित था उसका पूर्ण तार्किक प्रस्फुटन षिवदान सिंह चैहान द्वारा लिखित ‘भारत में प्रगतिषील साहित्य की आवष्यकता’ शीर्षक लेख में हुआ जो कि मार्च 1937 ई. के ‘विषाल भारत’ में प्रकाषित हुआ। शीघ्र ही इसी ढंग का उनका एक दूसरा लेख ‘हिन्दी कविता में सौन्दर्य भावना’ उन्हीं के संपादन में कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा प्रकाषित पहली हिन्दी पत्रिका ‘प्रभा’ में प्रकाषित हुआ। स्थितियों के जिस दबाव मेें घोषणापत्र में संषोधन करना पड़ा था, कुछ वैसी ही स्थितियों के चलते षिवदान जी को जल्दी ही इन लेखों में निहित ‘भौड़े समाजषास्त्र’ का अहसास हो गया। उन्होंने अपने किसी संग्रह में इन लेखों को शामिल करना ठीक न समझा, बल्कि छायावादी कविता का पुनः अध्ययन कर ‘छायावादी कविता में असन्तोष भावना’ शीर्षक से सन् 1938 में एक लेख ही तैयार कर डाला।
इस उहापोह को उक्त लेख के बारे में उनकी अपनी ही इसी टिप्पणी से बेहतर समझा जा सकता है – ‘‘…उस लेख ने छायावादी कविता का प्रगतिवादी दृष्टि से मूल्यांकन करने की अधिक सूक्ष्म, साहनुभूतिपूर्ण और उदार कसौटी पेष की थी। मुझसे पूछिए तो यह लेख भी उस जमाने के माक्र्सवादी साहित्यालोचना की मतवादी संकीर्णताओं से पूरी तरह मुक्त नहीं था। हो भी नहीं सकता था, जबकि बर्नड शाॅ, इब्सन और थामस मान जैसे बूज्र्वा-समाज के तीखे आलोचकों का रचा साहित्य यूरोप तथा सोवियत यूनियन के प्रमुख आलोचकों की नजर में कब्रिस्तान का साहित्य था। लेकिन इतना तो है कि इस लेख और सुमित्रानन्दन पंत की ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ की समीक्षा वाले लेख से माक्र्सवादी आलोचना में वल्गर सोषियोलाॅजी की संकीर्णताओं के विरूद्ध उस प्रक्रिया की शुरूआत तो हो ही गई थी, जो इतिहास के परिप्रेक्ष्य में परम्परा की प्रगतिषील और जीवन्त उपलब्धियों को स्वीकारते हुए, उन्हें अपने अन्दर समोते हुए, युग के नए तकाजों और चुनौतियों का सामना करते हुए, मनुष्य के चिन्तन और आध्यात्मिक विकास के नए आयाम जोड़ती है।’’
इस टिप्पणी से उस संघर्ष का खुलासा होता है जो उस युग में परम्परा के सवाल पर हिन्दी आलोचना के माक्र्सवादी खेमे में था। टिप्पणी के अन्तिम हिस्से में परम्परा के विषय में जिस नए दृष्टिकोण का प्रस्ताव किया गया है उसे अपने धंुआधार सैद्धान्तिक और व्यावहारिक आलोचनात्मक अभियानों के जरिए हिन्दी में स्थापित करने का श्रेय रामविलास शर्मा को है। यों इस टिप्पणी से जाहिर है कि टिप्पणीकार कम-से-कम इसकी शुरुआत का श्रेय अपने लिए सुरक्षित कर लेना चाहता है। जो भी हो, साल-दो-साल के भीतर ही ऐतिहासिक महत्व के अपने पुराने क्रान्तिकारी लेख को अस्वीकार करते हुए परम्परा के सम्बन्ध में एक नए दृष्टिकोण की खोज में जुट जाने के इस साहस की तो दाद देनी ही होगी। इस घटना से अनुमान किया जा सकता है कि उस युग में परम्परा के सवाल पर नवजागरणप्रेरित राष्ट्रवादी दृष्टिकोण का दबाव कैसा था।(तीन)
आलोचना में इतिहास की भूमिका पर चार आलोचना दृष्टियों को किंचित सरलीकरण के साथ कुछ इस तरह सूत्रबद्ध किया जा सकता है – शुक्ल जी और द्विवेदी जी इतिहास में गए थे अपनी महान ‘परम्परा’ की खोज करने। द्विवेदी जी द्वारा खोजी गई परम्परा ‘दूसरी’ थी या पहली का विस्तार मात्र, इस पर मतवैभिन्य हो सकता है। पर ये दोनों इतिहासदृष्टा आलोचक मूलतः उस नवजागरण-प्रेरित राष्ट्रवादी विचारधारात्मक परियोजना के पुरोधा थे, ‘परम्परा की खोज’ जिसका एक केन्द्रीय थीम थी। द्विवेदी जी की परम्परा शुक्ल की तुलना में अधिक उदार और समावेशी है मगर वह ‘भारतीय’ भी अधिक हैं, जिसकी ताईद इस्लाम के न आने पर हिन्दी साहित्य के बारह आने के वैसे ही होने की बात पर उनके ‘जोर’ देने से भी होती है। दोनों के ही यहां परम्परा एक महत्वपूर्ण प्रतिमान है। यही शिवदान सिंह चैहान, प्रकाशचन्द्र गुप्त और रांगेय राघव प्रभृति आरम्भिक माक्र्सवादी आलोचकों की असहमति का मुख्य बिन्दु है। माक्र्सवादी लेखकों को ‘इतिहास’ गढ़ना नहीं था, इतिहास बदलना था। कला और साहित्य की ‘महान’ परम्पराओं ने उत्पीड़ितों का भाग्य बदलने में कोई भूमिका नहीं निभाई। अधिक सम्भावना है कि उसे बनाए रखने में ही मदद की। माक्र्सवाद के अनुसार साहित्य अन्ततः ऐतिहासिक सामाजिक चेतना का एक रूप है। शोषण के इतिहास का प्रतिरोध विकसित करने के लिए उससे जुड़ी हुई चेतना का खण्डन अपरिहार्य है। इसके लिए परम्परा को गौरवान्वित करने की नहीं, उसके प्रति आलोचनात्मक रवैया अपनाने की जरूरत है। प्रगतिशीलता का यही तकाजा है। लेकिन इस प्रक्रिया में इतिहास और साहित्य के बीच की द्वन्द्वात्मकता का ध्यान रखना भी आवश्यक है। चैहान और उनके साथियों के लेखन में इस द्वन्द्वात्मकता का सर्वत्र निर्वाह नहीं हो पाया। वे साहित्य को इतिहास के अनुुचर की तरह देखते प्रतीत होते हैं, रचयिता की तरह नहीं। इसी गलती के अहसास ने चैहान को अपने आरम्भिक लेखों को नामंजूर करने को विवश किया। साहित्य और इतिहास के रिश्ते को शुक्ल जी और द्विवेदी जी की आलोचना में जिस रूप में रेखांकित किया गया था, उसमें साहित्य का महत्व इतिहास का संक्रमण करने में है, उससे बंधे रहने में नहीं। आचार्यों की दृष्टि यह थी कि प्रत्येक सार्थक साहित्यिक कृति ऐसा ही करती है। इतिहास से जन्म लेकर भी वह अपना एक स्वायत्त जीवन प्राप्त कर लेती है। श्रेष्ठ रचना अपने युग की उच्चतम चेतना को प्रकट करती है। वह अपने युग के अन्तर्विरोधों को स्वतः अतिक्रमित कर जाती है। माक्र्सवादी आलोचकों को ही पहलेपहल इस विश्वास पर सन्देह करने की जरूरत महसूस हुई। माक्र्सवादी आलोचना की यह कोई साधारण उपलब्धि न थी कि महान से महान समझी जाने वाली रचना भी उस अलौकिक पवित्रता के आवरण से मुक्त होकर अपनी ऐतिहासिक पार्थिवता में देखी और सराही जा सकने के काबिल हुई, जिस की ओट में ‘महान’ रचनाओं में निहित ‘संकीर्ण’ मंतव्यों जैसे कि वर्णाश्रम की प्रतिष्ठा या नारीनिन्दा आदि को लोगों के गले उतारा जा सकता था।
यह तो हुआ रचना को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखना और यह माक्र्सवादी आलोचना के विकास की दिशा में पहला जरूरी कदम था। पर ठीक यहीं आलोचना में इतिहासदृष्टि के उपयोग के सवाल पर माक्र्सवादी आलोचना की क्लासिकी उलझन से हमारा सामना होता है। क्या कोई साहित्यिक कृति अपने समय की ऐतिहासिक चेतना के रूप में उस युग की प्रभुत्वशाली विचारधारा का प्रतिबिम्ब मात्र है? तब साहित्य और इतिहास में फर्क क्या है? वह कलात्मक सौन्दर्य किसी कृति में कहां से आता है जा उसे इतिहास या समाजशास्त्र से अलग करता है? क्या वह एक विशिष्ट शैली मात्र है? किसी साहित्यिक रचना में व्यक्त चेतना को यदि हम उसके ऐतिहासिक समय की प्रभुत्वशाली सामाजिक-राजनीतिक विचारधारा से तद्रूप कर देखेंगे तो इसी नतीजे पर आने को बाध्य होंगे। माक्र्सवादी आलोचना की शब्दावली में इसी को ‘कुत्सित समाजशास्त्र’ कहते हैं। आलोचकों ने इसे पहचानने में देर न की, न इससे पार पाने की कोशिशें शुरू करने में।
इस दृष्टि से माक्र्सवादी आलोचना को अगले चरण तक ले जाने का श्रेय निःसन्देह डाॅं. रामविलास शर्मा को है। आलोचना में इतिहास के परिप्रेक्ष्य को दुरूस्त करते हुए उन्होंने ध्यान दिलाया कि कोई बड़ी साहित्यिक कृति अपने समय की प्रभुत्वशाली विचारधारा को प्रतिबिम्बित मात्र नहीं करती, उससे संघर्ष भी करती है। इसी संघर्ष से उसे अपने समय की चेतना को गहराई से समझने और उसे प्रश्नांकित कर पाने की सम्भावना मिलती है। इसी को यूं भी कह सकते हैं कि जो रचनाएं ऐसा कर पाती हैं वही सच्चे अर्थों में ‘कालजयी’ होती हैं। रचना का इतिहास से यान्त्रिक सम्बन्ध नहीं होता । वह द्वन्द्वात्मक और जीवंत होता है। माक्र्सवादी आलोचना का काम रचना में निहित इस ऐतिहासिक संघर्ष को रेखांकित करना है। इसी सूत्र के सहारे रामविलास जी ने भक्तिकाल से लेकर छायावाद तक के कवियों की समीक्षा की है। तभी पता चला कि रचना के अन्तर्निहित सौन्दर्य और शक्ति को उजागर करने के लिहाज से ऐतिहासिक पद्धति का सचमुच कोई विकल्प नहीं है, बशर्ते उसका उपयोग द्वन्द्वात्मक अन्तर्दृष्टि के साथ किया जाए। पता चला कि तुलसी साहित्य वर्णाश्रम-समर्थक या नारी-निन्दक घोषणाओं के बावजूद महान है तो इसलिए नहीं कि उसने इस्लाम से हिन्दू धर्म की रक्षा की। इसलिए भी नहीं कि उसमें किसी सार्वकालिक लोकमंगल की साधनावस्धा का प्रदीर्घ चित्रण था या फिर समन्वय की कोई विराट चेष्टा। न वह निरे भाषाप्रयोग, काव्यकुशलता या प्रबन्धक्षमता के बल पर अपनी सर्वकालीन श्रेष्ठता कायम रखे हुए है। रामविलास जी ने दिखाया कि दरअसल वह अपने युग के सामन्ती जीवनयथार्थ और उससे उपजने वाली मानवीय त्रासदी को व्यंजित करने के कारण महान है। समय की वर्चस्वमान विचारधारा से ग्रस्त होकर नहीं बल्कि उससे संघर्ष करते हुए तुलसी अपने समय के पारिवारिक सामाजिक जीवन की विडम्बनाओं का इतनी सुक्ष्मता से चित्रण कर पाए। निःसन्देह वे अपने समय की चेतना की परिधि से परे न हो सकते थे। युगीन चेतना की सीमाएं उनकी रचनाओं प्रकट हों, यह स्वाभाविक है। किन्तु कवि के रूप में उनका वास्तविक महत्व उनकी रचनाओं में अन्तर्गुम्फित उन सामन्तविरोधी मूल्यों में है जो सामन्ती जीवन की विडम्बनाओं के चित्रण में प्रकट हुआ है, न कि उनके प्रस्तावित दास्य भक्ति की भावाकुलता में।
ऐतिहासिक दूरी का लाभ उठाकर उस युग की आलोचना पर विचार करते हुए आज सहज ही देखा जा सकता है कि शिवदान सिंह चैहान, प्रकाशचन्द्र गुप्त, रांगेय राघव औैर राहुल सांस्कृत्यायन जैसे माक्र्सवादी आलोचक और इनकी अनेक स्थापनाओं के कटु आलोचक डाॅ. रामविलास शर्मा आपस में सहमत थे कि भक्तिकाव्य में (विशेषकर तुलसीदास में जो कि हिन्दी आलोचना के उस शुक्ल-पक्ष में हिन्दी के सर्वकालिक महानतम कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे), और छायावादी कविता में भी, परस्पर विरोधी तत्व मौजूद हैं। दोनों ही प्रसंगों में स्थिति यह है कि यदि किसी कृति में कुछ तत्व प्रगतिशील मिलते हैं ता उसी कृति में कतिपय दूसरे तत्व प्रतिगामी। यहां तक कि प्रतिक्रियावादी भी। बहस यह थी कि जहां अन्य माक्र्सवादी आलोचक इस अन्तरविरोध को उजागर करते हुए आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक ‘इतिहास’ में इसके प्रतिक्रियावादी सामंती आधार को ढंूढ निकालने को अपना सबसे बड़ा आलोचकीय दायित्व समझते थे, वहीं रामविलास जी परम्परा में निहित प्रगतिशील तत्वों पर जोर देते हुए उसी इतिहास से परम्परा का एक नया चेहरा खोज लाते थे। उस युग में उनके इस कार्य का अतिरिक्त महत्व यह था कि इससे उपनिवेशविरोधी संघर्ष के राष्ट्रीय स्वाभिमान पर बल देने वाले परिप्रेक्ष्य से माक्र्सवाद का सहज ही जुड़ाव हो गया। रामविलास जी की आलोचना से राष्ट्रीय आन्दोलन के इस तर्क को शक्ति मिली कि भारत का अतीत असभ्यता के अन्धकार से ग्रस्त नहीं रहा है। मध्यकालीन यूरोप की तुलना में वह अधिक प्रगतिशील और उज्वल रहा है। इससे प्रगतिशील मूल्यों के रूप में साहित्य की परम्परा के मूल्यांकन की नई ऐतिहासिक कसौटियां भी हासिल हुईं। यह कह पाना सम्भव हुआ कि कबीर और तुलसी जैसे महाकवियों के महत्व का आधार उनके काव्य में व्यक्त सर्वकालिक मानवीय मूल्य जैसे लोकमंगल और समन्वयवाद इत्यादि ही नहीं हैं। उनके रचनात्मक संघर्ष को सामन्तविरोधी संघर्ष के परिपे्रक्ष्य में देख पाना सम्भव हुआ। इसी तरह रामविलास जी की निराला सम्बन्धी आलोचना से छायावादी कविता को उपनिवेशविरोधी राष्ट्रीय संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में देखना सम्भव हुआ।
आचार्य शुक्ल और पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी के आलोचनात्मक कार्य से ‘परम्परा’ आलोचना के एक मूल्य के रूप में स्थापित हो चुकी थी। आरम्भिक माक्र्सवादी आलोचना ने ‘परम्परा’ के प्रति आलोचनात्मक विवेक विकसित करने का आग्रह किया। रामविलास जी ने परम्परा को इतिहास के गतिशील द्वन्द्वात्मक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने और परम्परा के भीतर प्रगति के लिए चलने वाले सतत संघर्ष को रेखांकित करने पर जोर दिया। कुल मिलाकर माक्र्सवादी विश्लेषण की आंच के आगे परम्परा एक स्वतःसिद्ध आलोचनात्मक कसौटी न रही।
रामविलास जी के आलोचना-कर्म से ‘परम्परा’ का अर्थ ही बदल गया। यह सातत्य या दुहराव से अधिक बदलाव को व्यंजित करने लगी। यथास्थितिवादी रूढ़िवादी रक्षणवादी तत्वों और मूल्यों का संग्रहालय बने रहने की जगह न्याय, स्वतत्त्रता और प्रगति की प्रेरणा देने वाली जीवन्त ऐतिहासिक शक्ति के रूप में उसे एक नई परिभाषा मिली। इससे सामन्तविरोधी और साम्राज्यविरोधी संघर्ष को एक जुट करने की सम्भावना पैदा हुई। एक माक्र्सवादी चिन्तक के रूप में रामविलास जी के आलोचनात्मक संघर्ष के यही दो बुनियादी आयाम थे। दोनों को एक सामान्य सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्य में तर्कपूर्ण और विश्वसनीय ढंग से सूत्रबद्ध कर पाना हिन्दी आलोचना में रामविलास जी की विलक्षण उपलब्धि थी।
रामविलास जी के कार्य से इतिहास और साहित्य की द्वन्द्वात्मकता पर तो ध्यान गया, मगर परम्परा के सवाल पर माक्र्सवादी आलोचकों की आपसी बहस खत्म होने की जगह और तेज हो गई। भक्तिकाव्य इसका एक प्रमुख इलाका बना रहा। रामविलास जी की आलोचकीय रणनीति पर सवाल उठाए जाते रहे। जहां किसी कवि की रचनाओं में यथास्थिति की आलोचना मिले वहां प्रगतिशीलता और जहां पिष्टपेषण हो वहां ‘युग की सीमा’ मान लेने भर से बात खत्म नहीं हो जाती। आखिर प्रत्येक बड़े लेखक के पास एक निश्चित रचनात्मक उद्देश्य होना चाहिए। इस रचनात्मक उद्देश्य की खोज आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना न कृति की व्याख्या संभव है, न मूल्यांकन। तुलसीदास के रचनाओं में कबीरदास और गोरख के विचारों का स्पष्ट खण्डन है। अगर तुलसीदास को प्रगतिशील मान लें तो गोरख और कबीर का क्या करें? तुलसीदास में वर्णाश्रम की प्रतिष्ठा, ब्राहम्णश्रेष्ठता की स्थापना, स्त्री की दासीवत पतिपरायण का समर्थन इतनी प्रभूत मात्रा में और इतने बल के साथ है कि प्रगतिशाली के साथ कैसे भी उसकी संगति नहीं बिठाई जा सकती। इसी कठिनाई के चलते डाॅं. शर्मा के लिए भी तुलसी काव्य में मिलने वाली ऐसी पंक्तियों को प्रक्षिप्त माने बिना काम चलाना असम्भव था। तुलसी तो तुलसी, वर्णाश्रम-विद्रोही कबीर में भी नारी-निन्दा और रहस्यवाद की कमी नहीं थी।
किसी साहित्यिक रचना में प्रकट होने वाली विचारधारा को अपने समय की प्रभुत्वशाली विचारधारा के प्रतिबिम्ब मात्र के रूप में ही देखा नहीं जाना चाहिए, यह तो ठीक है। यह भी ठीक है कि हर बड़ी रचना अपने समय के सच का साक्षात ही नहीं करती, उससे जूझती भी है। पर आखिरकार इस जूझने का नतीजा क्या और कैसे निकला है, आलोचक के लिए इस ओर देखना भी जरूरी है। आलोचना का काम रचना में अतर्निहित द्वंद्वों और अन्तर्विरोधों की उपेक्षा करना या उन पर परदा डालना नहीं है, बल्कि उनकी व्याख्या करना है। माक्र्सवादी आलोचना के लिए तो यह और भी अधिक जरूरी है, क्योंकि उसका उदेश्य ही है विचारधारात्मक कलानिर्मितियों के ऐतिहासिक अर्थ-सौन्दर्य का तर्कपूर्ण उद्घाटन। ऐसा न करने वाली आलोचना कृति के सौन्दर्य को अलौकिक मानकर चलने वाली और भाषाई भंवरजाल का सहारा लेकर उसे और अधिक रहस्यमय बना देने वाली कलावादी-रूपवादी आलोचना से भिन्न न होगी। वह व्याख्या करने के जगह एक भ्रम रचेगी जिसमें सौन्दर्यशास्त्रीय या दार्शनिक शब्दावली की जगह ऐतिहासिक शब्दावली का सम्भवतः अधिक उपयोग किया गया होगा।
इस समस्या को पहचानने, उसकी व्याख्या करने और इससे जूझते हुए माक्र्सवादी आलोचना की नई राह निकालने का सबसे श्रमसाध्य बौद्धिक प्रयास किया गजानन माधव मुक्तिबोध ने।(चार)
मुक्तिबोध ने आलोचना में ऐतिहासिक अन्तदृष्टि के उपयोग की निम्नलिखित प्रक्रिया प्रस्तावित की-
‘‘किसी भी साहित्य को हमें तीन दृष्टियों से देखना चाहिए। एक तो यह कि वह किन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शक्तियों से उत्पन्न है, अर्थात् वह किन शक्तियों के कार्यों का परिणाम है, किन सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रियाओं का अंग है? दूसरे यह कि उसका अन्तःस्वरूप क्या है, किन प्रेरणाओं और भावनाओं ने उसके आन्तरिक तत्व रूपायित किए हैं? तीसरे उसका प्रभाव क्या है, किन सामाजिक शक्तियों ने उसका उपयोग या दुरूपयोग किया है और क्यों? साधारण जन के किन मानसिक तत्वों को उसने विकसित या नष्ट किया है?’’
यहां मुक्तिबोध की नजर साहित्य और इतिहास के बीच की द्वन्द्वात्मकता के साथ-साथ इतिहास और साहित्य के भीतरी द्वन्द्वों पर भी है। इतिहास की द्वन्द्वात्मकता कोई एक-आयामी सरलरेखीय द्वैतवाद नहीं है। इसे हम राजनीति में ‘सामन्तवाद’ और साहित्य में ‘सामन्तविरोधी चेतना’ जैसे सरल सूत्रीकरण के सहारे नहीं समझ सकते। प्रत्येक साहित्यिक प्रवृति इतिहास में सक्रिय परस्पर संघर्षशील सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाओं से जुड़ी होती है, लेकिन यह एक गतिशील द्वन्द्वात्मक जुड़ाव है, यान्त्रिक और इकहरा नहीं। कृति के ऐतिहासिक आशय को ग्रहण करने के लिए उस गतिशील संघर्षपूर्ण सामाजिक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को समझना होगा जिसने उसे जन्म दिया हो। देखना होगा कि उस प्रक्रिया से कृति के जुड़ाव की प्रकृति कैसी है और इस जुड़ाव से निःसृत किन प्रेरणाओं ने उसके आन्तरिक तत्व रूपायित किए हैं। कृति की ‘ऐतिहासिक उद्भव-प्रक्रिया’ को समझ लेने के बाद उतना ही जरूरी यह देखना भी है कि एक बार अस्तित्व में आ जाने के बाद उस कृति ने आने वाले इतिहास को कैसे प्रभावित किया है और क्यों ? परिणाम के अध्ययन के बिना इतिहास और साहित्य की द्वन्द्वात्मकता का तर्कचक्र पूरा नहीं हो सकता। मुक्तिबोध ने माक्र्सवादी आलोचना की ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मक दृष्टि को उसके यान्त्रिक सरलीकरण से मुक्त किया और उसे उसकी वास्तविक जटिलता, गूढ़ता और गतिशीलता में प्रतिष्ठित किया।
इस गतिशील ऐतिहासिक समाजशास्त्रीय पद्धति का अनुगमन करते हुए मुक्तिबोध ने भक्तिकाव्य का विश्लेषण किया। ‘‘भक्तिकाल की मूल भावना साधारण जनता के कष्ट और पीड़ा से उत्पन्न है।’’ यह कहकर मुक्तिबोध ने भक्तिकाव्य के आकर्षण के मूल रहस्य पर अंगुली रख दी। ‘… साधारण जनता ने राम को अपना त्राणकर्ता भी पाया, गुह और निषाद को अपनी छाती से लगाने वाला भी पाया’ ऐसा कहकर मुक्तिबोध ने प्रतिक्रियावाद के बावजूद साधारण जनता में तुलसी की लोकप्रियता का रहस्य खोला। ‘तुलसीदास जी की रामायण पढ़ते हुए हम एक अत्यन्त महान व्यक्तित्व की छाया में रहकर अपने मन और हृदय का आप-ही-आप विस्तार करने लगते हैं’ , मुक्तिबोध ने बेहिचक स्वीकार किया। आलोचना के नए उत्साह में आरम्भिक माक्र्सवादी आलोचक इस सत्य को नहीं देख सके थे। जनता के दुखों और कष्टों से पे्ररित (हालांकि इन दुःखों का कारण मुसलमान सेनापतियों के हाथों हिन्दुओं की हार नहीं थी, मुक्तिबोध ने पं. रामचन्द्र शुक्ल से असहमत होते हुए स्पष्ट किया।) भक्तिकाव्य निम्नजातीय सन्तों के भावनात्मक विद्रोह के रूप में शुरू हुआ और इसने वर्ण व्यवस्था के अन्याय और असमता पर आधारित सामाजिक-धार्मिक ढांचे को भक्ति, समानता और पे्रम के आधार पर पुनव्र्यवस्थित करने की क्रान्तिकारी कोशिश की। लेकिन निर्गुण भक्ति से चलकर सगुण भक्ति तक आते-आते बकौल मुक्तिबोध इस विद्रोह की आंच मन्द पड़ गई। भक्ति यथास्थिति के पोषण का माध्यम बन गई। तुलसी की मूल रचना समस्या यही थी कि कबीर जैसे विद्रोही संतों द्वारा प्रचारित भक्ति को किस तरह फिर से वर्णाश्रम की मर्यादा के भीतर स्थापित किया जाए। तुलसी साहित्य में गंुथे हुए प्रतिक्रिया आशयों का यही कारण है। इसे रामविलास जी द्वन्द्वमूलक सामाजिक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में न रखने के चलते न देख पाए। ठीक है कि तुलसी ने जनता के कष्टों को वाणी दी। उनके घावों पर प्रेम का मरहम लगाया। लेकिन मुक्तिबोध ने स्पष्ट किया है कि तुलसी इन कष्टों का समाधान किसी व्यवस्थाविरोधी सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया में नहीं, बल्कि सेवकों और प्रभुओं के ‘मर्यादित’ आचरण में देखते थे। इस तरह के शोषकों को हल्की-सी मर्यादापरक ताड़ना देकर उन्हें कबीर जैसों की सामाजिक क्रान्ति और विनाशकारी विद्रोह से बचा लेते थे। तुलसी और कबीर के मंतव्यों की इस विपरीतता का कारण उनका विपरीत सामाजिक वर्गों में उत्पन्न होना और विरोधी सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रियाओं से सम्बद्ध होना था। इसी कारण यथास्थिति के पोषक ब्राहम्णवादी तत्वों ने तुलसी को हाथों-हाथ लिया, कबीर दलितों-उत्पीड़ितों के सहचर बने। प्रभुवर्गों से प्रश्रय पाकर तुलसी जनसाधारण के सबसे प्रभावी कवि बने रहे। नतीजा यह निकला कि विवेक और विद्रोह की जगह भाग्यवाद, समर्पण और आज्ञापालन की संस्कृति छाई रही।
इस तरह मुक्तिबोध की आलोचनापद्धति एक कलाकार के रूप में तुलसी की महानता की व्याख्या करने में सक्षम थी और उनके प्रतिक्रियावादी निहितार्थों का उद्घाटन करने में भी। आलोचना में इतिहासदृष्टि का सतर्क उपयोग करने वाली उनकी इस पद्धति की सार्थकता एक बार फिर सिद्ध हुई जब कामायनी के पुनर्मूल्यांकन का अवसर आया। डाॅ. मैनेजर पाण्डेय की यह सम्मति इसके महत्व पर पर्याप्त रोशनी डालती है-
‘‘स्वाधीनता के बाद ही हिन्दी कविता के इतिहास में प्रयोवाद और नई कविता के आधुनिकतावादियों ने या तो इतिहास और परम्परा से मुक्ति की घोषणा की, क्योंकि इतिहास और परम्परा का बोध उन्हें बोझ प्रतीत होता था। या फिर अपनी कलावादी रचनादृष्टि और प्रतिक्रियावादी सामाजिक विचारधारा का औचित्य सिद्ध करने के लिए उन्होंने परम्परा और इतिहास का दुरुपयोग किया। …मुक्तिबाध ने कामायनी की आलोचना लिखकर… (इस) दुरुपयोग का विरोध किया। उन्होंने कामायनी में व्यक्त सामाजिक यथार्थ और सामाजिक अभिप्रायों का विश्लेषण करते हुए इस धारणा का भी खण्डन किया कि छायावाद का अपने समय के सामाजिक यथार्थ से कोई सम्बन्ध नहीं था। कामायनी की आलोचना का एक कारण यह भी था कि पुराने रसवादी और कलावादी आलोचक कामायनी का नई रचनाशीलता के खिलाफ एक हथियार के रूप में प्रयोग कर रहे थे।’’
स्वातन्त्र्योत्तर मोहभंग के दौर में कांग्रेसी अवसरवाद के विकल्प के रूप में व्यक्ति-स्वातंत्र्य, समाजवाद, राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के घालमेल से लोहिया ने गैरकांग्रेसवादी राजनीतिक संरचना खड़ी की। इसे जमींदारी-उन्मूलन और हरित क्रान्ति के उपरान्त विकसित हुए नवसमृद्ध मध्यम किसान जातियों का समर्थन प्राप्त हुआ। नई कविता की लघुमानवादी धारा ने अपनी इतिहासदृष्टि इसी राजनीतिक संरचना से पाई थी। यह परम्परा के अस्वीकार की विद्रोही मुद्रा और परम्परा के घोर रूढ़िवादी तत्वों के प्रति मोह का एक पूरी स्क्रीन पर पढ़ने के लिये पीडीएफ़ बॉक्स के कोने में बने चिन्ह का प्रयोग करें [pdf http://www.debateonline.in/wp-content/uploads/2012/06/On-Liberty-Anuvad.pdf 800 1250]
विचित्र घालमेल था, जिसमें दरअसल किसानों की परम्परागत रूढ़िवादिता प्रगति की उनकी नई आकांक्षा के हाथों में हाथ डाले खड़ी थी।
साही के ‘लघुमानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस’ की प्रशस्ति में लिख गए एक लेख की इन पंक्तियों में एक ऐतिहासिक सत्य का आभास स्पष्ट है-
‘‘होरी और उसके बाद जो नई पीढ़ी आई, कविता में, गद्य में, उसके सबके सब सदस्य प्रो. मेहता द्वारा शिक्षित होरी के मानसपुत्र हैं। …रह गई किसान की बात, तो जरा-सा खरोंचिए, ऊपरी आधुनिकता के जिल्द के नीचे हममें से कौन किसान नहीं है? अज्ञेय नहीं हैं? भारती नहीं हैं? शमशेर नहीं हैं? कुंवर नारायण नहीं हैं? हिन्दी के किस कवि में किसानी की गन्ध नहीं आती- मैथलीशरण से लेकर सर्वेश्वर तक?’’ बेशक! मगर स्वातंîोत्तर भारत के इन नए हिन्दी कवियों में किसानी की यह गन्ध होरी की गन्ध से कितनी अलग थी। उनमें किसानी का रोमान तो था, होरी के संघर्ष की गन्ध गायब थी। Marksvadi Alochana aur Itihasdrishti
अज्ञेय और लोहिया दोनों ही इतिहास में प्रगति की रैखिक अवधारणा को अस्वीकार करते थे। वे काल की चक्रीय अवधारणा में विश्वास करते थे। इतिहास में नाश और निर्माण, ‘कलियुग’ और ‘सतयुग’ का एक निरन्तर क्रम चला करता है। यह एक ऐसी इतिहास-दृष्टि है जो व्यक्ति के रूप में मनुष्य के अकेलेपन पर जो देती है, लेकिन इतिहास में मनुष्य की स्वतन्त्र भूमिका का निषेध करती है। यह भारतीय नियतिवाद का पश्चिमी आधुनिकतावाद के साथ एक सुविधाजनक गंठजोड़ है।
मुक्तिबोध ने एक ओर तो लघुमानववादी आधुनिकतावादियों की इतिहासदृष्टि से संघर्ष किया तो दूसरी ओर रामविलास जी की भारत के (विशेष रूप से हिन्दी प्रदेश के) ‘प्रगतिशील अतीत’ की धारणा पर बल देने वाली सरलरेखीय प्रगतिवादी इतिहासदृष्टि से। उन्होंने परम्परा के खण्डन या मण्डन से परे जाकर इतिहास का द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी ढंग से अध्ययन करते हुए सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के जटिल सूत्रों को समझने की चेष्टा की। उन्होंने रामविलास जी की तरह समाज और साहित्य के द्वन्द्वात्मक संबंध को ही नहीं देखा, बल्कि समाज और साहित्य के अंतद्र्वंद्वों पर भी ध्यान केन्द्रित किया। यों मुक्तिबोध ने जनसाधारण के संघर्ष में साहित्यालोचन की साझेदारी सुनिष्चित की कि जिसके लिए इतिहास सीना फुलाने या उलझने की जगह नहीं थी बल्कि सीखने औैर समझने का इलाका था। नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डेय जैसे समकालीन माक्र्सवादी आलोचकों ने कतिपय उलझनों और सहमतियों के बावजूद मूलतः इसी नजरिए को माक्र्सवादी आलोचना की इतिहासदृष्टि के रूप में विकसित किया। समाज के द्वन्द्व साहित्य मेें प्रकट होते हैं। लेकिन जस के तस नहीं, कि जैसे साहित्य समाज का दर्पण हो। बल्कि इसलिए कि साहित्य स्वंय सामाजिक संघर्ष का एक रूप है। वह अपने समाज की निर्मिति है और उसकी आलोचना भी। वह समाज को प्रतिबिम्बित भी करता है, और अपने तर्क से उसे बदलने की कोषिष भी। साहित्य और समाज के इस द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध पर ध्यान देना, फिर साहित्य में प्रतिबिम्बित सामाजिक संघर्ष को माक्र्सी नजरिये से समझने का यत्न करना, यही साहित्य की माक्र्सवादी इतिहास दृष्टि है। यह साहित्य में निहित इतिहास को सर्वहारा दृष्टि से पढ़ना है। यह उसके राष्ट्रवादी पाठ से अलग है, जहां साहित्य ‘राष्ट्र’ की महान परम्परा का एक अवयव मात्र है। जहां सहमति की खोज है, संघर्ष की नहीं। मार्क्सवादी आलोचना और इतिहासदृष्टि: संघर्ष और आत्मसंघर्ष
– आशुतोष कुमार(एक)
साही के ‘लघुमानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस’ की प्रशस्ति में लिख गए एक लेख की इन पंक्तियों में एक ऐतिहासिक सत्य का आभास स्पष्ट है-
‘‘होरी और उसके बाद जो नई पीढ़ी आई, कविता में, गद्य में, उसके सबके सब सदस्य प्रो. मेहता द्वारा शिक्षित होरी के मानसपुत्र हैं। …रह गई किसान की बात, तो जरा-सा खरोंचिए, ऊपरी आधुनिकता के जिल्द के नीचे हममें से कौन किसान नहीं है? अज्ञेय नहीं हैं? भारती नहीं हैं? शमशेर नहीं हैं? कुंवर नारायण नहीं हैं? हिन्दी के किस कवि में किसानी की गन्ध नहीं आती- मैथलीशरण से लेकर सर्वेश्वर तक?’’ बेशक! मगर स्वातंîोत्तर भारत के इन नए हिन्दी कवियों में किसानी की यह गन्ध होरी की गन्ध से कितनी अलग थी। उनमें किसानी का रोमान तो था, होरी के संघर्ष की गन्ध गायब थी। Marksvadi Alochana aur Itihasdrishti
अज्ञेय और लोहिया दोनों ही इतिहास में प्रगति की रैखिक अवधारणा को अस्वीकार करते थे। वे काल की चक्रीय अवधारणा में विश्वास करते थे। इतिहास में नाश और निर्माण, ‘कलियुग’ और ‘सतयुग’ का एक निरन्तर क्रम चला करता है। यह एक ऐसी इतिहास-दृष्टि है जो व्यक्ति के रूप में मनुष्य के अकेलेपन पर जो देती है, लेकिन इतिहास में मनुष्य की स्वतन्त्र भूमिका का निषेध करती है। यह भारतीय नियतिवाद का पश्चिमी आधुनिकतावाद के साथ एक सुविधाजनक गंठजोड़ है।
मुक्तिबोध ने एक ओर तो लघुमानववादी आधुनिकतावादियों की इतिहासदृष्टि से संघर्ष किया तो दूसरी ओर रामविलास जी की भारत के (विशेष रूप से हिन्दी प्रदेश के) ‘प्रगतिशील अतीत’ की धारणा पर बल देने वाली सरलरेखीय प्रगतिवादी इतिहासदृष्टि से। उन्होंने परम्परा के खण्डन या मण्डन से परे जाकर इतिहास का द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी ढंग से अध्ययन करते हुए सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के जटिल सूत्रों को समझने की चेष्टा की। उन्होंने रामविलास जी की तरह समाज और साहित्य के द्वन्द्वात्मक संबंध को ही नहीं देखा, बल्कि समाज और साहित्य के अंतद्र्वंद्वों पर भी ध्यान केन्द्रित किया। यों मुक्तिबोध ने जनसाधारण के संघर्ष में साहित्यालोचन की साझेदारी सुनिष्चित की कि जिसके लिए इतिहास सीना फुलाने या उलझने की जगह नहीं थी बल्कि सीखने औैर समझने का इलाका था। नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डेय जैसे समकालीन माक्र्सवादी आलोचकों ने कतिपय उलझनों और सहमतियों के बावजूद मूलतः इसी नजरिए को माक्र्सवादी आलोचना की इतिहासदृष्टि के रूप में विकसित किया। समाज के द्वन्द्व साहित्य मेें प्रकट होते हैं। लेकिन जस के तस नहीं, कि जैसे साहित्य समाज का दर्पण हो। बल्कि इसलिए कि साहित्य स्वंय सामाजिक संघर्ष का एक रूप है। वह अपने समाज की निर्मिति है और उसकी आलोचना भी। वह समाज को प्रतिबिम्बित भी करता है, और अपने तर्क से उसे बदलने की कोषिष भी। साहित्य और समाज के इस द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध पर ध्यान देना, फिर साहित्य में प्रतिबिम्बित सामाजिक संघर्ष को माक्र्सी नजरिये से समझने का यत्न करना, यही साहित्य की माक्र्सवादी इतिहास दृष्टि है। यह साहित्य में निहित इतिहास को सर्वहारा दृष्टि से पढ़ना है। यह उसके राष्ट्रवादी पाठ से अलग है, जहां साहित्य ‘राष्ट्र’ की महान परम्परा का एक अवयव मात्र है। जहां सहमति की खोज है, संघर्ष की नहीं। मार्क्सवादी आलोचना और इतिहासदृष्टि: संघर्ष और आत्मसंघर्ष
– आशुतोष कुमार(एक)
बहुत सुलझा हुआ लेख आशुतोष जी. दिशाबोधक !
अत्यंत मार्मिक आलोचना .
aalochna ke sandarbh me behad sajag aur tarkik drishti…sadhuvad.
अच्छा लेख
एक बेहतरीन तस्वीर खींची है आप ने आलोचना के संदर्भ में… साधुवाद..