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एलिसन (छद्म नाम) अपनी आठ साल की बेटी के साथ एक किराए की काॅटेज में रहती थी। कुछ हफ्तों तक अपने एक सहकर्मी के साथ उसका संबंध भी रहा था, जिसे वह खत्म कर चुकी थी। एक शाम देर से उस सहकर्मी ने आकर अपने मामले की वकालत शुरू कर दी, फिर बहस करने लगा, फिर धमकाया। आखिरकार उससे जबरदस्ती की।
एलिसन जानती थी, कि अगर वह चिल्लाती और संघर्ष करती है, तो उसकी बच्ची जो ऊपर गहरी नींद में सो रही है केवल वही उसे सुन सकेगी। उसे यह बात बहुत भयावह लगी कि उसकी बच्ची जग जाएगी और दौड़ते हुए सीढ़ियों से नीचे आकर अपनी मां का यौन उत्पीड़न होते हुए देखेगी। उसने पाया कि उसके पास कोई और उपाय नहीं है सिवाय इसके कि वह जितनी जल्दी और शांतिपूर्ण ढंग से संभव हो सके इसे निबटा ले जाए।
उस रात एलिसन का बलात्कार हुआ। बलात्कार इसे ही कहते हैं: किसी स्त्री की इच्छा के बगैर उसके साथ यौन संबंध। कानून बनाने और लागू करने वाले कुछ सामान्य से अधिक मतिभ्रमित लोगों की सुनें तो पुरुष भी बलात्कृत हो सकता है। बलात् गुदा मैथुन के पुराने अपराध अब पुरुष-बलात्कार बन गए हैं – जैसे कि स्त्रियां के साथ बलात् गुदा मैथुन नहीं हो सकता।
एक समय था जब हमने शारीरिक प्रवेश द्वारों के अंतरों और उनके संभावित महत्व को जाना, लेकिन वह तब की बात थी और यह वर्तमान है। जजों द्वारा अब भी पुरुष बलात्कार के प्रयासों के लिये काफी अधिक सजाएं दी जा रही हैं बनिस्बत उसके जो वे स्त्री से बलात्कार किये जाने के मामलों में देते हैं। नए नामकरणों ने यौन उत्पीड़न की प्रकृति और गंभीरता अथवा कानून की नजर में विद्यमान स्त्री और पुरुष की असमानता के बारे में कोई नई सोच नहीं दी है।
अगले दिन जब एलिसन काम पर गई तो वह बहुत जर्द और अलग-थलग थी जिसने उसके सहकर्मियों को चिंतित कर दिया। अंततः उनमें से एक ने यह जान लिया कि समस्या क्या थी। सारी स्त्रियों के लिये यह जाहिर था कि एलिसन सेक्स के लिये सहमत नहीं थी।
हालांकि पुरुषों के लिये यह तो बस प्याले में तूफान जैसे था। उसने उसे दबोच तो नहीं लिया था, क्या ऐसा किया था उसने? लेकिन निश्चित तौर पर उसने यही किया था। वह लुटी हुई महसूस कर रही थी, उसे ‘‘पीकदान की तरह’’ इस्तेमाल किया गया था और उसे अपने-आप से घिन आ रही थी। उसके आत्माभिमान को लगी चोट संभवतः कभी न भरे। दोषी जानता था कि उसने उसे चोट पहुंचाई है और तृप्त था। काम के दौरान, उसने ऐसा व्यवहार किया जैसे कुछ हुआ ही न हो। एलिसन ने अपना काम त्याग दिया, अपनी बेटी को स्कूल से निकाला और शहर छोड़ दिया।
एलिसन ने पुलिस में कोई शिकायत नहीं दी। अगर वह ऐसा करती तो संभवतः वह बेहद कौशल और हमदर्दी के साथ बरती जाती और जिन लोगों से उसका वास्ता पड़ता वे भी घटना के उसके ब्यौरे पर संदेह प्रदर्शित नहीं करते, लेकिन समाधान की दिशा में थोड़ा ही कुछ किया जाता। संभोग बतौर तथ्य साबित तभी होता यदि वह घटना के बाद बिना नहाए-धोए पेश होती और इससे शामिल पुरुष की पहचान भी हो सकती।
इस तरह सारा मामला सहमति के सवाल पर केन्द्रित हो जाता है। यहां कोई गवाह नहीं था, बच्ची उस दौरान सोती रही। पुरुष कहेगा कि अंततः वह सहमत हो गई थी, वह कहेगी कि वह आखिरकार प्रस्तुत हो गई। कोई भी काम चलाऊ वकील उसके केस को क्राॅस-एक्जामिनेशन के दौरान ही खारिज करा देता। अवमानना की कथा को बार-बार सुनाते हुए उसे विभिन्न अजनबी समूहों के सामने अनगिनत बार बलात्कार से दुबारा गुजरना पड़ता, केवल अपने उत्पीड़क को आखिरकार खुदपर विजयोल्लास करते हुए देखने के लिये। क्योंकि उसीके (बलात्कारी के) शब्द होंगे जो उसके (एलिस के) खिलाफ होंगे। सजा से बचने के लिये उसे बस इतना कहना होगा कि उसने चुप्पी को उसकी सहमति समझ लिया था।
बलात्कार का कानून पिछड़ा हुआ तथा बेकार है और इसे खत्म कर दिया जाना चाहिए। इसमें सुधार की कोशिशों में संसाधनों और पुलिस बल के प्रयासों का अत्यधिक व्यय हुआ है। फिर भी इसके बदले में यह महिलाओं की सुनवाई में बेहतरी के लिहाज से अपर्याप्त रहा है। समस्या खुद बलात्कार की अवधारणा में ही निहित है।
बलात्कार का अपराध पीड़ित के खिलाफ नहीं, बल्कि राज्य के खिलाफ होता है; रेजिना बनाम बलात्कारी के केस में पीड़ित ही प्राथमिक सबूत (एक्जिबिट ए) थी। बतौर सबूत पीड़ित को पूछताछ और हर संभव ढंग से जांचा जाएगा क्योंकि बलात्कार को अत्यंत संगीन अपराध माना जाता है, जिसे केवल हत्या से नीचे माना जाता है।
ये औरतें नहीं पुरुष हैं जो तय करते हैं कि बलात्कार बहुत जघन्य अपराध है। बलात्कार में एकमात्र हथियार जो मायने रखता है, लिंग है, जिसकी धारणा अत्यंत विध्वंसक वस्तु रूप में की गई है। जबकि एक पुरुष अपने नाजुक लिंग की अपेक्षा अंगूठे से अधिक नुकसान पहुंचा सकता है, लेकिन यह उसका लिंग है जो उसके लिये उसके पौरुष का औजार और प्रतीक है। बलात्कार की धारणा पुरुष की लिंग-केन्द्रिकता की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है जिसे स्वीकारने की बजाय स्त्रियां जानती बेहतर हैं।
अगर आप किसी बलात्कृत स्त्री से बात करें तो, योनि में लिंग के अनचाहे प्रवेश की अपेक्षा वे बलात्कार के साथ जुड़ी अन्य अपमानजनक बातों पर अधिक क्रोधित होती हैं। उदाहरण के लिये, लिंग को जबरदस्ती मुंह में डालना जो कि बलात्कार नहीं बल्कि यौनिक हिंसा है या बलात् गुदा मैथुन, चेहरे या छाती पर वीर्य निष्कासन और ऐसी ही अन्य बातें पीड़ित के लिये अधिक असहनीय होती हैं। कुछ मामलों में, बलात्कारी द्वारा पीड़ित से जबरन बुलवाए गए शब्द घटना के वर्षों बाद तक स्मृति में बने रहते हैं और व्याकुल करते हैं।
अगर शारीरिक हिंसा महिलाओं के लिये अत्यधिक भयावह नहीं होती, तो अधिकांश बलात्कार कभी होते ही नहीं। अगर आप किसी पुरुष का लिंग अपने शरीर में इसलिए प्रविष्ट होने देते हैं क्योंकि वह आपकी नाक काट देगा तो निश्चित तौर पर आप अपनी नाक का कटना कहीं अधिक बुरा मानते हैं; लेकिन मूर्खतापूर्ण कानून आपकी राय से इत्तेफाक नहीं रखता। आपकी नाक काटने की सजा बलात्कार की सजा से कम ही होगी, लेकिन तब आप पर यह संदेह नहीं किया जा सकेगा कि आप अपनी नाक काटे जाने पर सहमत थीं।
ऐतिहासिक तौर पर बलात्कार का अपराध स्त्री के विरुद्ध नहीं, बल्कि यह पुरुषों द्वारा पुरुषों के विरुद्ध किया गया अपराध है। ऐतिहासिक तौर पर स्त्री पर नियंत्रण रखने वाले पुरुष – पिता, संरक्षक अथवा पति – के लिए यह मसला अनाधिकार प्रयोग करने वाले पुरुष के खिलाफ होता है। जब राज्य भरपाई करने की बात करता है तो वह पीड़ित स्त्री के पक्ष से नहीं, बल्कि पितृसत्ता के पक्ष से कार्रवाई करता है।
यदि स्त्री अपने पुरुष संरक्षक की इच्छा के विरुद्ध या उसे बताए बगैर किसी अजनबी पुरुष से संबंध स्थापित करे तो मुजरिम वह स्त्री होगी और निश्चित तौर पर सख्त सजा की हकदार होगी। यहां तक कि कुछ समाजों में वह पुरुष उसकी हत्या तक कर सकता है, जिसके प्रति उसे विश्वासघाती माना गया है। ब्रिटिश अदालतांे में यह ऐतिहासिक परम्परा बचाव पक्ष के वकील की इस जिम्मेदारी के रूप में बची हुई है जिसमें कि वह दुव्र्यवहार के आरोपी पुरुष को बरी कराने के लिये स्वयं महिला को ही अभियुक्त बना देता है। इस तरह अदालती प्रक्रिया पीड़ित को एक सीमा तक चेाट पहुंचाने के लिये बाध्य है, कभी-कभी तो खुद बलात्कार से भी गंभीर ढंग से।
उक्त अन्याय का अस्पष्ट आभास होने के चलते अब बलात्कार पीड़ित की पहचान गुप्त रखी जाने लगी है। लेकिन यह सीधे तौर पर पीड़ित की इस समझ को पुनस्र्थापित करता है कि उसके विरुद्ध हुए अपराध से वह शर्मसार हुई है। बलात्कृत महिला के साथ जुड़ी शर्म की किसी भी तरह की धारणा के स्पष्ट प्रतिवाद के तौर पर कुछ महिलाएं अब इस बात पर जोर दे रही हैं कि बलात्कारियों पर खुले और सार्वजनिक रूप से मुकदमा चलाया जाए।
अपने कठोरतम रूप में पितृसत्तात्मक नैतिकता यह मांग करती है कि अनाधिकृत लिंग को प्रविष्ट होने देने की बजाय स्त्री को मृत्यु तक संघर्ष करना चाहिए। अगर वह जिंदा बच जाती है, तो परिवार पर लगे बदनामी के दाग को धुलने के लिए उसके पुरुष संबंधी उसकी हत्या तक कर सकते हैं। मृत्यु तक संघर्ष करते हुए मर जाना ही सहमति के संदेह से बरी होने का स्त्री के पास एकमात्र जरिया है; यह कितना भी अजीब लगे, लेकिन इससे कुछ भी कम को सहमति के सबूत के तौर पर व्याख्यायित किया जा सकता है।
न्याय पाने की कोशिश करती एक स्त्री जिसके पास दिखा सकने के लिये चोट के निशान नहीं हैं और न ही वह संघर्ष का कोई साक्ष्य प्रस्तुत कर सकती है पहले से ही मुसीबत में है। बलात्कृत स्त्रियों का बड़ा समुदाय न्याय पाने की कोशिश तक नहीं करता। हर रोज पुरुष पूरी छूट के साथ बगल में लेटी स्त्री का बलात्कार करते हें, क्योंकि सहमति से इनकार को साबित नहीं किया जा सकता। बलात्कार कोई ऐसा असाधारण अपराध नहीं है, जिसे कुछ निंदनीय व्यक्ति अंजाम देते हों, यह बड़ी संख्या में स्त्रियों की रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है। किसी अजनबी से बलात्कृत होना, सड़क पर चलती बस से टक्कर हो जाने जैसा है, आपके घाव भर जाते हैं। लेकिन ऐसा व्यक्ति जिसे आप मुहब्बत करते हैं और जिसकी दुनिया में सबसे अधिक इज्जत करते हैं, जब इस बात से बेपरवाह हो जाता है कि आप उसकी इच्छाओं का स्वागत कर रहे हैं या नहीं तो इसका मनोवैज्ञानिक परिणति ताउम्र और छिन्न-भिन्न कर देने वाली होता है।
बलात्कार के अपराध का इतिहास शातिर महिलाओं द्वारा मासूम पुरुषों पर बलात्कार के झूठे आरोप लगाकर उनके नाम पर कीचड़ उछालने की संभावना में अधिकारियों की सनकी दिलचस्पी की भी व्याख्या करता है।
यह निश्चित तौर पर सही है कि किसी भी पुरुष जिस पर सार्वजनिक तौर पर बलात्कार का आरोप लगाया गया है, उसे नुकसान पहुंचता है। लेकिन उन स्थितियों में जबकि केवल 5.6 प्रतिशत शिकायतों में ही सजा तक हो पाती है, पुरुषों की बड़ी संख्या अपने आप को झूठे आरोप में फंसाया गया बताएगी। दरअसल ये तो वे पीड़ित होते हैं जिन्हें गलत साबित होने के अतिरिक्त सदमे के साथ जीना होता है।
अपराध से लेकर जांच-पड़ताल और फिर परिणाम आने तक की मौजूदा स्थिति भी तबाही को भीषणतम बनाती है। यह सलाह कि घटना के तत्काल बाद परेशान स्त्री का विडियो टेप बनाया जाना चाहिए और वह टेप जूरी को दिखाया जाए बहुत क्षोभजनक है। कुछ ही बलात्कृत स्त्रियां तो पुलिस के पास जाती हैं, विडियो द्वारा अग्निपरीक्षा का यह ढंग उनकी गिनती और भी कम कर देगा।
एक उपाय तो है, लेकिन वह नारीवादियों और कानूनविदों द्वारा स्वीकार्य नहीं है। यह कि सम्पूर्णता में बलात्कार के अपराध को समाप्त कर दिया जाए, इसके बजाय हिंसा के कानून को और व्यापक बनाते हुए सेक्सुअल उत्पीड़न की गंभीरता के विभिन्न स्तरों को उसमें शामिल किया जाए। उदाहरण के लिये, बच्चों का अंग-भंग कर देने जैसे उत्पीड़न को स्त्रियों से बलात् संभोग की अपेक्षा कई गुना गंभीर माना जाए।
अगर हम एलिसन के केस पर वापस लौटें, तो यह देखा जा सकता है कि उसने जो सहन किया उसे हम च्मजजल त्ंचम कह सकते हैं। मुझे संदेह है कि वह अपने दोषी को सालों के लिए जेल भेजना चाहती होगी; बल्कि 100 घंटे कम्युनिटी सर्विस की सजा काटते देखना शायद उसे अधिक बेहतर महसूस करा सकने की ओर पहल होती। उसे भी शायद यह स्त्रियों को टेकिंग फाॅर ग्रांटेड लेने के बारे में कुछ सबक सिखा सके। हमले के अन्य पहलुओं, जैसे कि पीड़ित के गर्भवती होने अथवा संक्रमण के खतरे को भी ध्यान में रखा जाए।
बहुत से नारीवादी हैं जो कि बलात्कार के अपराध को इस तरह कम करके आंकने पर बहुत बुरी प्रतिक्रिया देंगे, दरअसल कुछ नारीवादी तो यह भी मांग कर रहे हैं कि दोषी बलात्कारी का लिंग काट दिया जाए, यह लिंग को वैसा ही बढ़ा हुआ महत्व देना है जैसा कि पुरुष देते हैं। इस आम अपराध के दोषसिद्ध कुछ अभागों के लिये सजा को बढ़ा देना, जबकि एक बड़ी संख्या आसानी से छूट जाती है, सही रास्ता नहीं है। इसके उलट लिंगकटा बलात्कारी अगली बार अपने लिंग से अधिक घातक किसी चीज का प्रयोग करेगा।
इस अपराध का दर्जा घटाने के बदले में स्त्रियांे को सबूत पेश करने की बाध्यता में कमी की मांग करनी चाहिए। एक शिकायतकर्ता के अप्रामाणिक बयानों को कोई किसी इंसान को उसकी आजादी से वर्षों तक लिये वंचित किए जाने के पर्याप्त आधार के तौर पर नहीं ले सकता है। लेकिन अगर यौनांगों से जुड़े आम उत्पीड़न की बात कही गई हो, और उसमें हल्की सजा का प्रावधान हो, तो फिर स्त्री के बयान को बिना संदेह के अधिक तवज्जो दी जा सकती है। और हम सभी को बेवकूफी भरे विलम्बन और अत्यधिक खर्च वाले मुकदमों से नहीं गुजरना पड़ेगा जिनमें नशे में धुत अन्डरग्रेजुएट लोगों के मामले भी शामिल हैं जो हमबिस्तर हो जाते हैं और उठने पर यह भी याद नहीं कर सकते कि वास्तव में हुआ क्या था।
यह पहली बार नहीं है जब कोई सुधारक कानून से बलात्कार के अपराध को हटाने का सुझाव दे रहा है। कुछ देशों ने तो पहले ही कुछ हद तक अपने अपराध कानूनों में सुधार किया है, हालांकि वे भी अभी कुछ अधिक आगे नहीं बढ़ सके हैं और वहां जज नए मामलों के साथ सामान्य तौर पर ऐसा बर्ताव कर रहे हैं जैसे कि मामले तो वही पुराने हैं बस उनके नाम बदल दिये गये हैं।
हम जो चाहते हैं वह है सेक्सुअल मामलों के संपूर्ण रहस्यावरण की पूरी जांच, हर व्यक्ति के अधिकारों की पुनस्र्थापना, स्त्री-पुरुष, विवाहित-अविवाहित, गे और स्ट्रेट, बच्चे और बालिग सभी की सेक्सुअल स्वायत्तता, इससे जरा भी कम नहीं।
एलिसन जानती थी, कि अगर वह चिल्लाती और संघर्ष करती है, तो उसकी बच्ची जो ऊपर गहरी नींद में सो रही है केवल वही उसे सुन सकेगी। उसे यह बात बहुत भयावह लगी कि उसकी बच्ची जग जाएगी और दौड़ते हुए सीढ़ियों से नीचे आकर अपनी मां का यौन उत्पीड़न होते हुए देखेगी। उसने पाया कि उसके पास कोई और उपाय नहीं है सिवाय इसके कि वह जितनी जल्दी और शांतिपूर्ण ढंग से संभव हो सके इसे निबटा ले जाए।
उस रात एलिसन का बलात्कार हुआ। बलात्कार इसे ही कहते हैं: किसी स्त्री की इच्छा के बगैर उसके साथ यौन संबंध। कानून बनाने और लागू करने वाले कुछ सामान्य से अधिक मतिभ्रमित लोगों की सुनें तो पुरुष भी बलात्कृत हो सकता है। बलात् गुदा मैथुन के पुराने अपराध अब पुरुष-बलात्कार बन गए हैं – जैसे कि स्त्रियां के साथ बलात् गुदा मैथुन नहीं हो सकता।
एक समय था जब हमने शारीरिक प्रवेश द्वारों के अंतरों और उनके संभावित महत्व को जाना, लेकिन वह तब की बात थी और यह वर्तमान है। जजों द्वारा अब भी पुरुष बलात्कार के प्रयासों के लिये काफी अधिक सजाएं दी जा रही हैं बनिस्बत उसके जो वे स्त्री से बलात्कार किये जाने के मामलों में देते हैं। नए नामकरणों ने यौन उत्पीड़न की प्रकृति और गंभीरता अथवा कानून की नजर में विद्यमान स्त्री और पुरुष की असमानता के बारे में कोई नई सोच नहीं दी है।
अगले दिन जब एलिसन काम पर गई तो वह बहुत जर्द और अलग-थलग थी जिसने उसके सहकर्मियों को चिंतित कर दिया। अंततः उनमें से एक ने यह जान लिया कि समस्या क्या थी। सारी स्त्रियों के लिये यह जाहिर था कि एलिसन सेक्स के लिये सहमत नहीं थी।
हालांकि पुरुषों के लिये यह तो बस प्याले में तूफान जैसे था। उसने उसे दबोच तो नहीं लिया था, क्या ऐसा किया था उसने? लेकिन निश्चित तौर पर उसने यही किया था। वह लुटी हुई महसूस कर रही थी, उसे ‘‘पीकदान की तरह’’ इस्तेमाल किया गया था और उसे अपने-आप से घिन आ रही थी। उसके आत्माभिमान को लगी चोट संभवतः कभी न भरे। दोषी जानता था कि उसने उसे चोट पहुंचाई है और तृप्त था। काम के दौरान, उसने ऐसा व्यवहार किया जैसे कुछ हुआ ही न हो। एलिसन ने अपना काम त्याग दिया, अपनी बेटी को स्कूल से निकाला और शहर छोड़ दिया।
एलिसन ने पुलिस में कोई शिकायत नहीं दी। अगर वह ऐसा करती तो संभवतः वह बेहद कौशल और हमदर्दी के साथ बरती जाती और जिन लोगों से उसका वास्ता पड़ता वे भी घटना के उसके ब्यौरे पर संदेह प्रदर्शित नहीं करते, लेकिन समाधान की दिशा में थोड़ा ही कुछ किया जाता। संभोग बतौर तथ्य साबित तभी होता यदि वह घटना के बाद बिना नहाए-धोए पेश होती और इससे शामिल पुरुष की पहचान भी हो सकती।
इस तरह सारा मामला सहमति के सवाल पर केन्द्रित हो जाता है। यहां कोई गवाह नहीं था, बच्ची उस दौरान सोती रही। पुरुष कहेगा कि अंततः वह सहमत हो गई थी, वह कहेगी कि वह आखिरकार प्रस्तुत हो गई। कोई भी काम चलाऊ वकील उसके केस को क्राॅस-एक्जामिनेशन के दौरान ही खारिज करा देता। अवमानना की कथा को बार-बार सुनाते हुए उसे विभिन्न अजनबी समूहों के सामने अनगिनत बार बलात्कार से दुबारा गुजरना पड़ता, केवल अपने उत्पीड़क को आखिरकार खुदपर विजयोल्लास करते हुए देखने के लिये। क्योंकि उसीके (बलात्कारी के) शब्द होंगे जो उसके (एलिस के) खिलाफ होंगे। सजा से बचने के लिये उसे बस इतना कहना होगा कि उसने चुप्पी को उसकी सहमति समझ लिया था।
बलात्कार का कानून पिछड़ा हुआ तथा बेकार है और इसे खत्म कर दिया जाना चाहिए। इसमें सुधार की कोशिशों में संसाधनों और पुलिस बल के प्रयासों का अत्यधिक व्यय हुआ है। फिर भी इसके बदले में यह महिलाओं की सुनवाई में बेहतरी के लिहाज से अपर्याप्त रहा है। समस्या खुद बलात्कार की अवधारणा में ही निहित है।
बलात्कार का अपराध पीड़ित के खिलाफ नहीं, बल्कि राज्य के खिलाफ होता है; रेजिना बनाम बलात्कारी के केस में पीड़ित ही प्राथमिक सबूत (एक्जिबिट ए) थी। बतौर सबूत पीड़ित को पूछताछ और हर संभव ढंग से जांचा जाएगा क्योंकि बलात्कार को अत्यंत संगीन अपराध माना जाता है, जिसे केवल हत्या से नीचे माना जाता है।
ये औरतें नहीं पुरुष हैं जो तय करते हैं कि बलात्कार बहुत जघन्य अपराध है। बलात्कार में एकमात्र हथियार जो मायने रखता है, लिंग है, जिसकी धारणा अत्यंत विध्वंसक वस्तु रूप में की गई है। जबकि एक पुरुष अपने नाजुक लिंग की अपेक्षा अंगूठे से अधिक नुकसान पहुंचा सकता है, लेकिन यह उसका लिंग है जो उसके लिये उसके पौरुष का औजार और प्रतीक है। बलात्कार की धारणा पुरुष की लिंग-केन्द्रिकता की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है जिसे स्वीकारने की बजाय स्त्रियां जानती बेहतर हैं।
अगर आप किसी बलात्कृत स्त्री से बात करें तो, योनि में लिंग के अनचाहे प्रवेश की अपेक्षा वे बलात्कार के साथ जुड़ी अन्य अपमानजनक बातों पर अधिक क्रोधित होती हैं। उदाहरण के लिये, लिंग को जबरदस्ती मुंह में डालना जो कि बलात्कार नहीं बल्कि यौनिक हिंसा है या बलात् गुदा मैथुन, चेहरे या छाती पर वीर्य निष्कासन और ऐसी ही अन्य बातें पीड़ित के लिये अधिक असहनीय होती हैं। कुछ मामलों में, बलात्कारी द्वारा पीड़ित से जबरन बुलवाए गए शब्द घटना के वर्षों बाद तक स्मृति में बने रहते हैं और व्याकुल करते हैं।
अगर शारीरिक हिंसा महिलाओं के लिये अत्यधिक भयावह नहीं होती, तो अधिकांश बलात्कार कभी होते ही नहीं। अगर आप किसी पुरुष का लिंग अपने शरीर में इसलिए प्रविष्ट होने देते हैं क्योंकि वह आपकी नाक काट देगा तो निश्चित तौर पर आप अपनी नाक का कटना कहीं अधिक बुरा मानते हैं; लेकिन मूर्खतापूर्ण कानून आपकी राय से इत्तेफाक नहीं रखता। आपकी नाक काटने की सजा बलात्कार की सजा से कम ही होगी, लेकिन तब आप पर यह संदेह नहीं किया जा सकेगा कि आप अपनी नाक काटे जाने पर सहमत थीं।
ऐतिहासिक तौर पर बलात्कार का अपराध स्त्री के विरुद्ध नहीं, बल्कि यह पुरुषों द्वारा पुरुषों के विरुद्ध किया गया अपराध है। ऐतिहासिक तौर पर स्त्री पर नियंत्रण रखने वाले पुरुष – पिता, संरक्षक अथवा पति – के लिए यह मसला अनाधिकार प्रयोग करने वाले पुरुष के खिलाफ होता है। जब राज्य भरपाई करने की बात करता है तो वह पीड़ित स्त्री के पक्ष से नहीं, बल्कि पितृसत्ता के पक्ष से कार्रवाई करता है।
यदि स्त्री अपने पुरुष संरक्षक की इच्छा के विरुद्ध या उसे बताए बगैर किसी अजनबी पुरुष से संबंध स्थापित करे तो मुजरिम वह स्त्री होगी और निश्चित तौर पर सख्त सजा की हकदार होगी। यहां तक कि कुछ समाजों में वह पुरुष उसकी हत्या तक कर सकता है, जिसके प्रति उसे विश्वासघाती माना गया है। ब्रिटिश अदालतांे में यह ऐतिहासिक परम्परा बचाव पक्ष के वकील की इस जिम्मेदारी के रूप में बची हुई है जिसमें कि वह दुव्र्यवहार के आरोपी पुरुष को बरी कराने के लिये स्वयं महिला को ही अभियुक्त बना देता है। इस तरह अदालती प्रक्रिया पीड़ित को एक सीमा तक चेाट पहुंचाने के लिये बाध्य है, कभी-कभी तो खुद बलात्कार से भी गंभीर ढंग से।
उक्त अन्याय का अस्पष्ट आभास होने के चलते अब बलात्कार पीड़ित की पहचान गुप्त रखी जाने लगी है। लेकिन यह सीधे तौर पर पीड़ित की इस समझ को पुनस्र्थापित करता है कि उसके विरुद्ध हुए अपराध से वह शर्मसार हुई है। बलात्कृत महिला के साथ जुड़ी शर्म की किसी भी तरह की धारणा के स्पष्ट प्रतिवाद के तौर पर कुछ महिलाएं अब इस बात पर जोर दे रही हैं कि बलात्कारियों पर खुले और सार्वजनिक रूप से मुकदमा चलाया जाए।
अपने कठोरतम रूप में पितृसत्तात्मक नैतिकता यह मांग करती है कि अनाधिकृत लिंग को प्रविष्ट होने देने की बजाय स्त्री को मृत्यु तक संघर्ष करना चाहिए। अगर वह जिंदा बच जाती है, तो परिवार पर लगे बदनामी के दाग को धुलने के लिए उसके पुरुष संबंधी उसकी हत्या तक कर सकते हैं। मृत्यु तक संघर्ष करते हुए मर जाना ही सहमति के संदेह से बरी होने का स्त्री के पास एकमात्र जरिया है; यह कितना भी अजीब लगे, लेकिन इससे कुछ भी कम को सहमति के सबूत के तौर पर व्याख्यायित किया जा सकता है।
न्याय पाने की कोशिश करती एक स्त्री जिसके पास दिखा सकने के लिये चोट के निशान नहीं हैं और न ही वह संघर्ष का कोई साक्ष्य प्रस्तुत कर सकती है पहले से ही मुसीबत में है। बलात्कृत स्त्रियों का बड़ा समुदाय न्याय पाने की कोशिश तक नहीं करता। हर रोज पुरुष पूरी छूट के साथ बगल में लेटी स्त्री का बलात्कार करते हें, क्योंकि सहमति से इनकार को साबित नहीं किया जा सकता। बलात्कार कोई ऐसा असाधारण अपराध नहीं है, जिसे कुछ निंदनीय व्यक्ति अंजाम देते हों, यह बड़ी संख्या में स्त्रियों की रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है। किसी अजनबी से बलात्कृत होना, सड़क पर चलती बस से टक्कर हो जाने जैसा है, आपके घाव भर जाते हैं। लेकिन ऐसा व्यक्ति जिसे आप मुहब्बत करते हैं और जिसकी दुनिया में सबसे अधिक इज्जत करते हैं, जब इस बात से बेपरवाह हो जाता है कि आप उसकी इच्छाओं का स्वागत कर रहे हैं या नहीं तो इसका मनोवैज्ञानिक परिणति ताउम्र और छिन्न-भिन्न कर देने वाली होता है।
बलात्कार के अपराध का इतिहास शातिर महिलाओं द्वारा मासूम पुरुषों पर बलात्कार के झूठे आरोप लगाकर उनके नाम पर कीचड़ उछालने की संभावना में अधिकारियों की सनकी दिलचस्पी की भी व्याख्या करता है।
यह निश्चित तौर पर सही है कि किसी भी पुरुष जिस पर सार्वजनिक तौर पर बलात्कार का आरोप लगाया गया है, उसे नुकसान पहुंचता है। लेकिन उन स्थितियों में जबकि केवल 5.6 प्रतिशत शिकायतों में ही सजा तक हो पाती है, पुरुषों की बड़ी संख्या अपने आप को झूठे आरोप में फंसाया गया बताएगी। दरअसल ये तो वे पीड़ित होते हैं जिन्हें गलत साबित होने के अतिरिक्त सदमे के साथ जीना होता है।
अपराध से लेकर जांच-पड़ताल और फिर परिणाम आने तक की मौजूदा स्थिति भी तबाही को भीषणतम बनाती है। यह सलाह कि घटना के तत्काल बाद परेशान स्त्री का विडियो टेप बनाया जाना चाहिए और वह टेप जूरी को दिखाया जाए बहुत क्षोभजनक है। कुछ ही बलात्कृत स्त्रियां तो पुलिस के पास जाती हैं, विडियो द्वारा अग्निपरीक्षा का यह ढंग उनकी गिनती और भी कम कर देगा।
एक उपाय तो है, लेकिन वह नारीवादियों और कानूनविदों द्वारा स्वीकार्य नहीं है। यह कि सम्पूर्णता में बलात्कार के अपराध को समाप्त कर दिया जाए, इसके बजाय हिंसा के कानून को और व्यापक बनाते हुए सेक्सुअल उत्पीड़न की गंभीरता के विभिन्न स्तरों को उसमें शामिल किया जाए। उदाहरण के लिये, बच्चों का अंग-भंग कर देने जैसे उत्पीड़न को स्त्रियों से बलात् संभोग की अपेक्षा कई गुना गंभीर माना जाए।
अगर हम एलिसन के केस पर वापस लौटें, तो यह देखा जा सकता है कि उसने जो सहन किया उसे हम च्मजजल त्ंचम कह सकते हैं। मुझे संदेह है कि वह अपने दोषी को सालों के लिए जेल भेजना चाहती होगी; बल्कि 100 घंटे कम्युनिटी सर्विस की सजा काटते देखना शायद उसे अधिक बेहतर महसूस करा सकने की ओर पहल होती। उसे भी शायद यह स्त्रियों को टेकिंग फाॅर ग्रांटेड लेने के बारे में कुछ सबक सिखा सके। हमले के अन्य पहलुओं, जैसे कि पीड़ित के गर्भवती होने अथवा संक्रमण के खतरे को भी ध्यान में रखा जाए।
बहुत से नारीवादी हैं जो कि बलात्कार के अपराध को इस तरह कम करके आंकने पर बहुत बुरी प्रतिक्रिया देंगे, दरअसल कुछ नारीवादी तो यह भी मांग कर रहे हैं कि दोषी बलात्कारी का लिंग काट दिया जाए, यह लिंग को वैसा ही बढ़ा हुआ महत्व देना है जैसा कि पुरुष देते हैं। इस आम अपराध के दोषसिद्ध कुछ अभागों के लिये सजा को बढ़ा देना, जबकि एक बड़ी संख्या आसानी से छूट जाती है, सही रास्ता नहीं है। इसके उलट लिंगकटा बलात्कारी अगली बार अपने लिंग से अधिक घातक किसी चीज का प्रयोग करेगा।
इस अपराध का दर्जा घटाने के बदले में स्त्रियांे को सबूत पेश करने की बाध्यता में कमी की मांग करनी चाहिए। एक शिकायतकर्ता के अप्रामाणिक बयानों को कोई किसी इंसान को उसकी आजादी से वर्षों तक लिये वंचित किए जाने के पर्याप्त आधार के तौर पर नहीं ले सकता है। लेकिन अगर यौनांगों से जुड़े आम उत्पीड़न की बात कही गई हो, और उसमें हल्की सजा का प्रावधान हो, तो फिर स्त्री के बयान को बिना संदेह के अधिक तवज्जो दी जा सकती है। और हम सभी को बेवकूफी भरे विलम्बन और अत्यधिक खर्च वाले मुकदमों से नहीं गुजरना पड़ेगा जिनमें नशे में धुत अन्डरग्रेजुएट लोगों के मामले भी शामिल हैं जो हमबिस्तर हो जाते हैं और उठने पर यह भी याद नहीं कर सकते कि वास्तव में हुआ क्या था।
यह पहली बार नहीं है जब कोई सुधारक कानून से बलात्कार के अपराध को हटाने का सुझाव दे रहा है। कुछ देशों ने तो पहले ही कुछ हद तक अपने अपराध कानूनों में सुधार किया है, हालांकि वे भी अभी कुछ अधिक आगे नहीं बढ़ सके हैं और वहां जज नए मामलों के साथ सामान्य तौर पर ऐसा बर्ताव कर रहे हैं जैसे कि मामले तो वही पुराने हैं बस उनके नाम बदल दिये गये हैं।
हम जो चाहते हैं वह है सेक्सुअल मामलों के संपूर्ण रहस्यावरण की पूरी जांच, हर व्यक्ति के अधिकारों की पुनस्र्थापना, स्त्री-पुरुष, विवाहित-अविवाहित, गे और स्ट्रेट, बच्चे और बालिग सभी की सेक्सुअल स्वायत्तता, इससे जरा भी कम नहीं।
बहुत अच्छे लेख के लिए धन्यवाद…….लेख के सहज भाषा में अनुवाद के लिए अनुवादक बधाई के पात्र हैं…..!
बहुत ही उम्दा लेख। बलात्कार और उससे जुड़े कानूनों की विसंगतियों का सटीक विश्लेषण।
very nice article about the matter. it should be mention the current mentality of youth of the nation about this matter
Very nice defined