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लूकाच ने इस बात के लिये बेलिंस्की की प्रशंसा की है कि उसने जिस लेखक की चीर-फाड़ की बाद में वह उसके अतिरिक्त कुछ और सिद्ध नहीं हो सका। लेकिन एक प्रतिभाशाली आलोचक में यह विवेक और अंतर्दृष्टि भी होनी चाहिए, एक विवेकशील भाषा और साहित्य के आलोचक के लिये तो यह और भी जरूरी है कि वह रचना-सक्षम उदीयमान प्रतिभाओं के भविष्य को देख सके और उनके लेखन मंे जो सार्थक और महत्वपूर्ण है उसे रेखांकित कर सके। बेशक इस सबके लिये उसे उनकी कमजोरियों को नजरअंदाज करने की जरूरत एकदम नहीं है। लेकिन इतना जरूरी है कि इन कमजोरियों की ओर इशारा उसे इस तरह करना चाहिए कि जो लेखकों को नए और बेहतर निर्माण की प्रेरणा दे सके। विचारधारा और रचनावस्तु के स्तर पर आलोचक का कोई समझौता या इस सिलसिले मंे दिखाई गई कैसी भी उदारता लेखक के लिये भी घातक हो सकती है। लेकिन उससे इतने विवेक और धैर्य की आशा जरूर की जानी चाहिए कि किसी भी लेखक के विचारधारागत समान बिन्दुओं की पहचान करके उन्हें बकायदा रेखांकित करने के बाद, मतभेद और विरोध के मुद्दों को वह रौशनी में लाए – बहुत से समान बिन्दुओं वाले लेखकों को लेकर इस मामले में इससे किसी कदर हमदर्दी और सहानुभूति की आशा भी कोई बहुत बेजा बात नहीं होगी – और इस तरह भविष्य में अपने अनुभव, मेधा और संवेदनशीलता के बल पर इन लेखकों के लिये वह एक अच्छा मार्गदर्शक साबित हो सकता है।
अभी हाल ही में प्रकाशित एक लेख में डाॅ.रामविलास के बारे में टिप्पणी करते हुए सुरेन्द्र चैधरी ने लिखा है ‘साहित्य के व्यापक समझ के संदर्भ में डाॅ.रामविलास शर्मा की जो भी कमियां रही हों पर उन्हें घाल-मेल का दोषी साबित करना मुश्किल है।…’ (वर्ष 1, अमरकांत, पृष्ठ 150) इस बारे में कहना यह है कि साहित्य में अतिशय कठोर किस्म का संकीर्णतावाद जिसके आधार पर कोई आलोचक घाल-मेल के दोष से बरी किया जा सकता है, ही वस्तुतः साहित्य की व्यापक समझ को प्रभावित करता है और इनमें से एक को बुरा बताकर दूसरे की तारीफ करना गलत है। आखिर इस बात का उत्तर क्या है कि डाॅ.रामविलास शर्मा की सबसे सार्थक और मूल्यवान आलोचनाएं वे ही हैं जो उन्होंने लेखकों के पक्ष में लिखी हैं? मेरा मतलब खास तौर से भारतेन्दु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचंद और निराला पर लिखी गई उनकी आलोचनाओं से है। इसके विपरीत अपने युग के कितने ही उदीयमान और आज के सुप्रतिष्ठित लेखकों – यशपाल, राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव, फणीश्वरनाथ रेणु और मुक्तिबोध का उनका विरोध आज उनके आलोचकीय विवेक के लिये ही एक चुनौती नहीं बन गया है? जिस चीज को लेकर लूकाच ने बेलिंस्की की तारीफ की थी, डाॅ.रामविलास शर्मा में साहित्य की उस द्वंद्वात्मक समझ और अपेक्षित संतुलन का दयनीय अभाव रहा है। पक्ष और विपक्ष में लिखी गई उनकी दोनों प्रकार की आलोचनाएं इसी द्वंद्वात्मक समझ के अभाव और संतुलनहीनता का शिकार हैं। बल्कि किसी द्वंद्वात्मक समझ का अभाव ही अंततः उनके एकांगी और असंतुलित होने का कारण भी है। जिन लेखकों के पक्ष में उन्होंने लिखा है उनकी सीमाओं और अंतर्विरोधों की ओर या तो उनकी निगाह जाती ही नहीं या फिर जान-बूझकर उन्हें अनदेखा करते हैं। लेकिन फिर भी उनकी इन आलोचनाओं का महत्व क्योंकि इनसे एक ओर यदि जनवादी प्रगतिशील लेखन की परम्परा को समझने में सहायता मिलती है, तो दूसरी ओर ऐसे साहित्य के मूल्यांकन एवं प्रतिभाओं के अन्वेषण में वे हमारा दिशा निर्देश करती हैं। इसके विपरीत जिन लोगों के विरोध में उन्होंने लिखा है उनकी अच्छाइयों की ओर प्रायः ही वह नहीं देखते और इससे भी आगे जाकर उनके मंतव्यों, आशयों और सरोकारों को वह विकृत करके पेश करने की बेइमानी भी बरतते हैं जिस आधार पर उन्हें घालमेल के दोष से बरी किया गया है, वस्तुतः उस संकीर्णता के कारण ही जहां कभी उन्होंने साहित्य में संयुक्त मोर्चे की संभावनाओं को धूमिल किया वहीं हिन्दी के समूचे प्रगतिशील लेखन और आन्दोलन को भी ऐसी सांघातिक चोट पहुंचाई कि शुरू की वे दरारें क्रमशः फैलती जाकर एक व्यापक अराजकता, अविश्वसनीयता, भटकाव और अंततः सम्पूर्ण विघटन का मूल कारण बनी। डाॅ.रामविलास शर्मा की अकूत शक्ति और प्रभाव क्षमता के अनुपात में ही एक सीमाहीन अराजकता और साहित्यिक-सांस्कृतिक विघटन भी पैदा हुआ, जिसके दुष्प्रभाव की जड़ें प्रगतिशील साहित्य और आन्दोलन की धरती में आज भी बहुत गहरी जमी देखी जा सकती है।
प्रगतिशील आलोचकों में यशपाल का विरोध करने वालों में डाॅ.रामविलास शर्मा के अलावा भी कुछ और लोग शामिल थे। लेकिन उनमें और डाॅ.शर्मा में एक मौलिक अंतर भी था। प्रकाशचन्द्र गुप्त और शिवदान सिंह चैहान ने इस मामले में पर्याप्त उदारता का परिचय दिया। इन लोगों ने यशपाल पर लगाए गए विभिन्न आरोपों का निराकरण ही नहीं किया, एक प्रगतिशील लेखक के रूप में, उनके वास्तविक महत्व और उपलब्धियों को रेखांकित भी किया। डाॅ.भगवतशरण उपाध्याय ने यदि दिव्या के सिलसिले में यशपाल की बेहद तीखी आलोचना की तो दूसरी ओर यह भी कहा ‘…यशपाल ने हिन्दी को जो दिया है वह न तो शरत् बाबू बंगला को दे सकते थे, न प्रेमचंद हिन्दी को…’ (देशद्रोही के पहले संस्करण के फ्लैप पर ज्ञानदान की कहानियों पर दिये गए अभिमत से उद्धृत) इसी तरह अमृतराय यदि एक ओर यशपाल की सेक्स-नैतिकता की दुए-लेले की, तो दूसरी ओर समूची साम्राज्यवाद-विरोधी लड़ाई में उनकी भूमिका को आदर से याद किया और उनकी कितनी ही कहानियों की प्रखर सामाजिक चेतना की सराहना की। इस मामले में कुल मिलाकर उनका रवैया एक ऐसे मित्र और साथी का था, जो अपनों में से ही किसी को गुमराह होते देखकर दुखी होता है ‘…यशपाल हमारे साथी है, हमारे अपने हैं और उनके लिये हमारे मन में स्नेह और आदर है। दूसरे इसलिये कि वे यशपाल हैं और उन्होंने हिन्दी को एक नहीं अनेक अच्छी-अच्छी खूबसूरत, साफ-सुथरी कहानियां दी हैं जिनका हिन्दी साहित्य में अमर स्थान है…’ (नई समीक्षा, संस्करण 1977, पृष्ठ 144)
यहां अमृतराय से सहमति-असहमति का सवाल एकदम नहीं है। सवाल सिर्फ इस बात का है कि यशपाल के कटुविरोध के बावजूद वह यशपाल के साथ एक साथी लेखक की हमदर्दी से पेश आते हैं। यहां शक उनकी समझदारी पर किया जा सकता है, लेकिन नीयत पर नहीं किया जा सकता।
डाॅ.रामविलास शर्मा की स्थिति इससे एकदम भिन्न है। यशपाल और दूसरे विरोधी लेखकों की आलोचना करते समय वह गैर-जिम्मेदार भी हैं और बदनीयत भी। गैर-जिम्मेदार इसलिये कि आधुनिक कथा साहित्य की किसी प्रामाणिक समझ के अभाव में लेखक की रचना-प्रक्रिया और सरोकारों की एकदम उपेक्षा करते हुए स्थूल नैतिकतावादी प्रतिमानों से चीजों को नापते-तोलते हैं और मनमाने निष्कर्ष निकालते हैं। बदनीयत वे इसलिये हैं कि संदर्भों से अलग करके उद्धरण जुटाते हैं, और इस कला में वे सचमुच माहिर हैं, जिसमें लेखक के पक्ष की उपेक्षा ही नहीं करते बहुत हल्के-फुल्के ढंग से व्यंग्य की फूंक से उसे उड़ाने की भी कोशिश की जाती है। समान विचार बिन्दुओं वाले लेखकों की आलोचना की तो बात ही अलग है, एकदम विरोधी विचारधारा के महत्वूपर्ण लेखकों को भी इतने हल्के ढंग से नहीं नकारा जा सकता। जैनेन्द्र, अज्ञेय और धर्मवीर भारती के अंधा युग के साथ वह इसी शैली में पेश आते हैं। अंधा युग की तुलना तो वह बड़े मजाकिया ढंग से नौटंकी से करने से भी नहीं चूकते। एक गंभीर आलोचक के लिये इससे अविश्वसनीय और अप्रामाणिक बन जाने का खतरा पैदा होता है। और डाॅ.रामविलास शर्मा के साथ भी बहुत बड़ी सीमा तक ऐसा ही हुआ है। डाॅ.शर्मा की विरोधी आलोचनाओं को पढ़कर हम उन लेखकों के बारे में एकदम कुछ नहीं जान पाते जिन्हें लेकर वे लिखी गई हैं। उनके बारे में वह हमारी समझ को विकसित और परिष्कृत एकदम नहीं करतीं – किसी हद तक उसे भोथरा बनाकर छोड़ देती हैं।
यशपाल संबंधी डाॅ.रामविलास शर्मा का मूल्यांकन परिमाण में बहुत अधिक न होने पर भी उसकी पर्याप्त चर्चा रही है। यशपाल के बारे में उन्होंने जो कुछ भी लिखा, यशपाल के परवर्ती मूल्यांकन में भी उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता और अरसे बाद आज भी वह काफी कुछ उद्धरणीय बना हुआ है। यह अलग बात है कि आज अधिकांश में उस सबका एकमात्र उपयोग या तो हिन्दी की प्रगतिशील आलोचना की पोलेमिकल प्रकृति को स्पष्ट करना होता है। या फिर यशपाल के वस्तुगत मूल्यांकन में उसे एक अवरोध के रूप में देखा जाता है और उसे आधार बनाकर यह कोशिश की जाती है कि कम से कम इतने लम्बे समय के बाद ही, यशपाल को सही जगह की ओर निर्देश किया जा सके।
डाॅ.रामविलास शर्मा ने स्वतंत्र रूप से यशपाल के तीन उपन्यासों पर लेख लिखे हैं – दादा काॅमरेड, देशद्रोही और झूठा सच पर। एक लेख ‘यशपालजी और अश्लीलता’ उन्होंने सन् 62 के ‘रूपलेखा’ के पूजा-दिपावली अंक में लिखा था। जहां तक मुझे पता है, यही यशपाल पर लिखा गया डाॅ.शर्मा का अंतिम लेख है। इस सबके अलावा उनकी प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं नामक पुस्तक में यशपाल पर बहुत विवादास्पद किस्म की सामग्री है। वह शुरू से ही यशपाल की खूबियों के बारे में या तो खामोश रहते हैं या फिर उद्धरणों को प्रसंग से काटकर रचना के मूल आशय को नजरअंदाज करके कुछ का कुछ साबित करने की कोशिश करते हैं। ऐसे सारे मामलों में वह पूर्वाग्रह और अतिरंजना से काम लेते हैं और व्यंग्य का सहारा लेकर अपनी बात को तर्कपूर्ण और प्रभावशाली साबित करने और बनाने का भ्रम पैदा करना चाहते हैं। अपने प्रिय लेखकों-उपन्यासकारों में खास तौर से प्रेमचन्द, वृन्दावनलाल वर्मा और अमृतलाल नागर में जिन तर्को के आधार पर किसी चीजों को पसन्द करके उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते नहीं अघाते, यशपाल और दूसरे लेखकों की आलोचना में वह उन बातों को एकदम अनदेखा करके आगे बढ़ जाते हैं और उनकी मामूली-सी कमजोरियों पर ही जिन्हें सामान्यतः अनदेखा भी किया जा सकता है, अपने मूल्यांकन को पूरी तरह केन्द्रित कर देते हैं। 1944 में लिखे गए अपने एक लेख ‘युद्ध और हिन्दी साहित्य’ में डाॅ.शर्मा ने राष्ट्रीय परम्परा में पले-बढ़े नए-पुराने लेखकों से आपसी सहयोग की बात कही है। इसी सहयोग की आवश्यकता पर बल देते हुए वे लिखते हैं ‘केवल नितांत अहंवादी, स्वरति और विकृत काम-भावनाओं के प्रेमी, उच्छृंखल और अराजकतावादी व्यक्ति ही इस कथन का विरोध करेंगे। शेष सभी स्वस्थ मन के देशभक्त लेखकों से हम सक्रिय सहयोग की आशा कर सकते हैं…’ (संस्कृति और साहित्य, पृष्ठ 56) इसी लेख में एक-दो पंक्तियों में वह प्रसंगवश राहुल और यशपाल की भी चर्चा करते हैं और वहां उनकी विरोधी और ध्वंसवादी दृष्टि और स्वर का अभाव है। वह लिखते हैं ‘नए लेखकों का रचनात्मक कार्य और भी तेजी के साथ हुआ। यशपाल ने अपने उपन्यास और कहानियां इसी समय में लिखीं। ‘देशद्रोही’ में उन्होंने युद्धजनित परिस्थितियों का चित्रण किया…’ (वही, पृष्ठ 52) इसी क्रम में डाॅ.शर्मा की यह टिप्पणी खास तौर से महत्वपूर्ण है ‘…कथादेश में राहुलजी और यशपाल ने नया कदम उठाया है; अपनी कथाओं में उन्होंने अछूते विषयों पर लेखनी उठाई है और अनूठी कथावस्तु का गठन किया है…’ (वही, पृष्ठ 55-56) यदि इस समय हम केवल यशपाल तक ही अपने को सीमित रखें तो सन् 44 तक यशपाल के दो उपन्यास निकले थे – दादा काॅमरेड और देशद्रोही। लेकिन इन उपन्यासों के अपने मूल्यांकन में डाॅ.शर्मा न तो कहीं नए कदम की ओर संकेत करते हैं और न ही ‘अछूते विषयों’ और ‘अनूठी कथावस्तु के गठन’ की चर्चा करते हैं और सिर्फ यही नहीं कि वह यशपाल के उपन्यासों की पूर्वाग्रहग्रस्त और एकांगी समीक्षा करते हैं, बल्कि जरूरी न होने पर भी या तो उनका अवमूल्यन करते हैं या फिर माक्र्सवादी सोच और समझ के प्रचार-प्रसार में उनकी सारी कोशिशों पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से उन्हें माक्र्सवाद समझने की सलाह देने लगते हैं। मेरी पहली बात के प्रमाण में ‘विप्लव’ की भूमिका को लेकर की गई उनकी यह टिप्पणी यहां है ‘…‘हंस’ से अलग ‘विप्लव’ ने भी जन-साहित्य के निर्माण में योग दिया। उसमें चिन्तन और अध्ययन के बदले प्रचार और मनोरंजन की सामग्री अधिक रहती थी और बिना जाने वह उस साहित्यिक धारा की सृष्टि कर रहा था जो भारतेन्दु युग की विशेषता थी…’ (वही, पृष्ठ 12) जिन यशपाल ने खूब सोच-समझकर बुलेट की जगह बुलेटिन का चुनाव किया था, जिससे वह सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन के लिये चेतना पैदा कर सकें। उनके पत्र ‘विप्लव’ के संदर्भ में ‘बिना जाने’ इस परम्परा के निर्माण की बात करना उसी बदनीयती का सबूत है जो डाॅ.शर्मा में यशपाल के मामले में शुरू से ही विद्यमान रही है। इस सिलसिले में उनका यह कथन द्रष्टव्य है ‘…यशपालजी को माक्र्सवाद पर पुस्तकें लिखने का शौक है। वह अपनी कई गलत धारणाएं शुक्लजी के अध्ययन से दूर कर सकते हैं…’ (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना, भूमिका, पृष्ठ 8) इस तरह के वक्तव्य देने आलोचकों और उन विवेकहीन पुराणपंथियों में वस्तुतः कोई अन्तर नहीं है, जो आज की सारी वैज्ञानिक उपलब्धियों का उत्स वेदों में ढूंढ़कर संतोष पाते हैं। अपने समर्थन में झूठी-सच्ची दलीलें जुटाकर और हर चीज के लिये वे अपनी आंखे बन्द करके चलते हैं। ऐसे वक्तव्यों को ही आलोचना के वैज्ञानिक टेम्पर को नष्ट करके समूची प्रगतिशील आलोचना को आपसी वैमनस्य की रंगभूमि में बदल देने का श्रेय दिया जाना चाहिए। यह वैमनस्य, जिसके लिये जब-तब डाॅ.शर्मा को अपने वक्तव्यों में सफाई देने की जरूरत महसूस हुई है, किसी आलोचक के विवेक को किस कदर कुंठित कर सकता है इसके उदाहरण डाॅ.रामविलास शर्मा के यहां जुटाने के लिये अलग से कोई कोशिश नहीं करनी पड़ती। हिन्दी व्यंग्य की शानदार परम्परा में जहां वह पढ़ीस और शंकर शैलेन्द्र जैसे लोगों को खूब भाव-विभोर होकर याद करते हैं, प्रसाद की तितली की भी किसी हद तक दाद देते हैं, वहीं यशपाल का जिक्र भी नहीं करते। प्रेमचन्द की परम्परा के अलम्बरदार उन्हंे पहाड़ी, कृष्णचन्द्र, सत्येन्द्र शरत और राजेन्द्र यादव दिखाई देते हैं। यशपाल की ओर उनकी निगाह एकदम नहीं जाती है। राजनीतिक प्रसंगों को कथाबद्ध करने और समाज कुरीतियों, रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों के विरोध में जनमत तैयार करने के लिये जहां वह प्रेमचन्द की तारीफ करते नहीं अघाते, उन्हीं गुणों को यशपाल में वह या तो अवगुणों में बदल देते हैं या फिर उनका जिक्र ही नहीं करते। यशपाल की सारी सामाजिक-राजनीतिक चेतना को अनदेखा करके डाॅ.रामविलास शर्मा यशपाल को जैनेन्द्र कुमार और अज्ञेय के साथ रखकर देखते हैं और इस तरह मित्र और शत्रु की पहचान को एकदम मिटा देते हैं जो किसी भी माक्र्सवादी आलोचक की प्रमुख विशेषता होती है और जिसके सबब से ही लेनिन सारे अंतर्विरोधों और प्रतिक्रांतिकारी तत्वों के बावजूद तोलस्ताय के महत्व को समझ सके थे और गोर्की जैसे लेखकों को बहुत कुछ सीख सकने की सलाह देते हैं। इस सिलसिले में डाॅ.शर्मा के कुछ वक्तव्य उपयोगी हो सकते हैं ‘जैनेन्द्रजी ने ‘सुनीता’ में जो भाभीवाद शुरू किया था, यशपालजी ने मानो वही ‘दादा काॅमरेड’ में पकड़ लिया। वही आतंकवादी, वही साड़ी-जम्पर उतार परिस्थिति। ‘दादा काॅमरेड’ से लेकर ‘मनुष्य के रूप’ तक यशपाल ने यथार्थ के किस रूप को प्रतिबिम्बित किया है?…’ (प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं, पृष्ठ 118) इसी क्रम में वे आगे चलकर लिखते हैं ‘सवाल है कि यशपाल और उन जैसे उपन्यासकारों में यह सेक्स सज्जा इस भोंडे रूप में क्यों प्रकट होती है?…’ प्रेमचन्द और उनकी परम्परा के साथ के कथाकारों से यशपाल की तुलना करने पर बात साफ हो जाएगी। यशपाल के पात्र जनजीवन के प्रतिनिधि नहीं है। वह उस वर्ग के लोग हैं जिनके लिये सेक्स और आत्मपीड़ा की समस्याएं प्रधान हैं। इसलिये उनके साथ गलत या सही राजनीति जोड़ देने से ही वे प्रगतिशील नहीं हो जाते…’ (वही, पृष्ठ 13) इसी क्रम में अंतिम बात यह ‘यशपाल अपने कथा साहित्य में रूढ़िवाद से लड़ने वाली दृढ़ नारी का चरित्र नहीं दे पाते, कारण कि उसके प्रति, उनका दृष्टिकोण सामंती-पूंजीवादी भोगवादियों का है। इस भोगवाद को उन्होंने विज्ञान का रूप देने की भी कोशिश की है…’ (वही, पृष्ठ 20)
डाॅ.रामविलास शर्मा के इन कुछ वक्तव्यों में एक ओर यदि यशपाल संबंधी उनके प्रायः सारे आरोप आ गए हैं, तो दूसरी ओर वे उनकी समझ और समीक्षा-प्रणाली का भी प्रतिनिधित्व करने में सक्षम हैं जिसका उपयोग उन्होंने हिन्दी के प्रमुख प्रगतिशील लेखकों को नकारने में किया है। जैनेन्द्र की हवाई और रहस्यमयी क्रांति तथा अज्ञेय के घोर व्यक्तिवादी अहं और कुंठाग्रस्त शेखर एक जीवनी के साथ रखकर यशपाल को देखने वाली ‘प्रगतिशील’ समझ की हकीकत आज एकदम साफ हो चुकी है। किसी आलोचक से कहीं बेहतर ढंग से यह काम समय ने बहुत बेबाकी के साथ पूरा कर दिया है। जहां यशपाल के यथार्थ को प्रतिबिम्बित करने का सवाल है डाॅ.रामविलास शर्मा दादा काॅमरेड में उस ऐतिहासिक दौर को यशपाल के कथाबद्ध करने की कोशिश को एकदम नहीं देखना चाहते जो आतंकवादी आन्दोलन के एक समाजवादी आन्दोलन में विकसित होने का दौर था। वहां न वह सामाजिक और पारिवारिक घुटन की चक्की में पिसती यशोदा को देखते हैं और न ही रूढ़ि भंजिका शैल को, जो अपना जीवन अपनी इच्छा और जिम्मेदारी पर जीना चाहती है और जीती है। इसी तरह वह देशद्रोही में समूचे राजनीतिक परिदृश्य को जिस बारीकी के साथ अंकित किया गया है उसे नहीं देखना चाहते। न ही वह बद्रीबाबू जैसे कांग्रेसी नेताओं के छद्म अंतर्विरोधों को छीलने वाले व्यंग्य को देखना चाहते हैं। वह मूल्यों के उस संघर्ष को भी एकदम अनदेखा करते हैं जिसके बारे में डाॅ.शर्मा की देशद्रोही की समीक्षा के उत्तर में तब ही श्रीकृष्णदास ने टिप्पणी करते हुए लिखा था ‘स्थूल दृष्टि भी देख पाएगी कि खन्ना वैज्ञानिक का और रहीम अंधविश्वास का प्रतिनिधि हैे। इस प्रकार देशद्रोही प्रणय का नहीं दो विचारधाराओं का संघर्ष है। यह संघर्ष पुस्तक में निरन्तर मिलता है – नासिर और उसका पिता, खातून और उज्बेक स्त्री, गुलशां और स्वयं खन्ना इत्यादि…’(वीणा, जून 45, पृष्ठ 308) मनुष्य के रूप में पहाड़ी समाज के अंधविश्वासों और रुढ़ियों की शिकार शोभा की दारुण स्थिति का जो अंकन किया है, डाॅ.शर्मा अपनी आलोचना में उन सबकी कोई चर्चा नहीं करना चाहते। न ही द्वितीय विश्वयुद्ध से प्रभावित और त्रस्त भारतीय जनता की भावनाओं को देखना चाहते हैं, जो यशपाल ने अंकित की है। बैरिस्टर सरोला और सुतलीवाला जिस समाज के प्रतिनिधि पात्र हैं उसके अंतर्विरोधों को इतनी बारीकी से उद्घाटित करने के लिये भी वह यशपाल को कोई श्रेय देने को तैयार नहीं हैं। एक कम्यूनिस्ट के रूप में भूषण का त्याग और बलिदान तथा एक निम्नवर्गीय पात्र के रूप में अंकित उसकी वर्ग चेतना, जिसके कारण वह चाहते हुए भी मनोरमा को अपना नहीं पाता, ये सारी चीजें डाॅ.शर्मा के लिये कोई महत्व नहीं रखतीं। क्योंकि अपने विरोधियों की अच्छाइयों को नकारना या उपेक्षा करना ही उनकी आलोचना की प्रमुख विशेषता है। झूठा सच बेशक डाॅ.शर्मा की समीक्षा आंशिक रूप से सराहनापूर्ण है, लेकिन उपन्यास की उपलब्धियों के अनुपात में वह सराहना कम ही समझी जाएगी क्यांेकि अपने प्रिय लेखकों के उससे कहीं साधारण उपन्यासों पर उन्होंने कहीं अधिक विस्तार से और सराहनापूर्ण ढंग से लिखा है।
यशपाल संबंधी अपने सारे मूल्यांकन में डाॅ.रामविलास शर्मा एक ओर यदि घोर नैतिकतावादी आग्रहों के शिकार हैं, तो दूसरी ओर कट्टर और सेक्टेरियन दृष्टिकोण के। उनके नैतिकतावादी आग्रहों का ही परिणाम यह होता है कि साहित्य में वह स्त्री-पुरुष संबंधों के अंकन को ही एतराज-तलब समझने लगते हैं और हिन्दी के कथाकारों पर शरतबाबू के प्रभाव को लेकर बेहद दुखी और आतंकित दिखाई देते हैं। ‘देवदास की समस्या’ और ‘शरच्चन्द्र चटर्जी’ जैसे लेख उनकी इसी मानसिकता को स्पष्ट करने वाले लेख हैं जिनमें वह एक आलोचक से कहीं ज्यादा एक दरोगा के फरायज अंजाम देने के फिक्रमंद दिखाई देते हैं। दादा काॅमरेड और देशद्रोही की उनकी समीक्षा वस्तुतः पूरी तरह इसी विरोध-दृष्टि से नियंत्रित और अनुशासित है। ‘यशपालजी और अश्लीलता’ शीर्षक अपने लेख में डाॅ.शर्मा ने अपने पुराने आरोपों को ही दोहराया है। वैसे भी उस लेख का तेवर जितना आक्रामक है, उतना ही सुरक्षात्मक भी। अपनी पिछली समीक्षाओं के लम्बे-लम्बे उद्धरण देकर उन्होंने अपने को नए सिरे से उचित ठहराने की कोशिश की है। दादा काॅमरेड में सब तथ्यों की उपेक्षा करके वह उसे सिर्फ हरीश और शैल की प्रेम कहानी बना देते हैं; ‘शैल की प्रेम कहानियां अनेक हैं और हरीश की एक ही है’ और इस तरह दादा काॅमरेड पर लगाए गए उनके आरोप प्रायः सब वे ही हैं जो उन्होने शरतबाबू के उपन्यासों पर लगाए हैं। देशद्रोही के बारे में उन्होंने लिखा है ‘…‘देशद्रोही’ मूलतः एक रोमांटिक कृति है जिसमें खन्ना के रोमांसों की प्रधानता है…इसे हम राजनीतिक उपन्यास न कहकर श्रीकांत की कोटि का एक सामाजिक उपन्यास ही कह सकते हैं जिसमें प्रेम कहानी प्रधान है।… यदि ‘पथेर दावी’ या ‘श्रीकांत’ को हम प्रगतिवाद की सीमा मान लें तो दूसरी बात है; परन्तु यदि प्रगतिवाद उससे बढ़कर कुछ और भी है, तो इस रोमांस से छुटकारा पाकर लेखक को समाज की हलचल का एक नए सिरे से अध्ययन और चित्रण करना होगा…’ (संस्कृति और साहित्य, पृष्ठ 286) शरतचन्द्र चटर्जी पर लिखे गए अपने लेख के निष्कर्षों को दोहराते हुए वह लिखते हैं ‘युग की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले प्रसार का भी भारतीय साहित्य को देने के लिये उनके पास रचनात्मक कुछ भी नहीं है। उनका साहित्य एक व्यक्ति को केन्द्र बनाकर उसके चारो ओर घूमता है और वह केन्द्र असमर्थता का पुरुषार्थहीनता का केन्द्र है।…’ (वही, पृष्ठ 182-83) विधवाओं और वेश्याओं के प्रति शरतबाबू के मानवीय सरोकारों की एकदम उपेक्षा करके सामाजिक विसंगतियों और अंतर्विरोधों की उनकी पहचान को अनदेखा करके और राष्ट्रीय चेतना के प्रचार-प्रसार की उनकी कोशिशों की ओर से आंखें फेरकर पता नहीं डाॅ.शर्मा कौन सी माक्र्सवादी आलोचना दृष्टि का परिचय देते हैं। यशपाल के वर्ग-संघर्ष को वह उनकी सेक्स-नैतिकता के बहाने नकार देते हैं और शरत की सारी कलात्मक-रचनात्मक उपलब्धियों और सामाजिक अंतर्विरोधों की पहचान को वह वर्ग-संघर्ष की दुहाई देकर नकार देते हैं। दिव्या में न उन्हें नारी को अभिशप्त बनाने और यातना देने वाली व्यवस्था का अंकन दिखाई देता है और न ही वर्ग-संघर्ष से लैस वह इतिहास-दृृष्टि जो समूचे इतिहास को नए सिरे से देखने और पड़तालने वाले विवेक से परिचालित है। यह सब माक्र्सवाद की उसी संकुचित समझ का परिणाम है जो रचनाओं एवं रचनाकारों के सामाजिक और कलात्मक महत्व को नकारकर बड़े यांत्रिक ढंग से उनसे पार्टी लाइन के अनुसार लिखने का परिणाम है। अपनी इसी समझ के कारण कभी उन्होंने राहुल सांकृत्यायन को साम्प्रदायिक करार दिया और सारे प्रगतिशील लेखकों में फूट डालकर प्रगतिशील साहित्य और आन्दोलन को जितना गहरा भटकाव उन्होंने अकेले दिया उतना शायद सारे प्रगतिविरोधी लोग एकजुट होकर भी नहीं दे सके थे। अपनी पुस्तक प्रगतिशील साहित्य के मानदंड में रांगेय राघव ने डाॅ.शर्मा की उन कविताओं के उद्धरण बहुतायत से दिये हैं, जो उन्होंने तत्कालीन भारतीय कम्यूनिस्ट नेताओं की प्रशस्ति में लिखी थीं और इसी सबसे खिन्न होकर उन्होंने डाॅ.शर्मा के उग्र वामपंथी रवैये की राजनीतिक समझ पर टिप्पणी करते हुए लिखा था ‘…डाॅ.शर्मा का चिंतन माक्र्सवादी नहीं है क्योंकि उसमें आलोचनात्मक तत्व नहीं है। उसमें कम्यूनिस्ट पार्टी के नेतृत्व के प्रति भाटों का-सा रुख है, जो जब ताकत में आया तब उसके गुण गाने लगे।…’ (प्रगतिशील साहित्य के मानदंड, पृष्ठ 62)
‘यशपालजी और अश्लीलता’ शीर्षक अपने लेख में डाॅ.रामविलास शर्मा ने यशपाल के उन्हें लिखे कुछ पत्रों के उद्धरण दिये हैं जिनके आधार पर उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की है कि यशपाल किस प्रकार उनसे अपनी रचनाओं पर लिखाने को लालायित रहते थे। इस सिलसिले में मेरी सबसे पहली आपत्ति तो यही है कि इस तरह किसी लेखक के निजी पत्रों का उसके खिलाफ इस्तेमाल किया जाना मुझे किसी कदर ओछापन लगता है, जिससे डाॅ.शर्मा जैसे लोगों को बचना ही चाहिए था। यशपाल हिन्दी के उन कुछ एक लेखकों में से थे जो अपनी विरोधी आलोचना से भी लाभ उठाना जानते थे और उनका परवर्ती लेखन खास तौर से झूठा सच और मेरी तेरी उसकी बात जैसी रचनाएं – इस बात का सबूत हैं कि उन्होंने यह लाभ भरसक उठाया भी। डाॅ. शर्मा को लिखे यशपाल के पत्र का कुछ अंश विचारणीय है ‘असल बात यह है कि देशद्रोही की समालोचना जानने की विशेष उत्सुकता है… समालोचनाओं या आलोचनाओं की ओर मैं ध्यान देता हूं यानि लाभ उठाता हूं। इधर अनेक जगह देखी है, आप की सामने आ जाए तो अच्छा। इसके अतिरिक्त उससे मुझे यों भी लाभ होने की आशा है…’ (रूपलेखा, पूजा-दिपावली विशेषांक, 1962, पृष्ठ 35) इस पत्र के लम्बे उद्धरण के बीच-बीच में कई जगह डाॅ.शर्मा ने व्यंग्य और विस्मयबोधक चिन्हों का प्रयोग करके यशपाल की फजीहत करने की कोशिश की है, जिसे मैंने जानबूझकर छोड़ दिया है। इस उद्धरण को यहां देकर मैं सिर्फ यह पूछना चाहता हूं कि आखिर इसमें ऐसा क्या है, जिसकी खिल्ली उड़ाने की कोशिश डाॅ.रामविलास शर्मा ने की है। इससे पहले दादा काॅमरेड की उनकी समीक्षा प्रकाशित हो चुकी थी फिर भी देशद्रोही को लेकर उनकी समीक्षा के प्रति उत्सुकता क्या यशपाल की ईमानदारी से कुछ सीख सकने की ही बात की गवाही नहीं देती है। इस तरह के पत्र इस तथ्य को रेखांकित करने की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो सकते हैं कि यदि रामविलास शर्मा साथी और मित्र लेखकों के साथ किसी कदर हमदर्दी से पेश आए होते तो आज हिन्दी की प्रगतिशील समीक्षा और आन्दोलन का रूप कुछ दूसरा ही होता। यशपाल संबंधी मूल्यांकन को लेकर उनके मित्र और प्रिय उपन्यासकार अमृतलाल नागर की सम्मति खासतौर से देखने लायक है ‘…डाॅ.रामविलास शर्मा पर इधर चारों ओर से प्रहार हो रहे हैं। रामविलास भी दंगली आदमी हैं। यह आदत उनकी शक्ति भी रही है और कमजोरी भी।… रामविलास के पास अवध के मैदानों-सा व्यापक और विशाल हृदय भी है, जिसे उनकी दंगली प्रवृत्ति उसी तरह छिपा लेती है जैसे छोटा-सा बादल का टुकड़ा आंख के सामने से सूरज को ओट में कर लेता है। रामविलास की आलोचना शैली ध्वंसात्मक है, निर्माण के लिये वे स्फुर्ति नहीं दे पाते, यह मैं भी स्वीकार करता हूं…’ फिर थोड़ा आगे चलकर नागरजी एक अच्छे आलोचक की पहचान बताते हुए लिखते हैं ‘कुशल आलोचक रचना की अच्छाइयों और बुराइयों – दोनों का ही सूक्ष्म विवेचन कर उनका उचित मूल्यांकन करेगा। वह एकदलीय बहाव में कभी नहीं बह सकता। आलोचना से रचनात्मक साहित्य को अधिक से अधिक स्फूर्ति और सही स्फूर्ति मिलनी चाहिए। लेखक और पाठक दोनों की ही रुचि का परिष्कार करना एक आलोचक का कर्तव्य है…’(‘उत्तराधिकारी’ पर सन् 50 में हस्तलिखित वक्तव्य से उद्धृत) कहने की आवश्यकता नहीं है कि अपने मित्र और प्रिय लेखक की कसौटी पर ही डाॅ.रामविलास शर्मा खरे नहीं उतरते हैं। इतने पर भी कभी-कभी अपनी विरोधी प्रतिक्रियाओं के बावजूद यदि यशपाल ने इन आलोचनाओं से कुछ सीखने की कोशिश की, जो कि सचमुच उन्होंने की, तो इस उनकी उदारता के रूप में ही देखा जाना चाहिए। डाॅ.रामविलास शर्मा की इन आलोचनाओं का आज सिर्फ इतना ही महत्व है कि एक बेहद नाजुक दौर में वे हिन्दी की माक्र्सवादी समीक्षा और प्रगतिशील आन्दोलन के भटकाव की साक्षी बनी हुई हैं। व्यावहारिक धरातल पर आज वे सिर्फ इतिहास की धरोहर या म्युजियम पीस बन जाने को अभिशप्त हैं। एक अतिरिक्त महत्व उनका शायद यह भी है कि उनके द्वारा यशपाल को भले ही न समझा जा सके, डाॅ.रामविलास शर्मा को समझ सकने में उनसे बहुत मदद मिल सकती है। नए और युवा आलोचकों को उनसे शायद यह सबक भी मिल सकता है कि आलोचना में यदि दोस्ती निभाना गलत है, तो दुश्मनी निभाना उससे भी ज्यादा गलत है…
यशपाल प्रगतिशील परम्परा के सर्वश्रेष्ठ रचनाकारों में से एक थे, प्रेमचंद और रेणु की तरह ही उन्हें प्रतिष्ठित करने का श्रेय पाठकों को है। लेकिन उनके जीवन काल में उनके महत्व को पूरी तरह समझने और स्पष्ट करने में प्रगतिशील आलोचना से बड़ी चूकें हुईं। माक्र्सवादी आलोचना के शिखर पुरुष डाॅ.रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध समेत कई अन्य प्रगतिशील लेखकों की तरह यशपाल को भी हमेशा अपनी आलोचना के निशाने पर रखा और उन्हें ‘अनैतिक’ साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। समीक्षकों का एक हिस्सा आज भी आंखें मूंदकर उन्हीं आरोपों को दुहरा रहा है। रामविलासजी के जन्म शताब्दी वर्ष पर जब उनसे सीखते और बहस करते हुए आगे बढ़ने की बजाय उन्हें एक पूज्य प्रतिमा में बदलकर कर्मकांड की तरह जय-जयकार की जा रही है, तब इन अप्रिय प्रसंगों की सचेत रूप से उपेक्षा की जा रही है। इन प्रसंगों को याद करना इतिहास की सही समझ के लिये भी जरूरी है और अतीत में हुई गलतियों को दुरुस्त करने के लिये भी। रामविलासजी की आलोचना ने यशपाल की रचनात्मकता के साथ किस तरह का रिश्ता बनाया, उसने प्रगतिशील आन्दोलन पर कैसे दूरगामी असर डाले, बड़े बेबाक और तीखे अंदाज में इन सवालों का जवाब दे रहे हैं वरिष्ठ आलोचक प्रो.मधुरेश। इस लेख को पढ़ते समय पाठक याद रखें कि मधुरेश के लिये अगर यशपाल आदरणीय हैं तो रामविलासजी भी कम श्रद्धेय नहीं हैं, लेकिन जहां आलोचना की विश्वसनीयता का सवाल हो, मधुरेश समझौता नहीं करते ! रामविलास शर्मा और यशपाल मधुरेश