सुरेन्द्र चौधरी का आलोचना कर्म

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सुरेन्द्र चौधरी की सम्पूर्ण कथा आलोचना को देखें ,तो मुख्य बिंदु सामने आते हैं , पहला प्रेमचंद की रचना परम्परा और दूसरा नई कहानी का सामाजिक आधार.प्रेमचंद की रचना परम्परा को डॉ चौधरी हिंदी नवजागरण के तीसरे चरण से जोड़कर देखते हैं. वे प्रेमचंद की उस दोहरी भूमिका को रेखांकित करते हैं जिसमे एक ओर वे अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद को चुनौती देते हैं तो वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय सामंतवाद से भी संघर्ष करते हैं.प्रेमचंद की यह दोहरी भूमिका, भारतीय साहित्य में उन्हें अग्रणी बना देता है और इसलिए प्रेमचंद का लेखन हिंदी साहित्य में प्रगतिशील चेतना की राह में मिल का पत्थर साबित होता है. यह सुखद बात है कि हाल ही में युवा आलोचक उदयशंकर के संपादन में सुरेन्द्र चौधरी की अधिकांश संकलित असंकलित सामग्री तीन खंडों में क्रमशः ‘इतिहास संयोग और सार्थकता’ ‘हिंदी कहानी रचना और परिस्थित’ और ‘साधारण की प्रतिज्ञा अँधेरे से साक्षात्कार’ के रूप में प्रकाशित हुई हैं. सुरेन्द्र चौधरी अभी तक मूलतः कहानी के आलोचक ही माने जाते रहें है .इन पुस्तकों के प्रकाशन से लगभग आधी सदी पहले सुरेन्द्र चौधरी की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिंदी कहानी प्रक्रिया और पाठ’ प्रकाशित हुई थी.हिंदी कथा आलोचना में यह पुस्तक एक अनिवार्य उपस्थिति दर्ज करती है हालाँकि इस पुस्तक से ही सुरेन्द्र चौधरी की छवि एक पाठ आधारित समीक्षक के रूप में निर्मित हुई जो जीवनपर्यंत बनी रही .इस संदर्भ में यह दिलचस्प है कि सुरेन्द्र चौधरी का अधिकांश लेखन जो उदयशंकर के संपादन में प्रकाशित हुआ है वह उस दौर की पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ था. इन लेखो से सुरेन्द्र चौधरी ना सिर्फ राजनितिक वैचारिक रूप से बेहद सचेत लेखक के रूप में नज़र आते हैं बल्कि पाठ्वादी आलोचक की उनकी एकांगी छवी भी खंडित होती है. ये पुस्तकें सुरेन्द्र चौधरी के सन्दर्भ में उस दौर में निर्मित कई तरह के मिथों को तोड़ती हैं .मसलन वे ना सिर्फ गंभीर कथा आलोचक थे बल्कि उनके लेखन का एक बड़ा हिस्सा गंभीर राजनीतिक वैचारिक बहसों को भी अपने दायरे में समेटता है कविता पर और विशेषकर समकालीन कविता पर भी उनके कुछ लेख इन पुस्तकों में संकलित हुए हैं. उसमे व्यक्त विचार और बहसें उस दौर पर फिर से विचार करने को प्रेरित भी करते हैं .
नई कहानी में डॉ चौधरी नामवर सिंह से बहस करते हैं .आज़ादी के बाद भारत में नए मध्यवर्ग का उदय हुआ .यह नया मध्यवर्ग गांव और शहर दोनों से सम्बंधित था .नई कहानी में वस्तुतः ये दोनों छोर नज़र आते हैं . सुरेन्द्र चौधरी के अनुसार “इस पूरे दौर में कथा के केन्द्र में परिवार -समाज रहा .कुछ लोगो ने इस परिवार -समाज की कथा लिखते हुए बहार के तथ्य से भीतर के सत्य को तरजीह दी .प्रश्न घटना-प्रसंग या कालबद्ध तथ्यों का भी था और उस अपरिचित दबाव का भी जिसके तहत सारे रिश्ते कहीं अलग थलग पड़ गए थें.” आज़ादी के बाद भारत में बड़े पैमाने पर गांव से शहरों की और पलायन की प्रक्रिया शुरू हुई .जिसके फलस्वरूप एक ओर गांव के परिवार-समाज में विघटन की प्रक्रिया तेज होती गई तो साथ ही शहरों में बन रहे नए परिवार- समाज का आधार बिंदु भी बदलने लगा, इसलिए नई कहानी एक ओर जहाँ विघटित हो रहे परिवार-समाज की कथा है वहीं नए बन रहे संबंधों के अंतर्विरोधों की भी कथा है. यही वज़ह है की इसमें एक तरफ जहाँ एक साथ मोहन राकेश और अमरकांत हैं तो दूसरी तरफ रेणु ओर निर्मल वर्मा भी हैं .नई कहानी के सन्दर्भ में एक और महत्वपूर्ण तथ्य को उजागर करते हुए सुरेन्द्र चौधरी बतातें हैं की नई कहानी में वस्तु सत्य पर संवेदना का दबाव अधिक है .इसलिए यह परिवेश से अधिक पात्रों की कहानी है.हंसा जाये अकेला,गुलरा के बाबा, गदल, मित्रों मरजानी ,आद्रा, चीफ की दावत ,यही सच है, परिंदे इत्यादी व्यक्तियों को केन्द्र में रख कर लिखी गई कहानियां हैं जिसमें परिवेश अगर उपस्थित है भी तो पात्रों को मूर्त करने के लिए ही. इस बदली हुई परिस्थिति का मूल्यांकन करते हुए वे बताते हैं की “नया कहानीकार वर्ग-संघर्ष की तीव्रता के प्रति अनासक्त रहकर इन नए विषय क्षेत्रों के सम्यक उपयोग से वंचित रह जाता है .” इसलिए उसका प्रामाणिक अनुभव अपने बंद दायरे में झूठा हो जाता है
नई कहानी की व्याख्या करते हुए सुरेन्द्र चौधरी नामवर सिंह की आलोचना दृष्टि के अंतर्विरोधों को भी रेखांकित करते हैं .नामवर सिंह ने ‘परिंदे’ कहानी से ‘नई कहानी’ की शुरुआत मानी थी और उसे ‘कालातीत कला दृष्टि’ से संपन्न बताया था .इसके विपरीत डॉ चौधरी का मानना था कि “परिंदे संग्रह कि कहानियों में ताजगी थी मगर यह ताजगी कतई इस कारण नहीं थी कि निर्मल वर्मा ने इन कहानियों में अपने समय के इतिहास कि उस विराट नियति(!) को पहचान लिया था जो मनुष्य को अकेला करती है.” निर्मल वर्मा अपनी रचना में मनुष्य को अकेला करने वाली सामाजिक राजनैतिक पृष्ठभूमि को स्थान नहीं दे रहे थें ,उनकी कहानियों के तमाम पात्र अपनी पृष्ठभूमि से कटे होने को अभिशप्त थें. ऐसे में उनकी कहानियों में इतिहास का पक्ष बराबर छूटता जा रहा था निर्मल वर्मा के इस पक्ष को नामवर सिंह भी अदेखा कर रहे थे .यहीं से सुरेन्द्र चौधरी नामवर सिंह से खुद को विल्गते हुए उनकी की आलोचना दृष्टि पर सवाल उठाते हैं. वे उनकी इतिहास दृष्टी अपर्याप्त बताते हैं . नामवर सिंह जहाँ के एक विशेष काल-खंड को उठाकर उसकी इतिहास विहीन व्याख्या कर रहे थे वहीँ सुरेन्द्र चौधरी उस विशेष काल-खंड को इतिहास से जोड़कर देखने पर बल दे रहे थें. वस्तुतः इतिहास दृष्टि को अनदेखा कर ही नामवर सिंह ‘परिंदे’ कहानी की स्व-निर्मित व्याख्या तक पहुचतें हैं .उसे ऐतिहासिक साबित करने के क्रम में इतिहास विमुख हो जाते हैं. ऐसे में डॉ. सुरेन्द्र चौधरी का यह कथन गौर करने लायक है कि “परिंदे जैनेन्द्र का अतिक्रमण नहीं करती थी” .
आगे नई कहानी कि गतिकी कि चर्चा करते हुए डॉ चौधरी यह स्पष्ट करते हैं कि इस दौर में “कथाकार कि प्रतीती-क्षमता का एकायामिक विकास हुआ है अर्थात उसकी गति उर्ध्वाधर अधिक है क्षैतिज कम.” इसका परिणाम यह हुआ कि लेखक का एकायामिक व्यक्तित्व कथा के पूरे परिदृश्य पर हावी हो जाता है और गतिशील समाज से उसका सम्बन्ध लगातार छीजता जाता है .नई कहानी की यह प्रक्रिया मूलतः इसी बदले हुए परिदृश्य में समाज-संबंधो के टूटने की कथा है .परन्तु यह गाथा नहीं है . इसलिए यह कहानी काल विशेष का तात्कालिक यथार्थ ही निर्मित करती है . स्वभावतः इसका स्वरुप औपन्यासिक नहीं बन पता है. क्या यही कारण है कि नई कहानी के कई कथाकारों के उपन्यास अपने स्वरुप और अंतर्वस्तु में कहानी का अतिक्रमण नहीं कर पाते हैं.
नई कहानी में समाज का बदलता हुआ आंतरिक सत्य लेखक से छुट जाता है .वह भीतर से भीतर तक कि यात्रा करने के लिए बाध्य हो जाता है .समाज से कटने का नकारात्मक प्रभाव निर्मल वर्मा कि कहानियों पर पड़ता है .वहाँ वास्तविक यथार्थ की अनुगूँज भी नहीं है .इसका परिणाम यह होता है कि तमाम पात्र अध्यात्मिक समाधान कि तलाश में जुटे नज़र आते है और इसलिए ये भीतर से भीतर तक कि यात्रा करने को बाध्य हैं.इसी सन्दर्भ में डॉ चौधरी का मानना है कि “निर्मल वर्मा की ‘परिंदे’ शीर्षक कहानी इस अर्थ में शुद्ध एकायामिक है. जीवन का जितना ओन्विक पार्श्व इस कहानी में उभर सका है ,वही उसकी कृत्रिमता के लिए काफी है”. नामवर सिंह कि दृष्टि नई कहानी की इस सामजविहीनता और इतिहसविमुखता की ओर नहीं जाती है ओर न ही वे पात्रों के जीवन सम्बन्धी मूल्यों की कृत्रिमता को ही देख पाते है . इस सबके विपरित वे उसकी भाषा शैली की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि इस कहानी में पहली बार “आज के मनुष्य की गहन आंतरिक समस्या को उठाया गया है”..यह कौन सी गहन आतंरिक समस्या है जिसके आगे मनुष्य का ‘सामाजिक संघर्ष स्थूल धरातल’ पर खड़ा नज़र आता है? यही से नामवर सिंह की सामाजिक राजनातिक दृष्टि पर सवाल खड़े होतें हैं . सुरेन्द्र चौधरी नामवर सिंह के इस बौद्धिक विचलन की पहचान करते हैं. वे न सिर्फ इसे उनकी कथा आलोचना का अंतर्विरोध साबित करते है ,बल्कि इस पूरे अन्तर्विरोध को उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता से जोड़कर देखते हैं. इसलिए वे अन्तर्विरोधो कि पहचान उनकी काव्यालोचन दृष्टि में भी करते हैं. ‘कविता के नए प्रतिमान: विसंगति ओर विडंबना का सौंदर्यशास्त्र’ शीर्षक लेख में वे नामवर सिंह के इसी अंतर्विरोध की पहचान करते हुए लिखते हैं “कविता के नए प्रतिमान में जो सबसे बड़ा दोष है वह परिप्रेक्ष्य के खो जाने का नहीं है, इतिहास के अदृश्य रह जाने का है.वास्तविक इतिहास को विचारों से परिरुपों में बदला नहीं जा सकता ,वह इतिहास की प्रक्रिया का स्थानापन्न नहीं हो सकता .” इसी लेख में अन्यत्र वे सवाल उठाते हैं की “क्या यह सही नहीं है कि नामवर सिंह ने ‘कविता के नए प्रतिमान’ में सामयिक इतिहास की मूल लाक्षणिक विशेषता की प्रायः अवहेलना कर दी है ? ऐसा दृष्टिकोण क्या संयोंगवश अपनाया गया है ?या इसके पीछे इतिहास की भूमिका को नकारने का सचेत प्रयास है?” गौरतलब है कि ‘कविता के नए प्रतिमान’के सन्दर्भ में उठाये गए ये सवाल इतने लंबे अंतराल के बावजूद आज भी अनुत्तरित और विचारणीय हैं .विशेषकर ऐसे समय में जब साहित्य में इतिहास चेतना को नकारने के सचेत प्रयत्न हो रहे हों तो ये सवाल और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं
‘उत्तरशती की कथा यात्रा’ सुरेन्द्र चौधरी की कथा आलोचना को समझने के क्रम में एक महत्वपूर्ण वैचारिक आलेख है .यह आलेख एक तरह से आज़ादी के बाद के हिंदी कथा लेखन का संक्षिप्त इतिहास ही प्रस्तुत कर देता है .इस लेख में कहानीकारों के नाम गिनवाने के बजाय उन कथा प्रवृतियों पर विस्तार से विचार किया गया है जिनका उभार आज़ादी के बाद के दौर में हुआ ‘कहानी’ से ‘नई कहानी’ तक की यात्रा एक सुनियोजित दृष्टि का प्रतिफलन थी .परिवेश के स्थान पर घटनाएँ अनायास नहीं आ गई थीं उसके पीछे नए उभर रहे मध्यवर्ग के व्यक्तित्व का भी प्रश्न था. ‘अकहानी’ की चर्चा करते हुए डॉ चौधरी उसे आत्मकेंद्रित पीढ़ी के खिलाफ विद्रोह बताते हैं जो घटनाओं के बहाने कहानी में खुद को उभार रही थी. दूसरी ओर निर्मल वर्मा का पक्ष भी नई कहानी से जुड़ता था . नई पीढ़ी के सन्दर्भ में इसे स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं “नई कहानी से जुडना इसलिए भी व्यर्थ हो गया था कि साठ की पीढ़ी निर्मल वर्मा से जुडना नहीं चाहती थी” साठ की यह पीढ़ी मध्यवर्गीय संस्कारों का बोझ ढोना नहीं चाहती थी. इसलिए ‘अकहानी’ में घटनाविहीनता के साथ-साथ मध्यवर्गीय संस्कारों के प्रति जुगुप्सा और एक हद तक विद्रोह नज़र आता है .लेकिन अकहानी में मूल्यों के विरोध के पीछे सुनिश्चित दृष्टि का आभाव था ओर इसी वज़ह से विरोध अराजकता का रूप ले लेता है .संबंधों का मायाजाल काटने के स्थान पर संबंधों की घृणा को ‘फेंस के इधर उधर’ किया जा रहा था .परिणामस्वरूप ‘अकहानी’ ‘नई कहानी’ की परिवेशहीनता के खिलाफ उस तरह से नहीं खड़ी हो सकी जिस तरह से अपने दौर में ‘कहानी’ के खिलाफ ‘नई कहानी’ का आन्दोलन चला था .
सत्तर के दशक में नक्सलबाड़ी आन्दोलन का व्यापक प्रभाव भारतीय साहित्य लेखन ओर चिंतन पर पड़ा .बंगाल पंजाब और आन्ध्र के लेखन पर इसकी सर्वाधिक तपिश महसूस की जा सकती है .हिंदी साहित्य पर इस आन्दोलन का प्रभाव अपेक्षाकृत देर से पड़ा. हिंदी कविता में इस आन्दोलन की गूंज कुमारेन्द्र ,आलोकधन्वा ,धूमिल, गोरख,कुमार विकल ,वेणुगोपाल आदि कवियों पर देखा जा सकता है. कथाकारों में काशीनाथ सिंह ,संजीव, विजेन्द्र अनिल, सुरेश कांटक, विजयकांत आदि इस आन्दोलन के प्रभाव में कहानियां लिखते रहें. हिंदी साहित्य पर इस आन्दोलन के प्रभाव का महत्व इस बात में है की नई कविता और नई कहानी के बाद जनवादी चेतना एक बार फिर साहित्य के केन्द्र में आ गया . हिंदी साहित्य पर पर इसके प्रभाव का मूल्यांकन करते हुए सुरेन्द्र चौधरी लिखते हैं “नक्सलबाड़ी के विद्रोह की पृष्ठभूमि में जिस धारा का उदय हुआ उसमे एक बार फिर भारतीय समाज के बुनियादी सामाजिक-आर्थिक ढांचे से जुड़ी वस्तुस्थिति के प्रति एक नाटकीय आकर्षण पनपा. हिंदी में इस आन्दोलन की गूंज धीरे-धीरे प्रकट हुई .इस पूरे दौर में अकहानी का प्रभाव घटता चला गया था युवा पीढ़ी की तरफ से ही अधिक आर्थिक संभावना की दिशाएं प्रकट होने लगी थीं .अकहानी के भीतर से जिस व्यर्थता और विडंबना पूर्ण नियति की मानसिकता का जन्म हुआ था ,उसके विरुद्ध एक सार्थक लड़ाई के लिए कहानीकार अपनी रचनात्मक तैयारी में लग गया था.
इस पूरे परिदृश्य में क्रन्तिकारी मानसिकता का आभास प्रकट हुआ जो आज भी किसी ना किसी रूप में अपनी सार्थकता के प्रति आश्वस्त बना हुआ है .” जाहिर सी बात है की इस क्रन्तिकारी चेतना को लक्षित करने के लिए जिस प्रतिबद्ध राजनैतिक दृष्टि की आवश्यकता थी . जहाँ नई कहानी के दौर के अधिकांश आलोचकों में इस दृष्टी का अभाव नज़र आता है वहीँ सुरेन्द्र चौधरी के दृष्टिकोण में मौजूद यह चेतना उन्हें इस दौर में भी प्रासंगिक बना देती है . समाजार्थिक अंतर्विरोधों के परिणामस्वरूप उभर रहे राजनितिक दृष्टिकोण का पक्ष सुरेन्द्र चौधरी के लेखन में सदैव मौजूद रहा .इसलिए उनकी आलोचना दृष्टि समकालीन यथार्थ से कटने की बजाय ओर जुड़ती चली जाती है .दृष्टि की इसी भिन्न ज़मीन पर सुरेन्द्र चौधरी अपने समकालीनों से अलग खड़े नज़र आते हैं
समकालीन हिंदी मार्क्सवादी आलोचकों की विभिन्ताओं को ध्यान में रखते हुए अगर हम विचार करे तो यह कहना गलत ना होगा की आलोचना दृष्टि में वे रामविलास जी के काफी करीब नज़र आते हैं. ‘डॉ रामविलास शर्मा और सांस्कृतिक आलोचना’ शीर्षक लेख में वे रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि का भारतीय समाज पर पर पड़ने वाले सांस्कृतिक प्रभाव का मूल्यांकन करते हैं .रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि की व्याख्या करते हुए, वे उनकी इस स्थापना को दोहराते हैं की “मैं बुर्जुआ जनवाद की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं करता .भारतेन्दु,बालकृष्ण भट्ट,बालमुकुंद गुप्त ,प्रेमचंद और आचार्य शुक्ल से होती हुई इस बुर्जुआ जनवादी विचारधारा ने सामंतवाद और साम्राज्यवाद से जैसा खुला संघर्ष किया है उसके बगैर ना वामपंथी जनवाद का जन्म संभव होता ना कृषिक्रांति की विचारधारा ही संभव होती” रामविलास शर्मा की यही दृष्टि उन्हें भारतीय लेखन के समग्र मूल्यांकन की प्रेरणा देता है यहीं से वे आचार्य शुक्ल और भारतेन्दु को और आलोचकों की वनिस्पत भारतीय नवजागरण की प्राणशक्ति के रूप में स्थापित करते हैं . “शुक्ल जी की सीमा बुर्जुआ जनवाद की सीमायें हैं ,उसकी जातीयता इतिहास और साहित्य विषयक व्याख्या की सीमायें हैं .इन सीमाओं को अगर डॉ शर्मा ने पहचाना ना होता तो जहाँ भारतेन्दु के सन्दर्भ में शुक्ल जी की व्याख्या के सहारे एक पूरी पीढ़ी के प्रगितिशील चरित्र को उजागर किया है ,वहीँ निराला पर लिखकर भी वे वे बुर्जुआ जनवाद की वास्तविक कमी को ठीक-ठीक लक्षित ना कर पाते” गौरतलब है की डॉ चौधरी यहाँ रामविलास शर्मा की इतिहास दृष्टि की बहुत ही सटीक व्याख्या करते हैं . हिंदी में रामविलास शर्मा को खंडित रूप में ही देखने समझने का प्रयास अधिक हुआ है लेकिन इन तमाम प्रयासों की मूल विडंबना यह रही है कि इसमें रामविलास शर्मा की इतिहास दृष्टि को ठीक ठीक नहीं समझ सकने का खतरा हमेशा बना रहता हैं. इस सबके विपरीत सुरेन्द्र चौधरी उन्हें समग्रता में देखने का प्रयत्न करते हैं और बहुत हद तक उनकी इतिहास दृष्टि को समझने समझाने में सफल भी होते हैं. यह सफलता इस तथ्य में भी निहित है की रामविलास शर्मा के मूल्यांकन में डॉ चौधरी उन्ही की पद्धत्ति अपनाते हैं .वे उनकी इतिहास दर्शन और आलोचना की दृष्टि को मार्क्सवादी द्वंदवाद की दृष्टि से देखने का प्रयत्न करते हैं . ऐसा नहीं है की वे उनके अंतर्विरोधों को लक्षित नहीं करते हैं ,एज जगह वे लिखते हैं “अंतर्विरोधों का होना अपेक्षा की ठीक- ठीक पहचान के लिए आवश्यक स्थिति है , यह मार्क्सवादी द्वंदवाद की समझ है .”
पुस्तक के पहले खंड में एक पूरा हिस्सा विचार और विचारधारा केंद्रित लेखों का है . ‘परम्परा और आधुनिकता’ शीर्षक लेख में उन्होंने भारतीय इतिहास और वर्तमान की गतिकी की चर्चा की है .कहा जाता रहा हैं कि भारतीय समाज अपेक्षाकृत शांत समाज रहा है.लेकिन इस शांति की बड़ी कीमत चूकानी पड़ी है .वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाज में वर्ग-संघर्ष की संभावनाएं कम थी , जिस कारण भारत जैसे समाज में परम्परा ,वर्ग शक्तियों की आपसी टकराहटों को रोकने में अहम् भूमिका अदा करती है .आज के दौर में जब भारतीय समाज को वर्ण-संघर्ष बनाम वर्ग-संघर्ष के खांचों में बांटकर देखा जा रहा है तो यह समझना अनिवार्य हो जाता है की भारतीय समाज में वर्ग-संघर्ष की भूमिका नगण्य क्यों रही. “भारतीय समाज का विधान ही कुछ ऐसा था और श्रम-शाक्तियों का बंटवारा कुछ ऐसे संस्कारजन्य आधारों पर हुआ था की वहां वर्ग संघर्ष के लिए कम गुंजाइश थी .परम्परित वर्ग समाज में टकराहटें इसलियें नहीं हो पाती थी”कहने का तात्पर्य यह है की वर्ण व्यवस्था भारतीय समाज के परिवर्तन की दिशा में एक भारी अड़चन है .यह विडंबना है की नक्सलबाड़ी आन्दोलन से पूर्व भारतीय वामपंथी आन्दोलन में वर्ग-संघर्ष के साथ -साथ वर्ण-संघर्ष चलाये जाने की कोई परिकल्पना मौजूद नहीं थी. नक्सलबाड़ी आन्दोलन पहली बार भारतीय समाज के भीतर क्रन्तिकारी परिवर्तन की दिशा में वर्ग-संघर्ष के साथ -साथ वर्ण-संघर्ष चलाये जाने की अनिवार्यता को चिन्हित करता है. इसी सन्दर्भ में यह भी दिलचस्प संयोग है की डॉ चौधरी ने इस लेख को नक्सलबाड़ी क्रांति कि शरुआत अर्थात 1967 में ही लिखा है .
आज़ादी के बाद भारत में नवोदित मध्य वर्ग बहुत तेज़ी से आधुनिकता की चपेट में आता है.आधुनिकता को सुरेन्द्र चौधरी मात्र ‘आर्थिक गठन’ के रूप में नहीं देखतें हैं वे उसे जीवन-प्रविधि के रूप में भी स्वीकारते हैं. संकट उत्पन्न तब होता है जब मध्यवर्ग खुद को परम्परा और आधुनिकता के मध्य पाता है “ ऐसे में मध्यवर्ग के विश्वासों से उसके चारों ओर के समाज की तीव्र टकराहट होती है!” वस्तुतः डॉ चौधरी यहीं मध्यवर्ग के भीतर मौजूद परिवर्तनकामी चेतना की पहचान भी करते हैं और इस टकराहट के परिणामस्वरूप पैदा होने वाली अराजकता के प्रति हमें सचेत भी करते हैं . कहना ना होगा की सातवें दशक में जहाँ अराजकता को परिवर्तन के साथ जोड़कर देखा जा रहा था वहीं सुरेन्द्र चौधरी इसे निम्न बुर्जुआ जीवन दृष्टि के अंतर्विरोध के रूप में ही चिन्हित कर रहे थे .उनका स्पष्ट मानना था कि यह परम्परा की बंद गली से निकलकर आधुनिकता की अंधी गली में भटकने की तरह ही है और ऐसे में यह आधुनिकता परम्परा से ज्यादा घातक साबित हो सकती है क्योंकि “आवश्यकता पड़ने पर परम्परा से गलत समझौते कर सकती है .यह तथकथित आधुनिकता पाखंड का शिकार है .”यह देखना ज्यादा कठिन नहीं है कि मौजूदा दौर में परम्परा और आधुनिकता का एक गलत गठजोड़ निमित किया गया है .छद्म आधुनिकता के चश्मे से झूठी परम्परा निर्मित की जा रही है. बाज़ार के प्रभाव एक ही समय में दो विरोधी यथार्थों के समन्वय का प्रयत्न किया जा रहा है .यह हमारी सोचने समज्हने और देखने की छमता को नष्ट कर रहा है .ऐसी स्थिति में यह अनिवार्य हो जाता है बाज़ार द्वारा निर्मित इस छद्म अध्निकता और परम्परा के पाखंड को ना सिर्फ समझा जाये बल्कि परिवर्तन के मार्ग में आनेवाले अवरोधकों के रूप में भी इसे चिन्हित किया जाये.
‘मार्क्सवाद और समकालीन बुर्जुआ विचारधाराएँ’ इस लेख में डॉ चौधरी बुर्जुआ विचारधारा द्वारा फैलाये जा रहे धुंध कि ओर संकेत करते हैं .इसी क्रम में उन्होंने बुर्जुआ विचारधारों की आपसी टकराहटों का मार्क्सवादी विचारधरा पर पड़ने वाले प्रभाव का भी विवेचन किया है. बड़े पैमाने पर सुनियोजित रूप से मार्क्सवाद विरोध का दर्शन पिछले कुछ दशकों में विशेषकर दुसरे विश्वयुद्ध में मार्क्सवाद को मिली अप्रत्याशित सफलता के बाद प्रचारित किया जा रहा है .सुरेन्द्र चौधरी इसे बुर्जुआजी के असुरक्षाबोध और अस्तित्व के संकट से जोड़कर देखते हैं . “बुर्जुआ दुनिया जिस आत्यंतिक संकट और आत्मविघटन से होकर गुजर रही है उसके भीतर यह आवश्यक है कि आत्मरक्षा के लिए वह चेष्टापन्न हो .इस चेष्टा का विस्तार ही मार्क्सवाद विरोध को जन्म देता है. “इतिहास दर्शन के साथ साथ सौंदर्यशास्त्र के सवाल पर भी मार्क्सवाद विरोधी समय समय पर प्रश्न उठाते रहे हैं इस लेख में सुरेन्द्र चौधरी उन तमाम प्रश्नों के सन्दर्भों कि व्याख्या करते हुए उसके मूल में व्याप्त बुर्जुआ जीवन दृष्टि की सीमाओं को चिन्हित करते हैं .इसी शीर्षक से संकलित दुसरे लेख में वे ‘अस्तित्ववाद और मार्क्सवाद’ के सन्दर्भ में विचार करते हैं. सार्त्र ने छठे दशक में ‘अस्तित्ववाद और मार्क्सवाद’ अंतर्सबंधों की व्याख्या की थी .उन्होंने ‘अस्तित्ववाद’ को ‘मार्क्सवाद’ की विचारधारा ही माना था .सुरेन्द्र चौधरी सार्त्र की इस अवधारणा पर काफी गंभीरता से विचार करते हैं . एलियनेसन के सिद्धांत पर ध्यान केंद्रित करते हुए वे सार्त्र की अस्तित्ववाद की अवधारणा के अंतर्विरोध को उजागर करते हैं. डॉ चौधरी कहते हैं “सामाजिक संबंधों को व्यक्तियों के सरल सम्बन्ध में बदल सार्त्र ने एक तरह से समाज को एक स्वतंत्र संस्थान की हैसियत नहीं दी .वर्तमान राज्य विभाजित, वर्ग विभाजित समाज व्यक्तियों का सरल सम्बन्ध या समुच्य नहीं है. वह एक स्वतंत्र संस्थान है”. वस्तुतः समाज वर्गों से बनता है और वर्ग शक्तियों के पारस्परिक टकराहटों से समाज में परिवर्तन होते रहते हैं. कहना ना होगा की द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर विश्व में मनुष्य का अस्तित्व एक संकटमय स्थिति में नज़र आता है अकेलापान संत्रास और नैतिक पतन मनुष्य के जीवन का स्थाई भाव प्रतीत होने लगता है सार्त्र मनुष्य के जीवन में आए इसी संकट को सार्वभौमिक बना देते हैं .ऐसा करते हुए वे मनुष्य के इतिहास में अनिवार्य रूप से मौजूद वर्ग संघर्ष की अनदेखी करते हैं और अस्तित्व के पहचान को परिवर्तन की चेतना से जोड़ देते हैं सार्त्र की अवधारणा में मौजूद इसी इतिहास विरोधी दृष्टि की पहचान करते हुए वे कहते हैं “मानवीय सत् को इस प्रकार एक निरर्थक परिणति देकर सार्त्र ने लगभग इतिहास-विरोध का परिचय दिया था .”स्पष्ट है की सार्त्र एक विशेष देश-काल को जो द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर परिस्थितियों से निर्मित हुई थी को सर्वकालिक बना देते हैं .
‘जार्ज लुकाच’ और ‘यास्पर्स’ पर भी पुस्तक के इस खंड में विचार किया गया है .लुकाच की चर्चा करते हुए सुरेन्द्र चौधरी उनके लेखकीय व्यक्तित्व और समग्र लेखन को बेहद आत्मीयता एवं गरिमा के साथ प्रस्तुत करते हैं .उनके विचारों में आए परिवर्तन को वे विचारधारा के आत्मसंघर्ष के रूप में चिन्हित करते हैं “इतिहास और दर्शन उनके चिंतन के दो केन्द्र हैं जिन्हें एक प्रक्रिया में बांधने का संघर्ष वे आजीवन करते रहें. इसलिए उनकी शब्दावली और शैली की कुछ विचित्रताएं भी हैं .एक ओर जहाँ वे अपनी शब्दावली को ज़र्मन मेटाफिजिक्स के दायरे से मुक्त करने की लड़ाई करते नज़र आते हैं , वहीं दूसरी ओर उनकी शैली में एक प्रवासी लेखक की एकान्तिकता भी है .इससे वे आजीवन मुक्त नहीं हो सके .” लुकाच के इस इतिहास दर्शन का सकरात्मक प्रभाव सुरेन्द्र चौधरी के लेखन पर भी देखा जा सकता है .इसलिए यह बात कही जा सकती है कि डॉ चौधरी के लेखन में ओढ़ी हुई गंभीरता नहीं बल्कि अर्जित की हुई गंभीरता नज़र आती है. यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि इसी दौर में उनके समकालीन आलोचक नई बुर्जुआ विचारधारा के प्रभाव में आकार लगभग इतिहास विरोधी और प्रतिक्रियावादी विचारधारा का समर्थन करने लगते हैं उन्हें अचानक प्रगतिशील साहित्य चिंतन के प्रतिमान अनुपयुक्त और अर्थहीन लगने लगते हैं और वे नए प्रतिमानों की तलाश में एक किस्म की छद्म बौधिकता का आडम्बर रचने लगते हैं . साठ और सत्तर के दशक में हिंदी के अधिकांश आलोचक जब ‘न्यू क्रिटिसिज्म’ को साहित्य मूल्यांकन का प्रतिमान बना रहे थे तो सुरेन्द्र चौधरी उन थोड़े से आलोचकों में थे जो न सिर्फ इसका विरोध कर रहे थे बल्कि इसके छद्म आडम्बर और वाक् चातुर्य का पर्दाफाश भी कर रहे थे . शायद सुरेन्द्र चौधरी ऐसा कर सकने में इसलिए भी सक्षम हो सके थे क्योंकि मार्क्सवाद को वे मात्र साहित्यिक बौद्धिक और वैचारिक श्रेणियों में ना रख कर जीवन दर्शन के रूप में ही देखने के पक्षधर थे .इसके साक्ष्य उनकी लिखी व्यवाहरिक समीक्षाओं में आसानी से ढूंढे जा सकते हैं .
पुस्तक के तीसरे खंड में संकलित ‘गोदान :कथा और काल में मन्थरता’ गोदान पर लिखे गए श्रेष्ठ निबन्धों में से हैं .यह लेख कुछ मामूली परिवर्तनों के साथ सत्यप्रकाश मिश्र द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘गोदान का महत्त्व’ में भी भिन्न शीर्षक से संकलित है. ‘गोदान’ को वे किसान के मुक्तिकामी संघर्ष से जोड़कर देखते हैं “मेरी दृष्टि में ‘गोदान’ की समस्या तमाम परतंत्रताओं से भारतीय किसान की मुक्ति में है.” गोदान की व्याख्या करते हुए वे उस परिपेक्ष्य की पहचान करते हैं जिसमे ‘गोदान’ लिखा गया .भारतीय समाज में किसान जीवन बहुत सहज नहीं रह गया था आचार-विचार और व्यवहार की सहजता के बावजूद बाहरी दुनिया में चल रहे तीव्र परिवर्तन उसके जीवन को क्षत –विक्षत कर रहे थें. किसान जीवन की गतिकी सरल नहीं थी लेकिन वह तेज भी नहीं थी .साम्राज्यवाद और सामंतवाद के जुए तले पिस रहे किसान के जीवन में खास तरह की मन्थरता मौजूद थी .इसी मन्थरता की पहचान करते हुए डॉ.चौधरी कहते हैं “गोदान की जीवनधारा में गहरी मन्थरता है, घटना चक्र की ऐसी मन्थरता उनके अन्य उपन्यासों में ना मिलेगी” जीवनधारा की यह मन्थरता भारतीय किसान जीवन की खास पहचान बनती है .इसलिए चाहकर भी “ग्रामीण आधार वाला भारतीय मजदूर वर्ग अभी अपना सर्वहारा स्वभाव नहीं बना सका है .”यानि लड़ाई सिर्फ बहार ही नहीं भीतर भी थी .संघर्ष का यह द्वैत होरी, धनिया और गोबर तीनों के व्यक्तित्व में देखा जा सकता है. अन्य आलोचकों ने जहाँ गोबर के गांव से शहर जाने को किसान के मजदूर बनने के रूप में देखा है वहीं सुरेन्द्र चौधरी किंचित गहरे में जाकर इसे भीतरी -बाहरी संघर्ष के रूप में देखते हैं.गोबर का गांव से शहर जाना उसे एकदम से मजदूर नहीं बना देता इसलिए सर्वहारा के संघर्ष में वह तुरंत शामिल नहीं हो सकता .शहर जाकर भी वह अपने साथ अपना गांव ले जाता है. किसान का जीवन उसके संस्कार का हिस्सा बन जाता है, ऐसे में उससे मुक्त होने का संघर्ष चलाये बगैर सर्वहारा क्रांति का वह सिपाही नहीं बन सकता .गौरतलब है की डॉ चौधरी यहाँ किसान के जीवन में परिवर्तन की गति को ना सिर्फ पूरी सम्वेंदना के साथ समझने का प्रयत्न करते हैं बल्कि बारीकी में जाकर उसकी जटिलताओं की भी पहचान करते हैं. ज़मींदारी प्रथा और राष्ट्रवादी आन्दोलन की रोशनी में भी उपन्यास को देखने का प्रयत्न करते हुए प्रेमचंद के सन्दर्भ में वे एक बेहद मार्के की बात कहते हैं “दो विश्वयुद्धों के बीच भारतीय कृषितंत्र पर लिखने वाले वे अकेले भारतीय लेखक हैं”
प्रेमचंद के इसी दृष्टिकोण का विस्तार डॉ चौधरी ‘मैला आँचल’ में देखते हैं .यहाँ वे ‘मैला आँचल’ के सन्दर्भ में रामविलास शर्मा से एकदम भिन्न निष्कर्ष पर पहुँचते हैं .उनके अनुसार आज़ादी के बाद भारत में किसान आंदोलनों के उभरने की जो प्रक्रिया शुरू हुई ,उस प्रक्रिया को दिखने में ‘मैला आँचल’ सफल रहा है . ‘मैला आँचल’ के परिपेक्ष्य की चर्चा करते हुए वे कहते हैं “कृषक श्रमिकों-दासों के विद्रोह की कथाएं इतिहास में अपरिचित नहीं हैं पूर्णियां के संथाल जाग रहे थे,छोटा नागपुर के आदिवासी समाज में हलचलें हो रहीं थीं बंगाल में भू-श्रमिक संथाल किसानों के साथ संगठित होने लगे थे. तेलंगाना के किसान संघर्ष की हवा इधर भी आ रही थी” ‘मैला आँचल’ में इतिहास के भीतर की शक्तियों का चित्रण हुआ है .इसी क्रम में वे आगे कहतें हैं कि “व्यवस्था के अंतर्विरोध जिस तेज़ी से बढते हैं ,उससे ज्यादा तेज़ी से जनता के बीच के अंतर्विरोध बढते हैं.” उनके अनुसार इन्हीं अंतर्विरोधों की बेहद सार्थक पहचान रेणु ने ‘मैला आँचल’ में किया है . ‘गोदान’ के बाद के भारतीय किसान जीवन के यथार्थ जिसमे कांग्रेस के अंतर्विरोध और भारत की आज़ादी का वास्तविक अर्थ भी शामिल था, की पहचान करने में रेणु ना सिर्फ कलात्मक स्तर पर बल्कि विषयवस्तु के स्तर पर भी सफल हुए हैं .सुरेन्द्र चौधरी के अनुसार प्रेमचंद के समय किसान संघर्ष की प्रक्रिया आरंभिक दौर में थी लेकिन रेणु तक आते आते उसके चरम अंतर्विरोध खुलकर सामने आने लगते हैं
‘मैला आँचल’ पर सुरेन्द्र चौधरी की टिपण्णी इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है की वे उसके यथार्थ को भौगोलिक सांस्कृतिक यथार्थ के रूप में सीमित नहीं करते हैं वे उसे समकालीनता के पाठ के रूप में ही देखते हैं यही वज़ह है की उसकी गीतात्मकता और नाटकीयता पर मुग्ध होने की बजाय उसके सामाजिक राजनातिक सन्दर्भों को वे समकालीनता की व्याख्या के दायरे में ले आते हैं और किसान संघर्षों की मौजूद तमाम श्रृंखलाओं पर रोशनी डालते हैं .ये तमाम संघर्ष जिनका स्वरुप एक हद तक मैला आँचल में भी आ सका है, वे इतिहास के संघर्षों की ही श्रृंखलाएं हैं और इस वज़ह से वे महत्वपूर्ण हैं .मैला अंचल के सन्दर्भ में वे रामविलास शर्मा से भिन्न निष्कर्ष पर पहुचतें हैं .मैला आँचल के सन्दर्भ में वे रामविलास शर्मा की वर्गीय चिंताओं को बहस के दायरे में नहीं लातें हैं और ना ही तहसीलदार के ह्रदय परिवर्तन के मुद्दे पर अपना कोई दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं बावजूद इस सबके वे ‘मैला आँचल’ की स्थानीयता में जिस परिवर्तित यथार्थ की पहचान करते हैं वह बहुत महत्वपूर्ण है.
पुस्तक के इसी खंड में एक बेहद महत्वपूर्ण आलेख राजकमल चौधरी की बहुचर्चित कविता ‘मुक्तिप्रसंग’ पर है – ‘मुक्तिप्रसंग:एक और देहगाथा’ अधिकांश मार्क्सवादी आलोचकों ने राजकमल की इस कविता को अकविता की श्रेणी में रखा है वे उसे अकविता के अंतर्विरोध की कविता के रूप में नहीं देख सके .एक हद तक राजीव सक्सेना और रमेश कुंतल मेघ ने इसको भिन्न दृष्टि से देखने का प्रयत्न किया है लेकिन ‘मुक्तिप्रसंग’ की संरचनात्मक जटिलता के ब्योरे राजीव सक्सेना की व्याख्या में नहीं आ पाती है .केदारनाथ अग्रवाल ने तो उसे पूर्णतया खारिज ही कर दिया है.इस सबके विपरीत सुरेन्द्र चौधरी अपने संक्षिप्त मगर बेहद सुचिंतित आलेख में इस कविता को देखने समझने के कई सूत्र सामने रखते हैं ,मसलन राजकमल के जीने की लालसा को रेखांकित करते हुए वे कहते हैं “नकार के इस अबाध वेग के बावजूद इस प्रसंग में एक आद्र कर देने वाली आन्तरिकता है यह आन्तरिकता कैसे परिभाषित होती है ?क्या राजकमल के विश्वासों मं ?उसके पास विश्वास नहीं हैं. वरण में ? वरण की आत्मरक्षा भी उसमे उतनी उत्कट नहीं है .फिर ?इस आन्तरिकता को ना तो उसके नकार के दर्शन से परिभाषित किया जा सकता है और ना उसकी स्वीकारात्मक शाब्दिक भूमिकाओं से ही .यह अनिवार्यता बनती है वस्तुतः जीने की लालसा से इसी से वह परिभाषित भी होती है.” इसी जीने की लालसा की पहचान करते हुए वे ‘कवि-मानस’ की ईमानदारी को भी चिन्हित करते हैं “इसी वास्तविकता ने मुक्तिप्रसंग को दर्शन की रिक्तता ,दृष्टि की सीमाओं के बावजूद पठनीय बना दिया है” कहना ना होगा की ‘मुक्तिप्रसंग’ की इस तरह की व्याख्या मार्क्सवादी आलोचना के लिए नए आयाम प्रस्तुत करती है. यहाँ यह भी द्रष्टव्य है की विचार जीवन से जुडकर ही महत्वपूर्ण बनते है बिना जीवन के वे महज़ शब्द और वाक्य होते हैं.
सुरेन्द्र चौधरी की आलोचना दृष्टि जीवन और विचार के बीच एक सेतु बनाने का विनम्र प्रयास की तरह है .हालाँकि उनके लिए यह करना बहुत सहज या स्वाभाविक नहीं रहा लेकिन वे जीवन पर्यंत इसे आलोचना दृष्टि की सम्पन्नता के माध्यम से अर्जित करने का प्रयत्न करते रहे .
इसी खंड में समकालीन कविता पर भी उनके कई लेख संकलित हैं .इन लेखों को ध्यान से देखने पर यह पता चलता है की सुरेन्द्र चौधरी कथा आलोचना और कविता आलोचना दोनों के लिए एक ही पद्धति का प्रयोग नहीं करते हैं .यह बात इसलिए भी ज़रूरी हो जाती है कि हिंदी के महत्वपूर्ण आलोचकों ने कविता आलोचना की पद्धति का ही इस्तेमाल कथा आलोचना में भी किया है , शायद ऐसा करने के कारण ही निर्मल वर्मा कि काव्यमयी और अभिनव भाषा शैली बहुतों को मुग्ध करती रही है.
सुरेन्द्र चौधरी ने कई ऐसे लेखकों पर भी बात की है जिसपर अधिकांश आलोचकों ने चुप्पी साधे रखा .ऐसा नहीं की वे लेखक महत्वपूर्ण नहीं थे मगर एक सुनियोजित प्रक्रिया के तहत आलोचकों ने उन पर कलम चलाने की ज़हमत नहीं उठाई. ऐसे ही लेखकों में से एक थे इसराइल. इसराइल के उपन्यास ‘रौशन’ की चर्चा सुरेन्द्र चौधरी ने शायद पहली बार की है. ‘रौशन’ कि चर्चा के बहाने से डॉ चौधरी भारतीय सर्वहारा के मानसिक बुनावट पर विचार करते हैं .
युवा लेखन पर भी सुरेन्द्र चौधरी के लेख महवपूर्ण हैं वे उसके अंतर्विरोधों की पहचान करते हुए कहते हैं “युवा लेखन में अनुभवों पर दिए गए बल की तुलना में विचारों पर दिया जाने वाला बल न्यून है .”Surendra Chaudhary Ka Alochana Karm
ऐसे समय में जब आचार-विचार से लेकर व्यवहार तक ,रचना से लेकर आलोचना तक और साहित्य से लेकर जीवन तक, जब सबकुछ रुका हुआ और ठंडा दिखाया जा रहा है तो सुरेन्द्र चौधरी का आलोचना कर्म ना सिर्फ परिदृश्य को सवाल के दायरे में लाता है बल्कि परिवर्तन के कठिन रास्तों की पहचान का जोखिम भी उठाता है. सत्तर के बाद हिंदी आलोचना में आये गतिरोध को तोड़ने में सुरेन्द्र चौधरी के आलोचना कर्म की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है . ऐसे में आज ज़रूरत है उन बहसों को केन्द्र में लाने की जिन्हें हाशिये पर फेंक दिया गया है .
इन महत्वपूर्ण लेखों को संकलित सम्पादित करने में संपादक की अथक मेहनत और प्रतिबद्ध दृष्टि को स्पष्ट रूप से लक्षित किया जा सकता है. इस संदर्भ में यह भी बेहद उत्साहवर्धक है कि सुरेन्द्र चौधरी जैसे प्रखर आलोचक को पत्र पत्रिकाओं और धुल ज़मीं फाइलों से निकालने का काम एक युवा आलोचक ने किया है .निश्चय ही यह युवा पीढ़ी के लिए एक अच्छी और सराहनीय बात है.

 

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