आलोचनात्मक सृजन : ‘सृजन का आलोक’

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किसी भी सृजनात्मकता का आस्वादन जन-लोक अपने परिवे¶ा के अनुसार करता है। रचना के वि¶ााल कैनवास से
जब ग्रहण की प्रक्रिया के दौरान; वह व्यक्ति से समष्टि की यात्रा भी करता है। यदि रचनाकार भी इस दुनियादारी को एक
सृजन मानकर ग्रहण करता है तो वह उस सृजन को प्रस्तुत करने के प्रयास के आग्रह चलते नहीं। वह दुनियादारी के प्रत्येक
प्रसंग या घटना को इसीलिए ग्रहण नहीं करता। बल्कि उससे छनकर रचनात्मकता एक ऐसा रूप ग्रहण करती है जिसमें
प्रत्येक घटना तो होती है, पर उसकी मौजूदगी उसी रूप में नहीं होती जैसे वह हुई थी। उसकी एक सं¶िलष्ट रूप रचना में
आता है। किसी एक घटना के माध्यम से सारा घटनावृत्त सामने आ जाता है, कभी-कभी सप्रयास किन्तु अधिकतर अनायास
।। इस ग्रहण से अभिव्यक्ति की यात्रा के दौरान रचनाकार समष्टि से व्यष्टि की यात्रा करता है। समाज में ग्रहण तो वह करता
है लेकिन अपनी विचारधारा एवं भावधारा तथा उसे अभिव्यक्त करने की क्षमता के चलते यह रचनायात्रा व्यष्टि से समष्टि
होती जाती है। लेकिन उसके इस यात्रा में समष्टि प्रायः हमे¶ाा उसके साथ रहती है, उसके संभाव्य पाठक के रूप में या उसके
परिवे¶ा के रूप में इसे ही समाज¶ाास्त्रियों ने ‘वि·ादृष्टि’ कहा है। रचना की सृजन प्रक्रिया के इस दोतर्फा यात्रा के साथ
उसका आस्वादन भी समान प्रक्रिया से गुज़रता है। आस्वादक पहले रचना में अभिव्यक्त सामाजिक संदर्भ को अपने से जोड़ता
है और अन्ततः अपने परिवे¶ा-समाज से। इस प्रकार कला की सृजनप्रक्रिया तथा उसका आस्वादन प्रायः इस दोतर्फा प्रक्रिया
से गुज़रता है, और जहाँ ये नहीं हो पाता है वहाँ रचना या तो घोर व्यक्तिनिष्ठ होकर रह जाती है या लिचड़ नारेबाज़ी।
जब कोई आलोचक या रचनाकार कलाकृति की आलोचना करता है तो उसे इस दोतर्फ़ा प्रक्रिया से एक साथ या
बारी-बारी गुज़रना पड़ता है, तभी वह सार्थक आलोचना को छूने के प्रयास में ¶ाामिल हो पाएगा।
वैसे हिन्दी साहित्यालोचना परिदृ¶य में साहित्य के अतिरिक्त लेखन करने की बहुत लंबी परंपरा नहीं बन पाई है। दरअसल ‘भारतीय मुस्लिम साहित्य’ कहने से एक भ्रम का निर्माण होता है। क्योंकि विशेषतः भारत के इतिहास में मुस्लिम समाज एक साथ शासक भी रहा है और शोषित भी। यह दरार ऐतिहासिक प्रक्रिया में निर्मित हुई थी और अभी तक बनी है। जो आर्थिक रूप से सबल थे वह सत्ता के गलियारों में मुस्लिम नेता के रूप में बने रहने में कामयाब तो हुए किन्तु वह किसी भी प्रकार से आम भारतीय मुस्लिम समुदाय का नेतृत्व नहीं कर रहे हैं और न ही कभी किया । जिन
लोगों ने संगीत, चित्रकला, फिल्म आदि पर लिखने का साहस किया उन्हें कलावादी कहकर कोसा गया, जबकि आलोचनेत्तर
साहित्य में अन्य कलाओं के बहुत-से प्रसंग आते हैं। साथ ही, इस आत्ममुग्ध वाली परंपरा ने हिन्दीत्तर भारतीय और विदे¶ाी
भाषाओं के साहित्य पर लेखन न कर अपने कठमुल्लेपन को जाहिर किया है। कमाल की बात तो यह है कि इतना सब होने
पर भी हम अन्तर्रानु¶ाानिक होने तथा हिन्दी आलोचना को अन्य कला-सामाजिक ¶ाास्त्रों आदि ज्ञानानु¶ाासन वालों से पढ़ने की
नादान उम्मीद करते हैं! हम कलाओं के समाज¶ाास्त्र की बात किताबों में खूब करते हैं और हर कोई व्यवहार में किसी दूसरे
द्वारा कलाओं पर लिखे जाने की उम्मीद करता है। ऐसा नहीं है कि हिन्दी आलोचना ने कला समीक्षा पर बिल्कुल ध्यान नहीं
दिया। इस परंपरा का जायज़ा देते हुए विनोद भारद्वाज ने लिखा है “हिन्दी में आधुनिक कला पर स्तरीय, गंभीर और नियमित
लेखन की ¶ाुरुआत 1965 में ‘दिनमान’ के प्रका¶ान के साथ हुई। उससे पहले छिटपुट और रंगीन किस्म का और
परिचयात्मक लेखन विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में छपता था। दिनमान की संपादकीय टीम ने लगभग सभी संस्कृति-स्तंभों को न
सिर्फ गहरे स्तर पर आधुनिक बनाया, बल्कि इन विधाओं पर लिखने का एक नया ढंग, नया नज़रिया सामने रखा। भाषा के
स्तर पर भी एक बहुत बड़ा फर्क सामने आया। भारतीय कला पर हिन्दी में महत्त्वपूर्ण और गंभीर लेखन की ¶ाुरुआत राय
कृष्णदास से हुई थी। उनकी पुस्तकें ‘भारत की चित्रकला’ और ‘भारतीय मूर्तिकला’ आज भी अपने ढंग की अद्वितीय
पुस्तकें है।…हिन्दी में नवनीत, प्रतीक, कल्पना, और आधार सरीखी पत्रिकाओं से ¶ाुरु होकर धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान
और सारिका ने आधुनिक कला को पर्याप्त जगह दी। साठ और सत्तर के द¶ाक में इन पत्रिकाओं में आधुनिक कला पर भले
ही गंभीर बहसें नहीं ¶ाुरु की गर्इं पर रंगीन चित्रों, परिचयात्मक टिप्पणियों का अपना महत्व था। ‘धर्मयुग’ ने चित्र-वीथी में
दे¶ा के महत्त्वपूर्ण कलाकारों की रंगीन अनुकृतियाँ (संक्षिप्त परिचय के साथ) छापीं। समय-समय पर कलाकारों पर वृत्तान्त
भी छपे। साठ के द¶ाक के अन्तिम वर्षों में ‘सारिका’ में एक लोकप्रिय लेखमाला ¶ाुरु हुई थी जिसमें दे¶ा के अनेक प्रसिद्ध
चित्रकारों पर सचित्र लेख छपे थे। कृष्णकान्त, नंदकि¶ाोर मित्तल, सुदीप आदि लेखकों ने इस श्रृंखला में लिखा। यह एक
अच्छी और अपने ढंग की महत्त्वपूर्ण ¶ाुरुआत थी। …श्रीपत राय की ‘कहानी’ ने भी आधुनिक कला के प्रति नई जागरुकता
पैदा की। उसके आवरण पर आधुनिक कला (प¶िचमी भी) को जगह मिली। छोटी-छोटी संपादकीय टिप्पणियाँ भी कला के
प्रति पाठक की दिलचस्पी बनाने-बढ़ाने में सहायक हुर्इं।…सन् 1965 में ‘दिनमान’ का प्रका¶ान हिन्दी पत्रकारिता में एक
घटना थी। फिल्म, साहित्य, कला, संगीत, रंगमंच (यहाँ तक की खेल भी) सरीखे स्तंभों को हिन्दी में एक नई पहचान मिली।
अज्ञेय ने दिनमान के स्टाफ में हिन्दी के कई बड़े आधुनिक लेखकों को नियुक्त किया। वे सभी कलाओं की आवाजाही में
वि·ाास रखते थे, साथही अनेक विधाओं के निकट संपर्क में भी।…सत्तर के द¶ाक में ‘प्रतिपक्ष’ में कमले¶ा के संपादन में
कला पर नियमित सामग्री प्रका¶िात हुई।…भोपाल की साहित्यिक पत्रिका ‘पूर्वग्रह’ में भी हिन्दी में कला पर स्थाई महत्व की
सामग्री छपी। रज़ा, रामकुमार, विवान सुंदरम सरीखे कलाकारों पर ‘पूर्वग्रह’ में वि¶ोष फोकस हुआ। बाद में ‘कलावार्ता’ में
भी कला पर नियमित सामग्री प्रका¶िात हुई। इस बीच राजधानी में ‘जनसत्ता’ का प्रका¶ान ¶ाुरु हुआ जिसमें कला का
नियमित स्तंभ ¶ाुरु से ही था। दैनिक पत्रकारिता में यह एक नई ¶ाुरुआत थी। ‘मैगज़ीन’ संपादक मंगले¶ा डबराल ने कला
पर नियमित लेखन के महत्व को रेखांकित किया। विनोद भारद्वाज, असद जैदी, पंकज सिंह, सुरे¶ा ¶ार्मा आदि ने कला पर
लिखा। इस तरह से हिन्दी कवियों का किसी-न-किसी वजह से आधुनिक कला से गहरा रि¶ता है। यह रि¶ता सिर्फ दोस्ती का
न होकर गहरे रचनात्मक हस्तक्षेप का भी है।
ललित कला अकादमी ने ‘समकालीन कला’ पत्रिका का प्रका¶ान 1982 में ¶ाुरु किया। हिन्दी में अपने ढंग की यह
अकेली पत्रिका है।…अनेक महत्त्वपूर्ण कलाकारों-हुसैन, तैयब मेहता आदि ने समय-समय पर भारतीय भाषाओं में कला के
महत्व को रेखांकित किया है।” (बृहद आधुनिक कला को¶ा पृ.14-17) आलोचक मुक्तिबोध ने चित्रकला पर भी लिखा और
मराठी भक्ति आन्दोलन पर भी, राही मासूम रज़ा फिल्म के साथ जुड़े भी थे और उस पर लेखन भी किया, अ¶ाोक वाजपेयी
का अवदान एकदम ताज़ा एव महत्त्वपूर्ण है, विनोद भारद्वाज ने हिन्दी आलोचना का विस्तार करने का पूर्ण प्रयास किया,
गिनाने के लिए नाम और भी है लेकिन क्या कारण है इस परंपरा के अपेक्षाकृत विकास न हो पाने का? इस परंपरा के
विकसित न होने का सबसे बड़ा ख़ामियाज़ा हिन्दी भाषा को भी भुगतना पड़ा है। हिन्दी में कला समीक्षा का विकास संभवतः
इसलिए भी नहीं हो पाय क्योंकि यहाँ “अच्छे कला समीक्षक कलाकारों के साथ रहकर, घूमकर, बतियाकर उनकी कला के
बारे में लिखते हैं। सवाल किसी एक प्रदर्¶ानी में कुछ चित्रों को देखकर साहित्यिक प्रतिक्रिया देने का नहीं है। इसलिए कला
समीक्षा एक साधना है। मात्र अख़बारी काम नहीं है कि हड़बड़ी में कापी-कलम लेकर चले गए और दो-चार चीज़ें नोट कर
आए।” (बृहद आधुनिक कला को¶ा-पृ.18) साथ ही यह भी एक कारण हो सकता है कि यहाँ गंभीर कला लेखकों की
पारिश्रमिक की स्थिति बहुत खराब रही है। कारण कई हैं, लेकिन इससे जो ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा वह कई गुना अधिक है-
एक तरफ़ इसी के चलते चालू सांस्कृतिक लेखन को बढ़ावा मिला और सच्ची कलाकृतियाँ अपने सही स्थान से महरूम
होकर अमीरों के दीवारों की ¶ाोभा औने-पौने दामों पर बढ़ाने को मजबूर हुई, जिनके दमन के खिलाफ वह आवाज़ उठाने की
को¶िा¶ा करती हैं, तो दूसरी तरफ़ हिन्दी आलोचना को पाठक से ज्यादा ¶ाोधार्थी या अध्यापक तक सीमित होकर रहना पड़ा।
तमिल, बांग्ला, तेलुगू, कन्नड, मलयालम आदि भाषाओं के साहित्य पर हिन्दी आलोचना में लिखा जाता तो, उसे पढ़ा भी
जाता और उसे पढ़े जाने की उम्मीद करना उतनी बेईमानी नहीं होती जितनी आज है। मीडिया के क्षेत्र में आज हिन्दी में जो
थोक के भाव लेखन हो रहा है, खेद है कि अन्य भाषाओं के मीडिया के प्रति उसमें भयावह उपेक्षा का भाव है। इसमें उन
हिन्दीएत्तर लोगों का अधिक दोष है जो हिन्दी में लिखने में समर्थ तो हैं, किन्तु अपने समाज, उसकी समस्याओं और उसके
साहित्यिक और कलात्मक अभिव्यक्तियों को राष्ट्रीय बनाने की महत्त्वकांक्षा नहीं रखते। अनुवाद से भी महत्त्वपूर्ण दस्वावेज़ों
को राष्ट्रीय चिन्तन धारा में ¶ाामिल किया जा सकता है।
विनोद दास की ‘कविता का वैभव’ (2006) और ‘भारतीय सिनेमा का अन्तःकरण’ (2009) के बाद आई तीसरी
आलोचना पुस्तक ‘सृजन का आलोक’ हिन्दी आलोचना की इन खामियों पर विचार और उसे पूरा कर साहित्य तथा अन्य
कलाओं का एक पुंज बनाने का प्रयास करती है। हिन्दी आलोचना की एक स्वस्थ परंपरा को आगे बढ़ाकर उसका पुनः
विस्तार करने का प्रयास जाने-अनजाने इस पुस्तक से हुआ है। पुस्तक की व्याप्ति आलोचक की तमाम ज्ञान परिधियों,
अनुभव, अध्ययन¶ाीलता एवं चिन्तन को छूती है।
साहित्य के अतिरिक्त पुस्तक में चित्रकला, फिल्म पत्रकारिता आदि पर भी लेखन किया गया है। पुस्तक के तीन खण्ड हैं-
कथा संवाद, पत्रकारिता विमर्¶ा और कला और समय। विनोद दास की पिछली दो आलोचना पुस्तकों की भाँति इसमें भी
मानदंडों की रूढ़िबद्धता बिल्कुल नहीं है। वैसे कवि आलोचकों के यहाँ आलोचना के मानदंडों की अपेक्षा जीवन के मानदंडों
को साहित्यालोचना में अधिक महत्व प्राप्त हुआ है। यही बात विनोद दास के इस पुस्तक के बारे में भी कही जा सकती है।
एक तो इस पुस्तक की व्याप्ति साहित्य के अतिरिक्त पत्रकारिता से लेकर चित्रकला-फिल्म आदि तक व्याप्त है तो दूसरी और
बांग्ला साहित्य, भारतीय अंग्रेजी लेखन पर भी इसमें कलम चलाई गई है । इन सारे प्रसंगों में विनोद दास की साहित्यलोचना
जीवन की आलोचना है, की धारणा प्रकट होती है – अप्रत्यक्ष लेकिन कार्यात्मक रूप में।
सबसे पहले कथा साहित्य को ले। हिन्दी आलोचना में आम तौर पर स्थापित रचनाकार को बार बार काल की
कसौटी-चुनौतियों पर कसा नहीं जाता। लेकिन समकालीन विमर्¶ाों के रुाोत पिछले रचनाकारों में ढूँढने की परंपरा हमारे यहाँ
खूब रही है। इसी परंपरा में य¶ापाल की कहानियों को समकालीन विमर्¶ाों दलित विमर्¶ा, नारी विमर्¶ा आदि के आलोक में
जाँचने-परखने का काम विनोद दास ने किया है। मुद्राराक्षस के कहानीसंग्रह ‘¶ाब्द दं¶ा’ के बहाने उनकी पिछली कहानियों की
प्रवृत्ति चौकानेवाली मुद्रा से मुक्ति को रेखांकित किया गया है। ¶ाानी की रचनात्मकता को विनोद दास ने नोटिस किया है।
उनकी कहानियों के सन्दर्भ में उनका मत है कि “महानगर की भयावह और अमानवीय परिस्थितियों के बीच आदमी के निर्मम
एवं त्रासद संघर्ष का एक छटपटाहट भरा दस्तावेज है।” (पृ.44) ¶ाानी की कथा रचना विकास क्रम में उनकी कहानियों में
हमे¶ाा ‘कहानीपन’ के बचे रहने को रेखांकित करते हुए आलोचक ने हिन्दी कहानी परिदृ¶य से ¶िाकायत की मुद्रा में लिखा है
कि “हिन्दी कहानी परिदृ¶य में कहानियों से कहानीपन खत्म होता जा रहा है।” (पृ.46) लेकिन आलोचक का ‘कहानीपन’
से तात्पर्य क्या है? प्रेमचन्द, जय¶ांकर प्रसाद, फणी·ारनाथ रेणु, मन्नू भंडारी, संजीव, असग़र वजाहत, उदय प्रका¶ा या हिन्दी
के किस कहानीकार की कहानियों को उस गुण से युक्त कहेंगे? जिसे विनोद ‘कहानीपन’ कहते हैं। इसे आलोचक हिन्दी
कहानी विकास यात्रा के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देख नहीं पाता है। विनोद का कहना सही है कि “उनकी कहानियों के पात्र
हिन्दू बहुसंख्यक समाज में सम्मान से सुरक्षित रहने की लड़ाई में संलग्न दिखाई देते हैं। ¶ाानी अल्पसंख्यक वर्ग के हालात में
जकड़े हुए मनुष्य के घात-प्रतिघातों और मानसिक प्रतिक्रियाओं को पकड़ने में बेजोड़ हैं।” (पृ.45) ¶ाानी के उपन्यास ‘काला
जल’ के संदर्भ में आलोचक का कहना है कि “¶ाानी कस्बे के चित्रण में कहीं पर भी नॉस्टेलजिक नहीं हैं। अत्यंत तटस्थ
दृष्टि से वे कस्बे में बदलते हुए मूल्यों को वि¶लेषित करते हैं, लेकिन उनका वि¶लेषण ¶ाुद्ध समाज¶ाास्त्री नहीं है। औद्योगिक
विकास और आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में मानव मन के बदलते हुए कार्य-व्यापारों को दिखलाते हुए वे इस परिवर्तन को
गद्यकथा में रूपायित करते हैं, जो समाज¶ाास्त्रीय वि¶लेषण कम, एक संवेदन¶ाील रचनाकार की दुःखभरी चिन्ता अधिक
लगती है।” (पृ.55) इस दुःख भरी चिन्ता में क्या कोई संवेदन¶ाील रचनाकार तटस्थ रहता है, क्या रचनात्मक कार्य से
समाज¶ाास्त्रीय वि¶लेषण की माँग की जानी चाहिए ? क्या कोई भी रचना अपने तरीके से यथार्थ का समाज¶ाास्त्र प्रस्तुत नहीं
करती ? तो फिर रचना से किस समाज¶ाास्त्रीय वि¶लेषण की माँग आलोचक कर रहा है, वि¶ाुद्ध समाज¶ाास्त्रीय !! फिर रेणु
को भी तटस्थ रचनाकार कहा जा सकता है और उनसे भी उसी प्रकार के समाज¶ाास्त्रीय वि¶लेषण की माँग की जा सकती है
। आलोचक की यह राय एकदम सही है कि “भारतीय मुस्लिम समाज की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थिति को
जाँचे बिना ‘काला जल’ का सही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।”(पृ.57) लेकिन जब वह कहता है “इस तरह ये मुस्लिम
परिवार अपने आपको आउट साइडर (बाहरी आदमी) समझते रहते हैं। मुस्लिम समुदाय के इस अन्तद्र्वन्द्व को एक इन-साइडर
ही समझ सकता है। ¶ाानी हिन्दी के ऐसे लेखक हैं, जो इन-साइडर हैं और जिन्होंने काला जल में मुस्लिम समुदाय के
अंतर्विरोधों को ईमानदारी से उजागर किया है” तो वह दलित साहित्य के मानदंडों को मुस्लिम लेखन पर नत्थी करने का
प्रयास कर रहा है। दरअसल ‘भारतीय मुस्लिम साहित्य’ कहने से एक भ्रम सा निर्माण होता है। क्योंकि वि¶ोषतः भारत के
इतिहास में मुस्लिम समाज एक साथ ¶ाासक भी रहा है और ¶ाोषित भी। यह दरार ऐतिहासिक प्रक्रिया में निर्मित हुई थी और
अभी तक बनी है। जो आर्थिक रूप से सबल थे वह सत्ता के गलियारों में मुस्लिम नेता के रूप में बने रहने में कामयाब तो
हुए किन्तु वह किसी भी प्रकार से आम भारतीय मुस्लिम समुदाय का नेतृत्व नहीं कर रहे हैं और न ही कभी किया । इसी
प्रकार केवल मुस्लिम होने से कोई रचनाकार इनसाइडर नहीं हो जाता। ¶ाानी के ‘काल जल’ में इनसाइडर की भूमिका का
निर्वहन हुआ है किन्तु आलोचक की राय में तब फाँक नज़र आने लगती है जब मेव मुसलमानों के अन्तद्र्वद्वों का, उनके
अन्तर्विरोधों का चित्रण एक तथाकथित आउटसाइडर ‘काला पहाड़’ उपन्यास में करता है। यानी एक इनसाइडर भी सफल
अभिव्यक्ति नहीं दे सकता जबकि एक आउटसाइडर यदि उस कथाक्षेत्र में रचा-बसा हो, वहाँ के लोक से तादात्म्य स्थापित कर
चुका हो तो सफल अभिव्यक्ति दे सकता है।
कुछ ऐसी ही बात भारतीय अंग्रेजी लेखन के संदर्भ में कही जा सकती है। ये विनोद दास के लोक से साहित्य और
सहित अन्य कलाओं को जोड़कर देखने के आग्रह का ही परिणाम है कि रोहिंगटन मिस्त्री के उपन्यास ‘फैमली मैटर्स’ पर
विचार करते हुए भारतीय अंग्रेजी लेखन पर ये तल्ख़ टिप्पणी की है-“कुछ अपवादों को छोड़ दें तो अधिकां¶ा भारतीय अंग्रेजी
उपन्यासकार कुछ पराए-पराए ही नहीं. किसी सुदूर लोक के प्राणी लगते हैं। अक्सर ऐसा लगता है कि उन्हें अपने दे¶ा की
मिट्टी के रूप, रंग और गंध से न तो कोई गहरा परिचय है और न ही यहाँ के आम आदमियों से उनका कोई वास्ता है। मेरा
मन बार-बार मुझे कोंचता है कि उनका लेखन हमारे लिए नहीं है। वे साहित्याका¶ा के ऐसे जगमगाते नक्षत्र हैं जिन्हें हम
अपनी मटमैली धरती से दूर से कहीं निरख सकते हैं। प्रख्यात चिन्तक सर इसाया बर्लिन के ¶ाब्दों में कहें तो ये एलिनियेटेड
बुद्धिजीवी हैं।” (पृ.59) लेकिन इन ‘एलिएनेटेड बुद्धिजीवी’ उपन्यासकारों के बरअक्स अपने ज़मीन से जुड़ने के कारण ही
नहीं तो रोहिंगटन मिस्त्री को इसलिए भी सराहा गया है कि वे यहाँ की गरीबी, बेबसी वगैरे का तमा¶ाा बनाए बगैर यथार्थ का
चित्रण करते हैं और उपन्यास विधा का सही इस्तेमाल करते हैं। ‘सही इस्तेमाल’ से तात्पर्य है कि भारतीय अंग्रेजी लेखन का
अधिकां¶ा अपनी धरती से कटा तो है और साथ ही वह साहित्य कला की उस स्थिति से जुड़ा है जो साहित्य-कलाओं के लिए
सबसे अधिक घातक है-पूँजीवादी-उपनिवे¶ा की रूचियों के अनुसार अपने में परिवद्र्धन-परिवर्तन करना यानी उनकी रूचियों
का पोषण करना। ये प्रवृत्ति भारतीय अंग्रेजी लेखन के आरंभिक दौर में इस पर हावी नहीं थी बल्कि पूँजी के महत्व के साथ
इसका जोर बढ़ता जा रहा है। मुल्कराज आनंद का अनटचेबल्स, अहमद अली का ‘ट्विनलाइट इन देहली’,
आर.के.नारायण, राजा राव आदि का संपूर्ण लेखन इसका गवाह है। इसके बरअक्स किरण देसाई का ‘इन्हेरिटेंस ऑफ लॉस’
तथा अरविन्द अडिग का ‘व्हाइट टाईगर’ (जिन्हें कुछ लोग उपन्यास कहते हैं) भारतीय अंग्रेजी के लेखकों द्वारा लिखे तो कहे
जा सकते हैं लेकिन उपन्यास में वह परिवे¶ा नहीं है, जो ‘ट्विनलाइट इन देहली’ में दिल्ली की संस्कृति, संस्कृति का
धुंधलका है-मुग़ल संस्कृति की ढलान का धुंधलका, फिरंगी संस्कृति के आमद की धुंध। अफ़सोस यह है कि समकालीन
भारतीय अंग्रेजी लेखन उस धुंध को भी नहीं छु पा रहा है। लेकिन राहत की बात है कि पिछले पच्चीस वर्षों से कनाडा में
रहने वाले भारतीय मूल के रचनाकार रोहिंगटन मिस्त्री के लेखन को यहाँ के धूल से बचने के लिए नाक पर रुमाल रखने
वाले इन रचनाकारों की जमात में ¶ाामिल नहीं किया जा सकता। विनोद दास ने उनके लेखन को भारतीय जिजीविषा के
दस्तावेजीकरण के रूप में सही पहचाना है। अपवाद भी महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं ये मिस्त्री के लेखन से साबित होता है।
जापानी कथाकार केंजबुरो ओए के उपन्यास ‘पर्सनल मैटर’ पर लिखा लेख पढ़ने से पहले ये ख़ाकसार एक भी
जापानी साहित्यकार का नाम नहीं जानता था! इस उपन्यास में चित्रित जपानी जिजीविषा के चित्रण को आलोचक ने रेखांकित
किया है। इस उपन्यास के संदर्भ में आलोचक की कुछ टिप्पणियाँ इस प्रकार हैं – “पराजय ने जापान को आत्मपरीक्षण और
नए विकल्पों की खोज करने का अवसर दिया। केंजबुरो ओए के गद्य में जपानी मन का यही अन्तद्र्वन्द्व बोलता है। वे मात्र
कथाकार नहीं, एक सजग बौद्धिक और सचेत विचारक हैं। उन्होंने राजनीति से जुड़े विभिन्न विषयों पर असंख्य विवादास्पद
और विचारोत्तेजक लेख भी लिखे हैं जो जापानी वैचारिक संघर्ष के अमूल्य दस्तावेज हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि केंजबुरो ओए
जापान में नववाम के प्रमुख प्रवक्ता रहे हैं।” (पृ.66)
“पर्सनल मैटर’ पुस्तक की काया भारी भरकम नहीं है। केंजबुरो ओए की ‘साइलेंट काई’ की तुलना में काफी
पतली और रोचक मंदबुद्धि संतान के पिता की व्यथा कथा है। अणु-युद्ध की विभीषिका के फलस्वरूप जापानी मनुष्य की
व्यथा जो केंजबुरो ओए की अपनी निजी व्यथा कथा भी रही है। पीड़ा जो अणु-युद्ध की विभीषिका के फलस्वरूप असंख्य
जन की रही है जिनकी मंद या विकृत संताने पैदा हुई हैं।”(पृ.67)
“पर्सनल मैटर’ गंभीर एवं गरिमापूर्ण उपन्यास है। इसमें अणुबम से लेकर, जीवन मृत्यु और सेक्स पर गंभीर विमर्¶ा
के अलावा एक असामान्य ¶िा¶ाु के पिता के अवचेतन में चल रही मनोद¶ााओं का इज़हार किया गया है।” (पृ.70)
“उपन्यास में सेक्स का खुला वर्णन परंपरागत संस्कारों के कई पाठकों के लिए अग्राह्र हो सकता है।” (पृ.71)
“हिन्दी में मंदबुद्धि संतानों के संघर्षों पर अलका सरावगी का एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है जिसमें मंदबुद्धि संतान के
साथ माँ के आन्तरिक संघर्ष को उभारा गया है। यह ‘पर्सनल मैटर’ से आगे की यात्रा है।” (पृ.71)
एक बात दोहराना चाहूँगा कि विनोद दास का यह लेख, प्रकारान्तर से यह पुस्तक, हिन्दी आलोचना के विस्तारण का
पुनः प्रयास है। साहित्य को एक दूसरे से जोड़ने का प्रयास है, अन्तिम टिप्पणी से यह स्पष्ट है। यही बात उनके बांग्ला कहानी
के विकास पर लिखे लंबे लेख से भी स्पष्ट होती है। बांग्ला कहानी के विकास को हिन्दी में इतने कम और स्पष्ट ¶ाब्दों में
¶ाायद ही किसी आलोचक ने समझाया होगा। क्योंकि अधिकतर बांग्ला कविता ही हिन्दी आलोचना में संदर्भ के रूप में कभी-
कभार आ जाती है, लाई नहीं जाती। ऐसे में विनोद दास का यह लेख बांग्ला कथा साहित्य को समझने के क्रम की ¶ाुरुआती
कड़ियों में माना जा सकता है, जिसमें समकालीन कथा साहित्य को भी स्थान दिया गया है।
पुस्तक में दो लेख ऐसे हैं जिसमें विनोद दास का श्रोता या पाठक मन स्पष्ट दिखाई देता है। पहला है-भीष्म साहनी
पर और दूसरा मलयज। भीष्म साहनी के साथ विनोद दास की जो अनायस भेंटे हुई, एक रचनाकार के रूप में दिल्ली में वे
साहनी जी से किस प्रकार प्रभावित हुए इन सारी बातों को एक संस्मरण की भाँति याद किया गया है। मलयज के पत्रों द्वारा
उनके व्यक्तित्व तथा उनके रचनाकार से साक्षात्कार करने-कराने का प्रयास बेहतरीन ढंग से किया गया है।
पुस्तक का अगला हिस्सा पत्रकारिता से सरोकार रखता है, जिसमें अतीत के महान पत्रकारों के साथ समकालीन
पत्रकारिता का जायज़ा लिया गया है। वे पत्रकार विभूतियाँ हैं- रामवृक्ष बेनीपुरी तथा चिली के महान साहित्यकार पाब्लो
नेरुदा। हिन्दी में मीडिया संबंधी लेखन का जो फ़ै¶ान चल पड़ा है, उसका अधिकां¶ा समकालीन मीडिया पर केन्द्रित है,
जिसकी मुद्रा मीडिया को कोसने की है। इसके बरअक्स विनोद दास अतीत के इन विभूतियों से प्रेरणा ग्रहण करते हुए
पत्रकारिता के सामाजिक सरोकार, उसकी गंभीरता तथा पत्रकारिकता में रचनात्मकता की चर्चा करते हैं। हिन्दी, एक प्रकार से
भारतीय, पत्रकारिता में आए मूल प्रतिज्ञा से विचलनों को रेखांकित करते हुए आलोचक ने रामवृक्ष बेनीपुरी तथा पाब्लो नेरूदा
से कई संदर्भ लिए है जो समकालीन पत्रकारिता को आदर्¶ा स्थिति की ओर जाने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। विनोद दास
का यह कहना सही है कि “समाज में यथास्थिति बनाए रखने के पक्षधर किसी घटना का वर्णन जस का तस करेंगे। लेकिन
समाज में बदलाव के पक्षधर उस घटना के आपसी तंतुओं और संबंधों को उद्घाटित करते हुए संघर्षों के उन उपायों को भी
रेखांकित करेंगे जिनके माध्यम से उनसे निपटा जा सके और नए समाज की र्इंट रखी जा सके।” (पृ.77) पाब्लो नेरूदा के
पत्रकारिता की रचनात्मक भूमि, एक ऐसा मि¶ान था जहाँ ¶ाब्द और कर्म में फाँक न थी, उनकी पत्रकारिता में व्याप्त
भाववादिता जो “भावों के महासागर में हिलोरे लेते हुए भी वह मानव मूल्यों को दृढ़ता से पकड़े रहते थेश्व्दिल और दुनिया
के बीच जीवंत संवाद है जिसमें जिन्दगी की कथा से वह सोच को जन्म देते हैं” (पृ.87), को प्रका¶िात किया गया है। यह
एक संयोग ही है कि रामवृक्ष बेनीपुरी की “पत्रकारिता के केन्द्रीय गुण स्वाधीन विवेक, साहस, आवेग और सरल-सहज
भाषा” (पृ.79) पाब्लो नेरूदा से मेल खाते हैं और इन गुणों का अभाव समकालीन पत्रकारिता में आलोचक को नज़र आता
है। एक बात अत्यंत महत्त्वपूर्ण इस पुस्तक में हुई है, सृजन¶ाीलता के साथ-साथ पत्रकारिता में भी विचारधारा के महत्व को
स्वीकार किया गया है । उनके अनुसार “तटस्थता का राग अलापनेवाले पे¶ोवर पत्रकारों को यह याद रखना चाहिए कि
तटस्थता स्वयं एक यथास्थिति का नाम है।” (पृ.77)
यही बात उनके चित्रकला पर लिखे विभिन्न लेखों में देखी जा सकती है जिनमें, इस बात को रेखांकित किया कि
किस प्रकार वैचारिक बदलाव ने भारतीय आधुनिक चित्रकला को सही दि¶ाा देकर उसका विकास संभव किया । मकबूल
फिदा हुसैन की कला को ‘समय की ¶िानाख़्त करनेवाली कला’ कहा गया तथा उनकी एक प्रदर्¶ानी में किस प्रकार इस बात
को निभाया, इसका प्रभाववादी विवेचन विनोद दास ने किया है। ये लेखन एक प्रकार से विनोद दास के चिन्तन¶ाील व्यक्तित्व
की उपज है। उन्होंने हुसैन की इस प्रदर्¶ानी का सिर्फ आखों देखा हाल या उसकी रिपोर्टिंग मात्र पे¶ा नहीं की, बल्कि उसके
समकालीन समाज-जीवन से जुड़ाव को भी बारीकी से उद्घाटित किया है। यहाँ उनके द्वारा दिए गए प्रदर्¶ानी के एक दृ¶य से
बात को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है-“हुसैन अखबारों के मुखपृष्ठ पर छपे चित्रों और ¶ाीर्षों को केन्द्र में रखते हैं और
अपनी भारी, मोटी, गहरी रेखाओं के स्पर्¶ा से उन्हें नया परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हैं। यहाँ रेखाओं और ¶ाब्दों का अनोखा साहचर्य
बनता है। इनके बीच कोई दूरी नहीं रहती। रेखाएँ और ¶ाब्द एक-दूसरे में चढ़ते चले जाते हैं-एक-दूसरे को पकड़ते, एक-दूसरे
को छोड़ते हुए। जिस क्षण वे एक-दूसरे का हाथ पकड़ते हैं, वह अर्थ सृजन का ऐसा क्षण होता है जिसमें रचना अपनी जड़ पा
लेती है।” (पृ.97)
विनोद दास उस प्रकार प्रभाववादी कला आलोचक नहीं है जो कलाकार की एक इमेज बनाने के लिए वादों को जन्म
देते है या उनकी तारीफों के पुल बाँधते हैं। यह बात उनके हुसैन की प्रदर्¶ानी के साथ जर्मन अभिव्यंजनावादी कला की
प्रदर्¶ानी संबंध में लिखे गए लेख के संदर्भ में भी सच है। साहित्य में आचार्य ¶ाुक्ल के लेखे जर्मन अभिव्यंजनावाद की एक
कुप्रसिद्ध छवि निर्माण हो गई है। अभिव्यंजनावाद का नाम आते ही एक प्रकार से कलावादी या समाज से असंपृक्त कला
आन्दोलन मात्र मानकर उसके प्रति नाक-भौ सिकुड़ी जाती है। चित्रकला में इसके ठीक विपरित परिस्थिति है, इसे भुला दिया
जाता है या जानने की को¶िा¶ा भी नहीं की जाती है। आलोचक ने इस प्रदर्¶ानी के बहाने जर्मन अभिव्यंजनावादी चित्रकला
आन्दोलन के सामाजिक चरित्र को सामने रखा है कुछ महत्त्वपूर्ण टिपण्णियाँ इस प्रकार हैं – “इस समूह का मूलतः विरोध
प्रभाववाद से था।” “अभिव्यंजनावाद विचारों से अधिक संवेदना और भावसंवेगों को महत्व देते थे।” (पृ.107) “ यह
अकारण नहीं है कि अभिव्यंजनावादी कलाकारों का जर्मन की नात्सी सत्ता विरोध करती थी। नात्सी सत्ता को भय था कि इन
चित्रों में व्यक्त कथ्य समाज में कोई उद्वेलन पैदा न कर दें।” (पृ.108) “प्रथम वि·ायुद्ध के प¶चात अभिव्यंजनावादी कला में
राजनैतिक और सामाजिक चेतना ज्यादा आक्रमक रूप में उभरकर सामने आई।” (पृ.109) जाहिर है कि अभिव्यंजनावाद
अपने समय के सामाजिक-राजनैतिक दुष्प्रवृत्तियों के विरोध में सीधे- सीधे खड़ा होता है, किन्तु इसके विरोध का स्वरूप
अधिकतर भावनात्मक स्तर पर होने के कारण उचित परिणाम नहीं निकल पाया तथा ये आन्दोलन मंद पड़ता गया। स्वयं
भाववाद के पोषक ¶ाुक्ल ने पता नहीं क्यों अभिव्यंजनावाद का विरोध किया !! इस लेख में ‘कला’ ¶ाब्द का प्रयोग सिर्फ
चित्रकला के लिए संकुचित अर्थ में हुआ है। जैसी धुंधली समझ हिन्दी साहित्यालोचना में अभिव्यंजनावाद को लेकर है, वही
स्थिति प्रगति¶ाील आन्दोलन को लेकर है। दरअसल चित्रकला में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रूप का अर्थ साहित्य एवं रंगमंच में
प्रचलित अर्थ से भिन्न है, लेकिन उनका चरित्र एक-सा है। भले ही इसके एक प्रमुख प्रवक्ता सूजा के अनुसार ‘इस समूह के
कलाकारों की दृष्टियाँ अलग-अलग हैं लेकिन इनका उद्दे¶य फार्म की तला¶ा करना है’। इसे हिन्दी साहित्य के प्रगति¶ाील
आन्दोलन से जोड़कर देखा जाए तो बात अधिक स्पष्ट होगी। हिन्दी साहित्य के प्रगति¶ाील आन्दोलन के हस्ताक्षरों की
वैचारिक एकता थी तथा उन्होंने रूप या फार्म को वह महत्व नहीं दिया, जिसकी बात सूजा ने चित्रकला के सन्दर्भ में कही है।
इस लेख में विनोद दास आधुनिक भारतीय चित्रकला को वि·ा कला जगत् से आँख मिलाने के काबिल पाते हैं । उसके
कारणों को विस्तारित रूप से विवेचित करनेवाला ‘कला की आवाज’ पुस्तक का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं बेहतरीन लेख है।
समकालीन कला आलोचना की खामियों तथा उसमें गंभीर लेखन के ख़ामियाज़ों की ओर संकेत करते हुए आलोचक ने लिखा
है कि “समकालीन कला परिदृ¶य में कला आलोचकों की बड़ी कमी है जो कलाकृति के सामाजिक-राजनीतिक मूल्यों और
सरोकारों के संबंध में वि¶लेषित करते हुए परिभाषित करते हों। कला आलोचकों की अनुपस्थिति का ही परिणाम है कि आज
एक औसत दरजे की कलाकृति कला दलालों के चलते लाखों करोड़ों में बिकती है और एक अच्छी कलाकृति किसी दीवार
पर दिखने के लिए ग्राहक को तरसती है।” (पृ.115) विनोद दास ने चित्रकला के बाजार और उसकी सामाजिक भूमिका का
जो विवेचन-वि¶लेषण किया है, वह कला के समाज¶ाास्त्र की कोटि का है। वस्तुतः कला को बाजार से टकराते हुए अपनी
सामाजिक भूमिका की तला¶ा करनी होती है, दुरुपयोग तथा गलत व्याख्या से बचने की जद्दोजहद के साथ अपनी प्रतिरोध की
¶ाक्ति को भी अर्जित करते रहना पड़ता है। कला का यह प्रतिरोध दमनकारी तत्वों-विचारों तथा मान्यताओं के खिलाफ़ होता है
। चित्रकला या किसी भी कला के व्यापारी पहले तो कलाकार की छवि निर्माण करते है फिर उससे फायदा उठाने का काम
करते है, इसका सांगोपांग विवेचन विनोद दास ने इस क्रम में किया है। बाजार का लुभावना रूप कलाओं के बाजार में भी
चलता है चाहे वह हुसैन हो या कोई अन्य कलाकारें। ऐसा नहीं है कि छवि निर्माण हमे¶ाा नकारात्मक पक्ष को ही लिए होती
है। “छवि निर्माण में कलाकर्मी की कला के प्रति प्रतिबद्धता, निष्ठा, लगाव साथ ही उसकी कलादृष्टि और जीवनदृष्टि की
भूमिका महत्त्वपूर्ण” (पृ.113) हो तो छवि निर्माण का अपना सकारात्मक पहलू कला के विकास तथा उसके उचित बाजार में
कारगर साबित हो सकता है। विनोद दास समकालीन कला परिदृ¶य में व्याप्त ‘दो अतिवादी स्थितियों’ को दर्¶ााते है, जहाँ
एक ओर वॉन गॉग जैसे कलाकार हैं जिन्हें “जीवन भर रंग और कैनवास खरीदने के लिए अपने भाई-मित्रों के आगे हाथ
पसारना” (पृ.112) पड़ता है तो दूसरी ओर कई कलाकारों की कृतियाँ “उनकी कला गुणवत्ता के आधार पर नहीं, मीडिया
द्वारा निर्मित उनकी छवि के आधार पर बिकती हैं।” (पृ. वही)
पुस्तक में भारतीय आधुनिक चित्रकला तथा उसके विकास पर खासा प्रका¶ा बिखेरा गया। दरअसल विनोद दास
का चित्रकला संबंधी तमाम लेखन आधुनिक चित्रकला के संदर्भ में ही है, अजंता की गुफाओं या किसी लोक कला के सन्दर्भ
में उनके जैसे कला पारखी से लिखे जाने की उम्मीद ज्यादती नहीं होगी। ‘कला की आवाज’ नामक लेख में भारतीय
चित्रकला के विकास को दर्¶ााया गया है। उनका वि¶लेषण राजा रवि वर्मा से ¶ाुरु होता है। इस विकासमूल प्रवृत्तियों के
माध्यम से दर्¶ााने का प्रयास किया है, जिसमें लोक कला के अवदान को अनदेखा किया गया है। परिणामतः लेख ¶िाखर
पुरुषों की कलाओं के गुण दोष विवेचन तक ही रह गया है। वैसे कहीं-कहीं इन ¶िाखर पुरुषों के प्रभाव का वर्णन करते हुए
लोक कलाओं के नाम भर गिना दिए गए हैं। इस विकास का विवरण आलोचक ने इस प्रकार से किया है – “राजा रवि वर्मा
को भारतीय चित्रकला का जनक माना जाता है” लेकिन “उनके पोट्रेट बनाने की कला तत्कालीन ब्रिाटि¶ा ¶ाासकों और
अभिजात्य वर्गों की रूचियों के अनुकूल थी” और “यहाँ याद दिलाना अनुपयुक्त न होगा कि ब्रिाटि¶ा सरकार ने उन्हें कई
पदकों से सम्मानित किया था। इसके बरअक्स अवनीन्द्र टैगोर ने एक ऐसी राष्ट्रीय ¶ौली ईजाद की जिसे बंगाल स्कूल की
कला के नाम से जाना जाता है।…अमनीन्द्र ठाकुर ने राजा रवि वर्मा के यथार्थ के अनुकरण की प्रणाली को अस्वीकार किया
और कला को व्यावसायिकता के दायरे से ऊपर उठाकर उसे एक सृजन कर्म के रूप में गरिमा प्रदान की।” (पृ. 101) बंगाल
स्कूल की कला के चरित्र के बारे में विनोद जी की राय है कि “जहाँ तक ¶ौली की बात है, आयरि¶ा कैलीग्राफी, मिनिएचर
पेंटिंग, और जापानी वॉ¶ा टेकनीक से अवनीन्द्र ठाकुर ने अपनी कला को आकार दिया था। सबसे महत्त्वपूर्ण है कि उन्होंने
बंगाल स्कूल की कला ने लोक मुहावरे का प्रयोग किया। यहाँ यह बताना असंगत न होगा कि बंगाल स्कूल की कला जहाँ
औपनिवे¶िाक ¶ाासन के विरूद्ध राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में सामने आयी, वहीं, उसने भारतीय सौन्दर्य को प्राथमिकता दी
और भारतीय पहचान बनाने की को¶िा¶ा की। ऐग्लों-यूरोपीय कला रूपों को जानने-समझने सीखने के बजाए चीनी और
जापानी कला ¶िाल्प में उन्होंने अधिक रूचि ली।…इस तरह भारतीय राष्ट्रवाद ने प¶िचमी कला मूल्यों का क्रिटिक बंगाल
स्कूल के जरिए तैयार किया।” (पृ. 102) इसी परंपरा को आगे गणे¶ा पाइन ने निभाने की को¶िा¶ा की, लेकिन कुछ मात्रा में
राजा रवि वर्मा की ‘यथार्थ का अनुकरण की तकनीक’ को लेकर, किन्तु अपनी स्वतंत्र दृष्टि के साथ। भारतीय कला को
अन्तरराष्ट्रीय बनाने का पहला-पहल प्रयास अमृता ¶ोरगिल ने किया। उन्होंने ‘बंगाल स्कूल की पुनरूत्थानवादी प्रवृत्ति की
आलोचना की।’ आजादी का स्वप्न, उसके मोहभंग और विभाजन की त्रासदी ने चित्रकला को भी प्रभावित किया। आजादी
के बाद आधुनिक चित्रकला परिदृ¶य में प्रमुख रूप से मौजूद तीन प्रवृतियों प¶िचमी यथार्थवाद से प्रेरित, भारतीय और ए¶िायाई
परंपरा से अपनी कला सामग्री जुटानेवाले तथा कला में नए-नए प्रयोगों को आजमाते हुए रचनात्मक जोखिम उठानेवालों में
विनोद दास एक को¶िा¶ा की समानता देखते हैं – ‘एक ओर स्थानीयता की पहचान बनाए रखने की’ तो वहीं दूसरी ओर
‘वै·िाक परिदृ¶य में अपने प्रवे¶ा और स्वीकृति की’। इसके बाद आलोचक ने ‘प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रूप’ के अवदान को रेखांकित
किया है तथा इनकी मूल प्रवृत्तियों को उनकी स्थानीयता के तथा अपनी अन्तरराष्ट्रीय पहचान बनाने के लिए याद किया है।
कई नाम गिनाने के बाद, कला के लिए समकालीन समाज में मौजूद चुनौतियों का जिक्र करना विनोद दास नहीं भूलते ।
कला आलोचक का तथा इस पुस्तक के ‘कला और समय ¶ाीर्षक का मूल ध्येय होना चाहिए, जिसका निर्वहन विनोद दास ने
किया है।
पुस्तक में एक लेख ऐसा है जो आज के फै¶ान से बिल्कुल हटकर है – ‘लगे रहो मुन्ना भाई की गाँधीगीरी’। इस
फिल्म को समाज से जुड़ने और सिनेमा के व्यापार के बीच तालमेल बैठाने के लिए फिल्म समीक्षकों द्वारा बड़े पैमाने पर
सराहा गया। विनोद दास इस फिल्म में कई वैचारिक खामियाँ प्रस्तुत करते हैं। ये एरर्स फिल्म के उसी पक्ष में मौजूद हैं जिन्हेंे
विचारकों के एक बड़े तबके द्वारा सराहा गया, वह है गाँधीवाद को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करना तथा उसकी समयानुसार
व्याख्या करना। उनका कहना है “मोटे तौर पर गाँधीजी के आदर्¶ाों अर्थात् सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलने के लिए
फिल्म में बल दिया गया है। मुन्ना भाई हिंसा के अवतार हैं और प्रेम की खातिर एक गाल पर चाँटा खाकर दूसरा गाल आगे
कर देने वाले गाँधीगीरी बन भी जाते हैं किन्तु यह गाँधीगीरी कितनी खोखलीहास्यास्पद और पाखण्डी है, इसे कहानी में
फिल्माए गए प्रसंगों से आसानी से समझा जा सकता है।” (पृ. 133) इसके बाद विनोद जी फिल्म के एक प्रसंग से इस मुन्ना
भाई की हिंसक गाँधीगीरी को साबित करके ही नहीं ठहरते, बल्कि इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्र¶न से भी रू-ब-रू होते हैं कि
“अचानक इस गाँधीगीरी को लेकर मीडिया में क्यों इतना अधिक उत्साह है। यह कौन वर्ग है जो इस गाँधीवाद पर फिदा है।
इसे समझने के लिए हमें अपने समय और समाज की कुछ प्रवृत्तियों का अध्ययन करना अपेक्षित होगा।” (पृ. 134) इसके
बाद विनोद दास उस सत्य का उद्घाटन करते हैं जिसने गाँधी को ‘महात्मा से चेथरिया पीर’ बनाकर रख दिया। उसका
वर्तमान समय और गाँधीवाद के प्रासंगिकता के सन्दर्भ में यह कथन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और ऐसा है, जिसे प्रति¶ात में कहा
नहीं जा सकता, “कोई भी सहजता से कह सकता है कि गाँधीजी के ये अस्त्र ब्रिाटि¶ा सरकार जैसी बड़ी ताकत के ख़िलाफ़
सफ़ल रहे हैं तो क्या लोकतांत्रिक प्रणाली की रीति-नीति और आचरण को प्रभावित नहीं कर पाएँगे। लेकिन हमें यहाँ यह नहीं
भूलना चाहिए कि गाँधी के सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह सरीखे अस्त्र उसी समाज और तंत्र में अपना अर्थ सिद्ध कर सकेंगे
जहाँ कम-से-कम कुछ संवेदन¶ाीलता, नैतिकता और ¶ार्म हो। ऐसा नहीं कि ब्रिाटि¶ा सरकार नृ¶ांस और मक्कार नहीं थी,
लेकिन दिखावे के लिए ही सही वह अपनी सभ्य और नैतिक छवि के लिए हमे¶ाा सचेत रहती थी।” (पृ. 135) यह कहना
अति¶ायोक्ति नहीं होगी कि आलोचक की यह टिप्पणी गाँधीवाद की प्रासंगिकता समय के आलोक में सही मूल्यांकित करती
है। यही कारण है कि वे इस फिल्म में दिखाए गए “गाँधी के विचारों को विदूषकों और भड़ैतियों के हवाले करना” कहते हैं।
(पृ. 135)
‘हिन्दी सिनेमा में गीत-संगीत’ के इतिहास को खँगालने के प¶चात विनोद जी उसके एक पक्ष पर विचार करते हुए
कहते हैं कि “समाज¶ाास्त्रीय दृष्टि से विचार करें तो छल, पाखण्ड और लूट पर टिकी व्यवस्था में घुटते-चिढ़ते व्यक्ति के
लिए संगीत किसी वरदान से कम नहीं।” (पृ. 128) साथ ही प्रतिरोध का सामान भी तैयार करने में गीत संगीत की महत्त्वपूर्ण
भूमिका है। इसके साथ ही वे “फिल्म गीत-संगीत पर समाज¶ाास्त्रिय से दृष्टि से विचार विचार करने की जरुरत” (पृ. 130)
महसूस करते हैं, कुछ मात्रा में खुद करने के बाद। दरअस प्रत्येक क्षेत्र की भाँति फिल्म क्षेत्र में भी लोक और ¶ाास्त्र, गंभीर
गीत-संगीत और फूहड़ चिल्लाना-पिटना के बीच हमे¶ाा द्वन्द्व चलता रहा है। इस दृष्टि से भी फिल्म गीत-संगीत और सिनेमा
पर विचार होना अभी बाकी है। ब.व.कारंत की याद में लिखे गये लेख में विनोद जी ने लोक रंगमंच को कारंत जी का
ऊर्जारुाोत बताते हुए रंगमंच में महत्त्वपूर्ण अवदान के रूप में उनके द्वारा मुख्यधारा के रंगमंच में लोक रंगमंच को न सिर्फ
¶ाामिल करना बल्कि उसका हिस्सा बना देने के रूप में याद गया किया है। कारंत न सिर्फ ‘कन्नड़ और हिन्दी नाटकों के बीच
सदृढ़ पुल’ थे बल्कि वह ‘नाटक के पाठ और और रंगमंच के बीच भी सेतु’ थे। “उन्होंने हिन्दी के उन महत्त्वपूर्ण नाटकों
को भी मंचित करने की चुनौती उठाई जिन्हें केवल पाठ्यपुस्तक में कैद कर रखा गया था।” (पृ. 122) ऐसा उनके लोक-
रंगमंच से प्रेरणा लेने के कारण संभव हो पाया, जहाँ ¶ाास्त्रीय नियमों के बन्धनों की जकड़न नहीं होती।
विनोद दास की यह आलोचना कृति प्रतिमानों की रूढ़िबद्धता से मुक्त होने के अलावा, हिन्दी आलोचना का विस्तार
कर उसे उस क्षेत्र में भी ले जाने की को¶िा¶ा करती है जिसका विकास हिन्दी आलोचना में नहीं हो पा रहा है- कला
आलोचना। कला आलोचना भी साहित्यिक आलोचना का अंग है, साहित्यिक आलोचकों का उस पर लिखने का दायित्व तथा
अधिकार है। साहित्य के माध्यम से प्रतिरोध को अर्जित करने वाले रचनाकारों-आलोचकों से उम्मीद की जा सकती है कि
वर्तमान कला-समीक्षा के विकास में वे भी योगदान कर अपने परिवे¶ा में अन्य कलाओं से भी वे प्रेरणा ग्रहण करने के इस
महत्वाकांक्षी विचार को प्रोत्साहित करेंगे।
सृजन का आलोक
विनोद दास
¶िाल्पायन, नई दिल्ली
मूल्य – 225 रू.
पृ.152

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