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डॉ. रामविलास शर्मा के लेखन का दायरा बहुत बड़ा है। इसका एक हिस्सा भाषा विज्ञान से संबंधित है। 1960 में उनकी भाषा और समाज किताब छपी थी जिसमें भाषा विज्ञान संबंधी उनकी धारणाएं पहली बार विस्तार से सामने आईं। इसके बाद वे वर्षों तक निराला की साहित्य साधना में लगे रहे। निराला पर काम पूरा करके फिर भाषा विज्ञान की ओर मुड़े। सत्तर का पूरा दशक इसी में लगा दिया। इसका सुफल भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी के तीन खण्डों में सामने आया। भाषा विज्ञान में यही दो उनके महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। इनके अलावा समय-समय पर लिखे गए कुछ निबंध भी हैं, जो अब विभिन्न संकलनों में आ गए हैं। 1936 में जब रामविलासजी ने लिखना शुरू किया था, तब भी हिन्दी भाषा के स्वरूप और भविष्य का सवाल उनकी चिंता का विषय था। लेकिन भाषा विज्ञान के सिलसिले में उनका सबसे पहला महत्वपूर्ण लेखन भाषा और समाज शीर्षक से (विराम चिन्ह में संकलित) 1948 में लिखा गया एक छोटा-सा लेख था। इसमें युवा रामविलास से इस प्रचलित रूढ़ मान्यता पर आश्चर्य प्रकट किया है कि पुराने जमाने में पूरे भारतवर्ष मंे यहां से वहां तक सिर्फ एक ही भाषा बोली जाती थी। यह कैसे संभव है जबकि उस काल में सामाजिक-भौगोलिक अलगाव आज से कहीं ज्यादा होते थे? इस लेख में 19वीं सदी के तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की वैज्ञानिकता पर भी संदेह प्रकट किया गया है। दूसरा महत्वपूर्ण लेख 1953 में बम्बई के जनयुग प्रकाशन की पत्रिका लेख संग्रह में छपा था – हमारी जातीय भाषा के विकास की समस्या। यह लेख अपने पूर्ण रूप में अब नहीं मिलता। लगता है, इस लेख के कुछ अंशों को हटाकर इसका शीर्षक बदलकर जातीय भाषा के विकास की समस्या शीर्षक से इसे भारत की भाषा समस्या (राजकमल, 1971) संकलन में दे दिया गया है। अगर यह वही लेख है तो इसके हटाए गए अंशांे में क्या था, इसकी कुछ झलक डाॅ. नामवर सिंह की किताब हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग के दूसरे संस्करण (1954) में मिलती है जहां इस लेख पर टीका-टिप्पणी की गई है। हिन्दी भाषा संबंधी अपना सबसे महत्वपूर्ण लेख रामविलासजी ने 1973 में जाकर लिखा जब भारतेन्दु हरिश्चंद्र की इस प्रसिद्ध पंक्ति हिन्दी नए चाल में ढली’ को लिखे एक शताब्दी पूरी हो गई। हिन्दी-उर्दू के विकास के अध्ययन में यह एक असाधारण निबंध है।
आम तौर पर भाषा विज्ञानियों का लेखन काफी नीरस होता है और उसे पढ़ने के लिये विशेषज्ञता की जरूरत पड़ती है। रामविलासजी की विशेषता यह है कि दूसरे विषयों की तरह उनके भाषा संबंधी लेखन में भी एक वैचारिक संघर्ष दिखाई देता है जिससे सूखे भाषा विज्ञान की चर्चा में भी कुछ गर्माहट आ गई है। भाषा विज्ञान संबंधी रामविलासजी के लेखन की दूसरी विशेषता उनकी वे स्थापनाएं हैं, जिनके लिये उन्होंने लम्बे समय तक संघर्ष किया। आज से 42 साल पहले भाषा और समाज नामक छोटे-से लेख में भारतीय भाषा विज्ञज्ञन के बारे में जो सवाल उठाए थे, उन्हें वे कभी भूले नहीं । अपने कमजोर तर्कों को छोड़कर, अध्ययन और मनन से और भी गहराई में जाते हुए उन सवालों को लगातार और भी सही ढंग से उठाते रहे और एक निश्चित दिशा में बढ़ते हुए उनके सही जवाब देने की कोशिश करते रहे। यह सारी विकास-यात्रा एक विज्ञानी के संघर्ष, लगन और निष्ठा की यात्रा है।भाषा विज्ञान और प्रभुत्वशाली प्रवृत्तियां
भारत में आधुनिक भाषा वैज्ञानिक अध्ययन 19वीं सदी में यूरोपीय विद्वानों ने शुरू किया था। हालांकि ये विद्वान पाणिनी और पतंजलि से प्रभावित हुए थे और संस्कृत भाषा की भव्यता और प्राचीनता से मुग्ध होकर भारतीय भाषा विज्ञान के क्षेत्र में काम करने के लिये आए थे, लेकिन भाषा विज्ञान संबंधी बुनियादी दृष्टिकोण यूरोपीय परम्पराओं से ही प्रभावित था। ऐतिहासिक और तुलनात्मक भाषा-विज्ञान में उन्होंने जो मान्यताएं पेश कीं, उनपर मानव-जाति की उत्पत्ति से संबंधित धार्मिक-पौराणिक मान्यताओं के अलावा आर्यों की श्रेष्ठता के नस्लवादी सिद्धांत तथा किसी न किसी रूप में औपनिवेशिक राजनीति का भी असर था। इस ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की एक प्रमुख मान्यता यह थी कि पहले अधिकांश लोग एक ही भाषा बोला करते थे। इन लोगों के इधर-उधर फैल जाने से उस भाषा में स्थानीय भेद उत्पन्न हो गए जिससे धीरे-धीरे नई भाषाएं बन गईं। यह मान्यता जननी भाषा और उसकी पुत्री भाषाओं के रूपक के रूप में प्रचलित हुईं। ऐतिहासिक भाषा विज्ञान के ऐसे दृष्टिकोण के आधार पर भारतीय भाषा विज्ञान में यह सिद्धांत कायम हुआ कि, सभी आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएं – हिन्दी, बंगला, उड़िया, गुजराती, पंजाबी आदि – संस्कृत भाषा की पुत्रियां हैं। इसे जरा व्यवस्थित ढंग से इस तरह कहा जाता है कि पहले वैदिक भाषा से लौकिक संस्कृति भाषा का विकास हुआ। बुद्ध के जीवन काल के आस-पास, ईसा पूर्व 500 वर्ष के करीब से प्राकृत भाषाएं निकलीं। इसके एक हजार साल बाद, सन 500 ई. के करीब प्राकृत के स्थानीय भेदों में अपभ्रंशों का जन्म हुआ। 1000 ई. के बाद इन अपभ्रंशों से ही आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएं निकलीं। दूसरी ओर संस्कृत, ईरानी, लैटिन तथा ग्रीक आदि भाषाओं के कुछ शब्दों में समानता पाई गई तो इससे यह मान लिया गया कि ये चारो भाषाएं भी किसी एक मूल भाषा के स्थानीय भेदों से पैदा हुई हैं। इस मूल भाषा की कल्पना और पुनर्निमाण करते हुए उसे आद्य भारोपीय नाम भी दे दिया गया, हालांकि उसकेे बोलने वाले किसी वास्तविक समाज का पता नहीं मिलता। सिद्धांत यह बना कि आद्य भारोपीय भाषा बोलने वाले जब कुछ लोग यूरोप की तरफ जाकर बस गए तो वहां इससे लैटिन और ग्रीक भाषा बन गई। कुछ लोग एशिया की ओर आए जिससे ईरानी (फारसी) और संस्कृत (वैदिक) भाषा बनी। जैसे भारत में संस्कृत से आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का जन्म हुआ, वैसे ही यूरोप में लैटिन से आधुनिक यूरोपीय भाषाओं का जन्म हुआ। इन मान्यताओं पर आधारित अध्ययन का एक ढांचा भी सामने आया। जिसमें एक ओर पुत्री भाषाओं के बीच शब्दों और व्याकरणिक रूपों की परस्पर तुलना की जाती है और दूसरी ओर जननी भाषा से इनकी उत्पत्ति सिद्ध की जाती है। इन्हीं से जुड़कर ध्वनि-परिवर्तन के कुछ नियम स्थिर करने की प्रवृत्ति भी चली।
भारतीय भाषा विज्ञान की इस प्रभुत्वशाली विचारधारा को रामविलास शर्मा ने चुनौती दी और इसका विरोध किया। बड़े नामों से आतंकित हुए बिना उन्होंने 19वीं सदी के भाषा वैज्ञानिकों और सुनीति कुमार चटर्जी की मान्यताओं का विरोध करते हुए कुछ बुनियादी सवाल पूछे और दृढ़ता से कहा कि भाषाओं का जन्म मनुष्य जाति के जन्म संबंधी धार्मिक सिद्धांतों के अनुसार नहीं होता। पहले एक ही आदि पुरुष और आदि स्त्री भी जिससे बाद में सारी मानव जाति निकली – जैसे यह धार्मिक मान्यता गलत है, उसी तरह पहले एक ही आदि भाषा (या कुछ-एक आदि भाषाएं) थीं जिससे बाद में दूसरी भाषाएं पैदा हुईं – यह मान्यता भी गलत है। मनुष्य शुरू से ही कई समुदायों में विकसित हुआ था। इसी तरह शुरू से ही कई भाषाएं रही होंगी। आद्य भारोपीय भाषा महज एक गप्प है। भाषाओं के पारिवारिक वर्गीकरण का सिद्धांत कहता है कि पहले एक जननी भाषा थी; उसकी पुत्रियां हुईं, इस तरह इन भाषाओं का एक परिवार बना। सच्चाई इसके उलट रही होगी। कई भाषाएं थीं जो आपस में एक-दूसरे के निकट आईं, निकटता के लम्बे दौर में इनका एक परिवार उभरा। यह निकटता इन भाषाओं के बन जाने के बाद नहीं, बल्कि बनने के प्रारम्भिक चरण में रही होगी। भाषाओं के बीच मिलनेवाली समानता जितनी महत्वपूर्ण है, उतनी ही महत्वपूर्ण उनके बीच की भिन्नताएं भी हैं। ग्रीक, लैटिन और संस्कृत के बीच कुछ शब्दों की समानता पर ध्यान दिया गया, पर उनके बीच जो महत्वपूर्ण और बुनियादी भिन्नताएं हैं, उनकी व्याख्या नहीं की गई। एक भाषा से अपने आप कई भाषाएं पैदा नहीं हो सकतीं। एक अपभ्रंश से भिन्न-भिन्न् व्याकरण और ध्वनियों वाली दर्जनों भाषाओं और बोलियों का जन्म होना सही नहीं माना जा सकता।
रामविलासजी ने भाषा विज्ञान के क्षेत्र में जो संघर्ष किया, उसकी उचित सराहना करने के लिये हिन्दी में भाषा वैज्ञानिक लेखन के परिप्रेक्ष्य को नजर में रखना जरूरी है। हिन्दी में भाषा विज्ञान संबंधी अध्ययन की स्थिति बहुत दरिद्रतापूर्ण है। भारतीय भाषा विज्ञान संबंधी समूचा अध्ययन अंग्रेजी में हुआ है और आज भी मुख्य रूप से अंग्रेजी में ही हो रहा है। इसमें भी ज्यादातर विदेशियों के द्वारा हुआ है। इसके मुकाबले हिन्दी में भाषा वैज्ञानिक अध्ययन की कोई लम्बी या महत्वपूर्ण परम्परा नहीं मिलती। इधर केन्द्रीय हिन्दी संस्थानों में जिस भाषा विज्ञान का बोलबाला है, उसमें ज्यादातर अमरीकी भाषाविज्ञान की प्रवृत्तियों और संरचनावाद का असर है। इसके लिये विशेषज्ञता चाहिए, इसलिये यह सीमित दायरे में ही रहता है। हिन्दी में हुए भाषाचिंतन की परम्परा से न इसका कुछ संबंध है, न हिन्दी में इसकी जड़ंे जम पा रही हैं। 19वीं सदी के ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की मान्यताओं को सुनीति कुमार चटर्जी जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के भाषाविद् ने भी स्वीकार किया। आज देश में हिन्दी और दूसरी भाषाओं में ज्यादातर भाषा वैज्ञानिक सुनीति बाबू की मान्यताओं को ही दोहराते या उन्हें पुष्ट करते हैं। आज लगभग सभी विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों में उदयनारायण तिवारी और भोलानाथ तिवारी आदि की जो किताबें पाठ्यक्रम में हैं, वे इन्हीं मान्यताओं पर टिकी हैं। इस तरह 19वीं सदी में प्रतिपादित ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की मान्यताएं भाषा विज्ञान के पाठकों – लेखकों के लिये कितनी स्वाभाविक और स्वतःसिद्ध बन गई हैं, इसका पता 1920 में लिखे गए कामताप्रसाद गुरु के हिन्दी व्याकरण से मिलता है जिसमें इन मान्यताओं को इनके सबसे सरलतम रूप में पेश किया गया है। इनका सबसे परिष्कृत रूप सुनीति बाबू की प्रसिद्ध पुस्तक भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी में मिलता है। 1952 में एम.ए. के विशेष पत्र के रूप में लिखी गई अपनी किताब हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग में प्रस्तुत की गई बहुत सी स्थापनाओं से आज के प्रौढ़ नामवरजी शायद सहमत न होंगे, 19वीं सदी के ऐतिहासिक भाषाविज्ञान और सुनीति बाबू की मान्यताओं पर आधारित इस किताब ने अपभ्रंश से हिन्दी की उत्पत्ति की धारणा को लगभग एक शास्त्र जैसा रूप दे दिया है। भाषा विज्ञान की कक्षाओं में विद्यार्थियों को सवाल पूछना और शंका करना नहीं सिखाया जाता। उन्हें तो शंकाओं से मुक्त कर आश्वसत किया जाता है। आश्वस्त करने का यह काम करता है शास्त्र।
रामविलास शर्मा ने सबसे पहला काम यह किया कि इस शास्त्र को चुनौती दी।प्रेरणा के तीन स्रोत
रामविलासजी के भाषा वैज्ञानिक चिंतन के तीन सहायक एवं प्रेरक स्रोत रहे हैं – रामचन्द्र शुक्ल, किशोरीदास वाजपेयी और अमरीकी भाषा वैज्ञानिक अमेनो।
हिन्दी में सबसे पहले रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा था कि अपभ्रंश अपने समय की बोलचाल की भाषा नहीं थी। अपने इतिहास में उन्होंने लिखा कि अपभ्रंश एक तरह की कृत्रिम साहित्यिक भाषा थी। उसकी कृत्रिमता इस बात में थी कि उसमें बोलचाल से उठ गए पुराने प्राकृतिक शब्द ही नहीं, बल्कि विभक्तियों कारण चिन्हों तथा क्रियाओं के रूप आदि भी अपने समय से कई वर्ष पुराने रखे जाते थे। कवि परम्परा पर आधारित – न कि उस समय की समय की वास्तविक बोलियों पर आधारित – यह अपभ्रंश बहुत दिनों तक – 15वीं सदी तक – साहित्य में चलती रही जबकि उस समय तक विभिन्न जनपदीय भाषाएं साहित्य में अपना सिर उठा चुकी थीं। शुक्लजी ने उदाहरण दिया कि 14वीं सदी के बीच में पुरानी परम्परा के कवि – संभवतः शारङधर – ऐसी अपभ्रंश लिख रहे थे – ऐसी अपभ्रंश लिख रहे थे –
चलिअ वीर हम्मीर पा अमर मेइणि कंपई
दिगमण पाह अंधार धूलि सुररह आच्छाइहि
उसी समय दिल्ली के खुसरो मियां उस समय की बोलचाल की हिन्दी में पहेलियां और मुकरियां लिख रहे थे – एक नार ने अचरज किया। सांप मार पिंजरे में दिया।
एक ही कवि विद्यापति दो तरह की भाषाओं में कविता कर रहे थे – एक ओर अपभ्रंश में दूसरी ओर मैथिली में। भाषा वैज्ञानिक कहते हैं कि अपभ्रंश के अंदर आधुनिक भाषाएं बन रही थीं, पनप रही थीं। शुक्लजी ने विद्यापति का एक दोहा उद्धृत किया कि देशी बोली सबको मीठी लगती है, इसलिये मैं उससे मिश्रित अवहट्ट लिख रहा हूं। (हिन्दी साहित्य का इतिहास, आदिकाल, प्रकरण 1) देशी बोली यानी मैथिली। आधुनिक भाषाएं अपभ्रंश के अन्दर बन नहीं रही थीं, बल्कि वे अपभ्रंश के सामने मौजूद थीं और कवि लोग उन्हें अपभ्रंश में मिलाकर लिख रहे थे।
कभी-कभी संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश की तीन अवस्थाओं का जिक्र न करके सीधे-सीधे कह दिया जाता है कि सभी आधुनिक भारतीय भाषाएं संस्कृत से निकली हैं, संस्कृत की पुत्रियां हैं। इस मत का तर्कपूर्ण खंडन सबसे पहले किशोरीदास वाजपेयी ने किया। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ हिन्दी शब्दानुशासन में उन्होंने तथ्य देकर दिखलाया कि हिन्दी और संस्कृत में निकटता जरूर है, पर हिन्दी संस्कृत से निकली नहीं है क्योंकि दोनों की अपनी-अपनी स्वतंत्र प्रकृति है; दोनों की चाल एकदम अलग-अलग है। हिन्दी की प्रकृति संस्कृत से ही नहीं, अपभ्रंश और प्राकृत भाषाओं से भी अलग है। इन भाषाओं के ‘‘जो भी रूप साहित्य में उपलब्ध हैं, उनसे हिन्दी की पटरी बैठती नहीं।’’ प्राकृत और अपभ्रंश में कर्ता के अनुसार क्रिया का लिंग नहीं बदलता जबकि हिन्दी में बदलता है। वाजपेयीजी के अनुसार जिस समय संस्कृत भाषा चलती थी, उस समय पूर्व जनपद (मेरठ डिवीजन) में आज की खड़ी बोली हिन्दी का मूल रूप प्रचलित रहा होगा। उस समय इसका रूप आज जैसा नहीं रहा होगा। वह संस्कृत के निकट रही होगी, पर संस्कृत से निकली नहीं होगी।
रामविलासजी ने वाजपेयीजी के काम को युगांतरकारी कहा; शताब्दियों से प्रचलित मान्यताओं का खंडन करने के लिये इसे क्रांतिकारी कार्य बतलाया और अपनी किताबों में कई जगह वाजपेयीजी की मान्यताओं का जिक्र करते हुए उनकी सराहना की।
रामविलासजी के तीसरे प्रेरक स्रोत हैं एमेनो। अमरीकी भाषा वैज्ञानिक एम.बी. एमेनो (डनततंतल ठंतदेवद ।उमदमंन) ने हिन्दी-संस्कृत-अपभ्रंश संबंधों पर विचार नहीं किया है। उन्होंने द्रविड़ भाषाओं व्युत्पत्तिपरक कोश बनाने के अलावा इस बात पर विचार किया है कि भाषाओं का अध्ययन कैसे करना चाहिए; भाषाओं के परिवार कैसे बनते हैं और विभिन्न परिवारों की – भाषाएं कैसे एक-दूसरे के विकास को प्रभावित करती हैं। अपने कई महत्वपूर्ण निबंधों के अलावा इस विषय पर उन्होंने एरियल लिंग्विस्टिक नामक किताब लिखी जिसमें उन्होंने एक पूरे क्षेत्र को इकाई मानकर उस क्षेत्र के अन्दर बोली जाने वाली भाषाओं के परस्पर संबंधों का अध्ययन करने का एक नया ढांचा पेश किया। उन्होंने भारतीय भाषाओं का अध्ययन करने के लिये बर्मा से लेकर अफगानिस्तान तक को एक भाषाई क्षेत्र मानने के लिये कहा।
रामविलासजी ने हिन्दी भाषाविज्ञान संबंधी अपनी प्राथमिक धारणाओं को स्थिर करने के लिये तो वाजपेयीजी से सहायता ली, लेकिन भाषाविज्ञान संबंधी उनके आगे के अध्ययन में जो भूमिका एमेनो की है, वह वाजपेयीजी की नहीं। स्वयं वाजपेयीजी वह काम नहीं कर सके जो उन्हीं के कुछ विचार सूत्रों को लेकर एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में विकसित करते हुए रामविलासजी ने किया लेकिन यह देखकर आश्चर्य होता है कि रामविलासजी ने तो वाजपेयीजी की कई जगह सराहना की है, लेकिन एमेनो का नाम लेकर सराहना नहीं की। भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी के तीन खण्डों के लेखन में एमेनो के भाषाई चिंतन और पद्धति का उपयोग किया गया है। बरो और एमेनो ने द्रविड़ भाषाओं के शब्दों के व्युत्पत्तिपरक कोश में जिस पद्धति का उपयोग किया, उसी का उपयोग अपने ग्रंथ में रामविलासजी ने भी किया इतना ही नहीं, उनका विवेचन किस तरह के भाषाई चिंतन से प्रेरित हुआ है, इसका भी संकेत करते हुए उन्होंने पहले खण्ड की भूमिका में लिखा ‘‘पिछले कुछ वर्षों में भारत को एक भाषायिक क्षेत्र मानकर आर्य-द्रविड़ परिवारों के आपसी संबंधों पर विचार किया गया है। ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के लिये यह दृष्टिकोण अपेक्षाकृत नया है। इस दृष्टिकोण के अनुसार एक ही भाषाई क्षेत्र में सैकड़ों साल तक एक साथ रहते-रहते आर्य-द्रविड़ परिवारों ने कुछ ऐसी सामान्य विशेषताओं का विकास किया है जो उनमें मूलतः नहीं थी।’’ इस नए दृष्टिकोण को प्रेरणाप्रद बतलाते हुए उन्होंने आगे लिखा कि भारत को एक भाषाई क्षेत्र मानकर ‘‘ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के विकास के लिये नए तथ्यों का पता लगाया जा सकता है, भाषा परिवारों के विकास और उनके संबंधों के बारे में नई जानकारी प्राप्त की जा सकती है, नई स्थापनाएं प्रस्तुत की जा सकती हैं…।’’ कहने की जरूरत नहीं है कि इस नए प्रेरणाप्रद दृष्टिकोण के पीछे महत्वपूर्ण योगदान एमेनो का है।
एमेनो माक्र्सवादी नहीं थे। रामविलासजी के भाषाई चिन्तन का एक पे्ररक स्रोत माक्र्सवाद भी रहा है। माक्र्सवाद की तरह-तरह की व्याख्याएं हैं, अलग-अलग सम्प्रदाय हैं। पहले रामविलासजी माक्र्सवाद के उस सम्प्रदाय के अनुयायी थी जिसे स्तालिनवाद कहा जाता है। 1949 में – जब रणदिवे लाइन का बोलबाला था – उन्होंने हिन्दी को राजभाषा बनाने का यह कहते हुए विरोध किया था कि ऐसा करना पूंजीपति वर्ग के हितों में होगा – ‘‘बड़े पूंजीपतियों की नीति हिन्दी को अनिवार्य राजभाषा बनाने की है।’’ (भारत की भाषा समस्या, पृष्ठ 74) यह समझ लेनिन-स्तालिन के उद्धरणों और तत्कालीन पार्टी-लाइन के आधार पर बनी थी – भारतीय समाज की वास्तविक स्थिति के आधार पर नहीं। 1953 में उन्होंने संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश-हिन्दी की अवस्थाआंे का खण्डन करने के लिये यह ‘‘माक्र्सवादी’’ तर्क दिया था कि जब हमारा सामाजिक विकास अभी तक इतनी (तीन-चार) ऐतिहासिक मंजिलों से होकर नहीं गुजरा तो फिर – भाषा – जो समाज के ऊपरी ढांचे का अंग है – के विकास में इतनी मंजिलें कहां से आ गईं? मूल प्रश्न को हल करने के संदर्भ में यह तर्क निरर्थक था, महज किताबी था। बाद में रामविलासजी ने अनिवार्य राजभाषा वाली अपनी पुरानी धारणा को त्याग दिया, उसी तरह ऐतिहासिक मंजिलों वाले तर्क को भी नहीं दुहराया। असल में माक्र्सवाद की सैद्धांतिक जानकारी विषय-वस्तु की जानकारी का स्थान नहीं ले सकती। जब तक अपने विषय की ठीक-ठीक और गहरी जानकारी न हो, तब तक माक्र्सवादी तर्कों से कोई काम नहीं बनता। रामविलासजी माक्र्सवाद को उद्धृत करने की बजाय भाषा वैज्ञानिक तथ्यों और प्रक्रियाओं की गहराई में उतरते गए। भारतीय भाषाविज्ञान में कोई माक्र्सवादी सम्प्रदाय नहीं है। लिहाजा बहुत-सा नया काम पहली बार खुद उन्हें करना पड़ा। इस काम में उन्होंने जिनसे पे्ररणा और सहायता पायी, उनमें माक्र्सवादी कोई नहीं था। भाषाओं के विकास के ऐतिहासिक अध्ययन के लिये कुछ हद तक मानव वैज्ञानिक (एन्थ्राॅपाॅलाॅजिकल) दृष्टि का होना भी जरूरी है। माक्र्सवाद का नया छोटा-सा अंश इससे संबंधित है। रामविलासजी ने इस दृष्टि को भी अर्जित किया।हिन्दी अपभ्रंश की संतान नहीं
भाषा और विज्ञान किताब में रामविलासजी ने मानो खुद अपनी भाषा वैज्ञानिक समझ की नींव डाली हो। इससे उन्होंने अपने भाषाई चिन्तन की कुछ बुनियादी मान्यताओं को सुव्यवस्थित कर लिया है। इसीमें संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश से हिन्दी आदि आधुनिक भाषाओं के जन्म की नानी की कहानी की तर्कपूर्ण जांच-पड़ताल करने की कोशिश की गई है। इस विषय पर पहली बात सुनीति कुमार चटर्जी जैसे धुरंधर भाषाविद् के अंतर्विरोधों को स्पष्ट किया गया है। डाॅ.चटर्जी एक ओर संस्कृत के समानांतर विभिन्न प्रादेशिक बोलियों या जन-भाषाओं की चर्चा करते हैं, दूसरी ओर इन बोलियों या जन-भाषाओं के अस्तित्व को भुलाकर एक ही मूल भाषा से अन्य भाषाओं के विकास के सिद्धांत को इस तरह दोहराते हैं, मानो संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश काल में दूसरी प्रादेशिक बोलियां थीं ही नहीं। एक ओर वे आधुनिक आर्य भाषाओं के हर एक रूप को संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश की विकास-यात्रा से उत्पन्न सिद्ध करते हैं, दूसरी ओर यह भी मानते हैं कि आधुनिक भाषाओं में ऐसे कई व्याकरणिक रूप हैं जो संस्कृत में थे ही नहीं; लेकिन वे संस्कृत काल की विभिन्न प्रादेशिक बोलियों में मौजूद थे जिसका पता मध्यकालीन भाषाओं से मिलता है। लेकिन संस्कृत काल की ये प्रादेशिक बोलियां क्या थीं और आधुनिक आर्य भाषाओं से उनका कैसा संबंध मानना चाहिए – इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर वे फिर भी विचार नहीं करते। एक ओर वे कहते हैं कि मध्यकालीन प्राकृत की हर अवस्था के ध्वनि तत्व और रूप तत्व की स्थिति रेखा ‘‘लगभग निश्चयात्मक रूप से स्थिर की जा चुकी है।’’ और यह स्थिरीकरण इतना स्पष्ट है कि ‘‘इस विषय का और अधिक विवेचन अनावश्यक होगा।’’ दूसरी ओर वे यह भी मानते हैं कि आधुनिक भाषाओं और प्राकृतों के आपसी संबंधों को तय करने का प्रश्न ‘‘बड़ा जटिल’’ है और प्राकृतों के बारे में जितनी सामग्री मिलती है, उतनी के आधार पर इस प्रश्न को सुलझाना ‘‘असंभव सा’’ लगता है। सुनीति बाबू की इन असंगतियांे को दिखाकर रामविलासजी यह दृष्टिकोण रखते हैं कि ‘‘हिन्दी जैसी भाषाओं की हर विशेषता को संस्कृत में न ढूंढ़कर उन भाषाओं में मानना चाहिए जो संस्कृत के समानान्तर यहां बोली जाती थीं।’’ (भाषा और समाज, पृष्ठ 72) इस दृष्टिकोण को रखने के लिये उन्हें भारतीय भाषा के विज्ञान में जड़ जमाकर बैठी हुई मान्यता से लड़ना पड़ा है कि आधुनिक आर्य भाषाओं का जन्म संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश, भारतीय आर्य भाषा के विकास की इन तीन अवस्थाओं के बाद ही हुआ। इसके लिये उन्हें इस मान्यता के साथ जुड़ी कई धारणाओं के खिलाफ तर्क करना पड़ा है। जैसे यह कहा जाता है कि पंजाब आदि उद्दीच्य की बोलियों में ध्वनियां अधिक रूढ़बद्ध हंै जबकि पूर्व में ध्वनियों का तेजी से क्षय हुआ। रामविलासजी ने तर्क किया कि पंजाब का पंज मूल ध्वनियों की रक्षा करता है या पंच? पंजाबी के प्रा में मूल ध्वनि सुरक्षित है या भ्रात में? उन्होंने हिन्दी के कल, सच, आज आदि रूपों को अपभ्रंश के कल्ल, सच्च और अज्ज आदि रूपों से – जो पंजाबी में आज भी सुरक्षित हैं निकला हुआ मानने से इनकार किया और इस धारणा का खंडन किया कि युग्म व्यंजनवाले शब्द ज्यादा पुराने हैं। उन्होंने दिखाया कि युग्म व्यंजन वाले शब्द हिन्दी में भी हैं और संस्कृत में भी। इसलिये इस बारे में कोई नियम बनाना गलत है। इसका दिलचस्प उदाहरण दिया फारसी के दो शब्द हैं – चादर और उमेद। पंजाबी में इनका उच्चारण हो गया चद्दर और उम्मीद। हिन्दी में चद्दर-चादर, उम्मीद-उमेद, दोनों रूप चलते हैं। पंजाबी ने वहां भी युग्म व्यंजन उत्पन्न कर लिया जहां वह मूल में नहीं था। इस सिलसिले में रामविलासजी ने और भी कई उदाहरण दिये। चरित शब्द प्राचीन है या चरित्र? युग्म व्यंजन होने के कारण शायद चरित्र ज्यादा प्राचीन समझा जाएगा। लेकिन तुलसीदास ने रामचरित लिखा, रामचरित्र नहीं। इसी तरह भवभूति ने भी उत्तररामचरित लिखा, चरित्र नहीं। संस्कृत में यत्र-तत्र कहते हैं, हिन्दी इतै-उतै। इतै-उतै को यत्र-तत्र के बाद में बना रूप क्यों माना जाए? अवधी में हन (मारना) धातु चलती है। संस्कृत में इससे एक रूप ध्नन्ति बनता है। मूल धातु हन है या ध्न? उन्होंने यह धारणा रखी कि हिन्दी कर संस्कृति कृ से नहीं बना। कर से कृ रूप बनाया गया है। संस्कृत करोति, करोमि, कर्म आदि में मूल धातु कर ही है कृ नहीं। इसी तरह हिन्दी क्रिया देना संस्कृत दा या दद् का भ्रष्ट रूप नहीं है। यह संस्कृत के समानान्तर किसी जनपदीय बोली की क्रिया रही होगी, जो दा से मिलती-जुलती होने पर भी उससे उत्पन्न न होकर उसके समकक्ष व्यवहार में आती होगी। हिन्दी में गाना क्रिया के मूल में गा धातु है। संस्कृत में गाने के लिये गृ धातु है जिससे गृणाति रूप बना लेकिन संस्कृत में गायन रूप भी है। जिसका संबंध गा धातु से मानना चाहिए। ‘‘एक ही अर्थ के लिये गृ और गा दो धातुओं का चलन यह सिद्ध करता है कि वैदिक काल में विभिन्न जन (कबीले) एक ही धातु के भिन्न रूपों को काम में लाते थे।….. हिन्दी क्रिया गाना गृ के बदले गा से संबंधित है।’’ (वही, पृष्ठ 86)
ये सुझाव हैं, व्याख्याएं हैं; प्रामाणिक तथ्य नहीं। ऐतिहासिक विवेचन में जो भी तथ्य उपलब्ध होते हैं, उनकी तर्कसंगत व्याख्या होती है और प्रामाणिकता इसी व्याख्या की देखी जाती है। सुनीति बाबू ने विभिन्न शब्दों के ध्वनि तत्वों में परिवर्तन दिखाते हुए जो विभिन्न रूप दिखाए हैं, वे क्या प्रामाणिक तथ्य हैं? वे भी व्याख्याएं ही हैं संस्कृत काल में विभिन्न कबीले थे। उन सब की अपनी-अपनी बोलियां थीं। ये बोलियां आपस में मिलती-जुलती थीं, पर एक-दूसरे के समकक्ष थीं। कोई किसी से निकली हुई नहीं थी। इन्हीं में से कोई बोली आज की हिन्दी का पूर्व रूप रही होगी। अगर हम आज मौजूद आदिवासी कबीलों के इलाकों का उनकी बोलियों का अध्ययन करें तो रामविलासजी की उपरोक्त व्याख्या गलत नहीं लगेगी। उदाहरण के लिये झारखंड क्षेत्र में रहने वाले आष्ट्रिक भाषा परिवार की बोलियां बोलने वाले कबीलों को लें जिनमें मुंडा, संथाल, हो, खड़िया, कोरबा इत्यादि शामिल हैं। अभी पिछली शताब्दी तक इनकी जो हालत रही है, उसकी तुलना प्राचीन काल के आर्यभाषा भाषी कबीलों से की जा सकती है। झारखंड के उपरोक्त सभी कबीले एक ही भाषा-परिवार की बोलियां बोलते हैं। हर कबीले की अपनी एक अलग बोली है। ये बोलियां आपस में काफी मिलती-जुलती हैं, पर साथ ही इन बोलियों में कई भिन्नताएं भी हैं; अपनी-अपनी विशेषताएं भी हैं। इनके मूल शब्द भंडार में और मूल व्याकरणिक तत्वों में समानता है। पर ऐसे कई शब्द हैं जो एक ही मूल धातु से बने होने पर भी अलग-अलग कबीले की बोली में कुछ अलग रूपों में चलते हैं। अब मान लीजिए कि इनमें से किसी एक ही बोली में – उदाहरण के लिये सिर्फ मुंडारी में – साहित्य रचा जाता है और यह साहित्य काफी समृद्ध भी हो जाता है जबकि दूसरी बोलियों की न लिपि बन पाती है, न उनमें साहित्य रचा जाता है। इस तरह ये बाकी बोलियां सिर्फ बोलचाल के स्तर पर रह जाती हैं और आने वाले समय में उनके अस्तित्व को प्रमाणित करने वाला कोई लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं होता। अब कल्पना कीजिए कि डेढ़-दो सालों के बाद ये बाकी बोलियां धीरे-धीरे अपना रूप विकसित कर लेती हैं और उनमें साहित्य लिखा जाना भी शुरू हो जाता है। तब क्या कहा जाएगा? क्या यह भाषा, जिसमें अब साहित्य लिखना शुरू हुआ है, पहले नहीं थी? कि इनके कई रूप मुंडारी से मिलते-जुलते हैं, इसलिये इनका जन्म मुंडारी से हुआ है?
अपने विवेचन से रामविलासजी ने निष्कर्ष यह निकाला है कि हिन्दी, बंग्ला आदि आधुनिक आर्य भाषाएं अपभ्रंश की संतान नहीं हैं, बल्कि इनकी मूलाधार ‘‘वे भाषाएं हैं, जो संस्कृत के साथ-साथ उत्तर भारत के विभिन्न जनपदों में बोली जाती थीं। ये भाषाएं संस्कृत से कुछ बातों में भिन्न होते हुए भी उसी परिवार की थीं, इसलिये जैसे उनमें और संस्कृत में बहुत समानता थी, वैसे ही उनके आधार पर विकसित आधुनिक भाषाओं में परस्पर तथा संस्कृत से बहुत बड़ी समानता है। इनमें न केवल समानताएं हैं, वरन भिन्नताएं भी हैं।’’ (भाषा और समाज, पृष्ठ 191)
मतलब यह कि हिन्दी आदि आधुनिक भाषाओं का मूल आधार उतना ही प्राचीन है जितना खुद संस्कृत-भाषा। असल में सुनीति बाबू के विवेचन में भी इस निष्कर्ष तक पहुंचने की गुजाइश थी बशर्ते वे इसतक पहुंचने वाले सूत्रों को महत्वपूर्ण मानकर उन्हीं के आधार पर आगे बढ़ते। सुनीति बाबू ने अपने विवेचन में कई जगहों पर ईमानदारी से स्वीकार किया है कि हिन्दी आदि आधुनिक भाषाओं के कई तत्वों को अपभ्रंश प्राकृत या संस्कृत के आधार पर सिद्ध करने में कठिनाई है।
हिन्दी आदि आधुनिक भाषाओं की कई विशेषताएं भारतीय आर्य भाषा की उस मध्यकालीन अवस्था (अपभ्रंश-प्राकृत) में तो नहीं ही मिलती है, जिससे हिन्दी और भाषाओं की उत्पत्ति का दावा किया जाता है, ये विशेषताएं संस्कृत में भी नहीं मिलती हैं। लेकिन मामला और भी जटिल है क्योंकि सुनीति बाबू भारतीय आर्य भाषा की अद्यावस्था (प्राचीनकाल) में सिर्फ संस्कृत और वैदिक भाषा का ही नहीं बल्कि कई प्रादेशिक भाषाओं का भी अस्तित्व मानते हैं और कहते हैं कि बाद की भाषाओं में कई ऐसी विशेषताएं दिखती हैं जो संस्कृत या वैदिक में नहीं थी लेकिन उसी समय की दूसरी प्रादेशिक भाषाओं में थीं। ‘‘जहां तक कारक विभक्तियों का प्रश्न था, कई ऐसे रूप, जो कि वैदिक या लौकिक संस्कृत में नहीं मिलते, परन्तु आ भा आ ’ की विभिन्न प्रादेशिक बोलियों में पाए जाते थे, मा भा आ ’’ में सुरक्षित देखे जाते हैं।’’ (भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी, पृष्ठ 105) इतना ही नहीं अपने समस्त विवेचन के बाद भी सुनीति बाबू को लगा कि ‘‘एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न’’ अब भी बाकी रह गया है जिसका उत्तर नहीं मिला है। ‘‘प्रादेशिक नामों के साथ उल्लिखित प्राकृत बोलियां किस हद तक आधुनिक प्रादेशिक बोलियों की पूर्वज कही जा सकती हैं?’’ (वही, पृष्ठ 109) उन्होंने लिखा कि यह प्रश्न ‘‘बड़ा जटिल’’ और ‘‘बहुतेरी बोलियों के विषय में जो उपलब्ध सामग्री भी इतनी कम और मिश्रित प्रकार की है कि उसके आधार पर उपर्युक्त प्रश्न सुलझाना असंभव-सा प्रतीत होता है।’’ (वही) इसीके बाद वे वैयाकरणों द्वारा पेश किये गए अपभ्रंश-प्राकृत के रूपों को ‘कृत्रिम बोलियां’ अथवा ‘कल्पित किया हुआ रूप’ बतलाते हैं।
ये सारे सूत्र सुनीति बाबू के ही हैं जिनसे उनके समग्र विवेचन में अंतर्विरोध पैदा होते हैं। रामविलासजी ने सुनीति बाबू के अंतर्विरोधों पर ध्यान दिया; इनसे खुलने वाली अध्ययन की नई दिशाओं पर ध्यान दिया और इन सूत्रों से अपने वैकल्पिक अध्ययन के ढांचे के लिये समर्थन पाया। उपलब्ध सामग्री बहुत ‘‘कम और मिश्रित प्रकार की’’ होने के बावजूद उन्होंने उस दिशा में बढ़कर कुछ खोजने की कोशिश की जहां कुछ होने की संभावना मानने पर भी सुनीति बाबू को उधर जाने के लिये बहुत उत्साह नहीं हुआ। रामविलासजी ने ध्यान दिया कि प्राकृत में कुछ ऐसे शब्द मिलते हैं, जो संस्कृत में नहीं हैं, लेकिन आधुनिक भाषाओं में मिल जाते हैं। एक दिलचस्प उदाहरण है हिन्दी क्रिया मांगना यह संस्कृत में नहीं मिलती। लेकिन मृच्छकटिक में रदनिका कहती है – तदो उण तं मग्गन्तस्स यह संस्कृत में नहीं मिलती! टीकाकार ने मग्गन्तस्स का संस्कृत रूपान्तर दिया है। याचमानस्य। रामविलासजी ने सही लिखा है कि याचमानस्य से मग्गन्तस्स बनने की संभावना नहीं है। हिन्दी क्रिया को प्राकृत ध्वनि और व्याकरण के नियमों के अनुकूल बनाकर मग्गन्तस्स रूप में प्रस्तुत किया गया है। मुख्य बात यह है कि मग्ग धातु संस्कृत की नहीं है, प्राकृत में प्रयुक्त हुई और हिन्दी की एक प्रचलित क्रिया है। (भाषा और समाज, पृष्ठ 205) इससे सुनीति बाबू की यह धारणा पुष्ट होती है कि अपभ्रंश-प्राकृत के बहुत-से उपलब्ध रूप कल्पित किये हुए हैं; साथ ही अपभ्रंश के जन्म सेे भी पहले हिन्दी क्रिया के अस्तित्व का पता चलता है। एक दूसरा उदाहरण ब्रजी की ‘दीन’ क्रिया का है। जिसे रदनिका दीण्णा बोलती है। इसका संस्कृत रूप दत्ता दिया गया है। द का दी कैसे होगा? त्ता की जगह ण्णा ने कैसे ले ली? ‘‘चारुदत्तः तो चारुदत्तो ही बना; अप्रमत्ताः से अप्पमत्ता बना; तब दत्ता से दीण्णा कैसे हो जाएगा?’’ (वही) जाहिर है कि दीण्णा ब्रजी क्रिया दीन का ही प्राकृत रूप है। इस तरह मृच्छकटिक में आया तुम्हाणं रूप हिन्दी तुम्हारा तथा जहिं रूप हिन्दी का सगोतिया है।
रामविलासजी ने किन्हीं नए तथ्यों की खोज उतनी नहीं की है जितना पहले से उपलब्ध तथ्यों की नई व्याख्याएं की हैं, नए तर्क दिये हैं। इन नई व्याख्याओं और तर्कों से कुछ नए निष्कर्ष निकलते हैं। अध्ययन का एक दूसरा ढांचा उभरता है। जैसे, संस्कृत में मिलने वाले विभिन्न पयार्यवाची शब्द इस बात के प्रमाण हैं कि संस्कृत में विभिन्न जनपदीय बोलियां (या भाषाओं) के शब्द आकार मिले थे। यही बात उसके कई व्याकरणिक तत्वों के बारे में भी कही जा सकती है। संस्कृत में वैयाकरणों ने जिन प्रयोगों को अपवाद या वैकल्पिक प्रयोग बतलाया है, वे ऐसे ही जनपदीय भाषाओं के व्याकरणिक रूप रहे होंगे जिनका प्रभाव संस्कृत पर वैसा ही पड़ा होगा जैसे आज हिन्दी पर अंग्रेजी वाक्य रचना का प्रभाव पड़ता है या कभी-कभी विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं की वाक्य रचना का प्रभाव भारतीय अंग्रेजी पर पड़ता है। इसी तरह हिन्दी, बंगला, पंजाबी, मराठी इत्यादि भाषाओं के कई शब्द और व्याकरणिक रूप आपस में मिलते हैं पर ये शब्द और व्याकरणिक रूप संस्कृत से नहीं मिलते। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि संस्कृत और आधुनिक आर्य भाषाओं का समानताओं का अध्ययन करना पर्याप्त नहीं है। बल्कि संस्कृत से उनकी भिन्नता और इन आधुनिक भाषाओं की संस्कृतेतर समानताओं का अध्ययन भी आवश्यक है। इन तर्कों और विचारों से भाषा वैज्ञानिक अध्ययन का परिपे्रक्ष्य बदलता है; अध्ययन के प्रश्न बदलते हैं। साथ ही इस नए दृष्टिकोण से भाषा वैज्ञानिक अध्ययन हमारे सामाजिक इतिहास के ज्यादा निकट आ जाता है, उससे मेल रखकर चलता है। 19वीं सदी का ऐतिहासिक भाषाविज्ञान सिर्फ ऊपर-ऊपर से ही ऐतिहासिक था, उसकी अंतर्वस्तु – जो उसके अध्ययन के ढांचे को निर्धारित करती थी – अनैतिहासिक थी। मिसाल के लिये प्राचीन या मध्य काल में पृथक प्रादेशिक भाषाओं के अस्तित्व को न मानकर व्याकरण की दृष्टि से एक ही भाषा के सर्वत्र चलन की मान्यता वास्तविक सामाजिक-ऐतिहासिक विकास की धारणा से मेल नहीं खाती।
अपभ्रंश से हिन्दी आदि आधुनिक आर्य भाषाओं के जन्म की धारणा का खंडन करते हुए रामविलासजी ने कोई नया भाषाशास्त्र रच दिया हो, ऐसी बात नहीं। जिन भाषा विज्ञानियों ने हिन्दी आदि आधुनिक आर्य भाषाओं को अपभ्रंश से उत्पन्न कहा है, उन्हीं के विवेचन में कई असंगतियां हैं। इन असंगतियों से मूल प्रश्न के अध्ययन के लिये एक दूसरा दृष्टिकोण भी उभरता है। रामविलासजी ने भाषाई अध्ययन के लिये इसी दूसरे दृष्टिकोण का समर्थन किया है।अध्ययन का दूसरा दृष्टिकोण
प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी किताब में एमेनो से प्रेरणा लेते हुए रामविलासजी ने बर्मा से लेकर अफगानिस्तान तक के इलाके को एक भाषाई क्षेत्र मानकर अध्ययन किया है। यह भाषाई अध्ययन का दूसरा दृष्टिकोण है जो पारिवारिक वर्गीकरण के आधार पर भाषाओं के अध्ययन के विरोध में है। एमेनो ने कहा था कि एक ही क्षेत्र में प्रचलित भाषाओं के परिवार एक-दूसरे को प्रभावित करते और उनका रूप बदलते रहते हैं इसलिये भाषाओं का अध्ययन सिर्फ उन्हीं के परिवारों के परिप्रेक्ष्य में नहीं करना चाहिए। एमेनो की इस मान्यता के साथ अपनी ऐतिहासिक-भौतिकवादी दृष्टि को मिलाते हुए रामविलासजी ने इसमें इतना और जोड़ दिया कि अपने विकास के क्रम में भी, विकास की अत्यंत प्रारंभिक अवस्थाओं में भी दूसरी भाषाओं से प्रभावित होतीं और अपना रूप बदलती रहती हैं। यानी जैसे इंसान की शुद्ध नस्ल जैसी कोई चीज नहीं होती, उसी तरह भाषाओं का शुद्ध परिवार जैसी भी कोई चीज नहीं होती। जिसे हम आज एक भाषा परिवार कहते हैं, वह स्वयं अपने निर्माण के क्रम में कई भाषा-परिवारों के तत्वों को आत्मसात करके विकसित हुआ है। यही कारण है कि एक ही परिवार के अन्दर की भाषाओं में भी परस्पर सुसंगत समानताएं नहीं मिलती और कई बार किसी बाहरी-भाषा से उसी कई विशेषताओं की संगति अधिक बैठती है।
इस नए दृष्टिकोण की एक विशेषता यह है कि इसमें भाषाओं को उनके बोलने वाले गण-समाजों के साथ जोड़कर देखा गया है। एक जैसे सामाजिक संगठन वाले, आपस में मिलती-जुलती बोलियां बोलने वाले विभिन्न गण एक ही स्थान पर ऐतिहासिक काल से रहते हए आपस में घुलमिलकर जब एक जनपदीय समाज का निर्माण करते हैं तो उनकी बोलियां भी आपस में घुलमिलकर एक जनपदीय भाषा का विकास करती हैं, जैसे ब्रजी, अवधी या बांगरू इत्यादि। विभिन्न गणों की बोलियां आपस में मिलती-जुलती हैं तो साथ ही उनकी कुछ अपनी-अपनी विशेषताएं भी होती हैं। एक ही जनपदीय भाषा के अन्दर जो स्थानीय रूप मिलते हैं, उन्हें उन गण-बोलियों की बच गई विशेषताएं ही समझना चाहिए। यह ध्यान में रखना चाहिए कि प्राचीन काल में गणों का निवास स्थान उनके राज्य (टेरीटरी) जैसा भी होता था यहां तक एक गण की बोली के अंदर भी कुछ स्थानीय रूप मिल जाते थे जैसे आज मुंडा गण की बोली मुंडारी के अंदर कम से कम चार स्पष्ट स्थानीय रूप मिलते हैं। इसका कारण न सिर्फ आस-पास के क्षेत्र में मौजूद दूसरे गणों की बोलियों का प्रभाव है, बल्कि लम्बे ऐतिहासिक काल में ग्रहण किये गए प्रभाव भी होंगे। मनुष्य की भाषा का इतिहास मनुष्य के इतिहास जितना ही पुराना है। इसलिये यह मानना चाहिए कि आज से कम से कम एक लाख वर्ष पहले से ही विभिन्न मानव झुण्ड/समुदाय या गण एक दूसरे के संपर्क में आते रहे होंगे और उस समय से ही विभिन्न मानव झुंण्डों की बोलियों में आपसी संपर्क रहा होगा। भाषाओं के गठन के बहुत प्रारंभिक चरण में ही, जब भाषा के मूल तत्व अभी रूप ग्रहण कर रहे थे, विभिन्न भाषाआंे के बीच आदान-प्रदान हुआ होगा। इस तरह किसी एक भाषा के विकास में कई भाषाओं का योगदान रहा होगा। उनमें से कई भाषाएं अपनी कुछ या बहुत सारी विशेषताओं को किसी दूसरी भाषा में मिलाकर लुप्त हो गई होंगी। भाषाई क्षेत्र का जैसा नक्शा आज है, वैसा उस समय नहीं रहा होगा।
ये सब बातें सिर्फ सैद्धांतिक हैं और भाषाविज्ञान से बाहर रहकर भी कही जा सकती हैं। सवाल तो इनके प्रयोग का है। भाषा वैज्ञानिक अध्ययन में इनका प्रयोग कैसे किया जाए? इनके प्रयोग से रामविलासजी ने क्या ढूंढ़ निकाला? जो ढूंढ़ा गया, वह कहां तक प्रामाणिक है?विभिन्न भाषा केन्द्रों की कल्पना
प्राचीन भारतीय भाषाओं और उनके साथ आधुनिक भाषाओं के संबंध की छानबीन करने के सिलसिले में रामविलासजी ने भारत के भाषाई क्षेत्र में विभिन्न भाषा क्षेत्रों की कल्पना की है। विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित कुछ विशेष ध्वनियों की चर्चा तो पहले भी होती रही है, लेकिन विभिन्न ध्वनि केन्द्रों की अवधारणा या परिकल्पना का सुसंगत ढंग से उपयोग करने वाले पहले भाषा विज्ञानी रामविलासजी हैं। ध्वनि केन्द्रों की तरह ही उन्होंने वाक्य विन्यास और शब्दों के भी विभिन्न स्वतंत्र केन्द्रों की कल्पना की है। हिन्दी आदि आधुनिक भाषाओं का विकास किसी आदि-भारतीय आर्य भाषा से नहीं हुआ। इनका विकास भिन्न-भिन्न स्रोतों से हुआ है। हिन्दी के ध्वनि तंत्र, रूप तंत्र और शब्द तंत्र का विकास अलग-अलग कई स्रोतों से हुआ है।
आधुनिक आर्य भाषाओं में जो ध्वनियां मिलती हैं, वे सब की सब संस्कृत से नहीं आई हैं और न वे सिर्फ आर्य भाषा परिवार की हैं। इन ध्वनियों के विभिन्न स्रोत या केन्द्र थे जिनमें से किसी एक जगह ह्रस्व अ था तो दूसरी जगह इसकी अभाव था – केवल वर्तुल आॅ अथवा ओ था। उदाहरण के लिये मागध भाषा समुदाय की उत्तराधिकारी आधुनिक भाषाओं के लिये ह्रस्व अ के स्थान पर ह्रस्व आॅ, औ का चलन अब भी है। इसी तरह ककहरा पढ़ते हुए कौरवी क्षेत्र (मेरठ डिवीजन) के लोग कै, खै, गै कहते हैं; मागधी क्षेत्र के लोग कौ, खौ, गौ और कोसली क्षेत्र के लोग का, खा, गा। यह भेद प्राचीन आर्य गण भाषा केन्द्रों के स्वरभेद का सूचक है। गुजराती का बेन, बंगला का बोन और अवधी का बहिनी इसी कोटि का भेद है। इसके साथ ही स्वरों के स्वच्छंद संचरण की धारणा है। स्वच्छंद संचरण का आशय यह है कि संस्कृति करति और तिरती का अर्थ एक है यद्यपि प्रथम वर्ण का स्वर दोनों रूपों में भिन्न है। जीर्ण और जूर्ण, गान और गीत, स्फाति, स्फीति और स्फुट, स्थान और स्थिति आदि का अर्थ एक ही है, लेकिन मूल वर्ण का स्वर भिन्न हैं।
कारण यह है कि अ, इ, उ अथवा अ, अॅ, आॅ स्वरों का विकास अलग-अलग केन्द्रों में हुआ। इन केन्द्रों में परस्पर संपर्क के फलस्वरूप जब भिन्न स्वर किंतु समान अर्थ वाले शब्द एक ही भाषा-व्यवस्था में सिमट आए, तब ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई मानो स्वरों का स्वच्छंद संचरण हो रहा हो; मानो शब्द में किसी भी स्वर का प्रयोग कर दो, अर्थ में भेद न होगा।
स्वरों की तरह व्यंजन ध्वनियों के भी स्वतंत्र केन्द्र थे। इन केन्द्रों में घ-ध-भ और क-त-प के केन्द्र बहुत महत्वपूर्ण हैं। यानी एक ही अर्थ वाले शब्द में अगर एक केन्द्र में घ ध्वनि का प्रयोग होता था (जैसे बांगरू के इङधे) तो दूसरे केन्द्र में ध का प्रयोग (कौरवी इधर) होता था तो तीसरे केन्द्र में भ का प्रयोग होता था। इसी तरह एक में स्कम्भ (खम्भा) तो दूसरे में स्तम्भ का प्रयोग होता था। रामविलासजी ने इन ध्वनियों के केन्द्रों का अनुमान लगाया है; यह भी कहा कि इस अनुमान को सिद्ध करने के लिये अभी और छानबीन करने की जरूरत है। इनके केन्द्र कहां थे, अनेक थे या एक – इन सबका दावा नहीं किया जा सकता। लेकिन ये ध्वनियां किसी समय स्वच्छंद संचरण की अवस्था में थीं, यह बात निर्विवाद है। संस्कृत स्धंति-संभति (घेरता है), धसति-भसति (खाता है), स्कंध-स्तंभ (तना), प्राकृत धङ (भौरा) और संस्कृत भृंग, प्राकृत उब्भ – संस्कृत उध्र्व में इन ध्वनियों के स्वच्छंद संचरण की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। इससे इन भाषाओं की उस प्राचीन स्थिति का बोध होता है, जब ये ध्वनियां सिमटकर एक ही भाषा व्यवस्था में अभी अर्थ-विच्छेदक नहीं बनी थीं।
संस्कृत में कुछ ऐसी ध्वनियां मिलती हैं जो हिन्दी क्षेत्र में कभी नहीं रहीं। ये सभी मूर्धन्य ध्वनियां है – ष, श और ऋ न सिर्फ हिन्दी बल्कि किसी भी आधुनिक आर्य भाषा के बोलचाल के रूप में इनका प्रयोेग नहीं होता। इस तथ्य की व्याख्या करते हुए रामविलासजी ने लिखा है कि वास्तव में संस्कृत के मूल रूप में ये ध्वनियां थी ही नहीं। ये ध्वनियां उस क्षेत्र में तो कभी नहीं रहीं जहां आज हिन्दी क्षेत्र है। संस्कृति मूलतः मध्यदेश की भाषा थी और वह मूर्धन्य ध्वनियों का व्यवहार नहीं करती थी। संस्कृत के विकास की एक अवस्था में ये ध्वनियां किसी दूसरे भाषा समुदाय के प्रभाव से आईं। मुमकिन है कि वह भाषा समुदाय भी आर्य भाषा परिवार से संबंधित रहा हो।
इसी वर्ग की एक और नासिक्य ध्वनि है – ण्। उत्तर-पश्चिमी आर्य भाषाओं में इसका काफी चलन है लेकिन ब्रज प्रदेश से लेकर आसाम तक (उड़ीसा को छोड़कर) कहीं भी इस ध्वनि का प्रयोग नहीं होता। वैदिक भाषा में इस ध्वनि का काफी प्रयोग मिलता है लेकिन उसकी धातुओं में यह ध्वनि बहुत कम आती है। इससे यह साबित होता है कि वैदिक भाषा के शब्द मूलों की रचना में ण् की भूमिका नगण्य है। इस भाषा की एक अवस्था में इस ध्वनि का व्यवहार होता ही न था, अन्य अवस्था में इसका काफी व्यवहार होने लगा। रामविलासजी ने कुछ उदाहरण देकर दिखलाना चाहा है कि जब वैदिक भाषा का निर्माण हो रहा था उस समय एक आर्य गणभाषा ऐसी जरूर थी जिसमें मूर्धन्य ध्वनियों की प्रबलता थी। ऐसी ध्वनियों के प्रसंग में सामान्यतः लोग ट वर्गीय ध्वनियों को याद करते हैं लेकिन यहां जिस गणभाषा के अस्तित्व की कल्पना की गई है उसमें ण् को छोड़कर अन्य ट वर्गीय ध्वनियां बहुत कम थीं। इस भाषा में क जैसी ध्वनि का मूर्धन्य उच्चारण होता था (अक्ष, दक्ष, पक्ष) और आदि स्थानीय न् के मूर्धन्य उच्चारण (ऩिसिद्ध त्र निषिद्ध) जैसी विशेषता थी जिसका प्रभाव वैदिक और संस्कृत भाषा पर पड़ा। मूर्धन्य ध्वनियों के विभिन्न केन्द्रों की तरह तालव्य ध्वनियों के भी विभिन्न केन्द्र थे। दन्त्य स का केन्द्र अलग था, तालव्य श का अलग। संस्कृत भाषा में पहले तालव्य श का अभाव था। संस्कृत में कई जगह दन्त्य स का तालव्यीकरण हुआ है। वसु से वसिष्ठ शब्द बनता है जो बाद में वशिष्ठ हो गया। संस्कृत में पासयति और पाशयति (बांधना) दोनों रूप मिलते हैं जिनमें पहला रूप ज्यादा प्राचीन है। पशु का मध्यदेशीय मूल रूप पसु था। तालव्य श का केन्द्र पूर्व में था जहां मागधी भाषाएं थीं। वे मध्यदेश के दन्त्य स को तालव्य श में बदल देती थीं।
जैसे ध्वनियों के अलग-अलग केन्द्र थे, उसी तरह वाक्य रचना पद्धति के भी अलग-अलग केन्द्र थे। वाक्य रचना की एक प्राचीन पद्धति वह थी जिसमें कर्ता से पहले क्रिया आती थी या कर्ता को अलग से सूचित नहीं किया जाता था बल्कि क्रिया के साथ वह सर्वनाम के रूप में जुड़ा रहता था। संस्कृत के गच्छामि या पठामि पद में क्रिया और सर्वनाम दोनों गुंथे हुए हैं। संस्कृत के अलावा, रामविलासजी के मत से, अवधी में भी यह विशेषता दिखती है। रामविलासजी ने इस ओर ठीक ही ध्यान दिया है। वाक्य रचना की यह विशेषता मुंडा, हो, संथाली आदि कोल भाषाओं में भी मिलती है। संस्कृत के मुकाबले कोल भाषाओं में वाक्य रचना की यही एकमात्र पद्धति है और ज्यादा सुदृढ़ भाव से है। आर्य भाषाओं में वाक्य रचना की एक दूसरी पद्धति भी है जिसमें पहले कर्ता फिर क्रिया आती है और सर्वनाम क्रिया से जुड़ ही नहीं सकता। आधुनिक आर्य भाषाओं में यह प्रवृत्ति दिखाई देती हैं। खड़ी बोली हिन्दी में वाक्य रचना की दूसरी में तिग्ङत रूप की। दूसरे व्याकरणिक रूपों के भी अलग-अलग केन्द्र के। इन्हीं की तरह शब्दों के भी अलग-अलग केन्द्र मिलते हैं। इन भाषा केन्द्रों में आर्येतर भाषा केन्द्र भी शामिल हैं। भारतीय भाषाओं का विकास इन सभी भाषा केन्द्रों के परस्पर सम्पर्क और आदान-प्रदान से हुआ न कि किसी मूल या जननी आर्य भाषा से।
इस विवेचन के समर्थन में अपनी ओर से मैं इतना और जोड़ना चाहूंगा कि वाक्य-रचना या ध्वनियों के विभिन्न केन्द्रों की यह धारणा आदिवासी कबीलों की भाषाई स्थिति को देखते हुए निरर्थक नहीं, सार्थक लगती है। प्राचीन काल की बहुत-सी चीजों को ठीक-ठीक समझने के लिये आज बचे हुए आदिवासी कबीलों के समाज का अध्ययन बहुत उपयोगी है और डी.डी.कोसाम्बी ने इसका सहारा लिया था। भाषाई केन्द्र विभिन्न स्थानों से नहीं बल्कि विभिन्न गणों से संबंधित थे। उदाहरण के लिये आष्ट्रिक भाषा परिवार के अंतर्गत मोन ख्मेर और मुंडा समुदाय की बोलियां बोलने वाले भारतीय और दक्षिण एशियाई – विएतनामी – कबीलों में क ध्वनि बहुत प्रबल दिखाई देती है। इन समुदायों के अंतर्गत विएतनाम और भारत, दोनों जगह, कुछ कबीलों में कई शब्द क से शुरू होते हैं। भारत के मध्यप्रदेश में रहनेवाले कोरकू कबीले में ऐसे सभी शब्दों में मूल क ध्वनि सुरक्षित है जबकि इसी समुदाय के मुंडा और संथाल – दो सबसे बड़े और अपेक्षाकृत विकसित – कबीलों में इस ‘क’ ध्वनि की जगह सर्वत्र ह ध्वनि मिलती है। विएतनाम के मोड़ कबीले की भाषा में मछली के लिये का शब्द है। यही शब्द परनिष्ठित विएतनामी में भी है। कोरकू भाषा में भी मछली के लिये का शब्द ही है जिसका बहुवचन काकू होगा। लेकिन मुंडारी भाषा में यह शब्द हाकू (कू बहुवचन का चिन्ह है)। इसी तरह कोरकू का कोरा (रास्ता) मुंडारी में होरा है। कोरकू का काब (काटना) मुंडारी में हाब; कोरकू का कोर (मनुष्य) मुंडारी में होर, कोरकू का कासू (दर्द) मुंडारी में हासू और कोरकू का कोन (बच्चा) मुंडारी में होन है। जाहिर है कि इस समुदाय की गण-भाषाओं की मूल क ध्वनि मुंडा-संथाल कबीले में सुरक्षित नहीं रह पाई क्योंकि बहुत प्राचीन काल में ही इसको एक पराए भाषापरिवार का ध्वनितंत्र प्रभावित करता है जिसमें यह क ध्वनि महाप्राण ह में बदल गई। कहने की जरूरत नहीं कि यह पराया परिवार आर्य भाषाओं का थ। स्वयं मुंडा और मोन ख्मेर समुदाय के अंदर भी कुछ ध्वनि केन्द्र मिलते हैं जिसके फलस्वरूप विभिन्न कबीलों में प्रचलित एक ही शब्द में किसी एक ध्वनि की जगह नियमित रूप से दूसरी ध्वनि दिखाई देती है। (विस्तार के लिये देखिए; दिनेश्वर प्रसाद एवं श्रवण कुमार गोस्वामी द्वारा संपादित डाॅ.कामिल बुल्के स्मृति ग्रंथ में मेरा निबंध – कुछ खड़िया शब्दों की निरुक्ति)
भाषा वैज्ञानिक अध्ययन के एक दूसरे दृष्टिकोण और दूसरे ढांचे की जरूरत को सिद्ध करने के लिये रामविलासजी ने तथ्य और तर्क दोनों पेश किये हैं। कहीं पर तथ्य अधिक प्रबल हैं, कहीं पर तर्क। ज्यादातर जगहों पर तर्क ही प्रबल हैं। जहां दोनों का समन्वय हुआ है, वहां विवेचन बहुत सुंदर हो गया है। जैसे क ध्वनि के मूर्धन्यीकरण और हस्त, दस्त, दक्ष, शब्दों के विवेचन में। कहीं-कहीं तर्क के नाम पर कोरे अनुमान या अटकलों का सहारा लिया गया है। ऐसा ज्यादातर शब्दतंत्र के विवेचन में हुआ है। उन्होंने जो व्याख्याएं दी हैं, कई जगह वे संतोषप्रद नहीं लगतीं। कई प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं। उदाहरण के लिये वे कहते हैं कि हिन्दी क्षेत्र (मध्यदेश) में मूर्धन्य ध्वनियां नहीं मिलतीं क्योंकि ये संस्कृत में भी नहीं थीं। संस्कृत में बाद में जाकर ये ध्वनियां किसी और स्रोत से आई थीं। सवाल है कि जब ये एकबार मध्यदेश में आ गई थीं, तो फिर वहां से गायब क्यों हो गईं? ण् ध्वनि पंजाब-हरियाणा के बाद पूरे हिन्दी क्षेत्र को पार करके उड़ीसा में कैसे प्रकट हो जाती है जबकि उड़िया का उसी मागध समुदाय से संबंध रहा है जिससे बंगला का संबंध रहा?
सुनीति बाबू ने एक सच्चे भाषाविज्ञानी की तरह इस सच्चाई को स्वीकार किया किया था कि संस्कृतकाल की प्रादेशिक बोलियों से हिन्दी तथा आधुनिक भाषाओं का संबंध दिखाने लायक भाषाई सामग्री नहीं मिलती। सुनीति बाबू मानते थे कि हिन्दी तथा अन्य आधुनिक भाषाओं के सभी व्याकरणिक रूपों को अपभ्रंश से सिद्ध नहीं किया जा सकता और न ही इन सबको संस्कृत में दिखाया जा सकता है। इसके विपरीत, उन्होंने यह संभावना प्रकट की थी कि आधुनिक आर्यभाषाओं के कुछ व्याकरणिक रूपों का संबंध संस्कृतकाल की प्रादेशिक बोलियों से रहा होगा। फिर भी, केवल संभावना के आधार पर उन्होंने कोई नूतन सिद्धांत स्थापित नहीं किया क्योंकि वे मानते थे कि यह समस्या जटिल है। इस जटिलता का एक मुख्य कारण यह है कि समस्या को सुलझाने लायक प्राचीन भाषाई सामग्री उपलब्ध नहीं होती अथवा ‘‘बहुतेरी बोलियों के विषय में तो उपलब्ध सामग्री भी इतनी कम और मिश्रित प्रकार की है कि उसके आधार पर उपर्युक्त प्रश्न का सुलझना असंभव-सा प्रतीत होता है।’’ सुनीति बाबू द्वारा बताई गई इस सीमा पर पर्याप्त ध्यान देने की जरूरत है। रामविलासजी ने प्रामाणिक भाषाई सामग्री के अभाव की स्थिति पर कटाक्ष करते हुए लिखा है कि जब प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध ही नहीं है तो फिर संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश-हिन्दी वाला सिद्धांत कैसे खड़ा कर लिया गया? लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। अगर प्रामाणिक सामग्री नहीं मिलती है तो किसी दूसरे सिद्धांत को स्थापित करना भी उतना ही कठिन होगा। अगर हमें प्राकृतों के समय की अथवा संस्कृतकाल और उससे भी पीछे की प्रादेशिक बोलियों की कोई प्रामाणिक सामग्री इतनी मात्रा में उपलब्ध नहीं होती कि जिससे आधुनिक आर्य भाषाओं के संबंध को देखा और पहचाना जा सके – तो ऐसी स्थिति में कोई नया दृष्टिकोण भी प्रामाणिक कैसे बनेगा? रामविलासजी प्राचीन भाषाई सामग्री के अभाव की कोई चिंता नहीं करते। वे मृच्छकटिकम् या इसी तरह की कुछ दूसरी प्राचीन सामग्री से दो-चार शब्दों को जरूर उठाते हैं, पर उससे कितनी बात बनेगी? कुल मिलाकर उनके तर्क ही प्रबल हैं, भाषाई तथ्य दुर्बल। मूल सामग्री के अभाव को वे तर्कों, अनुमानों और कल्पना से पूरा करते हैं। अन्य व्याकरणिक रूपों, शब्दों और ध्वनि केन्द्रों वाले प्रसंगों में भी उन्होंने भाषाई तथ्यों के अभाव के कारण, इसी तरह अक्सर तथ्यों की जगह अपने तार्किक अनुमानों को पेश किया है।
मुमकिन है कि विशेषज्ञों द्वारा सावधानी से जांच पड़ताल करने से उनके विवेचन के बारे में कई सवाल उठ खड़े हों। भाषा-विज्ञान संबंधी रामविलासजी के लेखन की चर्चा भाषा विज्ञानियों के बीच बहुत कम होती है। दूसरे विज्ञानों की तरह भाषा विज्ञान पर भी सिर्फ अंग्रेजी माध्यम से लिखने वालों को ही मान्यता मिली हुई है। इनमें से ज्यादातर ने रामविलासजी की कोई किताब न पढ़ी होगी। वे तब पढ़ेंगे जब इन किताबों को अंग्रेजी में पेश किया जाएगा। भारतीय विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों में भाषा विज्ञान संबंधी साधारण से साधारण पुस्तकें भी चल जाती हैं, पर रामविलास शर्मा की किताबें नहीं चलतीं। सिर्फ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ही देश का शायद अकेला ऐसा विश्वविद्यालय है जिसमें भारतीय भाषा केन्द्र में रामविलास शर्मा की भाषा विज्ञान संबंधी किताबें न सिर्फ पाठ्यक्रम में हैं बल्कि उनकी मान्यताओं को गंभीरता से लिया जाता है।
रामविलासजी के भाषा वैज्ञानिक लेखन में गड़बड़ियां रह सकती हैं। उन्होंने नए सवालों को उठाते हुए उनके जो जवाब दिये हैं, वे गलत हो सकते हैं। लेकिन इससे उनका महत्व कम न होगा। उन्होंने जो सवाल उठाए, वे बहुत महत्वपूर्ण और सार्थक सवाल हैं। उनका सही जवाब दिये बिना भारतीय भाषा विज्ञान आगे न बढ़ सकेगा। उन्होंने भाषाई अध्ययन के जिस दृष्टिकोण को पेश किया, जिन पद्धतियों और ढांचे को सामने रखा, उसमें बहुत संभावनाएं छुपी हुई हैं। रामविलासजी का असली महत्व तो इस बात में है कि भारतीय भाषा विज्ञान की प्रभुत्वशाली प्रवृत्तियों को चुनौती देकर, लम्बे समय तक उनके खिलाफ संघर्ष करके, उन्होंने भाषाई अध्ययन की एक दूसरी परम्परा की नींव डालने की कोशिश की है। अभी यह नींव ही है; यह कितनी मजबूत या कमजोर है; इसकी परम्परा आगे चल निकलेगी या नहीं, यह देखना बाकी है।
हिन्दी भाषा विज्ञान की दूसरी परम्परा – वीर भारत तलवार
यह लेख मूल रूप से ‘पहल’ 42 (संपादक- ज्ञानरंजन) जून-जुलाई अगस्त 1991, में पृष्ठ 55-71 पर प्रकाशित हुआ था। मौजूदा प्रस्तुति में लेखक ने कुछ पंक्तियां जोड़ दी हैं।
आम तौर पर भाषा विज्ञानियों का लेखन काफी नीरस होता है और उसे पढ़ने के लिये विशेषज्ञता की जरूरत पड़ती है। रामविलासजी की विशेषता यह है कि दूसरे विषयों की तरह उनके भाषा संबंधी लेखन में भी एक वैचारिक संघर्ष दिखाई देता है जिससे सूखे भाषा विज्ञान की चर्चा में भी कुछ गर्माहट आ गई है। भाषा विज्ञान संबंधी रामविलासजी के लेखन की दूसरी विशेषता उनकी वे स्थापनाएं हैं, जिनके लिये उन्होंने लम्बे समय तक संघर्ष किया। आज से 42 साल पहले भाषा और समाज नामक छोटे-से लेख में भारतीय भाषा विज्ञज्ञन के बारे में जो सवाल उठाए थे, उन्हें वे कभी भूले नहीं । अपने कमजोर तर्कों को छोड़कर, अध्ययन और मनन से और भी गहराई में जाते हुए उन सवालों को लगातार और भी सही ढंग से उठाते रहे और एक निश्चित दिशा में बढ़ते हुए उनके सही जवाब देने की कोशिश करते रहे। यह सारी विकास-यात्रा एक विज्ञानी के संघर्ष, लगन और निष्ठा की यात्रा है।भाषा विज्ञान और प्रभुत्वशाली प्रवृत्तियां
भारत में आधुनिक भाषा वैज्ञानिक अध्ययन 19वीं सदी में यूरोपीय विद्वानों ने शुरू किया था। हालांकि ये विद्वान पाणिनी और पतंजलि से प्रभावित हुए थे और संस्कृत भाषा की भव्यता और प्राचीनता से मुग्ध होकर भारतीय भाषा विज्ञान के क्षेत्र में काम करने के लिये आए थे, लेकिन भाषा विज्ञान संबंधी बुनियादी दृष्टिकोण यूरोपीय परम्पराओं से ही प्रभावित था। ऐतिहासिक और तुलनात्मक भाषा-विज्ञान में उन्होंने जो मान्यताएं पेश कीं, उनपर मानव-जाति की उत्पत्ति से संबंधित धार्मिक-पौराणिक मान्यताओं के अलावा आर्यों की श्रेष्ठता के नस्लवादी सिद्धांत तथा किसी न किसी रूप में औपनिवेशिक राजनीति का भी असर था। इस ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की एक प्रमुख मान्यता यह थी कि पहले अधिकांश लोग एक ही भाषा बोला करते थे। इन लोगों के इधर-उधर फैल जाने से उस भाषा में स्थानीय भेद उत्पन्न हो गए जिससे धीरे-धीरे नई भाषाएं बन गईं। यह मान्यता जननी भाषा और उसकी पुत्री भाषाओं के रूपक के रूप में प्रचलित हुईं। ऐतिहासिक भाषा विज्ञान के ऐसे दृष्टिकोण के आधार पर भारतीय भाषा विज्ञान में यह सिद्धांत कायम हुआ कि, सभी आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएं – हिन्दी, बंगला, उड़िया, गुजराती, पंजाबी आदि – संस्कृत भाषा की पुत्रियां हैं। इसे जरा व्यवस्थित ढंग से इस तरह कहा जाता है कि पहले वैदिक भाषा से लौकिक संस्कृति भाषा का विकास हुआ। बुद्ध के जीवन काल के आस-पास, ईसा पूर्व 500 वर्ष के करीब से प्राकृत भाषाएं निकलीं। इसके एक हजार साल बाद, सन 500 ई. के करीब प्राकृत के स्थानीय भेदों में अपभ्रंशों का जन्म हुआ। 1000 ई. के बाद इन अपभ्रंशों से ही आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएं निकलीं। दूसरी ओर संस्कृत, ईरानी, लैटिन तथा ग्रीक आदि भाषाओं के कुछ शब्दों में समानता पाई गई तो इससे यह मान लिया गया कि ये चारो भाषाएं भी किसी एक मूल भाषा के स्थानीय भेदों से पैदा हुई हैं। इस मूल भाषा की कल्पना और पुनर्निमाण करते हुए उसे आद्य भारोपीय नाम भी दे दिया गया, हालांकि उसकेे बोलने वाले किसी वास्तविक समाज का पता नहीं मिलता। सिद्धांत यह बना कि आद्य भारोपीय भाषा बोलने वाले जब कुछ लोग यूरोप की तरफ जाकर बस गए तो वहां इससे लैटिन और ग्रीक भाषा बन गई। कुछ लोग एशिया की ओर आए जिससे ईरानी (फारसी) और संस्कृत (वैदिक) भाषा बनी। जैसे भारत में संस्कृत से आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का जन्म हुआ, वैसे ही यूरोप में लैटिन से आधुनिक यूरोपीय भाषाओं का जन्म हुआ। इन मान्यताओं पर आधारित अध्ययन का एक ढांचा भी सामने आया। जिसमें एक ओर पुत्री भाषाओं के बीच शब्दों और व्याकरणिक रूपों की परस्पर तुलना की जाती है और दूसरी ओर जननी भाषा से इनकी उत्पत्ति सिद्ध की जाती है। इन्हीं से जुड़कर ध्वनि-परिवर्तन के कुछ नियम स्थिर करने की प्रवृत्ति भी चली।
भारतीय भाषा विज्ञान की इस प्रभुत्वशाली विचारधारा को रामविलास शर्मा ने चुनौती दी और इसका विरोध किया। बड़े नामों से आतंकित हुए बिना उन्होंने 19वीं सदी के भाषा वैज्ञानिकों और सुनीति कुमार चटर्जी की मान्यताओं का विरोध करते हुए कुछ बुनियादी सवाल पूछे और दृढ़ता से कहा कि भाषाओं का जन्म मनुष्य जाति के जन्म संबंधी धार्मिक सिद्धांतों के अनुसार नहीं होता। पहले एक ही आदि पुरुष और आदि स्त्री भी जिससे बाद में सारी मानव जाति निकली – जैसे यह धार्मिक मान्यता गलत है, उसी तरह पहले एक ही आदि भाषा (या कुछ-एक आदि भाषाएं) थीं जिससे बाद में दूसरी भाषाएं पैदा हुईं – यह मान्यता भी गलत है। मनुष्य शुरू से ही कई समुदायों में विकसित हुआ था। इसी तरह शुरू से ही कई भाषाएं रही होंगी। आद्य भारोपीय भाषा महज एक गप्प है। भाषाओं के पारिवारिक वर्गीकरण का सिद्धांत कहता है कि पहले एक जननी भाषा थी; उसकी पुत्रियां हुईं, इस तरह इन भाषाओं का एक परिवार बना। सच्चाई इसके उलट रही होगी। कई भाषाएं थीं जो आपस में एक-दूसरे के निकट आईं, निकटता के लम्बे दौर में इनका एक परिवार उभरा। यह निकटता इन भाषाओं के बन जाने के बाद नहीं, बल्कि बनने के प्रारम्भिक चरण में रही होगी। भाषाओं के बीच मिलनेवाली समानता जितनी महत्वपूर्ण है, उतनी ही महत्वपूर्ण उनके बीच की भिन्नताएं भी हैं। ग्रीक, लैटिन और संस्कृत के बीच कुछ शब्दों की समानता पर ध्यान दिया गया, पर उनके बीच जो महत्वपूर्ण और बुनियादी भिन्नताएं हैं, उनकी व्याख्या नहीं की गई। एक भाषा से अपने आप कई भाषाएं पैदा नहीं हो सकतीं। एक अपभ्रंश से भिन्न-भिन्न् व्याकरण और ध्वनियों वाली दर्जनों भाषाओं और बोलियों का जन्म होना सही नहीं माना जा सकता।
रामविलासजी ने भाषा विज्ञान के क्षेत्र में जो संघर्ष किया, उसकी उचित सराहना करने के लिये हिन्दी में भाषा वैज्ञानिक लेखन के परिप्रेक्ष्य को नजर में रखना जरूरी है। हिन्दी में भाषा विज्ञान संबंधी अध्ययन की स्थिति बहुत दरिद्रतापूर्ण है। भारतीय भाषा विज्ञान संबंधी समूचा अध्ययन अंग्रेजी में हुआ है और आज भी मुख्य रूप से अंग्रेजी में ही हो रहा है। इसमें भी ज्यादातर विदेशियों के द्वारा हुआ है। इसके मुकाबले हिन्दी में भाषा वैज्ञानिक अध्ययन की कोई लम्बी या महत्वपूर्ण परम्परा नहीं मिलती। इधर केन्द्रीय हिन्दी संस्थानों में जिस भाषा विज्ञान का बोलबाला है, उसमें ज्यादातर अमरीकी भाषाविज्ञान की प्रवृत्तियों और संरचनावाद का असर है। इसके लिये विशेषज्ञता चाहिए, इसलिये यह सीमित दायरे में ही रहता है। हिन्दी में हुए भाषाचिंतन की परम्परा से न इसका कुछ संबंध है, न हिन्दी में इसकी जड़ंे जम पा रही हैं। 19वीं सदी के ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की मान्यताओं को सुनीति कुमार चटर्जी जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के भाषाविद् ने भी स्वीकार किया। आज देश में हिन्दी और दूसरी भाषाओं में ज्यादातर भाषा वैज्ञानिक सुनीति बाबू की मान्यताओं को ही दोहराते या उन्हें पुष्ट करते हैं। आज लगभग सभी विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों में उदयनारायण तिवारी और भोलानाथ तिवारी आदि की जो किताबें पाठ्यक्रम में हैं, वे इन्हीं मान्यताओं पर टिकी हैं। इस तरह 19वीं सदी में प्रतिपादित ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की मान्यताएं भाषा विज्ञान के पाठकों – लेखकों के लिये कितनी स्वाभाविक और स्वतःसिद्ध बन गई हैं, इसका पता 1920 में लिखे गए कामताप्रसाद गुरु के हिन्दी व्याकरण से मिलता है जिसमें इन मान्यताओं को इनके सबसे सरलतम रूप में पेश किया गया है। इनका सबसे परिष्कृत रूप सुनीति बाबू की प्रसिद्ध पुस्तक भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी में मिलता है। 1952 में एम.ए. के विशेष पत्र के रूप में लिखी गई अपनी किताब हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग में प्रस्तुत की गई बहुत सी स्थापनाओं से आज के प्रौढ़ नामवरजी शायद सहमत न होंगे, 19वीं सदी के ऐतिहासिक भाषाविज्ञान और सुनीति बाबू की मान्यताओं पर आधारित इस किताब ने अपभ्रंश से हिन्दी की उत्पत्ति की धारणा को लगभग एक शास्त्र जैसा रूप दे दिया है। भाषा विज्ञान की कक्षाओं में विद्यार्थियों को सवाल पूछना और शंका करना नहीं सिखाया जाता। उन्हें तो शंकाओं से मुक्त कर आश्वसत किया जाता है। आश्वस्त करने का यह काम करता है शास्त्र।
रामविलास शर्मा ने सबसे पहला काम यह किया कि इस शास्त्र को चुनौती दी।प्रेरणा के तीन स्रोत
रामविलासजी के भाषा वैज्ञानिक चिंतन के तीन सहायक एवं प्रेरक स्रोत रहे हैं – रामचन्द्र शुक्ल, किशोरीदास वाजपेयी और अमरीकी भाषा वैज्ञानिक अमेनो।
हिन्दी में सबसे पहले रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा था कि अपभ्रंश अपने समय की बोलचाल की भाषा नहीं थी। अपने इतिहास में उन्होंने लिखा कि अपभ्रंश एक तरह की कृत्रिम साहित्यिक भाषा थी। उसकी कृत्रिमता इस बात में थी कि उसमें बोलचाल से उठ गए पुराने प्राकृतिक शब्द ही नहीं, बल्कि विभक्तियों कारण चिन्हों तथा क्रियाओं के रूप आदि भी अपने समय से कई वर्ष पुराने रखे जाते थे। कवि परम्परा पर आधारित – न कि उस समय की समय की वास्तविक बोलियों पर आधारित – यह अपभ्रंश बहुत दिनों तक – 15वीं सदी तक – साहित्य में चलती रही जबकि उस समय तक विभिन्न जनपदीय भाषाएं साहित्य में अपना सिर उठा चुकी थीं। शुक्लजी ने उदाहरण दिया कि 14वीं सदी के बीच में पुरानी परम्परा के कवि – संभवतः शारङधर – ऐसी अपभ्रंश लिख रहे थे – ऐसी अपभ्रंश लिख रहे थे –
चलिअ वीर हम्मीर पा अमर मेइणि कंपई
दिगमण पाह अंधार धूलि सुररह आच्छाइहि
उसी समय दिल्ली के खुसरो मियां उस समय की बोलचाल की हिन्दी में पहेलियां और मुकरियां लिख रहे थे – एक नार ने अचरज किया। सांप मार पिंजरे में दिया।
एक ही कवि विद्यापति दो तरह की भाषाओं में कविता कर रहे थे – एक ओर अपभ्रंश में दूसरी ओर मैथिली में। भाषा वैज्ञानिक कहते हैं कि अपभ्रंश के अंदर आधुनिक भाषाएं बन रही थीं, पनप रही थीं। शुक्लजी ने विद्यापति का एक दोहा उद्धृत किया कि देशी बोली सबको मीठी लगती है, इसलिये मैं उससे मिश्रित अवहट्ट लिख रहा हूं। (हिन्दी साहित्य का इतिहास, आदिकाल, प्रकरण 1) देशी बोली यानी मैथिली। आधुनिक भाषाएं अपभ्रंश के अन्दर बन नहीं रही थीं, बल्कि वे अपभ्रंश के सामने मौजूद थीं और कवि लोग उन्हें अपभ्रंश में मिलाकर लिख रहे थे।
कभी-कभी संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश की तीन अवस्थाओं का जिक्र न करके सीधे-सीधे कह दिया जाता है कि सभी आधुनिक भारतीय भाषाएं संस्कृत से निकली हैं, संस्कृत की पुत्रियां हैं। इस मत का तर्कपूर्ण खंडन सबसे पहले किशोरीदास वाजपेयी ने किया। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ हिन्दी शब्दानुशासन में उन्होंने तथ्य देकर दिखलाया कि हिन्दी और संस्कृत में निकटता जरूर है, पर हिन्दी संस्कृत से निकली नहीं है क्योंकि दोनों की अपनी-अपनी स्वतंत्र प्रकृति है; दोनों की चाल एकदम अलग-अलग है। हिन्दी की प्रकृति संस्कृत से ही नहीं, अपभ्रंश और प्राकृत भाषाओं से भी अलग है। इन भाषाओं के ‘‘जो भी रूप साहित्य में उपलब्ध हैं, उनसे हिन्दी की पटरी बैठती नहीं।’’ प्राकृत और अपभ्रंश में कर्ता के अनुसार क्रिया का लिंग नहीं बदलता जबकि हिन्दी में बदलता है। वाजपेयीजी के अनुसार जिस समय संस्कृत भाषा चलती थी, उस समय पूर्व जनपद (मेरठ डिवीजन) में आज की खड़ी बोली हिन्दी का मूल रूप प्रचलित रहा होगा। उस समय इसका रूप आज जैसा नहीं रहा होगा। वह संस्कृत के निकट रही होगी, पर संस्कृत से निकली नहीं होगी।
रामविलासजी ने वाजपेयीजी के काम को युगांतरकारी कहा; शताब्दियों से प्रचलित मान्यताओं का खंडन करने के लिये इसे क्रांतिकारी कार्य बतलाया और अपनी किताबों में कई जगह वाजपेयीजी की मान्यताओं का जिक्र करते हुए उनकी सराहना की।
रामविलासजी के तीसरे प्रेरक स्रोत हैं एमेनो। अमरीकी भाषा वैज्ञानिक एम.बी. एमेनो (डनततंतल ठंतदेवद ।उमदमंन) ने हिन्दी-संस्कृत-अपभ्रंश संबंधों पर विचार नहीं किया है। उन्होंने द्रविड़ भाषाओं व्युत्पत्तिपरक कोश बनाने के अलावा इस बात पर विचार किया है कि भाषाओं का अध्ययन कैसे करना चाहिए; भाषाओं के परिवार कैसे बनते हैं और विभिन्न परिवारों की – भाषाएं कैसे एक-दूसरे के विकास को प्रभावित करती हैं। अपने कई महत्वपूर्ण निबंधों के अलावा इस विषय पर उन्होंने एरियल लिंग्विस्टिक नामक किताब लिखी जिसमें उन्होंने एक पूरे क्षेत्र को इकाई मानकर उस क्षेत्र के अन्दर बोली जाने वाली भाषाओं के परस्पर संबंधों का अध्ययन करने का एक नया ढांचा पेश किया। उन्होंने भारतीय भाषाओं का अध्ययन करने के लिये बर्मा से लेकर अफगानिस्तान तक को एक भाषाई क्षेत्र मानने के लिये कहा।
रामविलासजी ने हिन्दी भाषाविज्ञान संबंधी अपनी प्राथमिक धारणाओं को स्थिर करने के लिये तो वाजपेयीजी से सहायता ली, लेकिन भाषाविज्ञान संबंधी उनके आगे के अध्ययन में जो भूमिका एमेनो की है, वह वाजपेयीजी की नहीं। स्वयं वाजपेयीजी वह काम नहीं कर सके जो उन्हीं के कुछ विचार सूत्रों को लेकर एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में विकसित करते हुए रामविलासजी ने किया लेकिन यह देखकर आश्चर्य होता है कि रामविलासजी ने तो वाजपेयीजी की कई जगह सराहना की है, लेकिन एमेनो का नाम लेकर सराहना नहीं की। भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी के तीन खण्डों के लेखन में एमेनो के भाषाई चिंतन और पद्धति का उपयोग किया गया है। बरो और एमेनो ने द्रविड़ भाषाओं के शब्दों के व्युत्पत्तिपरक कोश में जिस पद्धति का उपयोग किया, उसी का उपयोग अपने ग्रंथ में रामविलासजी ने भी किया इतना ही नहीं, उनका विवेचन किस तरह के भाषाई चिंतन से प्रेरित हुआ है, इसका भी संकेत करते हुए उन्होंने पहले खण्ड की भूमिका में लिखा ‘‘पिछले कुछ वर्षों में भारत को एक भाषायिक क्षेत्र मानकर आर्य-द्रविड़ परिवारों के आपसी संबंधों पर विचार किया गया है। ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के लिये यह दृष्टिकोण अपेक्षाकृत नया है। इस दृष्टिकोण के अनुसार एक ही भाषाई क्षेत्र में सैकड़ों साल तक एक साथ रहते-रहते आर्य-द्रविड़ परिवारों ने कुछ ऐसी सामान्य विशेषताओं का विकास किया है जो उनमें मूलतः नहीं थी।’’ इस नए दृष्टिकोण को प्रेरणाप्रद बतलाते हुए उन्होंने आगे लिखा कि भारत को एक भाषाई क्षेत्र मानकर ‘‘ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के विकास के लिये नए तथ्यों का पता लगाया जा सकता है, भाषा परिवारों के विकास और उनके संबंधों के बारे में नई जानकारी प्राप्त की जा सकती है, नई स्थापनाएं प्रस्तुत की जा सकती हैं…।’’ कहने की जरूरत नहीं है कि इस नए प्रेरणाप्रद दृष्टिकोण के पीछे महत्वपूर्ण योगदान एमेनो का है।
एमेनो माक्र्सवादी नहीं थे। रामविलासजी के भाषाई चिन्तन का एक पे्ररक स्रोत माक्र्सवाद भी रहा है। माक्र्सवाद की तरह-तरह की व्याख्याएं हैं, अलग-अलग सम्प्रदाय हैं। पहले रामविलासजी माक्र्सवाद के उस सम्प्रदाय के अनुयायी थी जिसे स्तालिनवाद कहा जाता है। 1949 में – जब रणदिवे लाइन का बोलबाला था – उन्होंने हिन्दी को राजभाषा बनाने का यह कहते हुए विरोध किया था कि ऐसा करना पूंजीपति वर्ग के हितों में होगा – ‘‘बड़े पूंजीपतियों की नीति हिन्दी को अनिवार्य राजभाषा बनाने की है।’’ (भारत की भाषा समस्या, पृष्ठ 74) यह समझ लेनिन-स्तालिन के उद्धरणों और तत्कालीन पार्टी-लाइन के आधार पर बनी थी – भारतीय समाज की वास्तविक स्थिति के आधार पर नहीं। 1953 में उन्होंने संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश-हिन्दी की अवस्थाआंे का खण्डन करने के लिये यह ‘‘माक्र्सवादी’’ तर्क दिया था कि जब हमारा सामाजिक विकास अभी तक इतनी (तीन-चार) ऐतिहासिक मंजिलों से होकर नहीं गुजरा तो फिर – भाषा – जो समाज के ऊपरी ढांचे का अंग है – के विकास में इतनी मंजिलें कहां से आ गईं? मूल प्रश्न को हल करने के संदर्भ में यह तर्क निरर्थक था, महज किताबी था। बाद में रामविलासजी ने अनिवार्य राजभाषा वाली अपनी पुरानी धारणा को त्याग दिया, उसी तरह ऐतिहासिक मंजिलों वाले तर्क को भी नहीं दुहराया। असल में माक्र्सवाद की सैद्धांतिक जानकारी विषय-वस्तु की जानकारी का स्थान नहीं ले सकती। जब तक अपने विषय की ठीक-ठीक और गहरी जानकारी न हो, तब तक माक्र्सवादी तर्कों से कोई काम नहीं बनता। रामविलासजी माक्र्सवाद को उद्धृत करने की बजाय भाषा वैज्ञानिक तथ्यों और प्रक्रियाओं की गहराई में उतरते गए। भारतीय भाषाविज्ञान में कोई माक्र्सवादी सम्प्रदाय नहीं है। लिहाजा बहुत-सा नया काम पहली बार खुद उन्हें करना पड़ा। इस काम में उन्होंने जिनसे पे्ररणा और सहायता पायी, उनमें माक्र्सवादी कोई नहीं था। भाषाओं के विकास के ऐतिहासिक अध्ययन के लिये कुछ हद तक मानव वैज्ञानिक (एन्थ्राॅपाॅलाॅजिकल) दृष्टि का होना भी जरूरी है। माक्र्सवाद का नया छोटा-सा अंश इससे संबंधित है। रामविलासजी ने इस दृष्टि को भी अर्जित किया।हिन्दी अपभ्रंश की संतान नहीं
भाषा और विज्ञान किताब में रामविलासजी ने मानो खुद अपनी भाषा वैज्ञानिक समझ की नींव डाली हो। इससे उन्होंने अपने भाषाई चिन्तन की कुछ बुनियादी मान्यताओं को सुव्यवस्थित कर लिया है। इसीमें संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश से हिन्दी आदि आधुनिक भाषाओं के जन्म की नानी की कहानी की तर्कपूर्ण जांच-पड़ताल करने की कोशिश की गई है। इस विषय पर पहली बात सुनीति कुमार चटर्जी जैसे धुरंधर भाषाविद् के अंतर्विरोधों को स्पष्ट किया गया है। डाॅ.चटर्जी एक ओर संस्कृत के समानांतर विभिन्न प्रादेशिक बोलियों या जन-भाषाओं की चर्चा करते हैं, दूसरी ओर इन बोलियों या जन-भाषाओं के अस्तित्व को भुलाकर एक ही मूल भाषा से अन्य भाषाओं के विकास के सिद्धांत को इस तरह दोहराते हैं, मानो संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश काल में दूसरी प्रादेशिक बोलियां थीं ही नहीं। एक ओर वे आधुनिक आर्य भाषाओं के हर एक रूप को संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश की विकास-यात्रा से उत्पन्न सिद्ध करते हैं, दूसरी ओर यह भी मानते हैं कि आधुनिक भाषाओं में ऐसे कई व्याकरणिक रूप हैं जो संस्कृत में थे ही नहीं; लेकिन वे संस्कृत काल की विभिन्न प्रादेशिक बोलियों में मौजूद थे जिसका पता मध्यकालीन भाषाओं से मिलता है। लेकिन संस्कृत काल की ये प्रादेशिक बोलियां क्या थीं और आधुनिक आर्य भाषाओं से उनका कैसा संबंध मानना चाहिए – इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर वे फिर भी विचार नहीं करते। एक ओर वे कहते हैं कि मध्यकालीन प्राकृत की हर अवस्था के ध्वनि तत्व और रूप तत्व की स्थिति रेखा ‘‘लगभग निश्चयात्मक रूप से स्थिर की जा चुकी है।’’ और यह स्थिरीकरण इतना स्पष्ट है कि ‘‘इस विषय का और अधिक विवेचन अनावश्यक होगा।’’ दूसरी ओर वे यह भी मानते हैं कि आधुनिक भाषाओं और प्राकृतों के आपसी संबंधों को तय करने का प्रश्न ‘‘बड़ा जटिल’’ है और प्राकृतों के बारे में जितनी सामग्री मिलती है, उतनी के आधार पर इस प्रश्न को सुलझाना ‘‘असंभव सा’’ लगता है। सुनीति बाबू की इन असंगतियांे को दिखाकर रामविलासजी यह दृष्टिकोण रखते हैं कि ‘‘हिन्दी जैसी भाषाओं की हर विशेषता को संस्कृत में न ढूंढ़कर उन भाषाओं में मानना चाहिए जो संस्कृत के समानान्तर यहां बोली जाती थीं।’’ (भाषा और समाज, पृष्ठ 72) इस दृष्टिकोण को रखने के लिये उन्हें भारतीय भाषा के विज्ञान में जड़ जमाकर बैठी हुई मान्यता से लड़ना पड़ा है कि आधुनिक आर्य भाषाओं का जन्म संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश, भारतीय आर्य भाषा के विकास की इन तीन अवस्थाओं के बाद ही हुआ। इसके लिये उन्हें इस मान्यता के साथ जुड़ी कई धारणाओं के खिलाफ तर्क करना पड़ा है। जैसे यह कहा जाता है कि पंजाब आदि उद्दीच्य की बोलियों में ध्वनियां अधिक रूढ़बद्ध हंै जबकि पूर्व में ध्वनियों का तेजी से क्षय हुआ। रामविलासजी ने तर्क किया कि पंजाब का पंज मूल ध्वनियों की रक्षा करता है या पंच? पंजाबी के प्रा में मूल ध्वनि सुरक्षित है या भ्रात में? उन्होंने हिन्दी के कल, सच, आज आदि रूपों को अपभ्रंश के कल्ल, सच्च और अज्ज आदि रूपों से – जो पंजाबी में आज भी सुरक्षित हैं निकला हुआ मानने से इनकार किया और इस धारणा का खंडन किया कि युग्म व्यंजनवाले शब्द ज्यादा पुराने हैं। उन्होंने दिखाया कि युग्म व्यंजन वाले शब्द हिन्दी में भी हैं और संस्कृत में भी। इसलिये इस बारे में कोई नियम बनाना गलत है। इसका दिलचस्प उदाहरण दिया फारसी के दो शब्द हैं – चादर और उमेद। पंजाबी में इनका उच्चारण हो गया चद्दर और उम्मीद। हिन्दी में चद्दर-चादर, उम्मीद-उमेद, दोनों रूप चलते हैं। पंजाबी ने वहां भी युग्म व्यंजन उत्पन्न कर लिया जहां वह मूल में नहीं था। इस सिलसिले में रामविलासजी ने और भी कई उदाहरण दिये। चरित शब्द प्राचीन है या चरित्र? युग्म व्यंजन होने के कारण शायद चरित्र ज्यादा प्राचीन समझा जाएगा। लेकिन तुलसीदास ने रामचरित लिखा, रामचरित्र नहीं। इसी तरह भवभूति ने भी उत्तररामचरित लिखा, चरित्र नहीं। संस्कृत में यत्र-तत्र कहते हैं, हिन्दी इतै-उतै। इतै-उतै को यत्र-तत्र के बाद में बना रूप क्यों माना जाए? अवधी में हन (मारना) धातु चलती है। संस्कृत में इससे एक रूप ध्नन्ति बनता है। मूल धातु हन है या ध्न? उन्होंने यह धारणा रखी कि हिन्दी कर संस्कृति कृ से नहीं बना। कर से कृ रूप बनाया गया है। संस्कृत करोति, करोमि, कर्म आदि में मूल धातु कर ही है कृ नहीं। इसी तरह हिन्दी क्रिया देना संस्कृत दा या दद् का भ्रष्ट रूप नहीं है। यह संस्कृत के समानान्तर किसी जनपदीय बोली की क्रिया रही होगी, जो दा से मिलती-जुलती होने पर भी उससे उत्पन्न न होकर उसके समकक्ष व्यवहार में आती होगी। हिन्दी में गाना क्रिया के मूल में गा धातु है। संस्कृत में गाने के लिये गृ धातु है जिससे गृणाति रूप बना लेकिन संस्कृत में गायन रूप भी है। जिसका संबंध गा धातु से मानना चाहिए। ‘‘एक ही अर्थ के लिये गृ और गा दो धातुओं का चलन यह सिद्ध करता है कि वैदिक काल में विभिन्न जन (कबीले) एक ही धातु के भिन्न रूपों को काम में लाते थे।….. हिन्दी क्रिया गाना गृ के बदले गा से संबंधित है।’’ (वही, पृष्ठ 86)
ये सुझाव हैं, व्याख्याएं हैं; प्रामाणिक तथ्य नहीं। ऐतिहासिक विवेचन में जो भी तथ्य उपलब्ध होते हैं, उनकी तर्कसंगत व्याख्या होती है और प्रामाणिकता इसी व्याख्या की देखी जाती है। सुनीति बाबू ने विभिन्न शब्दों के ध्वनि तत्वों में परिवर्तन दिखाते हुए जो विभिन्न रूप दिखाए हैं, वे क्या प्रामाणिक तथ्य हैं? वे भी व्याख्याएं ही हैं संस्कृत काल में विभिन्न कबीले थे। उन सब की अपनी-अपनी बोलियां थीं। ये बोलियां आपस में मिलती-जुलती थीं, पर एक-दूसरे के समकक्ष थीं। कोई किसी से निकली हुई नहीं थी। इन्हीं में से कोई बोली आज की हिन्दी का पूर्व रूप रही होगी। अगर हम आज मौजूद आदिवासी कबीलों के इलाकों का उनकी बोलियों का अध्ययन करें तो रामविलासजी की उपरोक्त व्याख्या गलत नहीं लगेगी। उदाहरण के लिये झारखंड क्षेत्र में रहने वाले आष्ट्रिक भाषा परिवार की बोलियां बोलने वाले कबीलों को लें जिनमें मुंडा, संथाल, हो, खड़िया, कोरबा इत्यादि शामिल हैं। अभी पिछली शताब्दी तक इनकी जो हालत रही है, उसकी तुलना प्राचीन काल के आर्यभाषा भाषी कबीलों से की जा सकती है। झारखंड के उपरोक्त सभी कबीले एक ही भाषा-परिवार की बोलियां बोलते हैं। हर कबीले की अपनी एक अलग बोली है। ये बोलियां आपस में काफी मिलती-जुलती हैं, पर साथ ही इन बोलियों में कई भिन्नताएं भी हैं; अपनी-अपनी विशेषताएं भी हैं। इनके मूल शब्द भंडार में और मूल व्याकरणिक तत्वों में समानता है। पर ऐसे कई शब्द हैं जो एक ही मूल धातु से बने होने पर भी अलग-अलग कबीले की बोली में कुछ अलग रूपों में चलते हैं। अब मान लीजिए कि इनमें से किसी एक ही बोली में – उदाहरण के लिये सिर्फ मुंडारी में – साहित्य रचा जाता है और यह साहित्य काफी समृद्ध भी हो जाता है जबकि दूसरी बोलियों की न लिपि बन पाती है, न उनमें साहित्य रचा जाता है। इस तरह ये बाकी बोलियां सिर्फ बोलचाल के स्तर पर रह जाती हैं और आने वाले समय में उनके अस्तित्व को प्रमाणित करने वाला कोई लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं होता। अब कल्पना कीजिए कि डेढ़-दो सालों के बाद ये बाकी बोलियां धीरे-धीरे अपना रूप विकसित कर लेती हैं और उनमें साहित्य लिखा जाना भी शुरू हो जाता है। तब क्या कहा जाएगा? क्या यह भाषा, जिसमें अब साहित्य लिखना शुरू हुआ है, पहले नहीं थी? कि इनके कई रूप मुंडारी से मिलते-जुलते हैं, इसलिये इनका जन्म मुंडारी से हुआ है?
अपने विवेचन से रामविलासजी ने निष्कर्ष यह निकाला है कि हिन्दी, बंग्ला आदि आधुनिक आर्य भाषाएं अपभ्रंश की संतान नहीं हैं, बल्कि इनकी मूलाधार ‘‘वे भाषाएं हैं, जो संस्कृत के साथ-साथ उत्तर भारत के विभिन्न जनपदों में बोली जाती थीं। ये भाषाएं संस्कृत से कुछ बातों में भिन्न होते हुए भी उसी परिवार की थीं, इसलिये जैसे उनमें और संस्कृत में बहुत समानता थी, वैसे ही उनके आधार पर विकसित आधुनिक भाषाओं में परस्पर तथा संस्कृत से बहुत बड़ी समानता है। इनमें न केवल समानताएं हैं, वरन भिन्नताएं भी हैं।’’ (भाषा और समाज, पृष्ठ 191)
मतलब यह कि हिन्दी आदि आधुनिक भाषाओं का मूल आधार उतना ही प्राचीन है जितना खुद संस्कृत-भाषा। असल में सुनीति बाबू के विवेचन में भी इस निष्कर्ष तक पहुंचने की गुजाइश थी बशर्ते वे इसतक पहुंचने वाले सूत्रों को महत्वपूर्ण मानकर उन्हीं के आधार पर आगे बढ़ते। सुनीति बाबू ने अपने विवेचन में कई जगहों पर ईमानदारी से स्वीकार किया है कि हिन्दी आदि आधुनिक भाषाओं के कई तत्वों को अपभ्रंश प्राकृत या संस्कृत के आधार पर सिद्ध करने में कठिनाई है।
हिन्दी आदि आधुनिक भाषाओं की कई विशेषताएं भारतीय आर्य भाषा की उस मध्यकालीन अवस्था (अपभ्रंश-प्राकृत) में तो नहीं ही मिलती है, जिससे हिन्दी और भाषाओं की उत्पत्ति का दावा किया जाता है, ये विशेषताएं संस्कृत में भी नहीं मिलती हैं। लेकिन मामला और भी जटिल है क्योंकि सुनीति बाबू भारतीय आर्य भाषा की अद्यावस्था (प्राचीनकाल) में सिर्फ संस्कृत और वैदिक भाषा का ही नहीं बल्कि कई प्रादेशिक भाषाओं का भी अस्तित्व मानते हैं और कहते हैं कि बाद की भाषाओं में कई ऐसी विशेषताएं दिखती हैं जो संस्कृत या वैदिक में नहीं थी लेकिन उसी समय की दूसरी प्रादेशिक भाषाओं में थीं। ‘‘जहां तक कारक विभक्तियों का प्रश्न था, कई ऐसे रूप, जो कि वैदिक या लौकिक संस्कृत में नहीं मिलते, परन्तु आ भा आ ’ की विभिन्न प्रादेशिक बोलियों में पाए जाते थे, मा भा आ ’’ में सुरक्षित देखे जाते हैं।’’ (भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी, पृष्ठ 105) इतना ही नहीं अपने समस्त विवेचन के बाद भी सुनीति बाबू को लगा कि ‘‘एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न’’ अब भी बाकी रह गया है जिसका उत्तर नहीं मिला है। ‘‘प्रादेशिक नामों के साथ उल्लिखित प्राकृत बोलियां किस हद तक आधुनिक प्रादेशिक बोलियों की पूर्वज कही जा सकती हैं?’’ (वही, पृष्ठ 109) उन्होंने लिखा कि यह प्रश्न ‘‘बड़ा जटिल’’ और ‘‘बहुतेरी बोलियों के विषय में जो उपलब्ध सामग्री भी इतनी कम और मिश्रित प्रकार की है कि उसके आधार पर उपर्युक्त प्रश्न सुलझाना असंभव-सा प्रतीत होता है।’’ (वही) इसीके बाद वे वैयाकरणों द्वारा पेश किये गए अपभ्रंश-प्राकृत के रूपों को ‘कृत्रिम बोलियां’ अथवा ‘कल्पित किया हुआ रूप’ बतलाते हैं।
ये सारे सूत्र सुनीति बाबू के ही हैं जिनसे उनके समग्र विवेचन में अंतर्विरोध पैदा होते हैं। रामविलासजी ने सुनीति बाबू के अंतर्विरोधों पर ध्यान दिया; इनसे खुलने वाली अध्ययन की नई दिशाओं पर ध्यान दिया और इन सूत्रों से अपने वैकल्पिक अध्ययन के ढांचे के लिये समर्थन पाया। उपलब्ध सामग्री बहुत ‘‘कम और मिश्रित प्रकार की’’ होने के बावजूद उन्होंने उस दिशा में बढ़कर कुछ खोजने की कोशिश की जहां कुछ होने की संभावना मानने पर भी सुनीति बाबू को उधर जाने के लिये बहुत उत्साह नहीं हुआ। रामविलासजी ने ध्यान दिया कि प्राकृत में कुछ ऐसे शब्द मिलते हैं, जो संस्कृत में नहीं हैं, लेकिन आधुनिक भाषाओं में मिल जाते हैं। एक दिलचस्प उदाहरण है हिन्दी क्रिया मांगना यह संस्कृत में नहीं मिलती। लेकिन मृच्छकटिक में रदनिका कहती है – तदो उण तं मग्गन्तस्स यह संस्कृत में नहीं मिलती! टीकाकार ने मग्गन्तस्स का संस्कृत रूपान्तर दिया है। याचमानस्य। रामविलासजी ने सही लिखा है कि याचमानस्य से मग्गन्तस्स बनने की संभावना नहीं है। हिन्दी क्रिया को प्राकृत ध्वनि और व्याकरण के नियमों के अनुकूल बनाकर मग्गन्तस्स रूप में प्रस्तुत किया गया है। मुख्य बात यह है कि मग्ग धातु संस्कृत की नहीं है, प्राकृत में प्रयुक्त हुई और हिन्दी की एक प्रचलित क्रिया है। (भाषा और समाज, पृष्ठ 205) इससे सुनीति बाबू की यह धारणा पुष्ट होती है कि अपभ्रंश-प्राकृत के बहुत-से उपलब्ध रूप कल्पित किये हुए हैं; साथ ही अपभ्रंश के जन्म सेे भी पहले हिन्दी क्रिया के अस्तित्व का पता चलता है। एक दूसरा उदाहरण ब्रजी की ‘दीन’ क्रिया का है। जिसे रदनिका दीण्णा बोलती है। इसका संस्कृत रूप दत्ता दिया गया है। द का दी कैसे होगा? त्ता की जगह ण्णा ने कैसे ले ली? ‘‘चारुदत्तः तो चारुदत्तो ही बना; अप्रमत्ताः से अप्पमत्ता बना; तब दत्ता से दीण्णा कैसे हो जाएगा?’’ (वही) जाहिर है कि दीण्णा ब्रजी क्रिया दीन का ही प्राकृत रूप है। इस तरह मृच्छकटिक में आया तुम्हाणं रूप हिन्दी तुम्हारा तथा जहिं रूप हिन्दी का सगोतिया है।
रामविलासजी ने किन्हीं नए तथ्यों की खोज उतनी नहीं की है जितना पहले से उपलब्ध तथ्यों की नई व्याख्याएं की हैं, नए तर्क दिये हैं। इन नई व्याख्याओं और तर्कों से कुछ नए निष्कर्ष निकलते हैं। अध्ययन का एक दूसरा ढांचा उभरता है। जैसे, संस्कृत में मिलने वाले विभिन्न पयार्यवाची शब्द इस बात के प्रमाण हैं कि संस्कृत में विभिन्न जनपदीय बोलियां (या भाषाओं) के शब्द आकार मिले थे। यही बात उसके कई व्याकरणिक तत्वों के बारे में भी कही जा सकती है। संस्कृत में वैयाकरणों ने जिन प्रयोगों को अपवाद या वैकल्पिक प्रयोग बतलाया है, वे ऐसे ही जनपदीय भाषाओं के व्याकरणिक रूप रहे होंगे जिनका प्रभाव संस्कृत पर वैसा ही पड़ा होगा जैसे आज हिन्दी पर अंग्रेजी वाक्य रचना का प्रभाव पड़ता है या कभी-कभी विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं की वाक्य रचना का प्रभाव भारतीय अंग्रेजी पर पड़ता है। इसी तरह हिन्दी, बंगला, पंजाबी, मराठी इत्यादि भाषाओं के कई शब्द और व्याकरणिक रूप आपस में मिलते हैं पर ये शब्द और व्याकरणिक रूप संस्कृत से नहीं मिलते। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि संस्कृत और आधुनिक आर्य भाषाओं का समानताओं का अध्ययन करना पर्याप्त नहीं है। बल्कि संस्कृत से उनकी भिन्नता और इन आधुनिक भाषाओं की संस्कृतेतर समानताओं का अध्ययन भी आवश्यक है। इन तर्कों और विचारों से भाषा वैज्ञानिक अध्ययन का परिपे्रक्ष्य बदलता है; अध्ययन के प्रश्न बदलते हैं। साथ ही इस नए दृष्टिकोण से भाषा वैज्ञानिक अध्ययन हमारे सामाजिक इतिहास के ज्यादा निकट आ जाता है, उससे मेल रखकर चलता है। 19वीं सदी का ऐतिहासिक भाषाविज्ञान सिर्फ ऊपर-ऊपर से ही ऐतिहासिक था, उसकी अंतर्वस्तु – जो उसके अध्ययन के ढांचे को निर्धारित करती थी – अनैतिहासिक थी। मिसाल के लिये प्राचीन या मध्य काल में पृथक प्रादेशिक भाषाओं के अस्तित्व को न मानकर व्याकरण की दृष्टि से एक ही भाषा के सर्वत्र चलन की मान्यता वास्तविक सामाजिक-ऐतिहासिक विकास की धारणा से मेल नहीं खाती।
अपभ्रंश से हिन्दी आदि आधुनिक आर्य भाषाओं के जन्म की धारणा का खंडन करते हुए रामविलासजी ने कोई नया भाषाशास्त्र रच दिया हो, ऐसी बात नहीं। जिन भाषा विज्ञानियों ने हिन्दी आदि आधुनिक आर्य भाषाओं को अपभ्रंश से उत्पन्न कहा है, उन्हीं के विवेचन में कई असंगतियां हैं। इन असंगतियों से मूल प्रश्न के अध्ययन के लिये एक दूसरा दृष्टिकोण भी उभरता है। रामविलासजी ने भाषाई अध्ययन के लिये इसी दूसरे दृष्टिकोण का समर्थन किया है।अध्ययन का दूसरा दृष्टिकोण
प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी किताब में एमेनो से प्रेरणा लेते हुए रामविलासजी ने बर्मा से लेकर अफगानिस्तान तक के इलाके को एक भाषाई क्षेत्र मानकर अध्ययन किया है। यह भाषाई अध्ययन का दूसरा दृष्टिकोण है जो पारिवारिक वर्गीकरण के आधार पर भाषाओं के अध्ययन के विरोध में है। एमेनो ने कहा था कि एक ही क्षेत्र में प्रचलित भाषाओं के परिवार एक-दूसरे को प्रभावित करते और उनका रूप बदलते रहते हैं इसलिये भाषाओं का अध्ययन सिर्फ उन्हीं के परिवारों के परिप्रेक्ष्य में नहीं करना चाहिए। एमेनो की इस मान्यता के साथ अपनी ऐतिहासिक-भौतिकवादी दृष्टि को मिलाते हुए रामविलासजी ने इसमें इतना और जोड़ दिया कि अपने विकास के क्रम में भी, विकास की अत्यंत प्रारंभिक अवस्थाओं में भी दूसरी भाषाओं से प्रभावित होतीं और अपना रूप बदलती रहती हैं। यानी जैसे इंसान की शुद्ध नस्ल जैसी कोई चीज नहीं होती, उसी तरह भाषाओं का शुद्ध परिवार जैसी भी कोई चीज नहीं होती। जिसे हम आज एक भाषा परिवार कहते हैं, वह स्वयं अपने निर्माण के क्रम में कई भाषा-परिवारों के तत्वों को आत्मसात करके विकसित हुआ है। यही कारण है कि एक ही परिवार के अन्दर की भाषाओं में भी परस्पर सुसंगत समानताएं नहीं मिलती और कई बार किसी बाहरी-भाषा से उसी कई विशेषताओं की संगति अधिक बैठती है।
इस नए दृष्टिकोण की एक विशेषता यह है कि इसमें भाषाओं को उनके बोलने वाले गण-समाजों के साथ जोड़कर देखा गया है। एक जैसे सामाजिक संगठन वाले, आपस में मिलती-जुलती बोलियां बोलने वाले विभिन्न गण एक ही स्थान पर ऐतिहासिक काल से रहते हए आपस में घुलमिलकर जब एक जनपदीय समाज का निर्माण करते हैं तो उनकी बोलियां भी आपस में घुलमिलकर एक जनपदीय भाषा का विकास करती हैं, जैसे ब्रजी, अवधी या बांगरू इत्यादि। विभिन्न गणों की बोलियां आपस में मिलती-जुलती हैं तो साथ ही उनकी कुछ अपनी-अपनी विशेषताएं भी होती हैं। एक ही जनपदीय भाषा के अन्दर जो स्थानीय रूप मिलते हैं, उन्हें उन गण-बोलियों की बच गई विशेषताएं ही समझना चाहिए। यह ध्यान में रखना चाहिए कि प्राचीन काल में गणों का निवास स्थान उनके राज्य (टेरीटरी) जैसा भी होता था यहां तक एक गण की बोली के अंदर भी कुछ स्थानीय रूप मिल जाते थे जैसे आज मुंडा गण की बोली मुंडारी के अंदर कम से कम चार स्पष्ट स्थानीय रूप मिलते हैं। इसका कारण न सिर्फ आस-पास के क्षेत्र में मौजूद दूसरे गणों की बोलियों का प्रभाव है, बल्कि लम्बे ऐतिहासिक काल में ग्रहण किये गए प्रभाव भी होंगे। मनुष्य की भाषा का इतिहास मनुष्य के इतिहास जितना ही पुराना है। इसलिये यह मानना चाहिए कि आज से कम से कम एक लाख वर्ष पहले से ही विभिन्न मानव झुण्ड/समुदाय या गण एक दूसरे के संपर्क में आते रहे होंगे और उस समय से ही विभिन्न मानव झुंण्डों की बोलियों में आपसी संपर्क रहा होगा। भाषाओं के गठन के बहुत प्रारंभिक चरण में ही, जब भाषा के मूल तत्व अभी रूप ग्रहण कर रहे थे, विभिन्न भाषाआंे के बीच आदान-प्रदान हुआ होगा। इस तरह किसी एक भाषा के विकास में कई भाषाओं का योगदान रहा होगा। उनमें से कई भाषाएं अपनी कुछ या बहुत सारी विशेषताओं को किसी दूसरी भाषा में मिलाकर लुप्त हो गई होंगी। भाषाई क्षेत्र का जैसा नक्शा आज है, वैसा उस समय नहीं रहा होगा।
ये सब बातें सिर्फ सैद्धांतिक हैं और भाषाविज्ञान से बाहर रहकर भी कही जा सकती हैं। सवाल तो इनके प्रयोग का है। भाषा वैज्ञानिक अध्ययन में इनका प्रयोग कैसे किया जाए? इनके प्रयोग से रामविलासजी ने क्या ढूंढ़ निकाला? जो ढूंढ़ा गया, वह कहां तक प्रामाणिक है?विभिन्न भाषा केन्द्रों की कल्पना
प्राचीन भारतीय भाषाओं और उनके साथ आधुनिक भाषाओं के संबंध की छानबीन करने के सिलसिले में रामविलासजी ने भारत के भाषाई क्षेत्र में विभिन्न भाषा क्षेत्रों की कल्पना की है। विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित कुछ विशेष ध्वनियों की चर्चा तो पहले भी होती रही है, लेकिन विभिन्न ध्वनि केन्द्रों की अवधारणा या परिकल्पना का सुसंगत ढंग से उपयोग करने वाले पहले भाषा विज्ञानी रामविलासजी हैं। ध्वनि केन्द्रों की तरह ही उन्होंने वाक्य विन्यास और शब्दों के भी विभिन्न स्वतंत्र केन्द्रों की कल्पना की है। हिन्दी आदि आधुनिक भाषाओं का विकास किसी आदि-भारतीय आर्य भाषा से नहीं हुआ। इनका विकास भिन्न-भिन्न स्रोतों से हुआ है। हिन्दी के ध्वनि तंत्र, रूप तंत्र और शब्द तंत्र का विकास अलग-अलग कई स्रोतों से हुआ है।
आधुनिक आर्य भाषाओं में जो ध्वनियां मिलती हैं, वे सब की सब संस्कृत से नहीं आई हैं और न वे सिर्फ आर्य भाषा परिवार की हैं। इन ध्वनियों के विभिन्न स्रोत या केन्द्र थे जिनमें से किसी एक जगह ह्रस्व अ था तो दूसरी जगह इसकी अभाव था – केवल वर्तुल आॅ अथवा ओ था। उदाहरण के लिये मागध भाषा समुदाय की उत्तराधिकारी आधुनिक भाषाओं के लिये ह्रस्व अ के स्थान पर ह्रस्व आॅ, औ का चलन अब भी है। इसी तरह ककहरा पढ़ते हुए कौरवी क्षेत्र (मेरठ डिवीजन) के लोग कै, खै, गै कहते हैं; मागधी क्षेत्र के लोग कौ, खौ, गौ और कोसली क्षेत्र के लोग का, खा, गा। यह भेद प्राचीन आर्य गण भाषा केन्द्रों के स्वरभेद का सूचक है। गुजराती का बेन, बंगला का बोन और अवधी का बहिनी इसी कोटि का भेद है। इसके साथ ही स्वरों के स्वच्छंद संचरण की धारणा है। स्वच्छंद संचरण का आशय यह है कि संस्कृति करति और तिरती का अर्थ एक है यद्यपि प्रथम वर्ण का स्वर दोनों रूपों में भिन्न है। जीर्ण और जूर्ण, गान और गीत, स्फाति, स्फीति और स्फुट, स्थान और स्थिति आदि का अर्थ एक ही है, लेकिन मूल वर्ण का स्वर भिन्न हैं।
कारण यह है कि अ, इ, उ अथवा अ, अॅ, आॅ स्वरों का विकास अलग-अलग केन्द्रों में हुआ। इन केन्द्रों में परस्पर संपर्क के फलस्वरूप जब भिन्न स्वर किंतु समान अर्थ वाले शब्द एक ही भाषा-व्यवस्था में सिमट आए, तब ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई मानो स्वरों का स्वच्छंद संचरण हो रहा हो; मानो शब्द में किसी भी स्वर का प्रयोग कर दो, अर्थ में भेद न होगा।
स्वरों की तरह व्यंजन ध्वनियों के भी स्वतंत्र केन्द्र थे। इन केन्द्रों में घ-ध-भ और क-त-प के केन्द्र बहुत महत्वपूर्ण हैं। यानी एक ही अर्थ वाले शब्द में अगर एक केन्द्र में घ ध्वनि का प्रयोग होता था (जैसे बांगरू के इङधे) तो दूसरे केन्द्र में ध का प्रयोग (कौरवी इधर) होता था तो तीसरे केन्द्र में भ का प्रयोग होता था। इसी तरह एक में स्कम्भ (खम्भा) तो दूसरे में स्तम्भ का प्रयोग होता था। रामविलासजी ने इन ध्वनियों के केन्द्रों का अनुमान लगाया है; यह भी कहा कि इस अनुमान को सिद्ध करने के लिये अभी और छानबीन करने की जरूरत है। इनके केन्द्र कहां थे, अनेक थे या एक – इन सबका दावा नहीं किया जा सकता। लेकिन ये ध्वनियां किसी समय स्वच्छंद संचरण की अवस्था में थीं, यह बात निर्विवाद है। संस्कृत स्धंति-संभति (घेरता है), धसति-भसति (खाता है), स्कंध-स्तंभ (तना), प्राकृत धङ (भौरा) और संस्कृत भृंग, प्राकृत उब्भ – संस्कृत उध्र्व में इन ध्वनियों के स्वच्छंद संचरण की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। इससे इन भाषाओं की उस प्राचीन स्थिति का बोध होता है, जब ये ध्वनियां सिमटकर एक ही भाषा व्यवस्था में अभी अर्थ-विच्छेदक नहीं बनी थीं।
संस्कृत में कुछ ऐसी ध्वनियां मिलती हैं जो हिन्दी क्षेत्र में कभी नहीं रहीं। ये सभी मूर्धन्य ध्वनियां है – ष, श और ऋ न सिर्फ हिन्दी बल्कि किसी भी आधुनिक आर्य भाषा के बोलचाल के रूप में इनका प्रयोेग नहीं होता। इस तथ्य की व्याख्या करते हुए रामविलासजी ने लिखा है कि वास्तव में संस्कृत के मूल रूप में ये ध्वनियां थी ही नहीं। ये ध्वनियां उस क्षेत्र में तो कभी नहीं रहीं जहां आज हिन्दी क्षेत्र है। संस्कृति मूलतः मध्यदेश की भाषा थी और वह मूर्धन्य ध्वनियों का व्यवहार नहीं करती थी। संस्कृत के विकास की एक अवस्था में ये ध्वनियां किसी दूसरे भाषा समुदाय के प्रभाव से आईं। मुमकिन है कि वह भाषा समुदाय भी आर्य भाषा परिवार से संबंधित रहा हो।
इसी वर्ग की एक और नासिक्य ध्वनि है – ण्। उत्तर-पश्चिमी आर्य भाषाओं में इसका काफी चलन है लेकिन ब्रज प्रदेश से लेकर आसाम तक (उड़ीसा को छोड़कर) कहीं भी इस ध्वनि का प्रयोग नहीं होता। वैदिक भाषा में इस ध्वनि का काफी प्रयोग मिलता है लेकिन उसकी धातुओं में यह ध्वनि बहुत कम आती है। इससे यह साबित होता है कि वैदिक भाषा के शब्द मूलों की रचना में ण् की भूमिका नगण्य है। इस भाषा की एक अवस्था में इस ध्वनि का व्यवहार होता ही न था, अन्य अवस्था में इसका काफी व्यवहार होने लगा। रामविलासजी ने कुछ उदाहरण देकर दिखलाना चाहा है कि जब वैदिक भाषा का निर्माण हो रहा था उस समय एक आर्य गणभाषा ऐसी जरूर थी जिसमें मूर्धन्य ध्वनियों की प्रबलता थी। ऐसी ध्वनियों के प्रसंग में सामान्यतः लोग ट वर्गीय ध्वनियों को याद करते हैं लेकिन यहां जिस गणभाषा के अस्तित्व की कल्पना की गई है उसमें ण् को छोड़कर अन्य ट वर्गीय ध्वनियां बहुत कम थीं। इस भाषा में क जैसी ध्वनि का मूर्धन्य उच्चारण होता था (अक्ष, दक्ष, पक्ष) और आदि स्थानीय न् के मूर्धन्य उच्चारण (ऩिसिद्ध त्र निषिद्ध) जैसी विशेषता थी जिसका प्रभाव वैदिक और संस्कृत भाषा पर पड़ा। मूर्धन्य ध्वनियों के विभिन्न केन्द्रों की तरह तालव्य ध्वनियों के भी विभिन्न केन्द्र थे। दन्त्य स का केन्द्र अलग था, तालव्य श का अलग। संस्कृत भाषा में पहले तालव्य श का अभाव था। संस्कृत में कई जगह दन्त्य स का तालव्यीकरण हुआ है। वसु से वसिष्ठ शब्द बनता है जो बाद में वशिष्ठ हो गया। संस्कृत में पासयति और पाशयति (बांधना) दोनों रूप मिलते हैं जिनमें पहला रूप ज्यादा प्राचीन है। पशु का मध्यदेशीय मूल रूप पसु था। तालव्य श का केन्द्र पूर्व में था जहां मागधी भाषाएं थीं। वे मध्यदेश के दन्त्य स को तालव्य श में बदल देती थीं।
जैसे ध्वनियों के अलग-अलग केन्द्र थे, उसी तरह वाक्य रचना पद्धति के भी अलग-अलग केन्द्र थे। वाक्य रचना की एक प्राचीन पद्धति वह थी जिसमें कर्ता से पहले क्रिया आती थी या कर्ता को अलग से सूचित नहीं किया जाता था बल्कि क्रिया के साथ वह सर्वनाम के रूप में जुड़ा रहता था। संस्कृत के गच्छामि या पठामि पद में क्रिया और सर्वनाम दोनों गुंथे हुए हैं। संस्कृत के अलावा, रामविलासजी के मत से, अवधी में भी यह विशेषता दिखती है। रामविलासजी ने इस ओर ठीक ही ध्यान दिया है। वाक्य रचना की यह विशेषता मुंडा, हो, संथाली आदि कोल भाषाओं में भी मिलती है। संस्कृत के मुकाबले कोल भाषाओं में वाक्य रचना की यही एकमात्र पद्धति है और ज्यादा सुदृढ़ भाव से है। आर्य भाषाओं में वाक्य रचना की एक दूसरी पद्धति भी है जिसमें पहले कर्ता फिर क्रिया आती है और सर्वनाम क्रिया से जुड़ ही नहीं सकता। आधुनिक आर्य भाषाओं में यह प्रवृत्ति दिखाई देती हैं। खड़ी बोली हिन्दी में वाक्य रचना की दूसरी में तिग्ङत रूप की। दूसरे व्याकरणिक रूपों के भी अलग-अलग केन्द्र के। इन्हीं की तरह शब्दों के भी अलग-अलग केन्द्र मिलते हैं। इन भाषा केन्द्रों में आर्येतर भाषा केन्द्र भी शामिल हैं। भारतीय भाषाओं का विकास इन सभी भाषा केन्द्रों के परस्पर सम्पर्क और आदान-प्रदान से हुआ न कि किसी मूल या जननी आर्य भाषा से।
इस विवेचन के समर्थन में अपनी ओर से मैं इतना और जोड़ना चाहूंगा कि वाक्य-रचना या ध्वनियों के विभिन्न केन्द्रों की यह धारणा आदिवासी कबीलों की भाषाई स्थिति को देखते हुए निरर्थक नहीं, सार्थक लगती है। प्राचीन काल की बहुत-सी चीजों को ठीक-ठीक समझने के लिये आज बचे हुए आदिवासी कबीलों के समाज का अध्ययन बहुत उपयोगी है और डी.डी.कोसाम्बी ने इसका सहारा लिया था। भाषाई केन्द्र विभिन्न स्थानों से नहीं बल्कि विभिन्न गणों से संबंधित थे। उदाहरण के लिये आष्ट्रिक भाषा परिवार के अंतर्गत मोन ख्मेर और मुंडा समुदाय की बोलियां बोलने वाले भारतीय और दक्षिण एशियाई – विएतनामी – कबीलों में क ध्वनि बहुत प्रबल दिखाई देती है। इन समुदायों के अंतर्गत विएतनाम और भारत, दोनों जगह, कुछ कबीलों में कई शब्द क से शुरू होते हैं। भारत के मध्यप्रदेश में रहनेवाले कोरकू कबीले में ऐसे सभी शब्दों में मूल क ध्वनि सुरक्षित है जबकि इसी समुदाय के मुंडा और संथाल – दो सबसे बड़े और अपेक्षाकृत विकसित – कबीलों में इस ‘क’ ध्वनि की जगह सर्वत्र ह ध्वनि मिलती है। विएतनाम के मोड़ कबीले की भाषा में मछली के लिये का शब्द है। यही शब्द परनिष्ठित विएतनामी में भी है। कोरकू भाषा में भी मछली के लिये का शब्द ही है जिसका बहुवचन काकू होगा। लेकिन मुंडारी भाषा में यह शब्द हाकू (कू बहुवचन का चिन्ह है)। इसी तरह कोरकू का कोरा (रास्ता) मुंडारी में होरा है। कोरकू का काब (काटना) मुंडारी में हाब; कोरकू का कोर (मनुष्य) मुंडारी में होर, कोरकू का कासू (दर्द) मुंडारी में हासू और कोरकू का कोन (बच्चा) मुंडारी में होन है। जाहिर है कि इस समुदाय की गण-भाषाओं की मूल क ध्वनि मुंडा-संथाल कबीले में सुरक्षित नहीं रह पाई क्योंकि बहुत प्राचीन काल में ही इसको एक पराए भाषापरिवार का ध्वनितंत्र प्रभावित करता है जिसमें यह क ध्वनि महाप्राण ह में बदल गई। कहने की जरूरत नहीं कि यह पराया परिवार आर्य भाषाओं का थ। स्वयं मुंडा और मोन ख्मेर समुदाय के अंदर भी कुछ ध्वनि केन्द्र मिलते हैं जिसके फलस्वरूप विभिन्न कबीलों में प्रचलित एक ही शब्द में किसी एक ध्वनि की जगह नियमित रूप से दूसरी ध्वनि दिखाई देती है। (विस्तार के लिये देखिए; दिनेश्वर प्रसाद एवं श्रवण कुमार गोस्वामी द्वारा संपादित डाॅ.कामिल बुल्के स्मृति ग्रंथ में मेरा निबंध – कुछ खड़िया शब्दों की निरुक्ति)
भाषा वैज्ञानिक अध्ययन के एक दूसरे दृष्टिकोण और दूसरे ढांचे की जरूरत को सिद्ध करने के लिये रामविलासजी ने तथ्य और तर्क दोनों पेश किये हैं। कहीं पर तथ्य अधिक प्रबल हैं, कहीं पर तर्क। ज्यादातर जगहों पर तर्क ही प्रबल हैं। जहां दोनों का समन्वय हुआ है, वहां विवेचन बहुत सुंदर हो गया है। जैसे क ध्वनि के मूर्धन्यीकरण और हस्त, दस्त, दक्ष, शब्दों के विवेचन में। कहीं-कहीं तर्क के नाम पर कोरे अनुमान या अटकलों का सहारा लिया गया है। ऐसा ज्यादातर शब्दतंत्र के विवेचन में हुआ है। उन्होंने जो व्याख्याएं दी हैं, कई जगह वे संतोषप्रद नहीं लगतीं। कई प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं। उदाहरण के लिये वे कहते हैं कि हिन्दी क्षेत्र (मध्यदेश) में मूर्धन्य ध्वनियां नहीं मिलतीं क्योंकि ये संस्कृत में भी नहीं थीं। संस्कृत में बाद में जाकर ये ध्वनियां किसी और स्रोत से आई थीं। सवाल है कि जब ये एकबार मध्यदेश में आ गई थीं, तो फिर वहां से गायब क्यों हो गईं? ण् ध्वनि पंजाब-हरियाणा के बाद पूरे हिन्दी क्षेत्र को पार करके उड़ीसा में कैसे प्रकट हो जाती है जबकि उड़िया का उसी मागध समुदाय से संबंध रहा है जिससे बंगला का संबंध रहा?
सुनीति बाबू ने एक सच्चे भाषाविज्ञानी की तरह इस सच्चाई को स्वीकार किया किया था कि संस्कृतकाल की प्रादेशिक बोलियों से हिन्दी तथा आधुनिक भाषाओं का संबंध दिखाने लायक भाषाई सामग्री नहीं मिलती। सुनीति बाबू मानते थे कि हिन्दी तथा अन्य आधुनिक भाषाओं के सभी व्याकरणिक रूपों को अपभ्रंश से सिद्ध नहीं किया जा सकता और न ही इन सबको संस्कृत में दिखाया जा सकता है। इसके विपरीत, उन्होंने यह संभावना प्रकट की थी कि आधुनिक आर्यभाषाओं के कुछ व्याकरणिक रूपों का संबंध संस्कृतकाल की प्रादेशिक बोलियों से रहा होगा। फिर भी, केवल संभावना के आधार पर उन्होंने कोई नूतन सिद्धांत स्थापित नहीं किया क्योंकि वे मानते थे कि यह समस्या जटिल है। इस जटिलता का एक मुख्य कारण यह है कि समस्या को सुलझाने लायक प्राचीन भाषाई सामग्री उपलब्ध नहीं होती अथवा ‘‘बहुतेरी बोलियों के विषय में तो उपलब्ध सामग्री भी इतनी कम और मिश्रित प्रकार की है कि उसके आधार पर उपर्युक्त प्रश्न का सुलझना असंभव-सा प्रतीत होता है।’’ सुनीति बाबू द्वारा बताई गई इस सीमा पर पर्याप्त ध्यान देने की जरूरत है। रामविलासजी ने प्रामाणिक भाषाई सामग्री के अभाव की स्थिति पर कटाक्ष करते हुए लिखा है कि जब प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध ही नहीं है तो फिर संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश-हिन्दी वाला सिद्धांत कैसे खड़ा कर लिया गया? लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। अगर प्रामाणिक सामग्री नहीं मिलती है तो किसी दूसरे सिद्धांत को स्थापित करना भी उतना ही कठिन होगा। अगर हमें प्राकृतों के समय की अथवा संस्कृतकाल और उससे भी पीछे की प्रादेशिक बोलियों की कोई प्रामाणिक सामग्री इतनी मात्रा में उपलब्ध नहीं होती कि जिससे आधुनिक आर्य भाषाओं के संबंध को देखा और पहचाना जा सके – तो ऐसी स्थिति में कोई नया दृष्टिकोण भी प्रामाणिक कैसे बनेगा? रामविलासजी प्राचीन भाषाई सामग्री के अभाव की कोई चिंता नहीं करते। वे मृच्छकटिकम् या इसी तरह की कुछ दूसरी प्राचीन सामग्री से दो-चार शब्दों को जरूर उठाते हैं, पर उससे कितनी बात बनेगी? कुल मिलाकर उनके तर्क ही प्रबल हैं, भाषाई तथ्य दुर्बल। मूल सामग्री के अभाव को वे तर्कों, अनुमानों और कल्पना से पूरा करते हैं। अन्य व्याकरणिक रूपों, शब्दों और ध्वनि केन्द्रों वाले प्रसंगों में भी उन्होंने भाषाई तथ्यों के अभाव के कारण, इसी तरह अक्सर तथ्यों की जगह अपने तार्किक अनुमानों को पेश किया है।
मुमकिन है कि विशेषज्ञों द्वारा सावधानी से जांच पड़ताल करने से उनके विवेचन के बारे में कई सवाल उठ खड़े हों। भाषा-विज्ञान संबंधी रामविलासजी के लेखन की चर्चा भाषा विज्ञानियों के बीच बहुत कम होती है। दूसरे विज्ञानों की तरह भाषा विज्ञान पर भी सिर्फ अंग्रेजी माध्यम से लिखने वालों को ही मान्यता मिली हुई है। इनमें से ज्यादातर ने रामविलासजी की कोई किताब न पढ़ी होगी। वे तब पढ़ेंगे जब इन किताबों को अंग्रेजी में पेश किया जाएगा। भारतीय विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों में भाषा विज्ञान संबंधी साधारण से साधारण पुस्तकें भी चल जाती हैं, पर रामविलास शर्मा की किताबें नहीं चलतीं। सिर्फ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ही देश का शायद अकेला ऐसा विश्वविद्यालय है जिसमें भारतीय भाषा केन्द्र में रामविलास शर्मा की भाषा विज्ञान संबंधी किताबें न सिर्फ पाठ्यक्रम में हैं बल्कि उनकी मान्यताओं को गंभीरता से लिया जाता है।
रामविलासजी के भाषा वैज्ञानिक लेखन में गड़बड़ियां रह सकती हैं। उन्होंने नए सवालों को उठाते हुए उनके जो जवाब दिये हैं, वे गलत हो सकते हैं। लेकिन इससे उनका महत्व कम न होगा। उन्होंने जो सवाल उठाए, वे बहुत महत्वपूर्ण और सार्थक सवाल हैं। उनका सही जवाब दिये बिना भारतीय भाषा विज्ञान आगे न बढ़ सकेगा। उन्होंने भाषाई अध्ययन के जिस दृष्टिकोण को पेश किया, जिन पद्धतियों और ढांचे को सामने रखा, उसमें बहुत संभावनाएं छुपी हुई हैं। रामविलासजी का असली महत्व तो इस बात में है कि भारतीय भाषा विज्ञान की प्रभुत्वशाली प्रवृत्तियों को चुनौती देकर, लम्बे समय तक उनके खिलाफ संघर्ष करके, उन्होंने भाषाई अध्ययन की एक दूसरी परम्परा की नींव डालने की कोशिश की है। अभी यह नींव ही है; यह कितनी मजबूत या कमजोर है; इसकी परम्परा आगे चल निकलेगी या नहीं, यह देखना बाकी है।
हिन्दी भाषा विज्ञान की दूसरी परम्परा – वीर भारत तलवार
यह लेख मूल रूप से ‘पहल’ 42 (संपादक- ज्ञानरंजन) जून-जुलाई अगस्त 1991, में पृष्ठ 55-71 पर प्रकाशित हुआ था। मौजूदा प्रस्तुति में लेखक ने कुछ पंक्तियां जोड़ दी हैं।
देखें डॉ. रामविलास शर्मा का पहला लेख निराला जी की कविता